आज नवरात्रि की अष्टमी तिथि है, शक्ति के आगमन का ये त्यौहार कुछ घंटों में समापन की ओर बढ़ चलेगा परंतु इन नवदुर्गाओं में बहुत कुछ ऐसा घट चुका है जो हमें अपने छीजते मूल्यों की ओर मुड़कर देखने को विवश करता है कि आखिर चूक कहां हुई है। साथ ही यह भी कि जहां चूक हुई वहां से अब आगे क्या-क्या और कैसे-कैसे सुधारा जा सकता है।
शक्ति के आठ रूपों को मूर्तिरूप में पूजकर, नारियल और चुनरी ओढ़ाने के बाद भी यदि अपने भीतर बैठे कलुष को हम तिरोहित नहीं कर पाते, तो शक्ति की आराधना एक रस्म से ज्यादा और कुछ नहीं। और ये रस्म ही है जो तब भी निबाही गई थी जब निर्भया कांड हुआ और ये रस्म पिछले हफ्ते भी निबाही गई जब बीएचयू की छात्राओं ने बाकायदा अश्लील हरकतों की शिकायत यूनीवर्सिटी के वीसी से की।
मैं यहां वो शिकायती-पत्र दिखा रही हूं जो छात्राओं ने दिया।
हालांकि प्रदेश सरकार और वीसी को इसमें भी राजनीति दिख रही थी। फिलहाल घटनाक्रम बता रहे हैं कि मुख्यमंत्री योगी ने आश्वासन दिया है कि छात्रों पर लगे केस वापस लिए जाऐंगे, यूनीवर्सिटी में प्रशासनिक उठापटक जारी है, वीसी हटा दिए गए हैं, चीफ प्रॉक्टर बदल दिए गए, कल से सीआरपीएफ भी हटा ली गई, एबीवीपी का धरना खत्म हो गया, छात्र-छात्राओं का आवागमन शुरू हो गया।
सब कुछ ढर्रे पर वापस मगर इतना सब होने के बाद हमें भी सोचना होगा कि आखिर सरेआम छेड़खानी की ये घटनाऐं जो एक पूरे के पूरे विश्वविद्यालय की आन बान शान के लिए खतरा बन गईं, यकायक तो नहीं उपजी होंगी ना। बात वहीं फिर हमारी उस चूक पर ही आ जाती है, जो संस्कारों से जुड़ी है।
महिलाओं के खिलाफ छेड़खानी पहले भी होती थी मगर पिछले दो-ढाई दशकों में इसने महामारी का रूप ले लिया है और अब तो इस महामारी ने वीभत्स रुख अख्तियार कर लिया है। इतना वीभत्स कि ये बच्चियों के साथ साथ बच्चों और किशोरों को भी अपनी गिरफ्त में ले रही है। धर्मविशेष- जाति विशेष- वर्गविशेष- लिंगविशेष के खांचे में भले ही हम इसे बांट दें मगर ये है खालिस संस्कार का संकट ही। और ये संकट समाज में संक्रामक हो चुका है, अब लड़का भी अगर लड़के से हंसकर बात करता है तो शक होने लगता है। अविश्वास का ये माहौल कभी कभी बेहद असहनीय और टूटन भरा होता है।
निश्चित ही आज भी हम ये निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि बुरी तरह छीजते अपने मूल्यों को संभालें या आधुनिकता के तमगे को। इसी आधुनिकता के नाम पर अगर ''संस्कारविहीन'' होना एक फैशन की तरह न बनाया गया होता, आज हमें अपने संस्कारों की खोज सीसीटीवी के बहाने न करनी पड़ती।
यक्षप्रश्न अब भी वहीं मौजूद है कि सीसीटीवी आखिर कहां कहां लगाई जाए और इसके होने का भय कितनी रक्षा कर पाएगा। स्कूल, कॉलेज, सार्वजनिक स्थानों के साथ साथ क्या ये घरों में भी शोषण को रोक पाएगा। वह भी तब जबकि हमारे धर्माचार्य भी इसमें लिप्त हों, घर के बड़े लिप्त हों।
आज रेयान इंटरनेशनल हो या बीएचयू की छेड़खानी का मामला, चंद रोज पहले गैंगरेप की पीड़िता द्वारा यू-टर्न लेकर पुलिस में दर्ज रिपोर्ट को ''गुस्से में किया जाना'' बताना हो या बाबाओं (साधु-संत नहीं) के एक वर्ग का बलात्कारी साबित होते जाना हो, ये सब उदाहरण हमारे अधकचरे ज्ञान, अधकचरी सभ्यता, अधकचरी आधुनिकता के फलितार्थ ही तो हैं।
उदाहरण तो बहुत हैं इन मूल्यों और संस्कारों की धज्जियां उड़ाए जाने के मगर सभी को एक कॉलम में लिखना संभव भी कहां, परंतु इतना अवश्य है कि इस माहौल को लेकर जो घबराहट मैं महसूस कर रही हूं, निश्चित ही आप भी करते होंगे।
उक्त घटनाओं के बाद सीसीटीवी को बतौर सुबूत पेश किया जा रहा है मगर यह सीसीटीवी वाला सुबूत संस्कारों के छीजन के पीछे की मानसिकता , अपराध करने वाले की पारिवारिक पृष्ठभूमि और ''अपराध का आदतन'' होने की वजह नहीं बता सकता। सीसीटीवी सुबूत हो सकते हैं मगर इनमें वो ताकत नहीं जो मां-बहन की गालियों से शुरू हुआ संस्कारों के मौजूदा क्षरण को रोक सकें, ये भावनायें नहीं बता सकते, विनम्रता और दूसरों की इज्जत करना नहीं सिखा सकते, वह तो ''घर'' ही सिखा सकता है।
छेड़खानी की हर घटना पर राजनीति के बुलबुले हमारी नजरों से समस्या को ओझल करने का प्रयत्न करते हैं तभी तो बीएचयू का सिंहद्वार हो या जेएनयू का हॉस्टल, रेयॉन इंटरनेशनल हो या गाजियाबाद की नन्हीं बच्ची का मामला सभी में नेतागिरी हुई, सरकारों के विरोध में बवाल हुआ मगर इन राजनैतिक बुलबुलों में भी घरों से जो संस्कार ओझल हुए हैं,उस ओर कोई बात नहीं कर रहा। ज़ाहिर है कि नौदेवी अब भी हमारी उस अंतरात्मा को नहीं जगा पाई है जो शक्तिपूजा के नाम पर घंट-घड़ियाल लेकर हर घर पर दस्तक देती है कि जागो अब भी वक्त है...बहुत कुछ सुधारा जा सकता है।
-अलकनंदा सिंह
शक्ति के आठ रूपों को मूर्तिरूप में पूजकर, नारियल और चुनरी ओढ़ाने के बाद भी यदि अपने भीतर बैठे कलुष को हम तिरोहित नहीं कर पाते, तो शक्ति की आराधना एक रस्म से ज्यादा और कुछ नहीं। और ये रस्म ही है जो तब भी निबाही गई थी जब निर्भया कांड हुआ और ये रस्म पिछले हफ्ते भी निबाही गई जब बीएचयू की छात्राओं ने बाकायदा अश्लील हरकतों की शिकायत यूनीवर्सिटी के वीसी से की।
मैं यहां वो शिकायती-पत्र दिखा रही हूं जो छात्राओं ने दिया।
शिकायती-पत्र जो छात्राओं ने दिया |
हालांकि प्रदेश सरकार और वीसी को इसमें भी राजनीति दिख रही थी। फिलहाल घटनाक्रम बता रहे हैं कि मुख्यमंत्री योगी ने आश्वासन दिया है कि छात्रों पर लगे केस वापस लिए जाऐंगे, यूनीवर्सिटी में प्रशासनिक उठापटक जारी है, वीसी हटा दिए गए हैं, चीफ प्रॉक्टर बदल दिए गए, कल से सीआरपीएफ भी हटा ली गई, एबीवीपी का धरना खत्म हो गया, छात्र-छात्राओं का आवागमन शुरू हो गया।
सब कुछ ढर्रे पर वापस मगर इतना सब होने के बाद हमें भी सोचना होगा कि आखिर सरेआम छेड़खानी की ये घटनाऐं जो एक पूरे के पूरे विश्वविद्यालय की आन बान शान के लिए खतरा बन गईं, यकायक तो नहीं उपजी होंगी ना। बात वहीं फिर हमारी उस चूक पर ही आ जाती है, जो संस्कारों से जुड़ी है।
महिलाओं के खिलाफ छेड़खानी पहले भी होती थी मगर पिछले दो-ढाई दशकों में इसने महामारी का रूप ले लिया है और अब तो इस महामारी ने वीभत्स रुख अख्तियार कर लिया है। इतना वीभत्स कि ये बच्चियों के साथ साथ बच्चों और किशोरों को भी अपनी गिरफ्त में ले रही है। धर्मविशेष- जाति विशेष- वर्गविशेष- लिंगविशेष के खांचे में भले ही हम इसे बांट दें मगर ये है खालिस संस्कार का संकट ही। और ये संकट समाज में संक्रामक हो चुका है, अब लड़का भी अगर लड़के से हंसकर बात करता है तो शक होने लगता है। अविश्वास का ये माहौल कभी कभी बेहद असहनीय और टूटन भरा होता है।
निश्चित ही आज भी हम ये निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि बुरी तरह छीजते अपने मूल्यों को संभालें या आधुनिकता के तमगे को। इसी आधुनिकता के नाम पर अगर ''संस्कारविहीन'' होना एक फैशन की तरह न बनाया गया होता, आज हमें अपने संस्कारों की खोज सीसीटीवी के बहाने न करनी पड़ती।
यक्षप्रश्न अब भी वहीं मौजूद है कि सीसीटीवी आखिर कहां कहां लगाई जाए और इसके होने का भय कितनी रक्षा कर पाएगा। स्कूल, कॉलेज, सार्वजनिक स्थानों के साथ साथ क्या ये घरों में भी शोषण को रोक पाएगा। वह भी तब जबकि हमारे धर्माचार्य भी इसमें लिप्त हों, घर के बड़े लिप्त हों।
आज रेयान इंटरनेशनल हो या बीएचयू की छेड़खानी का मामला, चंद रोज पहले गैंगरेप की पीड़िता द्वारा यू-टर्न लेकर पुलिस में दर्ज रिपोर्ट को ''गुस्से में किया जाना'' बताना हो या बाबाओं (साधु-संत नहीं) के एक वर्ग का बलात्कारी साबित होते जाना हो, ये सब उदाहरण हमारे अधकचरे ज्ञान, अधकचरी सभ्यता, अधकचरी आधुनिकता के फलितार्थ ही तो हैं।
उदाहरण तो बहुत हैं इन मूल्यों और संस्कारों की धज्जियां उड़ाए जाने के मगर सभी को एक कॉलम में लिखना संभव भी कहां, परंतु इतना अवश्य है कि इस माहौल को लेकर जो घबराहट मैं महसूस कर रही हूं, निश्चित ही आप भी करते होंगे।
उक्त घटनाओं के बाद सीसीटीवी को बतौर सुबूत पेश किया जा रहा है मगर यह सीसीटीवी वाला सुबूत संस्कारों के छीजन के पीछे की मानसिकता , अपराध करने वाले की पारिवारिक पृष्ठभूमि और ''अपराध का आदतन'' होने की वजह नहीं बता सकता। सीसीटीवी सुबूत हो सकते हैं मगर इनमें वो ताकत नहीं जो मां-बहन की गालियों से शुरू हुआ संस्कारों के मौजूदा क्षरण को रोक सकें, ये भावनायें नहीं बता सकते, विनम्रता और दूसरों की इज्जत करना नहीं सिखा सकते, वह तो ''घर'' ही सिखा सकता है।
छेड़खानी की हर घटना पर राजनीति के बुलबुले हमारी नजरों से समस्या को ओझल करने का प्रयत्न करते हैं तभी तो बीएचयू का सिंहद्वार हो या जेएनयू का हॉस्टल, रेयॉन इंटरनेशनल हो या गाजियाबाद की नन्हीं बच्ची का मामला सभी में नेतागिरी हुई, सरकारों के विरोध में बवाल हुआ मगर इन राजनैतिक बुलबुलों में भी घरों से जो संस्कार ओझल हुए हैं,उस ओर कोई बात नहीं कर रहा। ज़ाहिर है कि नौदेवी अब भी हमारी उस अंतरात्मा को नहीं जगा पाई है जो शक्तिपूजा के नाम पर घंट-घड़ियाल लेकर हर घर पर दस्तक देती है कि जागो अब भी वक्त है...बहुत कुछ सुधारा जा सकता है।
-अलकनंदा सिंह
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