क्यों उनकी राष्ट्रभक्ति वीडियोग्राफी की मोहताज है
यदि खुशहाल जीवन जीने के लिए प्रेम, कर्तव्य और मौलिक अधिकारों में से किसी एक का चुनाव करने को कहा जाए तो आप किसे चुनेंगे।
जहां तक मेरा ख्याल है, जीवन को सही और संतोषपूर्वक जीने के लिए इन सभी की आवश्यकता होती है परंतु जब आप ये सोच लेते हैं कि ''जो आप सोच रहे हैं वह ही आखिरी सत्य है'' तो फिर किसी अन्य का समझाना भी कोई मायने नहीं रखता।
राष्ट्र के प्रति प्रेम, कर्तव्य और राष्ट्र को 'राष्ट्र' बनाए रखने के लिए प्राप्त मौलिक अधिकारों के नाम पर आजकल जो 'खेल' होने लगा है और राष्ट्र की एकता के लिए जायज हर बात को राजनैतिक चश्मे से देखा जाने लगा है, उसके मद्देनजर यह जरूरी हो गया है कि राष्ट्र के प्रति जवाबदेही भी तय की जानी चाहिए।
कल इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि संविधान का सहारा सिर्फ अधिकारों का ढिंढोरा पीटने के लिए नहीं लिया जाना चाहिए, कर्तव्यों को भी समझना चाहिए। राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज का सम्मान करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है, इसलिए राष्ट्रगान गाना और राष्ट्रध्वज फहराना, सभी शिक्षण संस्थाओं व अन्य संस्थानों के लिए अनिवार्य है।
यह बातें चीफ जस्टिस डी. बी. भोंसले व जस्टिस यशवंत वर्मा की खंडपीठ ने मऊ के अताउल मुस्तफा की उस याचिका को खारिज करते हुए कहीं जिसमें प्रदेश सरकार के 3 अगस्त 2017 व 6 सितंबर 2017 के उस शासनादेश को चुनौती दी गई थी जिसमें प्रदेशभर के मदरसों में अनिवार्य रूप से राष्ट्रगान करने की बात लिखी थी। अताउल मुस्तफा ने इस साशनादेश को रद्द करने की मांग की थी और इसे ''देशभक्ति थोपना'' बताया था। मुस्तफा ने तो याचिका में यहां तक कह दिया कि यदि इसे अनिवार्य किया जाता है तो यह उनकी धार्मिक आस्था और विश्वास के विरुद्ध है।
याचिकाकर्ता अताउल मुस्तफा और इसकी जैसी सोच रखने वालों ने क्या कभी ये भी सोचा है कि आखिर प्रदेश सरकार को मदरसों के लिए ही ऐसा आदेश देने की जरूरत क्यों पड़ी, और इससे भी ज्यादा शर्म की बात ये कि राष्ट्रगान व राष्ट्रध्वज के लिए 'सर्कुलर' जारी करना पड़ा। जो कार्य स्वभावत: किये जाने चाहिए उसके लिए सरकार को 'कहना' क्यों पड़ा?
समझ में नहीं आता कि भाजपा सरकारों के हर कदम को कट्टरवादी लोग मुस्लिम' विरोधी ही क्यों समझते हैं, क्या एक राष्ट्र-एकभावना से काम नहीं किया जा सकता। क्या मुस्लिम इस देश में मेहमान हैं। मीडिया में भी इन्हें ही 'संप्रदाय विशेष' क्यों कहा जाता है। क्यों अधिकांश मुस्लिम, संविधान प्रदत्त अधिकारों की बात तो करते हैं किंतु राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य को नहीं समझते। अल्पसंख्यकों में एक मुस्लिम वर्ग ही ऐसा है जो राजनीति से लेकर नीतिगत फैसलों तक तथा राष्ट्र की सुरक्षा से लेकर शांति कायम रखने के प्रयासों तक में टांग अड़ाता है और स्वयं को दबा-कुचला तथा ''बेचारा'' साबित करने में लगा रहता है।
जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी की और उसके बाद उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनी है तभी से अचानक लोगों को मौलिक अधिकार, धार्मिक अधिकार, ''खाने-पीने'' का अधिकार, देश की अस्मिता को गरियाने का अधिकार, धार्मिक भावना के नाम पर अराजकता का अधिकार याद आने लगा है। अचानक उन्हें लगा कि ''अरे, ये भी तो मुद्दे हैं जिन पर सरकार को घेरा जा सकता है, और सीधे सरकार न घिर सके तो कोर्ट के ज़रिए उसे और उसके निर्णयों को चुनौती दी जा सकती है''। कर्तव्यों को ताक पर रखकर अधिकारों की इस मुहिम को चलाने वाले इन तत्वों को संभवत: ये पता नहीं था कि उनकी हर बात बूमरैंग की भांति उन पर ही भारी पड़ने वाली है।
हाईकोर्ट ने मुस्तफा की याचिका खारिज करते हुए प्रदेश के मुख्यसचिव को इस आशय का निर्देश भी दिया है कि सभी मदरसों-शिक्षण संस्थाओं में राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज संबंधी दिए गए राज्य सरकार के आदेश-निर्देशों का पालन करायें।
कितने कमाल की बात है कि राष्ट्रगान गाने के विरुद्ध कोर्ट में याचिका लगायी जाती है और बात बात पर कैंडल मार्च निकालने वाले सभी बुद्धिजीवी खामोश रहते हैं।
पहले राष्ट्रगीत वन्दे मातरम्, अब राष्ट्रगान और फिर तिरंगा फहराने पर आपत्ति, आखिर कट्टरवादियों की ये मुहिम कहां जाकर ठहरेगी अथवा ये हर मुद्दे पर कोर्ट के आदेश-निर्देशों को ही मानने के लिए बाध्य होंगे।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत यह अधिकारों का मजाक उड़ाना तो है ही, साथ ही लाखों मुकद्दमों की सुनवाई के बोझ से दबी न्यायपालिका के समय का दुरुपयोग करना भी है।
बहरहाल यह सोच ही शर्मनाक और आत्मघाती है लिहाजा इस पर पाबंदी लगानी चाहिए वरना आज तक प्रचलित यह ''जुमला'' कि हर मुसलमान बेशक आतंकवादी नहीं होता किंतु हर आतंकवादी, मुसलमान ही क्यों होता है, आगे चलकर कड़वा सच न बन जाए। राष्ट्र के प्रति सम्मान का भाव न रखने की ऐसी सोच ही कहीं मुसलमानों को ऐसे रास्ते पर तो नहीं ले जा रही जहां उसका खामियाजा पूरी कौम को भुगतना पड़ जाए और उनकी राष्ट्रभक्ति पर हमेशा के लिए सवालिया निशान लग जाए। म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों का दर-दर भटकना इस स्थिति के आंकलन करने का मौका दे रहा है,बशर्ते कट्टरवादी इसे समझने को तैयार हों। म्यांमार उन्हें नागरिकता देने को तैयार नहीं है और बांग्लादेश तथा चीन जैसे मुल्क उन्हें शरण देने से परहेज कर रहे हैं। और तो और इस्लाम के नाम पर भारत से अलग हुआ पाकिस्तान भी उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखता।
बेहतर हो कि मुस्लिम खुद को राष्ट्र के जिम्मेदार नागरिक की तरह पेश करें और कठमुल्लों एवं वोट के सौदागरों का मोहरा बनने की बजाय विचार करें कि उनके क्रिया-कलाप शक के दायरे में क्यों आते जा रहे हैं। जिस दिन वह इस दिशा में विचार करने लगेंगे, उस दिन उन्हें यह भी समझ में आ जाएगा कि किसी सरकार को क्यों मदरसों के अंदर राष्ट्रगान के लिए आदेश देना पड़ता है और क्यों उनकी राष्ट्रभक्ति वीडियोग्राफी की मोहताज है।
- अलकनंदा सिंह
यदि खुशहाल जीवन जीने के लिए प्रेम, कर्तव्य और मौलिक अधिकारों में से किसी एक का चुनाव करने को कहा जाए तो आप किसे चुनेंगे।
जहां तक मेरा ख्याल है, जीवन को सही और संतोषपूर्वक जीने के लिए इन सभी की आवश्यकता होती है परंतु जब आप ये सोच लेते हैं कि ''जो आप सोच रहे हैं वह ही आखिरी सत्य है'' तो फिर किसी अन्य का समझाना भी कोई मायने नहीं रखता।
राष्ट्र के प्रति प्रेम, कर्तव्य और राष्ट्र को 'राष्ट्र' बनाए रखने के लिए प्राप्त मौलिक अधिकारों के नाम पर आजकल जो 'खेल' होने लगा है और राष्ट्र की एकता के लिए जायज हर बात को राजनैतिक चश्मे से देखा जाने लगा है, उसके मद्देनजर यह जरूरी हो गया है कि राष्ट्र के प्रति जवाबदेही भी तय की जानी चाहिए।
कल इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि संविधान का सहारा सिर्फ अधिकारों का ढिंढोरा पीटने के लिए नहीं लिया जाना चाहिए, कर्तव्यों को भी समझना चाहिए। राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज का सम्मान करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है, इसलिए राष्ट्रगान गाना और राष्ट्रध्वज फहराना, सभी शिक्षण संस्थाओं व अन्य संस्थानों के लिए अनिवार्य है।
यह बातें चीफ जस्टिस डी. बी. भोंसले व जस्टिस यशवंत वर्मा की खंडपीठ ने मऊ के अताउल मुस्तफा की उस याचिका को खारिज करते हुए कहीं जिसमें प्रदेश सरकार के 3 अगस्त 2017 व 6 सितंबर 2017 के उस शासनादेश को चुनौती दी गई थी जिसमें प्रदेशभर के मदरसों में अनिवार्य रूप से राष्ट्रगान करने की बात लिखी थी। अताउल मुस्तफा ने इस साशनादेश को रद्द करने की मांग की थी और इसे ''देशभक्ति थोपना'' बताया था। मुस्तफा ने तो याचिका में यहां तक कह दिया कि यदि इसे अनिवार्य किया जाता है तो यह उनकी धार्मिक आस्था और विश्वास के विरुद्ध है।
याचिकाकर्ता अताउल मुस्तफा और इसकी जैसी सोच रखने वालों ने क्या कभी ये भी सोचा है कि आखिर प्रदेश सरकार को मदरसों के लिए ही ऐसा आदेश देने की जरूरत क्यों पड़ी, और इससे भी ज्यादा शर्म की बात ये कि राष्ट्रगान व राष्ट्रध्वज के लिए 'सर्कुलर' जारी करना पड़ा। जो कार्य स्वभावत: किये जाने चाहिए उसके लिए सरकार को 'कहना' क्यों पड़ा?
समझ में नहीं आता कि भाजपा सरकारों के हर कदम को कट्टरवादी लोग मुस्लिम' विरोधी ही क्यों समझते हैं, क्या एक राष्ट्र-एकभावना से काम नहीं किया जा सकता। क्या मुस्लिम इस देश में मेहमान हैं। मीडिया में भी इन्हें ही 'संप्रदाय विशेष' क्यों कहा जाता है। क्यों अधिकांश मुस्लिम, संविधान प्रदत्त अधिकारों की बात तो करते हैं किंतु राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य को नहीं समझते। अल्पसंख्यकों में एक मुस्लिम वर्ग ही ऐसा है जो राजनीति से लेकर नीतिगत फैसलों तक तथा राष्ट्र की सुरक्षा से लेकर शांति कायम रखने के प्रयासों तक में टांग अड़ाता है और स्वयं को दबा-कुचला तथा ''बेचारा'' साबित करने में लगा रहता है।
जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी की और उसके बाद उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनी है तभी से अचानक लोगों को मौलिक अधिकार, धार्मिक अधिकार, ''खाने-पीने'' का अधिकार, देश की अस्मिता को गरियाने का अधिकार, धार्मिक भावना के नाम पर अराजकता का अधिकार याद आने लगा है। अचानक उन्हें लगा कि ''अरे, ये भी तो मुद्दे हैं जिन पर सरकार को घेरा जा सकता है, और सीधे सरकार न घिर सके तो कोर्ट के ज़रिए उसे और उसके निर्णयों को चुनौती दी जा सकती है''। कर्तव्यों को ताक पर रखकर अधिकारों की इस मुहिम को चलाने वाले इन तत्वों को संभवत: ये पता नहीं था कि उनकी हर बात बूमरैंग की भांति उन पर ही भारी पड़ने वाली है।
हाईकोर्ट ने मुस्तफा की याचिका खारिज करते हुए प्रदेश के मुख्यसचिव को इस आशय का निर्देश भी दिया है कि सभी मदरसों-शिक्षण संस्थाओं में राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज संबंधी दिए गए राज्य सरकार के आदेश-निर्देशों का पालन करायें।
कितने कमाल की बात है कि राष्ट्रगान गाने के विरुद्ध कोर्ट में याचिका लगायी जाती है और बात बात पर कैंडल मार्च निकालने वाले सभी बुद्धिजीवी खामोश रहते हैं।
पहले राष्ट्रगीत वन्दे मातरम्, अब राष्ट्रगान और फिर तिरंगा फहराने पर आपत्ति, आखिर कट्टरवादियों की ये मुहिम कहां जाकर ठहरेगी अथवा ये हर मुद्दे पर कोर्ट के आदेश-निर्देशों को ही मानने के लिए बाध्य होंगे।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत यह अधिकारों का मजाक उड़ाना तो है ही, साथ ही लाखों मुकद्दमों की सुनवाई के बोझ से दबी न्यायपालिका के समय का दुरुपयोग करना भी है।
बहरहाल यह सोच ही शर्मनाक और आत्मघाती है लिहाजा इस पर पाबंदी लगानी चाहिए वरना आज तक प्रचलित यह ''जुमला'' कि हर मुसलमान बेशक आतंकवादी नहीं होता किंतु हर आतंकवादी, मुसलमान ही क्यों होता है, आगे चलकर कड़वा सच न बन जाए। राष्ट्र के प्रति सम्मान का भाव न रखने की ऐसी सोच ही कहीं मुसलमानों को ऐसे रास्ते पर तो नहीं ले जा रही जहां उसका खामियाजा पूरी कौम को भुगतना पड़ जाए और उनकी राष्ट्रभक्ति पर हमेशा के लिए सवालिया निशान लग जाए। म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों का दर-दर भटकना इस स्थिति के आंकलन करने का मौका दे रहा है,बशर्ते कट्टरवादी इसे समझने को तैयार हों। म्यांमार उन्हें नागरिकता देने को तैयार नहीं है और बांग्लादेश तथा चीन जैसे मुल्क उन्हें शरण देने से परहेज कर रहे हैं। और तो और इस्लाम के नाम पर भारत से अलग हुआ पाकिस्तान भी उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखता।
बेहतर हो कि मुस्लिम खुद को राष्ट्र के जिम्मेदार नागरिक की तरह पेश करें और कठमुल्लों एवं वोट के सौदागरों का मोहरा बनने की बजाय विचार करें कि उनके क्रिया-कलाप शक के दायरे में क्यों आते जा रहे हैं। जिस दिन वह इस दिशा में विचार करने लगेंगे, उस दिन उन्हें यह भी समझ में आ जाएगा कि किसी सरकार को क्यों मदरसों के अंदर राष्ट्रगान के लिए आदेश देना पड़ता है और क्यों उनकी राष्ट्रभक्ति वीडियोग्राफी की मोहताज है।
- अलकनंदा सिंह
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