ब्रज में ये कहावत बहुत प्रचलित है- ''मारौ घोंटूं फूटी आंख'', यानि कुछ किया और कुछ और ही हो गया, यूं इसके शब्द विन्यास से आप लोग समझ पा रहे होंगे कि जब घुटने में मारने से आंख कैसे फूट गई, तो आप सही सोच रहे हैं और यही तो मैं भी कहना चाह रही हूं कि घुटने में मारने से आंख नहीं फूटा करती। और जब ऐसा किया जा रहा हो तो निश्चित जानिए कि समस्या को छुपाया जा रहा है और इसके हल करने में बेइमानी की जा रही है क्योंकि सही इलाज के लिए जब तक समस्या की जड़ तक न पहुंचा जाए तब तक उसका हल हो पाना असंभव होता है।
मेरे सामने इसी कहावत से जुड़ा एक वाकया कल तब सामने आया जब मुझे एक डॉक्टर मित्र (चूंकि अब फैमिली डॉक्टर नहीं होते) के केबिन में जाने का ''सुअवसर'' प्राप्त हुआ। इसे सुअवसर इस लिए कह रही हूं कि धरती पर मौजूद इन कथित भगवानों ने ही उक्त कहावत का सर्वाधिक उपयोग (अब ये आप पर निर्भर है कि इसे सदुपयोग कहें या दुरुपयोग) किया है।
फिलहाल का वाकया कुछ यूं है कि डॉक्टर साहब के सामने ग्रामीण तथा गरीब नजर आ रहे एक 80-90 वर्षीय वृद्ध हांफते हुए आए और बोले कि मेरी पीठ में नीचे की तरफ बहुत दर्द है, 5 दिन से शौच नहीं गया, आज गया तो शौच के वक्त 2-4 गांठें निकलीं, सांस फूल रही है और भूख नहीं लग रही...जबकि इन पांच दिनों से पहले मैं अच्छा था, डॉक्टर साहब ने वृद्ध की पीठ चेक की, पूछा-कहीं चोट-वोट तो नहीं लगी या गिर-विर तो नहीं पड़े, वृद्ध के मना करने पर डॉक्टर साहब ने पास ही खड़े उसके बेटे को 'पर्चा' (खर्रा भी कह सकते हैं) थमाया, बोले- फलां-फलां रूम नं. में जाओ और इनका ईसीजी करा लाओ।
अरे भाई, जब ''5 दिन'' से पेट खराब है, शौच की तकलीफ है, तो जाहिर है कि वृद्ध के पेट में गैस बन रही है जो ज्यादा बनने पर धमनियों तक प्रेशर डालती है और फिर इससे सांस फूलती है। यह सीधी-सीधी पेट की समस्या थी, इसमें ईसीजी की क्या आवश्यकता है भला। 200 फीस के और 500 ईसीजी के, सो डॉक्टर साहब ने 700 सीधे किए। दवाइयां पेट साफ की ही दीं गईं मगर ''चूना'' लगा दिया ईसीजी का। रोग कोई लेकिन टेस्ट किसी और का फिर चाहे वृद्ध इस टेस्ट के बाद हमेशा ''दिल का रोगी'' होने के भय में जिया करे। यूं तो इसके चिकित्सकीय निहितार्थ अनेक हैं, उन पर फिर कभी चर्चा होगी, मगर सच में चोट घुटने में थी यानि पेट खराब था और डॉक्टर ने आंख फोड़ दी यानि ईसीजी करवा दिया । पेट के रोग का कष्ट इतना नहीं था जितना कि दिल के रोग का भय तारी हो गया वृद्ध के ज़हन पर।
इसी कहावत ''मारौ घोंटूं फूटी आंख'' का दूसरा उदाहरण आज का हिंदी दिवस है।
सोशल मीडिया से लेकर चर्चाओं-गोष्ठियों में आज पूरा देश हिंदीमय दिखाई देगा मगर इधर दिवस समाप्त, उधर हिन्दीप्रेम गायब। कॉन्वेंट स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाकर इतराने वाली 'मॉम्स', हिन्दी पर ''डिबेट'' के लिए इंटरनेट की ''हेल्प'' से बच्चों को ''डिक्टेट'' कर रही हैं और सिखाते हुए पूछ भी रही हैं कि ''टेल मी बेटा, हू इज मैथिलीशरण गुप्त, यू मस्ट लर्न योर पॉइम व्हिच आई हैव गिव इट टू यू, गिव योर बेस्ट इन क्लास'' ।
राष्ट्रभाषा हिन्दी की इस दशा (आशावादी होने के कारण मैं इसे अभी दुर्दशा नहीं कहूंगी) पर उक्त कहावत ''मारौ घोंटूं फूटी आंख'' एकदम खरी उतरती है। बच्चे में प्रथम संस्कार देने वाला घर और मां ही जब बच्चे को अपनी रोमन लिपि में हिन्दी पर 'डिबेट' के लिए 'लेसन' देगी, तो कोई भी सरकार या कोई भी भाषाविज्ञानी एड़ीचोटी का जोर लगा ले, वह बच्चे को हिन्दी नहीं सिखा सकता। और यदि सिखा भी दी, तो अपनी राष्ट्रभाषा के लिए सम्मान नहीं पैदा कर सकता, राष्ट्रभाषा के प्रति प्रेम आदर राष्ट्र की एकता और अखंडता का जनक है। बात यहां भी वही है कि रोग हमारे घर में है और इसका इलाज हम गोष्ठियों-परिचर्चाओं में ढूढ़ रहे हैं।
''मारौ घोंटूं फूटी आंख'' कहावत का लब्बोलुआब ये है कि घुटने में मारने से आंख नहीं फूटा करती, जिस तरह पेट का रोग ईसीजी टेस्ट से ठीक नहीं हो सकता, ठीक उसी तरह हिन्दी को भी रोमन ट्रांसलेशन के ज़रिये ''अपनी राष्ट्रभाषा'' नहीं बनाया जा सकता। हमारी नज़र में ये कहावतें भले ही हमसे कम शिक्षितों ने बनाई हों मगर ये रोजमर्रा की ज़िंदगी में जितना कुछ सिखा जाती हैं, उतना तो आज हम तमाम डिग्री लेकर भी नहीं सिखा सकते।
ये भारतवर्ष अपनी जिजीविषाओं के लिए जाना जाता है और पेशे से गद्दारी हो या भाषा से धोखा, दोनों ही अपने अपने अस्तित्व के लिए खतरनाक हैं। हम मुलम्मों के सहारे कब तक अपना और अपनी भाषाओं का विकास कर पाऐंगे।
बेहतर तो यही होगा कि हम घुटने पर मार के कारण आंख के फूट जाने का इल्ज़ाम ना लगाएं वरना समस्या जस की तस बनी रहेगी और यह स्थिति इलाज न करके इल्ज़ाम तक ही सीमित रह जाएगी क्योंकि यह तरीका समस्या से मुंह फेर लेने के अलावा कुछ है ही नहीं। सो मारौ घौंटू ना ही फूटै आंख...हैप्पी हिन्दी डे...☺☺☺☺
मेरे सामने इसी कहावत से जुड़ा एक वाकया कल तब सामने आया जब मुझे एक डॉक्टर मित्र (चूंकि अब फैमिली डॉक्टर नहीं होते) के केबिन में जाने का ''सुअवसर'' प्राप्त हुआ। इसे सुअवसर इस लिए कह रही हूं कि धरती पर मौजूद इन कथित भगवानों ने ही उक्त कहावत का सर्वाधिक उपयोग (अब ये आप पर निर्भर है कि इसे सदुपयोग कहें या दुरुपयोग) किया है।
फिलहाल का वाकया कुछ यूं है कि डॉक्टर साहब के सामने ग्रामीण तथा गरीब नजर आ रहे एक 80-90 वर्षीय वृद्ध हांफते हुए आए और बोले कि मेरी पीठ में नीचे की तरफ बहुत दर्द है, 5 दिन से शौच नहीं गया, आज गया तो शौच के वक्त 2-4 गांठें निकलीं, सांस फूल रही है और भूख नहीं लग रही...जबकि इन पांच दिनों से पहले मैं अच्छा था, डॉक्टर साहब ने वृद्ध की पीठ चेक की, पूछा-कहीं चोट-वोट तो नहीं लगी या गिर-विर तो नहीं पड़े, वृद्ध के मना करने पर डॉक्टर साहब ने पास ही खड़े उसके बेटे को 'पर्चा' (खर्रा भी कह सकते हैं) थमाया, बोले- फलां-फलां रूम नं. में जाओ और इनका ईसीजी करा लाओ।
अरे भाई, जब ''5 दिन'' से पेट खराब है, शौच की तकलीफ है, तो जाहिर है कि वृद्ध के पेट में गैस बन रही है जो ज्यादा बनने पर धमनियों तक प्रेशर डालती है और फिर इससे सांस फूलती है। यह सीधी-सीधी पेट की समस्या थी, इसमें ईसीजी की क्या आवश्यकता है भला। 200 फीस के और 500 ईसीजी के, सो डॉक्टर साहब ने 700 सीधे किए। दवाइयां पेट साफ की ही दीं गईं मगर ''चूना'' लगा दिया ईसीजी का। रोग कोई लेकिन टेस्ट किसी और का फिर चाहे वृद्ध इस टेस्ट के बाद हमेशा ''दिल का रोगी'' होने के भय में जिया करे। यूं तो इसके चिकित्सकीय निहितार्थ अनेक हैं, उन पर फिर कभी चर्चा होगी, मगर सच में चोट घुटने में थी यानि पेट खराब था और डॉक्टर ने आंख फोड़ दी यानि ईसीजी करवा दिया । पेट के रोग का कष्ट इतना नहीं था जितना कि दिल के रोग का भय तारी हो गया वृद्ध के ज़हन पर।
इसी कहावत ''मारौ घोंटूं फूटी आंख'' का दूसरा उदाहरण आज का हिंदी दिवस है।
सोशल मीडिया से लेकर चर्चाओं-गोष्ठियों में आज पूरा देश हिंदीमय दिखाई देगा मगर इधर दिवस समाप्त, उधर हिन्दीप्रेम गायब। कॉन्वेंट स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाकर इतराने वाली 'मॉम्स', हिन्दी पर ''डिबेट'' के लिए इंटरनेट की ''हेल्प'' से बच्चों को ''डिक्टेट'' कर रही हैं और सिखाते हुए पूछ भी रही हैं कि ''टेल मी बेटा, हू इज मैथिलीशरण गुप्त, यू मस्ट लर्न योर पॉइम व्हिच आई हैव गिव इट टू यू, गिव योर बेस्ट इन क्लास'' ।
राष्ट्रभाषा हिन्दी की इस दशा (आशावादी होने के कारण मैं इसे अभी दुर्दशा नहीं कहूंगी) पर उक्त कहावत ''मारौ घोंटूं फूटी आंख'' एकदम खरी उतरती है। बच्चे में प्रथम संस्कार देने वाला घर और मां ही जब बच्चे को अपनी रोमन लिपि में हिन्दी पर 'डिबेट' के लिए 'लेसन' देगी, तो कोई भी सरकार या कोई भी भाषाविज्ञानी एड़ीचोटी का जोर लगा ले, वह बच्चे को हिन्दी नहीं सिखा सकता। और यदि सिखा भी दी, तो अपनी राष्ट्रभाषा के लिए सम्मान नहीं पैदा कर सकता, राष्ट्रभाषा के प्रति प्रेम आदर राष्ट्र की एकता और अखंडता का जनक है। बात यहां भी वही है कि रोग हमारे घर में है और इसका इलाज हम गोष्ठियों-परिचर्चाओं में ढूढ़ रहे हैं।
''मारौ घोंटूं फूटी आंख'' कहावत का लब्बोलुआब ये है कि घुटने में मारने से आंख नहीं फूटा करती, जिस तरह पेट का रोग ईसीजी टेस्ट से ठीक नहीं हो सकता, ठीक उसी तरह हिन्दी को भी रोमन ट्रांसलेशन के ज़रिये ''अपनी राष्ट्रभाषा'' नहीं बनाया जा सकता। हमारी नज़र में ये कहावतें भले ही हमसे कम शिक्षितों ने बनाई हों मगर ये रोजमर्रा की ज़िंदगी में जितना कुछ सिखा जाती हैं, उतना तो आज हम तमाम डिग्री लेकर भी नहीं सिखा सकते।
ये भारतवर्ष अपनी जिजीविषाओं के लिए जाना जाता है और पेशे से गद्दारी हो या भाषा से धोखा, दोनों ही अपने अपने अस्तित्व के लिए खतरनाक हैं। हम मुलम्मों के सहारे कब तक अपना और अपनी भाषाओं का विकास कर पाऐंगे।
बेहतर तो यही होगा कि हम घुटने पर मार के कारण आंख के फूट जाने का इल्ज़ाम ना लगाएं वरना समस्या जस की तस बनी रहेगी और यह स्थिति इलाज न करके इल्ज़ाम तक ही सीमित रह जाएगी क्योंकि यह तरीका समस्या से मुंह फेर लेने के अलावा कुछ है ही नहीं। सो मारौ घौंटू ना ही फूटै आंख...हैप्पी हिन्दी डे...☺☺☺☺
-अलकनंदा सिंह
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