शनिवार, 14 अप्रैल 2018

… ये मील के पत्‍थरों से आगे का सफर है

मशहूर शायर बशीर बद्र साहब का एक शेर है- 

जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है

आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा...

ये फ़कत एक शेर नहीं, उस जज्‍़बे का अक्‍स है जिसे आजकल हम रेसलिंग मैट्रेस, बॉक्‍सिंग रिंग्‍स, बैडमिंटन कोर्ट्स, शूटिंग रेंज नापते और मंजिलों की ओर बढ़ते कदमों के रूप में देख रहे हैं।
यूं भी जब मंजिलों पर नज़र हो तो बीच का रास्‍ता कितना लंबा है, कितना मुश्‍किलों भरा है, दुश्‍वारियों से कैसे लड़ना है, कौन इसमें साथ देता है और कौन पैर पकड़कर नीचे ले आने की कोशिश करता है, यह सब मायने तो रखता है मगर एक सबक की तरह। इन्‍हीं तमाम सबकों से जूझते-पार पाते हुए मिली मंज़िल के रूप में पोडियम पर मेडल लहराते हुए चेहरे कहीं भुलाए जा सकते हैं भला।

गांव की गली, पहाड़ों, दर्रों, जंगलों से पोडियम तक की राह कितनी कठिन रही होगी, यह तो हम सिर्फ कल्‍पना ही कर सकते हैं। इस सफ़र में आगे बढ़ने की खुशी कई गुना तब और बढ़ जाती है जब इन बच्‍चियों के सपनों को मां-बाप की आंखें देखती हैं।

हमारे खिलाड़ी लड़कों के साथ-साथ एक से बढ़कर एक मील के पत्‍थरों को नापती लड़कियां जब पोडियम पर खड़ी होती हैं तो उनके घर, गांव, मां-बाप, सब सातवें आसमान पर होते हैं। ऑस्‍ट्रलिया के गोल्‍डकोस्‍ट में चल रहे कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में अब ये नज़ारा आम सा हो गया है कि कौन कितने मेडल लेगा। सिर्फ लड़कियों का हौसला ही क्‍यों, तारीफ के हकदार हमारे लड़के भी हैं ।

मैं इसलिए कह रही हूं कि किसी एक की हौसलाअफज़ाई के फेर में हम दूसरों को कमतर नहीं आंक सकते। कोई भी विभेदकारी सोच खेलों में उच्‍चतर परिणाम नहीं दे सकती। लड़कियां अभी तक इसी विभेदकारी सोच के कारण ही तो पीछे बनीं रहीं, हालांकि अब भी उनकी गति कम ही है मगर खुशी है कि सफर शुरू हो चुका है।

इसलिए खेलों को हर हाल में जेंडरन्‍यूट्रल रखना ही होगा क्‍योंकि मेहनत लड़के भी कर रहे हैं और लड़कियां भी, मगर लड़कियां ज्‍यादा तारीफ की हकदार इसलिए हैं क्‍योंकि उन्‍हें खेल में आगे बढ़ने के लिए सिर्फ संसाधनों की ही ज़रूरत नहीं थी, उन्‍हें  वो हौसला भी चाहिए था जो खेल को महारत हासिल करने तक के रास्‍ते को पार करने के लिए जरूरी होता है।

बशीर बद्र साहब के शेर की रौशनी में कहूं तो ये हौसले ही वो मील के पत्‍थर थे जो मंज़िल पाने का वायस बने। यही वो मंज़िलें हैं जिन्‍हें पाने के लिए बच्‍चियों ने अपनी जान हथेली पर रखी और उनके मां-बापों ने अपने घर व मवेशियों को भी बेचने में गुरेज़ नहीं किया। हां, इनमें से कुछ बेटियां संपन्‍न और मध्‍यम वर्ग से भी आईं मगर जो हासिल किया, वह स्‍वर्णिम है। 

बहरहाल, मीराबाई चानू, संजीता चानू, पूनम यादव, मनु भाकर, हीना सिद्धू , श्रेयसी सिंह, मनिका बत्रा, निक्की प्रधान ने एक ऐसी श्रृंखला बनाई है जिसे लगातार आगे ले जाने की चुनौतियां सबके सामने होंगी।

हम तो इस कामयाबी पर बहज़ाद लखनवी के लफ्ज़ों में इन बच्‍चियों को आगे बढ़ते देखना चाहेंगे कि- 

''ऐ जज़्बा-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज़ मुक़ाबिल आ जाए

मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए''।
-अलकनंदा 

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