...और अंतत: दुष्कर्मियों के लिए फांसी का प्रावधान हो ही गया, फांसी अर्थात् अपराधशास्त्र और दंडनीति के अनुसार सजा का अंतिम अस्त्र।
कठुआ, उन्नाव और सूरत में बच्चियों के साथ दरिंदगी करने वालों का उदाहरण सामने रखते हुए कल केंद्र सरकार ने अपनी कैबिनेट मीटिंग में बच्चियों से दुष्कर्म करने वालों के लिए फांसी की सज़ा के प्रावधान वाले ''क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) ऑर्डिनेंस 2018 '' को मंज़ूरी दी है।
इसके बाद ये कहा जा सकता है कि कम से कम कानूनी तौर पर तो उन दुष्कर्मियों के खिलाफ उचित दंडनीति बन ही गई। इसमें सर्वाधिक गौर करने वाली बात है कि अब यौन अपराधियों का डाटाबेस बनेगा जिसका ब्यौरा 'एनसीआरबी' (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) रखेगा, और ऐसा डाटाबेस बनाने वाला भारत विश्व का नौवां देश होगा।
यूं तो इस अमेंडमेंट ऑर्डिनेंस में हर उम्र की महिलाओं के दुष्कर्मियों को सजा के नए सिरे से प्रावधान किये गये हैं मगर 12 साल या उसे कम उम्र की बच्चियों के साथ बर्बरता करने वालों को 'फांसी' दिये जाने के प्रावधान की चौतरफा तारीफ हो रही है, और होनी भी चाहिए क्योंकि इस उम्र में बच्चियां दुर्व्यहार का किसी भी प्रकार (शारीरिक व मानसिक) से प्रतिरोध नहीं कर सकती।
दुष्कर्म के खिलाफ पॉक्सो एक्ट के बाद ये दंडनीति का आखिरी कदम है, सरकार की ओर से दंडनीति का सर्वोच्च उपाय भी ये ही है मगर अन्य कानूनों और दंडविधानों का जो हश्र अब तक हम देखते आ रहे हैं, उसी तरह इसके भी बेजां इस्तेमाल को रोका जा सकेगा, इस पर संशय बराबर उभरता है। हालांकि सरकार की ओर से पूरे बंदोबस्त किए गए हैं जिनमें अदालती कार्यवाही को ''समयबद्ध'' किया जाना और अग्रिम ज़मानत पर रोक सबसे खास है। कानून के भय के इस बंदोबस्त के बाद हम आशा कर सकते हैं कि अब दुष्कर्म की घटनाओं में कमी आएगी।
परंतु जितने सवाल कानून के दुरुपयोग को लेकर उठ रहे हैं उतने ही फांसी पर भी। जिन देशों में भी फांसी आमचलन में है, उनमें भी इस तरह के अपराधों का आंकड़ा कम नहीं हुआ है।
अपराधशास्त्र के इतिहास में एक किस्सा सदैव सुनाया जाता है कि जब फ्रांस में जेबकतरों से लोग ज्यादा परेशान होने लगे तो जेबकतरों को सरेआम फांसी का नियम बना लिया गया लेकिन फांसी देखने के लिए जो भीड़ जमा होती थी उसमें भी जेबें कटती थीं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये सज़ा उन वहशियों के लिए किसी भय को व्याप्त कर पाएगी क्योंकि अन्य अपराधों से हटकर कोई 'दुष्कर्मी' सिर्फ एक अपराधी नहीं होता, वह मनोरोगी भी होता है।
अपराधशास्त्र में सजा देने के जो 5 मकसद बताए गए हैं उनमें फांसी को दूसरे नंबर पर यानि deterance की श्रेणी में रखा गया है। इसका अर्थ ही प्रतिरोध है यानि ऐसा दंड देना कि वह व्यक्ति दोबारा अपराध न करे और उसे सजा मिलती देख दूसरे भी अपराध न करें।
हालांकि सजा देने इसके आगे के मकसदों को दंडोपचार पद्धति कहा जाता है,क्योंकि इसमें अपराधी को expiation यानी प्रायश्चित करता है। यह एक मनोवैज्ञानिक नैतिक दंड है जिसे अपराधी खुद ही अपने लिए तय करता है। प्रायश्चित करवाने के लिए सरकारें, अपराधी को प्रायश्चित करने लायक स्थितियां बना कर दे सकती हैं।
सजा देने का चौथा मकसद अपराधी का Reformation यानी सुधार और पांचवा Rehabilitation यानी उसका पुनर्वास परंतु पुनर्वास आदि का कार्य तो दंडप्रक्रिया को पूरा करने के बाद ही अमल में लाया जा सकता है, फिलहाल हालात ऐसे हैं कि दुष्कर्मियों से निपटना सरकार की ही नहीं, समाज की भी प्राथमिकता बन गया है।
अपराधशास्त्र के तमाम प्राविधानों को अब तक जिस ढीले-ढाले तरीके से इस्तेमाल किया जाता रहा है, उसने ही जघन्य अपराधों में बेहिसाब वृद्धि की परंतु अब सरकार द्वारा दो महीने की समयबद्धता निर्धारित कर देने से कुछ भय तो अवश्य पैदा होगा अपराधियों में। हां, कानून का दुरुपयोग रोक पाना एक बड़ी चुनौती होगी, वो भी इसलिए क्योंकि बच्चियां ही नहीं हर उम्र में की महिलायें भी समाज में और यहां तक कि अपने घरों तक में ''कथित इज्ज़त वाले मानदंडों'' का आसान शिकार होती हैं।
बहरहाल, यह बात तो हम सभी जानते हैं कि फांसी की सजा भले ही भय उत्पन्न कर सकती हो मगर यह किसी मनोविकार को दूर नहीं कर सकती। मनोविकार तभी दूर किया जा सकता है जब स्वस्थ तन के साथ-साथ स्वस्थ मन तैयार करने की जिम्मेदारी समाज अपने ऊपर ले।
नि:संदेह सख्त दंड के प्राविधान की जिम्मेदारी सरकार की है
और इसीलिए बेटियों के प्रति इस क्रूर एवं जघन्य कृत्य करने वालों को मौत तक ले जाने वाला कदम सरकार ने उठाया है मगर इसे आखिरी कदम नहीं माना जा सकता क्योंकि अधिकांश मामलों में देखा गया है कि कानून की प्रक्रिया चाहे कितनी भी सख्त क्यों न हो किंतु उसके अंदर निहित मूल भावना का लाभ अपराधी ही उठा ले जाते हैं। इसलिए मुकम्मल इंतजाम तभी संभव है जब समाज आगे बढकर इस कलंक को मिटाने का संकल्प ले।
यूं भी बच्चियां सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं हैं, वह समाज का भविष्य भी हैं।
स्वस्थ समाज के लिए स्वस्थ मन-मस्तिष्क वाले लोगों का होना उतना ही जरूरी है जितना कि कठोर दंड प्रक्रिया के अनुपालन के लिए उसके दुरुपयोग को रोकने का इंतजाम किया जाना।
आज तमाम ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिनमें सख्त कानून का अत्यधिक दुरुपयोग हुआ और अंतत: न्यायपालिकाओं को हस्तक्षेप करना पड़ा। बात चाहे दहेज एक्ट की हो अथवा एससी/एसटी एक्ट की।
इसलिए बेहतर होगा कि सरकार के साथ-साथ समाज का हर वर्ग बिना राजनीति किए इसमें अपनी सहभागिता निभाए और एक ऐसा वातावरण तैयार करे जिसमें बच्चियों बेखौफ होकर अपने अरमान पूरे कर सकें।
-अलकनंदा
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