अपेक्षाओं का अतिरिक्त दबाव हम सहन करने में नाकाम हो रहे हैं, यह बात किसी आम आदमी की हो तो समझ में भी आती है मगर जब दूसरों के लिए माइलस्टोन बने अपने क्षेत्र के ''कामयाब दिग्गज'' नाकामी की इबारत लिखते हैं तो सोचना पड़ता है कि आखिर ये कामयाबी किस कीमत पर पा रहे हैं हम?
मुझे आज अपनी बात कहने के लिए राणा सहरी की लिखी गज़ल जिसे मशहूर ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह ने गाया है, के कुछ अशआर याद आ रहे हैं कि-
कोई दोस्त है न रकीब है, तेरा शहर कितना अजीब है।
वो जो इश्क था वो जुनून था, यह जो हिज्र है, ये नसीब है।
यहाँ किसका चेहरा पढ़ा करूँ, यहाँ कौन इतना करीब है।
मैं किसे कहूँ, मेरे साथ चल, यहाँ सब के सर पे सलीब है।
सलीब को अब तक हम उस क्रॉस के रूप में देखते आए है जिसे ईसा मसीह को ढोना पड़ा था। यानि तनाव की सलीब ढोने वाले हम, अपनी मौत को अपने ही कांधों पर ढोने का अहसास और आमंत्रण दोनों ही देते दिखाई देते हैं। सलीब लेटिन भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘गम का रास्ता,’ ‘दुःख का पथ,’ ‘पीड़ा का मार्ग,’ या बस ‘दर्दनाक राह’। जीवन भी कुछ ऐसा ही है, कुछ लोगों के लिए।” सलीब या क्रॉस, ज़िम्मेदारियों के लिए एक रूपक (metaphor) की तरह भी है, दूसरे शब्दों में, राणा सहरी के अनुसार अपने-अपने काम में सब इतने व्यस्त हैं यहाँ, कि किसी दूसरे के लिए उनके पास वक्त ही नहीं।”
सलीब की तरह ही एक शब्द और है तीन अक्षरों का...तनाव जो अपने भीतर सलीब का वजन भी रखता है और इससे मिलने वाला दुखद अंजाम भी हमारे सामने लाता है। ये किसी लहीम शहीम पर्सनालिटी को भी जब अपनी गिरफ्त में लेता है तो वही होता है जो भय्यू जी महाराज का हुआ, जो सुपरकॉप हिमांशु रॉय का हुआ और जो एटीएस के अधिकारी राजेश साहनी का हुआ। परीक्षाओं में नाकाम रहने वाले छात्रों, किसानों की आत्महत्या की बात तो छोड़ ही दें क्योंकि वे ''कामयाब हस्ती'' नहीं होते मगर ये तीनों नाम तो किसी परिचय के मोहताज नहीं थे। भौतिक रूप से प्रतिष्ठित जीवन जीने के लिए ''सबकुछ'' था इनके पास, तो फिर ऐसा क्या हुआ कि ये जीवन जीने से ही कतराने लगे।
पिछले महीने से लगातार घटी इन घटनाओं के बाद तनाव की वजहें तलाशी जा रही हैं। मगर जहां तक मैं समझ पा रही हूं वो यही कि इच्छाओं-अपेक्षाओं का भंवर ही तनाव का निर्माण करता है। दूसरों से पाली गई बेशुमार अपेक्षाओं पर जब अपनी इच्छायें पूर्ण होने की शर्त अड़ा दी जाती है तब ही तनाव का जन्म होता है। कुछ लोग इससे पार पा लेते हैं तो कुछ भय्यू जी, हिमांशु रॉय और राजेश साहनी की तरह दूसरा भयानक रास्ता चुनते हैं।
माना कि सामान्यत: जीवन जीना आसान नहीं है मगर इतना कठिन भी नहीं कि हम कायरों की भांति जीवन से यूं कन्नी काट लें। एक इंसान को जिस पद, प्रतिष्ठा और पैसे की चाह होती है, वो भय्यूजी महाराज से लेकर साहनी तक तीनों के पास था लेकिन फिर भी तीनों की अकाल मौत का कारण पहली नजर में अवसाद यानी तनाव ही देखा गया है। वो तनाव जिसने इन तीनों को भरी दुनिया में अकेला कर दिया।
लेकिन मेरा स्पष्ट मानना है कि इच्छाओं-अपेक्षाओं की अपनी अपनी सलीबों को ढोकर चलने वाले हम, सिर्फ अकेलेपन को आमंत्रण ही नहीं देते बल्कि उसी से कुचले भी जा रहे हैं। इससे तो बेहतर होगा कि सपने, अहंकार, अपेक्षायें और नियति से जद्दोजहद के आफ्टरइफेक्ट्स भी हम जान लें और अतिवाद की किसी भी स्थिति से समय रहते बच लें।
बहरहाल राणा सहरी के अशआरों की गहराई हमारी नियति बताते हैं तो सावधान भी करते हैं कि जीवन सिर्फ तुम्हारा अपना नहीं, इसपर औरों का भी अधिकार है, हम कुछ ऐसा करें कि अपने दुखों को ढोकर भी दूसरों को जीवन की सुखद राह दिखा सकें।
-अलकनंदा सिंह
मुझे आज अपनी बात कहने के लिए राणा सहरी की लिखी गज़ल जिसे मशहूर ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह ने गाया है, के कुछ अशआर याद आ रहे हैं कि-
कोई दोस्त है न रकीब है, तेरा शहर कितना अजीब है।
वो जो इश्क था वो जुनून था, यह जो हिज्र है, ये नसीब है।
यहाँ किसका चेहरा पढ़ा करूँ, यहाँ कौन इतना करीब है।
मैं किसे कहूँ, मेरे साथ चल, यहाँ सब के सर पे सलीब है।
सलीब को अब तक हम उस क्रॉस के रूप में देखते आए है जिसे ईसा मसीह को ढोना पड़ा था। यानि तनाव की सलीब ढोने वाले हम, अपनी मौत को अपने ही कांधों पर ढोने का अहसास और आमंत्रण दोनों ही देते दिखाई देते हैं। सलीब लेटिन भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘गम का रास्ता,’ ‘दुःख का पथ,’ ‘पीड़ा का मार्ग,’ या बस ‘दर्दनाक राह’। जीवन भी कुछ ऐसा ही है, कुछ लोगों के लिए।” सलीब या क्रॉस, ज़िम्मेदारियों के लिए एक रूपक (metaphor) की तरह भी है, दूसरे शब्दों में, राणा सहरी के अनुसार अपने-अपने काम में सब इतने व्यस्त हैं यहाँ, कि किसी दूसरे के लिए उनके पास वक्त ही नहीं।”
सलीब की तरह ही एक शब्द और है तीन अक्षरों का...तनाव जो अपने भीतर सलीब का वजन भी रखता है और इससे मिलने वाला दुखद अंजाम भी हमारे सामने लाता है। ये किसी लहीम शहीम पर्सनालिटी को भी जब अपनी गिरफ्त में लेता है तो वही होता है जो भय्यू जी महाराज का हुआ, जो सुपरकॉप हिमांशु रॉय का हुआ और जो एटीएस के अधिकारी राजेश साहनी का हुआ। परीक्षाओं में नाकाम रहने वाले छात्रों, किसानों की आत्महत्या की बात तो छोड़ ही दें क्योंकि वे ''कामयाब हस्ती'' नहीं होते मगर ये तीनों नाम तो किसी परिचय के मोहताज नहीं थे। भौतिक रूप से प्रतिष्ठित जीवन जीने के लिए ''सबकुछ'' था इनके पास, तो फिर ऐसा क्या हुआ कि ये जीवन जीने से ही कतराने लगे।
पिछले महीने से लगातार घटी इन घटनाओं के बाद तनाव की वजहें तलाशी जा रही हैं। मगर जहां तक मैं समझ पा रही हूं वो यही कि इच्छाओं-अपेक्षाओं का भंवर ही तनाव का निर्माण करता है। दूसरों से पाली गई बेशुमार अपेक्षाओं पर जब अपनी इच्छायें पूर्ण होने की शर्त अड़ा दी जाती है तब ही तनाव का जन्म होता है। कुछ लोग इससे पार पा लेते हैं तो कुछ भय्यू जी, हिमांशु रॉय और राजेश साहनी की तरह दूसरा भयानक रास्ता चुनते हैं।
माना कि सामान्यत: जीवन जीना आसान नहीं है मगर इतना कठिन भी नहीं कि हम कायरों की भांति जीवन से यूं कन्नी काट लें। एक इंसान को जिस पद, प्रतिष्ठा और पैसे की चाह होती है, वो भय्यूजी महाराज से लेकर साहनी तक तीनों के पास था लेकिन फिर भी तीनों की अकाल मौत का कारण पहली नजर में अवसाद यानी तनाव ही देखा गया है। वो तनाव जिसने इन तीनों को भरी दुनिया में अकेला कर दिया।
लेकिन मेरा स्पष्ट मानना है कि इच्छाओं-अपेक्षाओं की अपनी अपनी सलीबों को ढोकर चलने वाले हम, सिर्फ अकेलेपन को आमंत्रण ही नहीं देते बल्कि उसी से कुचले भी जा रहे हैं। इससे तो बेहतर होगा कि सपने, अहंकार, अपेक्षायें और नियति से जद्दोजहद के आफ्टरइफेक्ट्स भी हम जान लें और अतिवाद की किसी भी स्थिति से समय रहते बच लें।
बहरहाल राणा सहरी के अशआरों की गहराई हमारी नियति बताते हैं तो सावधान भी करते हैं कि जीवन सिर्फ तुम्हारा अपना नहीं, इसपर औरों का भी अधिकार है, हम कुछ ऐसा करें कि अपने दुखों को ढोकर भी दूसरों को जीवन की सुखद राह दिखा सकें।
-अलकनंदा सिंह
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