सूचनाओं की बेलगाम आवाजाही एक ओर जहां कानून-व्यवस्था और शासन-प्रशासन पर सवालिया निशान लगाती है वहीं दूसरी ओर समाज को भी संवेदनाहीन बनाने का काम करती है। पिछले लगभग तीन चार साल से मैं देख रही हूं कि 'यूं ही' तैरती भ्रामक सूचनाओं के आधार पर अर्धसत्य और यहां तक कि अफवाहों को भी सत्य सिद्ध करने की कोशिश में लोग 'किसी भी हद तक' चले जाते हैं। दु:ख की बात यह है कि इस झूठ को कोई अन्य नहीं, बल्कि मीडिया ही जनजन तक पहुंचा रहा है और सिलसिलेवार ढंग से कुछ गैरसरकारी संगठन इसे प्रदर्शनों के जरिए देश से लेकर विदेशों तक पहुंचाने में मदद करते हैं। जिससे देश और समाज की छवि बिगड़ रही है।
यूं तो इस नकारात्मकता को समय-समय पर मुंहतोड़ जवाब भी मिला है, मगर बुरी तरह लताड़े जाने के बावजूद विध्वंसकारी सोच इतनी आसानी से कहां रुकती हैं।
पिछले तीन दिनों में तीन घटनाओं का जो सच सामने आया है, वह यह बताने के लिए काफी है कि देश की छवि को ध्वस्त करने के लिए किस तरह बाकायदा ''कुत्सित-अभियान'' चलाए गए और देश-विदेशों में इस आशय का विभ्रम फैलाया गया कि भारत में एक खास किस्म के लोग, एक खास पार्टी तथा एक खास विचारधारा द्वारा ''कितने जघन्य अपराध'' किए जा रहे हैं।
इन तीनों घटनाओं का सच सामने आने के बाद आप क्या सोच रहे हैं? यही ना कि कोई सोच के इतने निचले स्तर तक कैसे जा सकता है। कोई भी संगठन, पार्टी, व्यक्ति या मीडिया हाउस अपने समाज और अपने देश का सिर इस तरह शर्म से झुकाने पर आमादा क्यों हो जाता है, और वह भी विदेशों तक में।
दरअसल, ये वही तत्व हैं जो गांव-खेतों में, आदिवासी लिबास में, अपनी गृहस्थी चला रही महिलाओं में, मां-बाप की सेवा करते बच्चों में देश के पिछड़ेपन को खोजते हैं। ये वही तत्व हैं जो अब तक देश-विदेश से ''मिल रहे'' धन में कमी आने पर बिलबिला रहे हैं। गोया कि समाजसेवा सिर्फ प्लेकार्ड्स और प्रदर्शनों से ही चलती हो।
उक्त तीनों घटनाओं को लेकर प्रोपेगंडा खड़ा करने में कई तो मीडिया हाउसेज चलाने वाले वो ''तथाकथित सेक्यूलर शामिल हैं, जो ''बेचारे'' व ''सत्यान्वेषी'' होने का ठेका लिए हुए हैं''।
बहरहाल, अच्छी खबर यह है कि कल दिल्ली हाईकोर्ट ने कठुआ मामले में बच्ची की तस्वीर ज़ाहिर करने पर मीडिया घरानों को ऐसी ही गैरजिम्मेदारी पर दंडित करते हुए 10-10 लाख का ज़ुर्माना लगाया है और आइंदा के लिए ताक़ीद भी किया है कि वे 'सनसनी' और 'ब्रेकिंग न्यूज' के लिए नियमों के विपरीत जाकर कोई ऐसी सूचना समाज के सामने पेश ना करें जो घृणा और विद्वेष फैलाती हो अथवा किसी की प्रतिष्ठा को ध्वस्त करती हो।
भले ही हाईकोर्ट ने कठुआ गैंगरेप व हत्या के मामले में बच्ची की फोटो ज़ाहिर करने पर ये ज़ुर्माना लगाया है परंतु बात ''इतनी सी ही'' नहीं है। अब समय आ गया है कि हम स्वयं किसी भी घटना पर जस का तस विश्वास ना करें, देश की छवि को बिगाड़ने वाले कोई भी हों, उनका सच जानने के लिए हमें स्वयं सब्र के साथ रियेलिटी चेक अवश्य कर लेना चाहिए।
सोशल मीडिया और खबरों के इस भयावह बवंडर में देश की नकारात्मक छवि पेश करने वालों की ये हरकतें क्या किसी देशद्रोही कृत्य से कम हैं...और क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर देश के खिलाफ षड्यंत्र रचने की छूट दी जा सकती है। किसी खबर को प्लांट करना और उसे चरणबद्ध तरीके से ''खास मकदस'' पाने तक प्रसारित करते रहना भी देशद्रोह है। देशद्रोह सिर्फ तभी नहीं होता जब हम देश के दुश्मनों का पक्ष लेकर बोलें...देशद्रोह तब भी होता है कि जब हम अपने देश को बेइज्ज़त करने के लिए साजिश के तहत किसी भी हद तक चले जायें।
शायद वह समय आ गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा निर्धारित किया जाए और यह भी तय किया जाए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा का मतलब देश की अस्मिता से खिलवाड़ करना कभी नहीं हो सकता।
दलगत राजनीति की निकृष्टता वहां तक तो सहन की जा सकती है जहां तक उससे मात्र 'दल' ही प्रभावित हो रहे हैं किंतु जब देश को उसकी ''दलदल'' में घसीटा जाने लगे तो निश्चित ही वह अक्षम्य अपराध बन जाता है।
- अलकनंदा सिंह
यूं तो इस नकारात्मकता को समय-समय पर मुंहतोड़ जवाब भी मिला है, मगर बुरी तरह लताड़े जाने के बावजूद विध्वंसकारी सोच इतनी आसानी से कहां रुकती हैं।
पिछले तीन दिनों में तीन घटनाओं का जो सच सामने आया है, वह यह बताने के लिए काफी है कि देश की छवि को ध्वस्त करने के लिए किस तरह बाकायदा ''कुत्सित-अभियान'' चलाए गए और देश-विदेशों में इस आशय का विभ्रम फैलाया गया कि भारत में एक खास किस्म के लोग, एक खास पार्टी तथा एक खास विचारधारा द्वारा ''कितने जघन्य अपराध'' किए जा रहे हैं।
पहली घटना का सच
गत दिनों ''हिंदू आतंकवाद'' जैसे शब्द को फैलाए जाने का सच तब सामने आना जब एनआईए कोर्ट ने 2007 में हुए हैदराबाद की मक्का मस्जिद ब्लास्ट केस के मुख्य आरोपी स्वामी असीमानंद सहित सभी 5 सह आरोपियों को 11 साल बाद कुल 226 गवाहों के बयान और 411 कागजाती सुबूत पेश किए जाने के बावजूद बरी कर दिया। कोर्ट के आदेश ने परोक्ष रूप से तत्कालीन रॉ अधिकारी आरवीएस मणि की उस निजी तहकीकात को भी सच साबित किया जिसके अनुसार घटना के लिए दोषी पाए गए पाकिस्तान के हूजी आतंकियों को बाकायदा रचे गए एक षड्यंत्र के तहत रिहा करते हुए निर्दोष लोगों को फंसाकर हिंदू आतंकवाद अथवा भगवा आतंकवाद का नाम दिया गया। खैर ''हिंदू आतंकवाद'' के नाम पर प्लांट की गई इस स्टोरी का ''द एंड'' तो कोर्ट के निर्णय से गत 16 तारीख को हो ही गया, साथ ही वह इस हकीकत से भी परिचित करा गया कि किस तरह हिंदू अब तक खास राजनीतिक पार्टियों का सॉफ्ट टारगेट रहा है।दूसरी घटना का सच
पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट ने कल बताया कि ट्रेन में सफर कर रहे जुनैद की हत्या बीफ के कारण नहीं, बल्कि सीट को लेकर हुए झगड़े के कारण हुई। इसी जुनैद को लेकर असहिष्णुता का ढिंढोरा पीटने वाले गिरोह ने किस तरह बैनरों सहित देश-विदेश तक प्रदर्शन किया था, यह आपको भी जरूर याद होगा।अब सुनिए तीसरी घटना का सच
मुझे लगता है कि ये सर्वाधिक घिनौनी घटना है। होली के अवसर पर दिल्ली यूनीवर्सिटी के रामजस कॉलेज की एक छात्रा ने अपने ऊपर सीमेन से भरा गुब्बारा फेंके जाने की बात कही थी। कथित पीड़िता ने इसके लिए सोशल मीडिया को हथियार बनाया और उसके बाद सक्रिय हुए तथाकथित हिमायती तख्तियां लेकर निकल पड़े थे।इस घिनौने लेकिन आधारहीन दुष्प्रचार की हवा भी कल आई फोरेंसिक रिपोर्ट ने निकाल दी और बता दिया कि गुब्बारों में सीमेन नहीं था।इन तीनों घटनाओं का सच सामने आने के बाद आप क्या सोच रहे हैं? यही ना कि कोई सोच के इतने निचले स्तर तक कैसे जा सकता है। कोई भी संगठन, पार्टी, व्यक्ति या मीडिया हाउस अपने समाज और अपने देश का सिर इस तरह शर्म से झुकाने पर आमादा क्यों हो जाता है, और वह भी विदेशों तक में।
दरअसल, ये वही तत्व हैं जो गांव-खेतों में, आदिवासी लिबास में, अपनी गृहस्थी चला रही महिलाओं में, मां-बाप की सेवा करते बच्चों में देश के पिछड़ेपन को खोजते हैं। ये वही तत्व हैं जो अब तक देश-विदेश से ''मिल रहे'' धन में कमी आने पर बिलबिला रहे हैं। गोया कि समाजसेवा सिर्फ प्लेकार्ड्स और प्रदर्शनों से ही चलती हो।
उक्त तीनों घटनाओं को लेकर प्रोपेगंडा खड़ा करने में कई तो मीडिया हाउसेज चलाने वाले वो ''तथाकथित सेक्यूलर शामिल हैं, जो ''बेचारे'' व ''सत्यान्वेषी'' होने का ठेका लिए हुए हैं''।
बहरहाल, अच्छी खबर यह है कि कल दिल्ली हाईकोर्ट ने कठुआ मामले में बच्ची की तस्वीर ज़ाहिर करने पर मीडिया घरानों को ऐसी ही गैरजिम्मेदारी पर दंडित करते हुए 10-10 लाख का ज़ुर्माना लगाया है और आइंदा के लिए ताक़ीद भी किया है कि वे 'सनसनी' और 'ब्रेकिंग न्यूज' के लिए नियमों के विपरीत जाकर कोई ऐसी सूचना समाज के सामने पेश ना करें जो घृणा और विद्वेष फैलाती हो अथवा किसी की प्रतिष्ठा को ध्वस्त करती हो।
भले ही हाईकोर्ट ने कठुआ गैंगरेप व हत्या के मामले में बच्ची की फोटो ज़ाहिर करने पर ये ज़ुर्माना लगाया है परंतु बात ''इतनी सी ही'' नहीं है। अब समय आ गया है कि हम स्वयं किसी भी घटना पर जस का तस विश्वास ना करें, देश की छवि को बिगाड़ने वाले कोई भी हों, उनका सच जानने के लिए हमें स्वयं सब्र के साथ रियेलिटी चेक अवश्य कर लेना चाहिए।
सोशल मीडिया और खबरों के इस भयावह बवंडर में देश की नकारात्मक छवि पेश करने वालों की ये हरकतें क्या किसी देशद्रोही कृत्य से कम हैं...और क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर देश के खिलाफ षड्यंत्र रचने की छूट दी जा सकती है। किसी खबर को प्लांट करना और उसे चरणबद्ध तरीके से ''खास मकदस'' पाने तक प्रसारित करते रहना भी देशद्रोह है। देशद्रोह सिर्फ तभी नहीं होता जब हम देश के दुश्मनों का पक्ष लेकर बोलें...देशद्रोह तब भी होता है कि जब हम अपने देश को बेइज्ज़त करने के लिए साजिश के तहत किसी भी हद तक चले जायें।
शायद वह समय आ गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा निर्धारित किया जाए और यह भी तय किया जाए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा का मतलब देश की अस्मिता से खिलवाड़ करना कभी नहीं हो सकता।
दलगत राजनीति की निकृष्टता वहां तक तो सहन की जा सकती है जहां तक उससे मात्र 'दल' ही प्रभावित हो रहे हैं किंतु जब देश को उसकी ''दलदल'' में घसीटा जाने लगे तो निश्चित ही वह अक्षम्य अपराध बन जाता है।
- अलकनंदा सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें