शनिवार, 31 दिसंबर 2016

साल 2016: कुछ खूबसूरत pictures और कुछ कहे-अनकहे शब्‍द

सबसे पहले एक quote :
Alireza Asghari says “Camera is the third eye and Scond Heart of A Real Photographer ”
कुछ तस्‍वीरों ने मुझे इस तरह अपनी बात लिखने को बाध्‍य किया।
शुरुआत करती हूं कोलाज नं. 1 से।
27 दिसम्‍बर को गुजरी मिर्ज़ा ग़ालिब की एक और सालगिरह से- हर सालगिरह के खत्‍म होने पर उसमें लगने वाली गिरह (गांठ) और बढ़ जाती हैं, हर साल की तरह इस साल भी 1797 को जन्‍मे मिर्ज़ा की याद उनके चाहने वालों ने एक और गिरह लगाकर मनाई। इस  अवसर पर उनकी एक रियल पिक्‍चर दिखाई दी जो गालिब के दोस्‍त बाबू शिव नारायण की परपोती श्रीमति संतोष माथुर के हवाले से सामने आई।
मिर्जा साहब के ही साथ संलग्‍न दूसरी पिक्‍चर है केरल के वुडवर्क की जिसमें लगभग भुलाई जा चुकी केरल की ऐतिहासिक काष्ठ कला को कलाकार ने कुछ म्‍यूरल्स बनाकर फिर से जीवंत बनाने के लिए बहुत ही अद्भुत प्रयास किया है।



PM modi picकोलाज नं. 2 में पहली पिक्‍चर है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जिसमें वे दिव्‍यांग युवक की व्‍हीलचेयर को अपने हाथों से आगे बढ़ाते हुए दिखाई दे रहे हैं, भारत में किसी राजनेता का यह प्रयास जनता में भरोसा जगाने वाला है कि राजनीति इतनी भी बुरी नहीं जितनी हमें दिखाई गई … देश बदल रहा है, सचमुच।
इन्‍हीं के साथ संलग्‍न हैं चार और पिक्‍चर्स जो पाकिस्‍तान के गुजरांवाला में स्‍थित महाराजा रणजीत सिंह की हवेली की हैं , जिन्‍हें हाल ही में पाकिस्‍तान की सरकार ने गिराने का आदेश दिया है। भारत के लिए भी महत्‍वपूर्ण इस धरोहर को इस तरह ज़मींदोज़ किए जाने की खबर सचमुच हम सबके लिए दुखद है। अपने इतिहास को दफनाने का पाप हमें विरासतों से दूर ले जाएगा। एक ओर हम अपने इतिहास को ज़मीन के नीचे से खोज रहे हैं और दूसरी ओर विरासतों को ज़मींदोज़ करना, कैसी विडंबनाओं में जी रहे हैं हम।
इसी कोलाज में नीचे महाराष्‍ट्र के तदोबा टाइगर रिजर्व की एक पिक्‍चर है जहां से गुड न्‍यूज़ आ रही है कि वहां टाइगर की संख्‍या बढ़ रही है।
साथ में लगी पिक्‍चर है उत्‍तराखंड के मसूरी में कभी पाए जाने वाले पक्षी अद्भुत पक्षी माउंटेन क्‍वेल की, जो इस बार भी दिखाई नहीं दिया मगर इसे देखने का क्रेज ऐसा कि लगातार 140 से इसे देखने के लिए पक्षी प्रेमी  ‘राजपुर नेचर फेस्टिवल-2016’ के तहत मसूरी पहुंचते हैं।  पक्षी प्रेमियों को इस बार भी हिमालयन माउंटेन क्वेल (पहाड़ी बटेर) नहीं दिखाई दिया। इसे आज से 140 साल पहले मसूरी के झाड़ीपानी और सुवाखोली में देखा गया था। 140 साल से लगातार इस पक्षी की तलाश में पक्षी प्रेमी हर साल मसूरी का रुख करते हैं, लेकिन लंबे वक्त से उनकी उम्मीदों को धक्का लग रहा है मगर दीवानगी इनकी अब भी बनी हुई है।



auto-naqab-picकोलाज नं. 3 हालांकि इसमें सिर्फ दो पिक्‍चर हैं जो सामाजिक दशा और सोच में पनप रही अपना मत दूसरों पर थोपने की प्रवृत्‍ति की सूचक हैं । इन ‘ऑटोज’ को देखिए जो कथित जेहादियों का पब्‍लिसिटी टारगेट बने हुए हैं, प्रगति के इस समय में देश की मुस्‍लिम महिलाओं को बुरके में रखने के लिए एक ऐसा अभियान चलाए हुए हैं जिसे भयभीत करने वाला कहा जा सकता है और जो कट्टरवाद की ओर तेजी से बढ़ रहा है। तीन  तलाक  जैसे  मुद्दों  से  ध्‍यान हटाने के  लिए नकाब  में  रहने  के  आदेश महिलाओं  को उस बूढ़ी सदी में भेजने वाले हैं , जहां सिर्फ जहालत रहा करती थी।


कोलाज नं. 4  में वो बच्‍चे शामिल हैं जो हमारे देश- दुनिया के विकसित होते जाने पर प्रश्नचिन्‍ह लगाते हैं कि हमारे दावे उनकी मासूमियत के सामने कहीं नहीं टिकते।
kids-pic-for-new-yearफिर भी जहां कश्‍मीर के भयभीत करने वाले दृश्‍य हमें बचपन को बचाने के लिए सोचने पर विवश करते हैं वहीं सूडान से ली गई अंतर्राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार प्राप्‍त भुखमरी की पिक्‍चर जिसमें एक भूख से मरते हुए बच्‍चे को यानि ”अपने भोजन” को गिद्ध देख रहा है। इसी के साथ दो बच्‍चियों का प्रेम और बड़ी बहन द्वारा छोटी की सुरक्षा, वह भी अभावों के बीच शेयरिंग का अच्‍छा उदाहरण नहीं है बल्‍कि यह भी बताता है कि बेटियां हमेशा ही अपने भीतर इन गुणों को रखती हैं ।
नीचे एक बच्‍ची स्‍वच्‍छ भारत अभियान में अपना योगदान दे रही है।
पूरी दुनिया में भुखमरी, गरीबी, बेजारी से सबसे ज्‍यादा बच्‍चे प्रभावित हुए हैं। इसी बीच लद्दाख की दो पिक्‍चर्स कठिन वक्‍त में शिक्षा, जीवन  और बचपन दोनों की जद्दोजहद को दिखाती हैं, आप भी देखिए….इन्‍हें।

इसी कोलाज के दाहिने तरफ मशहूर शायर वसीम बरेलवी का अपने दस्‍तखत के साथ एक शेर है-
” वह चहता है कि दामन ज़रा बचा भी रहे।
दियों की लौ से मगर खेलने की छूट भी हो।।”
यूं तो इन जैसी अनगिनत पिक्‍चर्स हैं जो अपनी दास्‍तां सुनाने के लिए हमारे किसी शब्‍द की मोहताज नहीं , फिर भी अपना पूरा काम कर जाती हैं।

और अंत में इन पिक्‍चर्स को जो वजूद में लाए और हमें इनसे रूबरू कराया, उनके लिए बस इतना ही कहा जा सकता है कि-
Photography is a love affair with life because emotional content is an image’s most important element, regardless of the photographic technique. images retain their strength and impact over the years, regardless of the number of times they are viewed.

- सभी पिक्‍चर्स साभार ली गई  हैं ।

– अलकनंदा सिंह

बुधवार, 21 दिसंबर 2016

World Short Story Day पर विशेष : कह डालो जो कुछ भीतर छिपा बैठा है

चित्र : साभार गूगल
आज World Short Story Day है और इस अवसर पर हिंदी साहित्य में लघुकथा पर बात ना हो, एेसा हो नहीं सकता। यह एक ऐसी विधा है जिसकी शुरुआत छत्तीसगढ़ के प्रथम पत्रकार और कथाकार माधव राव सप्रे के ''एक टोकरी भर मिट्टी'' से हुई या यूं कहें कि साहित्‍य में ये उसके बाद से ही वजूद में आई।
हिंदी के अन्य सभी विधाओं की तुलना में अधिक लघु आकार होने के कारण यह समकालीन पाठकों के ज्यादा करीब रही है क्‍योंकि इस विधा में सरोकार और कम शब्‍दों दोनों ही एकसाथ समाहित रहे हैं। माधव राव सप्रे के साथ साथ इसे आज की स्थापित ''विधा'' के तौर पर प्रख्‍यात श्रेणी तक पहुंचाने में रमेश बतरा, जगदीश कश्यप, कृष्ण कमलेश, भगीरथ, सतीश दुबे, बलराम अग्रवाल, विक्रम सोनी, सुकेश साहनी, विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई आदि समकालीन लघुकथाकारों का हाथ रहा है। साथ ही कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, बलराम, कमल चोपड़ा, सतीशराज पुष्करणा आदि संपादकों का भी रहा है। इस संबंध में तारिका, अतिरिक्त, समग्र, मिनीयुग, लघु आघात, वर्तमान जनगाथा आदि लघुपत्रिकाओं के संपादकों का योगदान को भी नज़रंदाज नहीं किया जा सकता।

हिन्दी कवि और लेखक बलराम अग्रवाल अपने ब्‍लॉग ''सांचा: लघुकथा वार्ता'' में लिखते हैं पहली हिन्दी लघुकथा के बारे में कि हिन्दी कहानी के विधिवत जन्म लेने से काफी पहले पाश्चात्य विद्वान एडगर एलन पो(1809ई0-1849ई0), ओ0 हेनरी(1862ई0-1910ई0), गाइ द मोपांसा(1850ई0-1893ई0) तथा एन्टन पाब्लोविच चेखव(1860ई0-1904ई0) के माध्यम से कहानी अपने उत्कृष्टतम स्वरूप को प्राप्त कर चुकी थी। भारतीय भाषाओं में बंगला कहानी भी खुली हवा में अपना परचम लहरा चुकी थी।
हिन्दी में परिमार्जित कहानी के रूप में जो रचनाएँ प्रकाश में आई हैं, आमतौर पर सन 1900ई0 के आसपास प्रकाशित हुईं। अलग-अलग कारणों से, पहली हिन्दी कहानी की दौड़ में जो कहानियाँ शामिल हैं, उन्हें उनके प्रकाशन-काल के क्रम में निम्नवत प्रस्तुत किया जा सकता है:-

1 प्रणयिनी परिचय(1887) किशोरीलाल गोस्वामी
2 छली अरब की कथा(1893) संभवत: लोककथा
3 सुभाषित रत्न(1900) माधवराव सप्रे
4 इन्दुमती (1900) किशोरीलाल गोस्वामी
5 मन की चंचलता(1900) माधवप्रसाद मिश्र
6 एक टोकरी भर मिट्टी(1901) माधवराव सप्रे
7 ग्यारह वर्ष का समय(1903) रामचंद्र शुक्ल
8 लड़की की कहानी(1904) माधवप्रसाद मिश्र
9 दुलाई वाली(1907) राजेन्द्र बाला उर्फ बंग महिला
10 राखीबंद भाई(1907) वृंदावन लाल वर्मा
11 ग्राम(1911) जयशंकर प्रसाद
12 सुखमय जीवन(1911) चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’
13 रक्षा बंधन(1913) विश्वम्भर नाथ शर्मा ‘कौशिक’
14 उसने कहा था(1915) चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’

दो प्रसिद्ध लघुकथाऐं
अंगहीन धनी
एक धनिक के घर उसके बहुत-से प्रतिष्ठित मित्र बैठे थे। नौकर बुलाने को घंटी बजी। मोहना भीतर दौड़ा, पर हँसता हुआ लौटा।
और नौकरों ने पूछा,“क्यों बे, हँसता क्यों है?”
तो उसने जवाब दिया,“भाई, सोलह हट्टे-कट्टे जवान थे। उन सभों से एक बत्ती न बुझे। जब हम गए, तब बुझे।”
अद्भुत संवाद
“ए, जरा हमारा घोड़ा तो पकड़े रहो।”
“यह कूदेगा तो नहीं?”
“कूदेगा! भला कूदेगा क्यों? लो सँभालो।”
“यह काटता है?”
“नहीं काटेगा, लगाम पकड़े रहो।”
“क्या इसे दो आदमी पकड़ते हैं, तब सम्हलता है?”
“नहीं।”
“फिर हमें क्यों तकलीफ देते हैं? आप तो हई हैं।”

Maya Angelou said  that “There is no greater agony than bearing an untold story inside you.”

एक अनकही कहानी की मौजूदगी से बड़ा कोई दर्द नहीं हो सकता।
तो कह डालो जो कुछ भीतर छिपा बैठा है।
- अलकनंदा सिंह

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

Police हिरासत: 5 साल में 600 मौतें, लेकिन जिम्‍मेदार कोई नहीं

मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट में ऐसा कहा गया है. 114 पन्ने की यह रिपोर्ट सोमवार को जारी की गई













साल 2010 से 2015 के बीच भारत में Police हिरासत में तकरीबन 600 लोगों की मौत हुई है.
मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट में ऐसा कहा गया है. 114 पन्ने की यह रिपोर्ट सोमवार को जारी की गई.
रिपोर्ट के मुताबिक इस दौरान हिरासत में किसी भी कैदी की मौत के लिए एक भी पुलिस वाले को दोषी करार नहीं दिया गया है.
हिरासत में होने वाली मौत के मामलों में पुलिस अक्सर बीमारी, भागने की कोशिश, खुदकुशी और दुर्घटना को कारण बताती है लेकिन मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले समूहों का आरोप है कि इनमें से ज्यादातर मौतें हिरासत में प्रताड़ना की वजह से होती हैं.
हालांकि सरकारी पक्ष इन आरोपों से इंकार करता है. ताज़ा रिपोर्ट में 2009 से 2015 के दरमियां ‘हिरासत में हुई मौत’ के 17 मामलों की ‘गहन पड़ताल’ का दावा किया गया है.
रिपोर्ट के मुताबिक इस सिलसिले में पीड़ित परिवारों के लोगों, गवाहों, कानून के जानकारों और पुलिस अधिकारियों के 70 इंटरव्यू किए गए.
रिपोर्ट कहती है कि इन 17 मामलों में से एक भी केस में पुलिस ने गिरफ्तारी की वाजिब प्रक्रिया का पालन नहीं किया था जिससे संदिग्ध के साथ बदसलूकी होने की संभावना बढ़ गई थी.
मानवाधिकार संस्था के मुताबिक सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि 2015 में पुलिस हिरासत में हुई 97 मौतों में से 67 में पुलिस ने या तो संदिग्ध को 24 घंटे के भीतर मेजिस्ट्रेट के सामने पेश ही नहीं किया या फिर संदिग्ध की गिरफ़्तारी के 24 घंटे के भीतर ही मौत हो गई.

शनिवार, 17 दिसंबर 2016

रूमी की जीवनी: ब्रैड गूच ने लिखा 800 साल का इतिहास , दर्शन और कविता के नाम

ताजिकिस्‍तान के वाशिंदे और पूरी दुनिया के दार्शनिक कवि जलालुद्दीन रूमी का आज जन्‍मदिन है, इस अवसर पर Brad Gooch के प्रयासों की बात किए बिना कवि के प्रति सच्‍ची श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकती।

फारसी के मशहूर शायर और सूफी दिग्गज जलालुद्दीन मोहम्मद रूमी की लोकप्रियता इतनी है कि 800 सालों बाद भी कविता प्रेमियों के बीच वो सबसे मशहूर कवि माने जा रहे हैं। रूमी का जन्म 1207 में ताजिकिस्तान के एक गांव में हुआ था। उनके जन्म के 800 से ज़्यादा साल बाद भी अमेरिका में उनकी रूबाईयों और ग़ज़लों की किताबों की लाखों प्रतियां बिक रही हैं। 

सारी दुनिया के एक बड़े भूभाग पर दानव की तरह फैल चुकी भूख के लिए कभी रूमी ने कहा था कि -

''भूख के बगैर खाना दरवेशों के लिये सबसे संगीन गुनाह है''
भूख सब दवाओं की है सुल्तान ,खबरदार
उसे कलेजे से लगा के रख, मत दुत्कार।
बेस्वाद सब चीजें भूख लगने पर देती मजा,
मगर पकवान सारे बिन भूख हो जाते बेमजा।
कभी कोई बन्दा भूसे की रोटी था खा रहा
पूछा किसी ने तुझे इसमें कैसे मजा आ रहा।
बोला कि सबर से भूख दुगुनी हो जाती है
भूसे की रोटी मेरे लिये हलवा हो जाती है।''

रूमी की जीवनी लिख रहे ब्रैड गूच कहते हैं, "रूमी का सभी संस्कृतियों पर असर दिखता है।" गूच ने रूमी की जीवनी पर काम करने के लिए उन तमाम मुल्कों की यात्रा की है, जो किसी ना किसी रूप में रूमी से जुड़े रहे।

गूच कहते हैं, "रूमी का जीवन 2500 मील लंबे इलाके में फैला हुआ है। रूमी का जन्म ताजिकिस्तान के वख़्श गांव में हुआ। इसके बाद वे उज्बेकिस्तान में समरकंद, फिर ईरान और सीरिया गए। रूमी ने युवावस्था में सीरिया (शाम) के दमिश्क और एलेप्पो में अपनी पढ़ाई पूरी की।" इसके बाद उन्होंने जीवन के 50 सालों तक तुर्की के कोन्या को अपना ठिकाना बनाया और वहीं रूमी का निधन हुआ था।

 कुछ  किस्‍से सुने  अनसुने  से
ऐसा बताया जाता है कि एक रोज रूमी के किसी मुरीद ने कहा कि लोग इस बात पर एतराज करते हैं कि मसनवी को कुरान कहा जा रहा है तो रूमी के बेटे सुल्तान वलेद ने टोंक दिया कि असल में मसनवी कुरान नहीं कुरान की टीका है। तो रूमी थोड़ी देर तो चुप रहे फ़िर कहने लगे,” कुरान क्यों नहीं है, कुत्ते? कुरान क्यों नहीं है, गधे? अबे रंडी के बिरादर, कुरान क्यों नहीं है मसनवी? ये जानो कि रसूलों और फ़कीरों के कलाम के बरतन में खुदाई राज के अलावा और कुछ नहीं होता। और अल्लाह की बात उनके पाक दिलों से होकर उनकी जुबान के जरिये बहती है।”
माशूक के हुस्न का नशा है, विशाल की आरजू व दर्द है
रूमी में एक तरफ़ तो माशूक के हुस्न का नशा है, विशाल की आरजू व दर्द है; और दूसरी तरफ़ नैतिक और आध्यात्मिक ज्ञान की गहराईयों से निकाले मोती हैं। रुमी सिर्फ़ कवि ही नहीं हैं , वे सूफ़ी हैं, वे आशिक हैं, वे ज्ञानी हैं और सब से बढ़कर वे गुरु हैं।

हर कोई भूल जाता है अपने शहर को,
उतरता है जब भी खाबों की डगर को।

और यह भी:

पा गये हो दोस्त तुम कुछ चार दिन के
भूल गये दोस्त, नाता पुराना साथ जिनके।

रूमी की नजर में इंसाफ़-

इंसाफ़ क्या? किसी को सही जगह देना
जुल्म क्या है? उस को गलत जगह देना।
बनाया जो भी खुदा ने बेकार नहीं कुछ है
गुस्सा है, जज्बा है, मक्कारी है, नसीहत है।
इन में से कोई चीज अच्छी नहीं पूरी तरह,
इनमें से कोई चीज बुरी नहीं पूरी तरह।

आशिक और माशूक के रिश्‍ते को भी रूमी कुछ इस तरह कहते हैं।

अपने आशिक को माशूक़ ने बुलाया सामने
ख़त निकाला और पढ़ने लगा उसकी शान में
तारीफ़ दर तारीफ़ की ख़त में थी शाएरी
बस गिड़गिड़ाना-रोना और मिन्नत-लाचारी
माशूक़ बोली अगर ये तू मेरे लिए लाया
विसाल के वक़त उमर कर रहा है ज़ाया
मैं हाज़िर हूं और तुम कर रहे ख़त बख़ानी
क्या यही है सच्चे आशिक़ों की निशानी?

जीवन दर्शन में रूमी के फलसफे पूरी दुनिया के लिए आज भी प्रासंगिक हैं। जैसे कि-

रूमी ने एक दिन अपने शिष्यों को एक दफा कहा कि तुम मेरे साथ आओ, तुम कैसे हो, मैं तुम्हें बताता हूं। वह अपने शिष्यों को ले गया एक खेत में, वहां आठ बड़े-बड़े गङ्ढे खुदे थे, सारा खेत खराब हो गया था। रूमी ने कहा, देखो इन गङ्ढों को। यह किसान पागल है, यह कुआं खोदना चाहता है, यह चार-आठ हाथ गङ्ढा खोदता है, फिर यह सोच कर कि यहां पानी नहीं निकलता, दूसरा खोदता है। चार हाथ, आठ हाथ खोद कर, सोच कर कि यहां पानी नहीं निकलता, यह आठ गङ्ढे खोद चुका है। पूरा खेत भी खराब हो गया, अभी कुआं नहीं बना। अगर यह एक गङ्ढे पर इतनी मेहनत करता, जो इसने आठ गङ्ढों पर की है, तो पानी निश्चित मिल गया होता।

संकल्प करें, आप कुछ खोद कर लाएं, तो फिर हम और गहरी खुदाई कर सकें। स्मरण रखें कि ध्यान एक भीतरी खुदाई है, जिसको सतत जारी रखना जरूरी है। रूमी हमारे  जीवन  के उन  क्षणों  को  भी  छू  जाते  हैं  जो हम  अपनी  आत्‍मा  तक  से  छुपाए  रखते  हैं,  संभवत:  इसीलिए  वे  आज  तक  इतने  करीब   हैं जन ज जन के।

- अलकनंदा सिंह

बुधवार, 30 नवंबर 2016

अथातो साहित्‍यमंच कथा...द फुलऑन ड्रामा

समकालीन साहित्‍य किसी भी समाज का दर्पण होता है और साहित्‍य की दशा व दिशा दोनों को शब्‍दों के माध्‍यम से ही व्‍यक्‍त किया जा सकता है मगर लिटरेचर फेस्‍टीवल्‍स के नाम पर जो साहित्‍य मंच सजे हुए हैं, वे बता रहे हैं कि आज के साहित्‍य की दशा क्‍या है और आगे की दिशा क्‍या होगी।
जिस मनके से साहित्‍य अभी तक गूंथा जाता रहा , वह है शब्‍द। शब्‍द तब भी था जब श्रुतियों में ज्ञान समाया होता था। शब्‍द आज भी है जब वह स्‍वयं अपने दुरुपयोग से आहत है। शब्‍द का ये दुख तब और असहनीय होता है जब इसे स्‍वयं साहित्‍यकारों द्वारा विभिन्‍न मंचों से मात्र अपने निहितार्थ तोड़ा-मरोड़ा जाता है, वह भी मात्र इसलिए कि वह मीडिया में छा सकें या बुद्धिजीविता की और कुछ डिप्‍लोमैटिक सीढ़ियां चढ़ सकें। धाक जमा सकें कि देखो ऐसे हैं हम ''लोगों को बरगलाते हुए, सरकार को गरियाते हुए, सुधारवाद की सिर्फ बात करने वाले'' ''जमीनी हकीकतों से दूर रहने वाले इलीट''।
हमारे शास्‍त्रों में शब्‍द को ब्रह्म की संज्ञा दी गई है क्‍योंकि यह शाश्‍वत है और जो शाश्‍वत है , वह प्रकृति है और प्रकृति के खिलाफ बोलना ईश्‍वर के खिलाफ जाना है अर्थात् शब्‍द का सम्‍मान  करते हुए यदि सकारात्‍मकता के साथ बोला जाए तो वह अपना संदेश भी सकारात्‍मक देगा, यह बात साहित्‍यकार कुबूल ही  नहीं करना चाहते। हद तो तब हो जाती है जब साहित्य का बाजार भी इस परिभाषा को नहीं समझना चाहता। बाजारवाद इस कदर हावी है कि साहित्‍य की सेल लग रही है, तरह तरह के साहित्‍य मंच सजाए जा रहे हैं। इन मंचों पर भी विवादों ने कब्‍जा किया हुआ है, साहित्‍यकार तो एक कोने में रहते हैं मगर अपनी साहित्‍यिक सोच के नाम पर कहीं चिदंबरम दिखते हैं तो कहीं कन्‍हैया। और इन मंचों का इस्‍तेमाल लिटरेचर फेस्‍टीवल के आयोजक अपना नाम बेचकर एक अच्‍छे सेल्‍समैन की तरह अपने ''माल'' को ऊंची बोली (कंट्रावर्सियल हाइप) लगा कर कमा रहे हैं।
बहरहाल ऐसे में साहित्‍य अपने दंभ को कब तक बचा कर रख पाएगा, कहना मुश्‍किल है। अलबत्‍ता शब्‍दों, विचारधाराओं, मतों और इनमें व्‍याप्‍त विभिन्‍नताओं को संभालने वाला शब्‍द और इससे सजने वाला साहित्‍य निर्वस्‍त्र सा किया जा रहा है।
पूरे देश में साहित्‍य 'मंचों' पर तो है मगर मंच से जुदा है, वहां सिर्फ कंट्रोवर्सी ही कंट्रोवर्सी हैं। साहित्‍य के नाम पर व  उसकी आड़ में...राजनीति है...क्रूर वक्‍तव्‍य हैं...राष्‍ट्रवाद का मजाक बनाने वाले घिनौने आरोप हैं... अलगाववाद की अवधारणा वाले बयान हैं...यहां अखाड़ेबाजी के दांव-पेंच भी हैं और शतरंज की शह-मात भी।
सत्‍याग्रह ब्‍लॉग में अशोक वाजपेयी जब लिखते हैं कि-
''युवा वही है जो सचाई, भाषा, विचार, रूपाकार को बदलने का जोखिम    उठाता है। उसके लिए अपनी उपलब्‍धि से अधिक अपना संघर्ष अधिक मूल्‍यवान व जरूरी होता है। साहित्‍य में परिवर्तन के लिए भाषा में परिवर्तन आना जरूरी है तभी हम कह सकते हैं कि समाज और सचाई, समय और अभिव्‍यक्‍ति बदल रहे हैं।''
बिल्‍कुल सही है वाजपेयी जी का ये कथन तभी तो ''कश्‍मीर  में तैनात सैनिक बलात्‍कारी हैं'', ''भारत तेरे टुकड़े होंगे'' ''अफजल हम शर्मिंदा हैं ,तेरे कातिल ज़िंदा हैं'' जैसे नारों से तथाकथित ख्‍याति अर्जित करने वाले कन्‍हैयाकुमार को साहित्‍य मंच अपने यहां आमंत्रित करके न केवल समाज और सच्‍चाई को सामने ला रहे हैं बल्‍कि समय और अभिव्‍यक्‍ति का सच भी बता रहे हैं कि यह किस रास्‍ते पर हैं और भाषा, विचार, रूपाकार को बदलने का जोखिम उठा रहे हैं।
स्‍वयं अशोक वाजपेयी जी अवार्ड वापस कर बता ही चुके हैं कि समाज का बुद्धिजीवी कितना अगंभीर हो चुका है और किसी अगंभीर व्‍यक्‍ति से शब्‍द के प्रति ''सम्मान'', भाषा के प्रति गंभीरता उतनी ही खोखली है जितनी कि साहित्‍य मंचों की विभिन्‍न रत्‍नों ( कन्‍हैयाकुमार जैसे) से की गई सजावट। वाजपेयी जी का जिक्र करना यहां इसलिए जरूरी हुआ कि जिस समाज और सचाई, समय और अभिव्‍यक्‍ति को बदलने की वो बात कर रहे हैं, स्‍वयं उन्‍होंने राजनैतिक विद्धेष पालने वाले साहित्‍यकार होने का ही मुजाहिरा किया है अभी तक। जब साहित्‍यकार ही अपनी बात में ईमानदार नहीं होंगे तो वो साहित्‍य के नाम पर मंच बनाने वाले सौदागरों की मुखालफत कैसे कर पाऐंगे। और जब साहित्‍यकार ही इस बाजारवाद को मुंह सिंए देखते रहेंगे तो युवाओं को किसी भी तरह की सीख देने का उन्‍हें अधिकार नहीं।
मैं राष्‍ट्रवाद की गढ़ी गई परिभाषा से इतर ये अवश्‍य कहना चाहूंगी कि अशोक वाजपेयी हों या अन्‍य साहित्‍यकार, उनकी ये चुप्‍पी साहित्‍य को ''बाजार'' तक तो ले ही आई है। इन वरिष्‍ठों से हमारी गुजारिश है कि कम से कम अब तो इसे ''बाजारवाद'' की भेंट ना चढ़ने दें। साहित्‍य मंचों पर गैर साहित्‍यकारों का कब्‍जा स्‍वयं साहित्‍य को, उसमें समाहित श्‍ब्‍दों के विशाल समूह को, शब्‍दरूप ब्रह्म को अपमानित करने एक तरीका है और साहित्‍य की बेहतरी के लिए ये तरीका अब और नहीं चलना चाहिए। वो गैर साहित्‍यकार, जो शब्‍दों की महत्‍ता नहीं समझ सकते, विशुद्ध साहित्‍यकारों को पीछे धकेले दे रहे हैं।
जिस शब्‍द से समाज और संस्‍कृति का परिचालन होता है, जब वो शब्‍द ही नहीं बचेगा तो ना समाज बचेगा और ना ही संस्‍कृति। साहित्‍य मंचों का ''बाजार'' हमारे समाज-साहित्‍य सभी के लिए अच्‍छा संकेत नहीं है।

- अलकनंदा  सिंह

सोमवार, 21 नवंबर 2016

भारतीय Mars Orbiter द्वारा भेजी गई फोटो को नेशनल जियोग्राफिक ने कवर पेज बनाया

 देश की प्रगति को यदि निस्‍पृह होकर देखा जाए तो यह बारबार दिख रहा है कि ... देश बदल रहा है। आज आई ये सूचना वैश्‍विक स्‍तर पर देश की ख्‍याति को एक और पायदान ऊपर ले जाने वाली है। इसे किसी राजनैतिक सोच, पार्टी या नेता अथवा विचारधारा से ना जोड़करखालिस भारतीय प्रगतिवाद से जोड़कर देखना चाहिए। निश्‍चितत: यह हमारे लिए गर्व का विषय है।
भारतीय Mars Orbiter द्वारा भेजी गई फोटो को नेशनल जियोग्राफिक ने कवर पेज बनाया

मंगल मिशन पर गए भारतीय Mars Orbiter ने तीन साल होने पर एक और उपलब्धि हासिल कर ली है। मंगलयान द्वारा ली गई मंगल ग्रह की एक तस्वीर को प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेशनल जियोग्राफिक ने कवर फोटो बनाया है। मंगलयान ने यह तस्वीर साधारण कैमरे से ली और इसमें मंगल ग्रह की तकरीबन पूरी तस्वीर एक साथ दिख रही है। मंगलयान की इस उपलब्‍धि से भारत के नाम एक और सफलता जुड़ गई है।
इस उपलब्धि पर प्रतिक्रिया देते हुए एक विशेषज्ञ ने कहा, मंगल ग्रह की हाई रिजोल्यूशन की इतनी बड़ी तस्वीर बहुत कम ही उपलब्ध है। भले ही दुनिया के तमाम देशों ने लाल ग्रह को लेकर पिछले कई सालों में 50 से ज्यादा मिशन किए हों लेकिन मंगलयान द्वारा खीचीं गई यह तस्वीर बहुत उम्दा है।
गौरतलब है कि मंगलयान की सफलता के साथ ही भारत पहली ही कोशिश में मंगल पर जाने वाला दुनिया का पहला देश बन गया है। यूरोपीय, अमेरिकी और रूसी यान लाल ग्रह की कक्षा में या जमीन पर पहुंचे हैं लेकिन कई प्रयासों के बाद।
भारत का मंगलयान बहुत ही कम लागत वाला अंतरग्रही मिशन है। नासा का मंगल यान मावेन 22 सितंबर को मंगल की कक्षा में प्रविष्ट हुआ था। भारत के मंगलयान की कुल लागत मावेन की लागत का मात्र दसवां हिस्सा है। कुल 1,350 किग्रा वजन वाले अंतरिक्ष यान में पांच उपकरण लगे हैं।
इन उपकरणों में एक सेंसर, एक कलर कैमरा और एक थर्मल इमैजिंग स्पेक्ट्रोमीटर शामिल है।
यह उपग्रह, जिसका आकार लगभग एक नैनो कार जितना है, तथा संपूर्ण मार्स ऑरबिटर मिशन की लागत कुल 450 करोड़ रुपये या छह करोड़ 70 लाख अमेरिकी डॉलर रही है, जो एक रिकॉर्ड है।
यह मिशन भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइज़ेशन या इसरो) ने 15 महीने के रिकॉर्ड समय में तैयार किया,
और यह 300 दिन में 67 करोड़ किलोमीटर की यात्रा कर अपनी मंज़िल मंगल ग्रह तक पहुंचा। यह निश्चित रूप से दुनियाभर में अब तक हुए किसी भी अंतर-ग्रही मिशन से कहीं सस्ता है।

- अलकनंदा  सिंह 

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

ये फीनिक्‍स के अपनी राख में से उठ खड़े होने का समय है

कहावतें और उक्‍तियां, लोकोक्‍तियां बनकर किसी भी देश, काल, समाज की  उन्‍नति तथा अवनति, विचारधारा, सांस्‍कृतिक उत्थान- पतन और सामाजिक चेतना  के स्‍तर को दिखाती हैं।
ऐसी ही एक कहावत हमारे देश के बारे में भी प्रचलित रही है- कि ''भारत सोने  की चिड़िया था''। इस एक कहावत ने देश के प्राचीनतम इतिहास, भूगोल,  सामाजिक व्‍यवस्‍था, सांस्‍कृतिक विरासतें सभी को अपनी ज़द में ले लिया था और  इस एक कहावत ने ही देश की अनमोल विरासतों के खंड-खंड कराए। इस तरह ये  भारतवर्ष से यह भारत बनता गया। सोने की चिड़िया को बार-बार उड़ने, घायल  होने पर विवश होना पड़ा। सदियों के ताने-बाने इस एक कहावत ने बदल दिए।  चूंकि देश सोने की चिड़िया था इसलिए आक्रांताओं  की गिद्ध दृष्‍टि से बच नहीं  पाया, और इस कहावत के कारण ही हमने राजनैतिक-सामरिक विखंडन जैसे  झंझावात झेले। देश को सोने की चिड़िया कहे जाने के Consequences आज तक  देखे जा सकते हैं।
मगर कहते हैं ना कि समय किसी के लिए एक जैसा नहीं रहता, ना व्‍यक्‍तियों के  लिए और ना ही देश के लिए। वह अपनी गति से आगे बढ़ता रहता है और सबको  उसी की गति के नियम मानने भी होते हैं। इसीलिए इस कहावत ने भी अपनी  गति, समय की गति में मिलाई और इसका रूप बदला। इसी बदले रूप को हम  आजकल देख सकते हैं।
हालांकि कुछ नकारात्‍मक चेष्‍टाओं ने समाजवाद के नाम हमें बार-बार यह दिखाने  की कोशिश की कि भारत सोने की चिड़िया था मगर अब सोने की चिड़िया नहीं  रहा, उन्‍होंने पूंजी की असमानता का राग तो अलापा मगर उस असमानता को दूर  करने का कोई रास्‍ता नहीं दिखाया, संभवत: वे समाजवादी और उनके वर्तमान  प्रतिरूप कथित समाजवादी (पार्टी नहीं) सोच वाले एक भयंकर नकारात्‍मकता से  घिरते चले गए।
इस बीच देश अपने सोने की चमक से लेकर गुलामी की कालिख तक बार-बार  राख कर दिए जाने के बावजूद फीनिक्‍स पक्षी की तरह उठ खड़ा होता रहा, समय  के साथ उसने तमाम जद्देाजहद सहकर अपनी राख से फिर उठ खड़े होने का  हौसला दिखाया। 8 नवंबर के बाद से तस्‍वीर बता रही है कि सोने की चिड़िया का  ये रूप परिवर्तन हो चुका है, अब यह कहीं बैंकों की कतार में खड़े दिहाड़ी मजदूर  के हौसले के रूप में तो कहीं कालाधन वालों में बेचैनी के रूप में दिखाई दे रहा है।  आज से तो बेनामी संपत्‍तियों पर सरकार की निगाहें बता रही हैं कि ये समय  फीनिक्‍स से सोन चिरैया बनने का है। हर बदलाव, हर नया रूप, हर नई चेतना  का जन्‍म दर्द से ही होता है मगर दर्द के बाद नएपन का नज़ारा ही कुछ और  होता है। कतार में खड़े होने का दर्द अपने साथ कुछ नए खुशनुमा संकेत भी ला  रहा है।
अपनी राख से तो फीनिक्‍स जी उठा है, वह अब पुन: सोने की चिड़िया बनने के  लिए अंगड़ाई ले रहा है। अब ये हमें सोचना है कि इस चिड़िया को सही दिशा कैसे  दी जाए, इस चेतना के साथ कि अब सोने की चिड़िया पर किसी की बुरी नजर ना  पड़ सके, चाहे वह नज़र बाहरी हो या भीतरी।


और अंत में.....
फीनिक्‍स के बावत आपने यह तो सुना ही होगा कि उसे दुनियाभर की दंत कथाओं  में  ५०० से १००० वर्षों तक जीने वाला मायापंक्षी कहा गया है जिसके प्रमाण अभी  नहीं मिले हैं मगर वह मौजूद हर कालखंड में रहा है।
कथाओं के अनुसार फ़ीनिक्स एक बेहद रंगीन पक्षी है जिसकी दुम कुछ कथाओं में  सुनहरी या बैंगनी बताई गई है तो कुछ में हरी या नीली. यह अपने जीवनचक्र के  अंत में खुद के इर्द-गिर्द लकड़ियों व टहनियों का घोंसला बनाकर उसमें स्वयं जल  जाता है। घोसला और पक्षी दोनों जल कर राख बन जाते हैं और इसी राख से एक  नया फ़ीनिक्स उभरता है।
इस नए जन्मे फ़ीनिक्स का जीवन काल पुराने फ़ीनिक्स जितना ही होता है।
कुछ और कथाओं में तो नया फ़ीनिक्स अपने पुराने रूप की राख एक अंडे में भर  कर मिस्र के शहर हेलिओपोलिस (जिसे यूनानी भाषा में "सूर्य का शहर" कहते है)  में रख देता है। यह कहा जाता है की इस पक्षी की चीख़, किसी मधुर गीत जैसी  होती है। अपने ही राख से पुनर्जन्म लेने की काबिलियत के कारण यह माना जाता  है कि फ़ीनिक्स अमर है। यहां तक कि कुछ प्राचीन कहानियों के अनुसार ये  मानवों में तब्दील होने की काबिलियत भी रखता है।


- अलकनंदा सिंह

शनिवार, 12 नवंबर 2016

और..अफवाहों का समाजशास्‍त्र

सुप्रीम कोर्ट के जज मार्कंडेय काटजू ने सही ही कहा था कि देश में 90% लोग मूर्ख हैं, हालांकि मैं इससे पूर्णत: असहमत  हूं मगर आज भी जब अफवाहों के चलते नमक लेने दौड़ पड़ते लोग दिखाई देते हैं तो काटजू की बात पर ना चाहते हुए भी  विश्‍वास सा होने लगता है। अफवाहें हैं कि जीने ही नहीं देतीं...क्‍या बेपढ़े और क्‍या पढ़े लिखे...सभी के सभी नमक लेने को  लाइन में लगे थे, क्‍या नज़ारा था...बड़ा अजीब लगा देखकर।

इधर बैंक के सामने पुराने 500 और 1000 के पुराने नोट, नए से बदलने वाले और कुछ ''खुल्‍ला कराने वाले'' लाइन में  लगे थे, उधर कालाधन सफेद कराने वालों के बारे में तरह-तरह की सूचनाएं हवा में तैर रही थीं।
अव्‍वल तो 8 नवम्‍बर के बाद से सरकार ही अपनी ''बात'' समझाते-समझाते ही परेशान है, उसके बाद लोग हैं कि अफवाहें  फैला रहे हैं। और उस पर विश्‍वास करते लोगों को देखकर गुस्‍सा आना स्‍वभाविक है।

हालांकि पोथियों में पढ़ा जाने वाला ज्ञान जब व्‍यवहार में उतरता है तो उसकी शक्‍ल ही बदल जाती है। कहीं पढ़ा था कि  समाज मनोविज्ञान के अंतर्गत मनोविज्ञान और सामाजिक समस्‍याओं के तहत interpersonal behaviour में मनोवृत्‍तियों  का अध्‍ययन कराया जाता है जिसमें motivation and cognition में पढ़ाया जाता है कि बायोलॉजिकल मोटिव्‍स, सोशल  मोटिव्‍स आदि क्‍या होते हैं, उनके लाभ और हानि क्‍या होते हैं और इनके साधन क्‍या होते हैं। इन्‍हीं मोटिव्‍स में आती हैं  अफवाहें भी। अफवाह के बारे में ठीक-ठीक ये कहा नहीं जा सकता कि ये आखिर क्‍यों और कैसे फैलती रहीं। कुछ लोग  अफवाह के व्‍यापारी यानि rumour monger होते हैं जिन्‍हें समाज मनोविज्ञान में बीमार की श्रेणी में रखा जाता है जो  interactions पर आधारित होता है।

समाज मानोविज्ञान पर ही अरुण कुमार सिंह की किताब में अफवाह को एक ऐसी कहानी या प्रस्ताव बताया गया है कि  जो समुदाय के किसी ''संवेगात्मक घटना'' से सम्बन्धित होती है और जो मौखिक रूप से समुदाय के सदस्‍यों के बीच रंग  चलते हुए फैल जाती है। इसकी सच्चाई पर लोग आँख मूँदकर विश्‍वास कर लेते हैँ।

अफवाह में इमोशनल एलीमेंट इतना ज्‍यादा होता है कि कुछ सामान्य सी बात को भी लोग सामूहिक रूप से बेहद  इमोशनली होकर, उसमें अपनी पूर्ण कथात्‍मक क्षमता का समावेश करके नमक मिर्च लगा लगाकर परोसते रहते हैं और  शिक्षित व अशिक्षित सभी उस इमोशनल बहाव में बहते चले जाते हैं।

अभी अफवाह को लेकर बढ़ रही बेचैनी ही है कि केंद्र सरकार व स्‍टेट के डिपार्टमेंट ऑफ कंज्यूमर अफेयर्स को भरोसा  दिलाना पड़ा है कि लोगों को फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है। देश में सिर्फ 60 लाख टन नमक की खपत है जबकि  220 लाख टन का प्रोडक्शन होता है, लिहाजा नमक के दाम नहीं बढ़ेंगे। लोग घबराएं नहीं। ये सिर्फ अफवाह है और इसके  लिए जिम्मेदार लोगों पर कार्यवाही की जाएगी।

शाम होने को आई मगर यूपी के साथ-साथ मध्य प्रदेश व गुजरात, आंध्र प्रदेश के भी कई शहरों में नमक को लेकर  अफवाह आती जा रही है।
अफवाह की खबरें आने पर केंद्रीय खाद्य मंत्री रामविलास पासवान ने उत्तर प्रदेश में नमक की किल्लत की अफवाहों को  खारिज करते हुए कहा कि इसकी कीमत 14 से 15 रुपये प्रति किलो ही है। पासवान ने कहा कि पैनिक फैलाने वालों पर  सरकार को एक्शन लेना चाहिए। राज्य सरकार एक्शन क्यों नहीं लेती हैं? कौन 200 रुपये किलो बेच रहा है। देश में न  नमक, न गेंहू, ना दाल किसी की कोई कमी नहीं है। ये केंद्र सरकार को बदनाम करने की राजनीति हो रही है।
अब राज्‍य सरकारें एक्‍शन लें या नहीं, अफवाहें कितनों को मालामाल करती हैं या बेवकूफ बनाती हैं, यह तो पता नहीं  मगर काटजू का कथन तो सच ही साबित हो रहा है कि हम सब (व्‍हाट्सएप समेत सोशल मीडिया इस ज़माने में भी)  कितनी आसानी से बड़ी संख्‍या में मूर्ख बनाए जा रहे हैं।

जो हकीकत से दूर भागते हैं और कान के कच्‍चे होते हैं, वही अफवाहों का निशाना बनते हैं...

किसी शायर ने क्‍या खूब ही कहा है कि -
“अफवाह कभी दिल-ए-हालात बता नहीं सकते,
जो जाननी हो तबियत तो हमसे मिलते रहा करो...”

-अलकनंदा सिंह

रविवार, 6 नवंबर 2016

तस्‍वीरें बता रही हैं कि हम ”किस तरह से” सूर्य की उपासना कर रहे हैं


प्रत्‍येक ‘उदय’ का ‘अस्त’ जहां भौगोलिक नियम है, वहीं ‘अस्त’ का ‘उदय’ प्राकृतिक व  आध्यात्मिक सत्य है। सूर्य की अस्‍ताचलगामी रश्‍मियां इस सत्‍य को सार्वभौम कर देती हैं।

आज अस्‍ताचलगामी सूर्य को अर्घ्‍य देती स्‍त्रियों की एक फोटो ने बहुत कुछ ऐसा कह दिया  कि पूरे पर्व के औचित्‍य पर दोबारा सोचना पड़ रहा है। हालांकि गत 3 नवम्‍बर को  यमद्वितीया पर मथुरा के यमुना किनारे का दृश्‍य भी कुछ इसी तरह का था।

बहन-भाई दोनों ही सोच रहे थे कि आखिर अपने प्रेम को ”किस यमुना” में डुबकी लगाकर  अमर किया जाए… वो यमुना जो पवित्र है, जिसे यम की बहन कहा गया, जो कृष्‍ण को  छूकर धन्‍य हुई थीं या उस यमुना को जो पूरे शहर का मैला ढोने को अभिशप्‍त है। ठीक  यही हाल आज दिल्‍ली की यमुना का भी दिखा।

सूर्य की उपासना का पर्व ”छठ” भी लोक में आकर अपनी दिव्यता का मूलभाव तिरोहित कर  चुका है, यदि ऐसा ना हुआ होता तो आज दिल्‍ली के कालिंदी कुंज की ये तस्‍वीरें हमें यह  सोचने पर बाध्‍य ना कर रही होतीं कि आखिर हम ”किस सूर्य की उपासना” कर रहे हैं,  ”किस तरह से” सूर्य की उपासना कर रहे हैं। पूरी तरह प्रदूषित जल में कमर तक खड़े  होकर, इसी प्रदूषण से उपजे झागों में घिर कर हम आखिर सूर्य की आराधना से किस  मनोकामना को पूरा करने की चाहत रख रहे हैं।

सूर्य की आराधना का ये लोक-भावन स्‍वरूप संभवत: कर्ण द्वारा सूर्य की उपासना से  प्रभावित दिखता है जिसमें जल में कमर तक खड़े होकर अर्घ्‍य दिया जाता है, मगर तब  जल और खासकर बहते हुए जल को पवित्र रखा जाता था। संभवत: इसीलिए संकल्‍प के  लिए जल से ज्‍यादा पवित्र कुछ नहीं था मगर अब स्‍थितियां एकदम बदल चुकी हैं।

यूं तो वैदिक मन्त्रों में सर्वश्रेष्ठ माने गये गायत्री महामन्त्र का देवता भी सविता अर्थात् सूर्य  ही है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है ‘‘सविता वा देवानां प्रसविता।’’ अर्थात् सविता ही देवों  का प्रसव करने वाला, अपने अंश से उत्पन्न करने वाला है। इसके अनुसार जो सूर्य आकाश  में दिखाई देता है, वह उस सूर्य का एक स्थूल रूप है जिसका विस्तार अनन्त है। शास्‍त्रों में  माना जाता रहा है कि यह ब्रह्माण्ड कितने ही सूर्यों से जगमगा रहा है और ये सभी सूर्य  उस अज्ञात महासूर्य की ही उपज हैं इसीलिए प्राणदायिनी ऊर्जा एवं प्रकाश का एक मात्र  स्रोत होने से सूर्य का नवग्रहों में भी सर्वोपरि स्थान है।

निश्चय ही भारतीय संस्कृति ने सूर्य के इस लोकोपकारी स्वरूप को पहले ही जान लिया था,  इसीलिए भारतीय संस्कृति में सूर्य की उपासना पर पर्याप्त बल दिया गया है।

सूर्योपासना के लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के लाभ हैं। निष्काम भाव से दिन-  रात निरंतर अपने कार्य में रत सूर्य असीमित विसर्ग- त्याग की प्रतिमूर्त है, इसी तरह यह  कर्म प्रधानता को आगे रखता है। सूर्यदेव सबको समर्थ बनाएं, यही सूर्योपासना का मूल  तत्व है। भारतीय संस्कृति भी सभी को समर्थ बनाने की इसी भावना से ओत- प्रोत रही है।  इसी आधार पर आदि सविता तो परब्रह्म कहा जा सकता है किन्तु प्रत्यक्ष सूर्य को भी  ‘सविता’, अर्थात् परब्रह्म का सर्वोत्त्म प्रतीक कहा गया है।

अथर्ववेद में लिखा है-
‘संध्यानो देवःसविता साविशद् अमृतानि।’ अर्थात् यह सविता देव अमृत तत्त्वों से परिपूर्ण  है। और — ‘तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषः।’
अर्थात् यह परम पुरुष सविता तेज का भण्डार और अमृतमय है।

कहा जाता है कि वेदों में जितने भी मंत्र हैं, वे तन-मन को आरोग्‍य देते हैं मगर अथर्ववेद  की इसी पंक्‍ति को आज जब कालिंदी कुंज के झागदार प्रदूषित पानी में खड़े होकर सूर्य को  अर्घ्‍य देते समय दोहराया गया होगा तो क्‍या ये मंत्र अपना कोई प्रभाव छोड़ पाए होंगे, मुझे  तो भारी संशय है।

प्रदूषण की मार से यूं तो अब जल, जंगल, नदी और वायु सहित समूची प्रकृति प्रभावित है  किंतु यमुना और गंगा जैसी जीवनदायिनी नदियों के तो अस्‍तित्‍व पर ही प्रश्‍नचिन्‍ह लगने  लगा है। यमुना को सूर्य की पुत्री माना गया है। ऐसे में अब सूर्योपासना के इस पर्व की  सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब इस पर्व को मनाने वाला समूचा वर्ग सूर्यपुत्री को प्रदूषणमुक्‍त  कराने का संकल्‍प ले और संकल्‍प ले इस बात का भी कि अगले छठ पर्व पर वह डूबते सूर्य  को अर्घ्‍य तो देगा लेकिन प्रदूषित यमुना में खड़े होकर नहीं।
यमुना ही क्‍यों, किसी भी  प्रदूषित नदी में खड़े होकर नहीं। सूर्य को अर्घ्‍य स्‍वच्‍छ व निर्मल जल की धारा में खड़े  होकर दिया जाएगा। फिर चाहे इसके लिए कितना ही कठिन व्रत और कितना ही कठिन  संकल्‍प क्‍यों न लेना पड़े।
– अलकनंदा सिंह

शनिवार, 29 अक्टूबर 2016

कुछ नई पहल.. अबकी बार...दीपावली के शुभ अवसर पर

(1)
सोच बदलने दो...

जब भी कभी हम लकीर से हटकर अपना अलग नज़रिया पेश करते हैं, तब बदलाव हमेशा याद रखे जाते हैं, वे नज़ीर बन जाते हैं। चाहे दीपावली पर अपने गली-कूचे में पटाखे ना छुड़ाने का संकल्‍प लिया जाए या सिर पर डलिया रखकर 10-11 साल की बच्‍ची से सारे दीए इसलिए खरीद लिए जाऐं कि वह बच्‍ची अतिशीघ्र ''अपनी'' दीवाली अपनी ही तरह से मना सके। ऐसा ही इस दीवाली पर एक बदलाव बीसीसीआई ने किया है- मैच का एक दिन खिलाड़ियों की मां के नाम करके।
जी हां, आज विशाखापत्‍तनम में भारत-न्‍यूजीलैंड के बीच 5वां वनडे मैच खेला जा रहा है। मैच की विजेता कौन सी टीम होगी, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता मगर बीसीसीआई ने आज उन मांओं का दिल तो जीत ही लिया जिन्‍होंने अपने क्रिकेट स्‍टार बेटों को ''स्‍टार'' बनाने के लिए नींव के पत्‍थर की तरह चुपचाप अपनी यात्रा पूरी की। मैच के प्रसारण अधिकार लेने वाले इलेक्‍ट्रानिक चैनल स्‍टार प्‍लस और आयोजक बीसीसीआई की एक अनूठी संयुक्‍त पहल है कि सभी भारतीय खिलाड़ी अपनी जर्सी पर अपनी मां का नाम पहन कर खेल रहे हैं।
इसका आइडिया प्रधानमंत्री के बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ से प्रेरित है, तभी तो जब अजिंक्‍य रहाणे और महेंद्र सिंह धोनी से पूछा जाता है कि '' मां का नाम पहनने की कुछ खास वजह'' तो दोनों कहते हैं ''आज तक हम पिता का नाम (सरनेम) पहनते रहे तब तो आपने नहीं पूछा ''खास वजह'' के बारे में।
बहरहाल पिता के बाद मां का नाम पहनने की ये पहल और आज का दिन, दोनों ही क्रिकेट के रिकॉर्ड में अपनी अद्भुत उपस्‍थिति के साथ दर्ज़ हो गया। तो क्रिकेट में आई इस सोच ने मनाई ये दीवाली नई पहल के साथ...।

(2)
''अप्‍प दीपो भव''
प्राकृत भाषा में बोले गए ये तीन शब्‍द, भगवान बुद्ध ने अपने शिष्‍य आनंद को कहे थे। बुद्ध के अंतिम समय में आनंद को दुखी देखकर कहा बुद्ध ने समझाकर कहा...अप्‍प दीपो भव। यही तीन उनके आखिरी शब्‍द थे। अर्थात् अपना प्रकाश स्‍वयं बनो, अपने दीपक के प्रकाश स्‍वयं बनो, अपना दीप जलाकर स्‍वयं सत्‍य की खोज करो, प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति का अपना सत्‍य होता है, यही उसका स्‍वयं का सत्‍य होता है। दूसरे के दिखाए सत्‍य और प्रकाश के पीछे उसकी सोच होगी, वह तुम्‍हारी नहीं होगी और जब तुम्‍हारी नहीं होगी तो निश्‍चय ही वह तुम पर थोपी गई होगी, और थोपी गई सोच कभी ''तुम्‍हारा वाला'' सत्‍य नहीं हो सकती और इसीलिए वह तुमसे, तुम्‍हारे सुख से कोसों दूर होगी।
शिष्‍य आनंद से भगवान बुद्ध ने तभी यह भी कहा- दूसरों पर आश्रित रहना व्‍यर्थ है, दीपक की तरह स्‍वयं जलकर ही प्राप्‍त किए गए प्रकाश की अहमियत हम जान सकते हैं।
दीपक की तरह स्‍वयं जलो, जलकर जानो कि प्रकाश कैसे मिला, कितना मिला और इसे आगे कैसे प्रयुक्‍त करना है। दीपक के द्वारा बुद्ध ने आत्‍मप्रकाश की बात की है।
संघर्ष में तपने के बाद ही व्‍यक्‍ति स्‍वयं से परिचित हो पाता है, अपनी शक्‍तियों को पहचान पाता है।
इसप्रकार दीपावली हमें हमारी आत्‍मा की शक्‍ति की पहचान कराकर, स्‍वयं के अनुभव से ज्ञान प्राप्‍त करने का त्‍यौहार बन जाता है, ठीक उसीतरह जैसे कि भगवान श्रीराम ने राजसुख छोड़कर संघर्ष के माध्‍यम से जीवन और जगत का स्‍वयं ही ज्ञान प्राप्‍त किया था।

ये आत्‍मज्ञान का पर्व है...तो सोच बदलो , देश व समाज बदलेगा ही बदलेगा... अप्‍प दीपो भव। ...शुभ दीपावली


- अलकनंदा सिंह

बुधवार, 26 अक्टूबर 2016

समान नागरिक संहिता पर Law Commission का ये दांव अद्भुत है

समान नागरिक संहिता पर Law Commission का ये दांव अद्भुत है
राजनैतिक दलों को उन्‍हीं के लबादों में उन्‍हीं की असलियत दिखाने का इससे शानदार मौका क्‍या होगा कि समान नागरिक संहिता पर उनके विचार सार्वजनिक किए जायें, बजाय इसके कि वे केंद्र सरकार पर सांप्रदायिक फायदे का आरोप लगा लगाकर अपने वोटबैंक को कैश करते रहें।
दरअसल आज समान नागरिक संहिता के विवादास्पद मुद्दे पर विचार विमर्श के दायरे का विस्तार करते हुए Law Commission ने सभी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय राजनीतिक दलों से अपनी राय साझा करने का आह्वान किया है और उसने इस विषय पर संवाद के लिए उनके प्रतिनिधियों को निमंत्रित करने की योजना बनायी है।
इसे केंद्र सरकार की राजनैतिक घेरेबंदी के रूप में देखा जाना चाहिए।

आयोग ने इस विषय पर राजनीतिक दलों को प्रश्नावली भेजी है और उनसे 21 नवंबर तक अपनी राय भेजने को कहा है. सात अक्तूबर को भेजी गयी विधि आयोग की इस प्रश्नावली में लोगों से, क्या तीन बार तलाक कहने की प्रथा खत्म की जानी चाहिए, क्या समान नागरिक संहिता ऐच्छिक होनी चाहिए जैसे संवदेनशील मुद्दे पर शायद पहली बार उनकी राय मांगी गयी है.

गौरतलब है कि चुनाव आयोग में सात दल राष्ट्रीय स्तर पर और 49 दल क्षेत्रीय स्तर पर पंजीकृत है. राष्ट्रीय राजनीतिक दलों में भाजपा, कांग्रेस, बसपा, राकांपा, भाकपा, माकपा और तृणमूल कांग्रेस हैं.
विधि आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति (सेवानिवृत) डॉ बी एस चौहान ने सभी राजनीतिक दलों को लिखे पत्र में कहा है, ‘आयोग कई दौर की चर्चा के बाद यह समझने के लिए एक प्रश्नावली तैयार की है कि आम लोग समान नागरिक संहिता के बारे में क्या महसूस करते हैं?’
उन्होंने लिखा, ‘चूंकि राजनीतिक दल किसी भी सफल लोकतंत्र के मेरुदंड हैं अतएव इस प्रश्नावली के संदर्भ में सिर्फ उनकी राय ही नहीं बल्कि इससे संबंधित उनके विचार भी बहुत महत्वपूर्ण है. ”
इस मुद्दे पर अधिकाधिक विचार-विमर्श के प्रयास के तहत चौहान ने राजनीतिक दलों से इस विषय पर अपने विचार बताने को कहा है.
आयोग ने कहा है कि वह इस विवादास्पद विषय पर संवाद के लिए बाद में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित करेगा.
उसके अध्यक्ष ने कहा, ‘आपका सहयोग आयोग को समान नागरिक संहिता पर त्रुटिहीन रिपोर्ट लाने में सहयोग पहुंचाएगा.’ कुछ दिन पहले चौहान ने मुख्यमंत्रियों से अल्पसंख्यक संगठनों, राजनीतिक दलों एवं सरकारी विभागों को उसकी प्रश्नावली पर जवाब देने के वास्ते उत्साहित करने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने की अपील की थी.
सभी मुख्यमंत्रियों को भेजे पत्र में चौहान ने उनसे अपने राज्यों में संबंधित पक्षों जैसे अल्पसंख्यक संगठनों, राजनीतिक दलों, गैर सरकारी संगठनों, सिविल सोसायटियों और यहां तक कि सरकारी संगठनों एवं एजेंसियों को आयोग के साथ अपना विचार साझा करने एवं संवाद करने के लिए प्रोत्साहित करने का आग्रह किया था.
परामर्श पत्र के साथ जारी अपील में आयोग ने कहा था कि इस प्रयास का उद्देश्य संभावित समूहों के विरुद्ध भेदभाव का समाधान करना और विभिन्न सांस्कृतिक प्रथाओं में संगति बनाना है. उसने लोगों को आश्वासन दिया है कि किसी भी वर्ग, समूह या समुदाय की परपंराएं परिवार विधि सुधार के अंदाज पर वर्चस्वशील नहीं होंगी.

- अलकनंदा  सिंह

शनिवार, 22 अक्टूबर 2016

8000 से ज्यादा लोगों को निगल चुके Bermuda Triangle की मिस्‍ट्री सुलझाने का दावा

साइंस चैनल ‘What on Earth?’ पर प्रसारित की गई एक रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि अजीब तरह के  दैत्य बादलों की मौजूदगी के चलते ही हवाई जहाज और पानी के जहाजों के गायब होने की घटनाएं Bermuda Triangle के आस पास देखने को मिलती है।
बीते 100 साल में ही इस जगह करीब 20 ज्यादा छोटे-बड़े पानी के जहाज गायब हुए हैं जिन पर सवार 1000 से ज्यादा लोग भी कभी वापस नहीं आए। आंकड़ों के मुताबिक यहां अब तक 8000 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है।

कैसे हैं ये दैत्य बादल ( Hexagonal clouds)
वैज्ञानिकों ने इन बादलों को Hexagonal clouds नाम दिया है। ये हवा में एक बम विस्फोट की मौजूदगी के जितनी शक्ति रखते हैं और इनके साथ 170 मील प्रति घंटा की रफ़्तार वाली हवाएं होती हैं। ये बादल और हवाएं ही मिलकर पानी और हवा में मौजूद जहाजों से टकराते हैं और फिर वो कभी नहीं मिलते। 500,000 स्क्वायर किलोमीटर में फैला ये इलाका पिछले कई सौ सालों से बदनाम रहा है। वैज्ञानिकों के मुताबिक बेहद तेज रफ़्तार से बहती हवाएं ही ऐसे बादलों को जन्म देती हैं। ये बादल देखने में भी बेहद अजीब रहते हैं और एक बादल का दायरा कम से कम 45 फ़ीट तक होता है। इनके भीतर एक बेहद शक्तिशाली बन से भी ज्यादा ऊर्जा होती है। मीट्रियोलोजिस्ट  Randy Cerveny के मुताबिक ये बादल ही बम विस्फोट जैसी स्थिति पैदा करते हैं जिससे इनके आसा-पास की सभी चीज़ें बर्बाद हो जाती हैं।

Randy Cerveny कहते हैं कि ये हवाएं इन बड़े बड़े बादलों का निर्माण करती हैं और सिर्फ ये एक विस्फोट की तरह समुद्र के पानी से टकराते हैं और सुनामी से भी ऊंची लहरे पैदा करते हैं जो आपस में टकराकर और ज्यादा ऊर्जा पैदा करती हैं। इस दौरान ये अपने आस-पास मौजूद सब कुछ बर्बाद कर देते हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक ये बादल बरमूडा आइलैंड के दक्षिणी छोर पर पैदा होते हैं और फिर करीब 20 से 55 मील का सफ़र तय करते हैं। कोलराडो स्टेट यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर और मीट्रियोलोजिस्ट Dr Steve Miller ने भी इस दावे का समर्थन किया है। उन्होंने भी दावा किया है कि ये बादल अपने आप ही पैदा होते हैं और उन्हें ट्रैक कर पाना भी बेहद मुश्किल है।

क्या है बरमूडा ट्राइएंगल की mystery
दुनिया की कुछ अनसुलझी पहेलियों में से एक है बरमुडा ट्राइएंगल। यहां जाना आत्महत्या की तरह माना जाता है। धरती में मौजूद सबसे खतरनाक स्थानों में से एक बरमूडा ट्राइएंगल को शैतानों का टापू भी कहा जाता है। यहां पर हुई आश्चर्यजनक घटनाएं जैसे समुद्री जहाजों का गायब होना पिछले समय से ही जिज्ञासा का विषय बनी हुर्ह है। पूर्वी-पश्चिम अटलांटिक महासागर में बरमूडा त्रिकोण है। यह भुतहा त्रिकोण बरमूडा, मयामी, फ्लोरिडा और सेन जुआनस से मिलकर बनता है। शायद यह बात काल्पनिक लगे लेकिन सच यही है कि जैसे ही कोई समुद्री जहाज, नाव या फिर हवाई जहाज ही, इस त्रिकोण की सीमा के समीप पहुंचता है वह अपना संतुलन खो बैठता है और अचानक उसका नामोनिशान ही इस दुनिया से मिट जाता है।
इस ट्राइएंगल की सबसे खतरनाक बात यह है कि अब तक यह ट्राइएंगल 8,000 से अधिक लोगों का काल बन चुका है और उनके जिंदा होने की कोई भी जानकारी अब तक नहीं मिल पाई है। बरमूडा ट्रायंगल के रहस्य को जानने वाले बहुत से लोग इस स्थान को भूतहा समझते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस समुद्र में शैतानी ताकत हैं जो अपने शिकार को हाथ से नही जाने देती। कुछ लोगों का मानना है कि यहां पर दूसरे ग्रह से आये एलियन का वास होता है जो इंसानों को यहां आने नही देते और उन्हें गायब कर देते हैं।
वहीं दूसरी ओर तर्कों के आधार पर बरमूडा ट्राइएंगल का हल खोजने वाले लोग इन सब घटनाओं के लिए अलग ही लॉजिक देते हैं। बरमुडा ट्राइएंगल के रहस्य को खोजने में जुटे वैज्ञानिकों का मानना है कि इस स्थान के भीतर मिथेन गैस का अकूत भंडार है जहां विस्फोट होता रहता है। इसकी वजह से पानी का घनत्व कम हो जाता है और समुद्री जहाज पानी के भीतर समा जाते हैं।
ये गैस आसमान में उडऩे वाले जहाज को भी अपनी चपेट में ले लेती है। बहुत से वैज्ञानिक यह बात भी मानते हैं कि बरमुडा ट्राइएंगल के भीतर शायद इलेक्ट्रिक कोहरा छा जाता है, जिसके आरपार दिखाई नहीं देता। परिणामस्वरूप जहाज वहीं फंसकर रह जाते हैं और अपनी दिशा भटक जाते हैं। शीत युद्ध के दौरान इस बात की अफवाह काफी फैली थी कि अमेरिका ने पूरी दुनिया को कब्जे में करने के लिए यहां गुप्त सैन्य अड्डा बना रखा है। हालांकि इस तथ्य की पुष्टि नहीं हो पाई है।

कैसे आया था Bermuda Triangle सुर्ख़ियों में
16 सितंबर 1950 को पहली बार इस बारे में अखबार में लेख भी छपा था। दो साल बाद फैट पत्रिका ने ‘See mystery एट अवर बैक डोर’ शीर्षक से जार्ज एक्स। सेंड का एक संक्षिप्त लेख भी प्रकाशित किया था। इस लेख में कई हवाई तथा समुद्री जहाजों समेत अमेरिकी जलसेना के पांच टीबीएम बमवर्षक विमानों ‘फ्लाइट 19’ के लापता होने का जिक्र किया गया था। फ्लाइट 19 के गायब होने का घटनाक्रम काफी गंभीरता से लिया गया था। इसी सिलसिले में अप्रैल 1962 में एक पत्रिका में प्रकाशित किया गया था कि विमान चालकों को यह कहते सुना गया था कि हमें नहीं पता हम कहाँ हैं। पानी हरा है और कुछ भी सही होता नजर नहीं आ रहा है।
जलसेना के अधिकारियों के हवाले से लिखा गया था कि विमान किसी दूसरे ग्रह पर चले गए। यह पहला लेख था, जिसमें विमानों के गायब होने के पीछे किसी परालौकिक शक्ति का हाथ बताया गया था। इसी बात को विंसेंट गाडिस, जान वालेस स्पेंसर, चार्ल्स बर्लिट्ज़, रिचर्ड विनर, और अन्य ने अपने लेखों के माध्यम से आगे बढ़ाया।  इस मामले में एरिजोना स्टेट विश्वविद्यालय के शोध लाइब्रेरियन और ‘The Bermuda Triangle mystery :  Solved’ के लेखक लारेंस डेविड कुशे ने काफी शोध किया तथा उनका नतीजा बाकी लेखकों के अलग था। उन्होंने प्रत्यक्षदर्शियों के हवाले से विमानों के गायब होने की बात को गलत करार दिया। कुशे ने लिखा कि विमान प्राकृतिक आपदाओं के चलते दुर्घटनाग्रस्त हुए। इस बात को बाकी लेखकों ने नजरअंदाज कर दिया था।
ऑस्ट्रेलिया में किए गए शोध से पता चला है कि इस समुद्री क्षेत्र के बड़े हिस्से में मीथेन हाईड्राइड की बहुलता है। इससे उठने वाले बुलबुले भी किसी जहाज के अचानक डूबने का कारण बन सकते हैं।  इस सिलसिले में अमेरिकी भौगोलिक सर्वेक्षण विभाग (यूएसजीएस) ने एक श्वेतपत्र भी जारी किया था। यह बात और है कि यूएसजीएस की वेबसाइट पर यह रहस्योद्‍घाटन किया गया है कि बीते 15000 सालों में समुद्री जल में से गैस के बुलबुले निकलने के प्रमाण नहीं मिले हैं। इसके अलावा अत्यधिक चुंबकीय क्षेत्र होने के कारण जहाजों में लगे उपकरण यहां काम करना बंद कर देते हैं। इससे जहाज रास्ता भटक जाते हैं और दुर्घटना का शिकार हो जाते हैं।
- अलकनंद सिंह 

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2016

तीन तलाक: बात निकल चुकी है दूर तलक जाने के लिए...

आज कल मुस्लिम महिलाएं Center of debate हैं। जब से सात अक्तूबर को केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिमों में जारी तीन तलाक, निकाह हलाला तथा बहुविवाह प्रथाओं का विरोध किया और लैंगिक समानता एवं धर्मनिरपेक्षता के आधार पर इन पर दोबारा गौर करने की वकालत की, तभी से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, उसके पदाध‍िकारी जफरयाब जिलानी और इस्लाम के तमाम  ठेकेदार कमर कस कर मैदान में आ डटे हैं कि आख‍िर सुप्रीम कोर्ट, विध‍ि आयोग या केंद्र सरकार की हिम्मत कैसे हुई शरियत (7वीं सदी के कानून ) के कानून में दखल देने की।

तीन तलाक के विरोधी बड़ा खम ठोंक रहे हैं कि 90 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं शरिया कानून का समर्थन करती हैं। उनका यही दावा सवाल उठा रहा है कि जब ऐसा है तो तीन तलाक के विरोध में किया गया सर्वे का रिजल्ट 92% क्यों आया। महिलाओं के प्रति होती रही ज्यादती के लिए क्यों पर्सनल बोर्ड ने अभी तक कोई सुधारात्मक कदम नहीं उठाए। क्यों कोर्ट को दखल देने की जरूरत पड़ी और क्यों केंद्र सरकार को बाध्य होना पड़ा वो सच बताने के लिए जिसे अभी तक पर्सनल बोर्ड ने हिजाब में रखा हुआ था।

बहस के बहाने ही सही, ये जरूरी था कि इस्लाम-शरियत तथा कुरान के जो टॉपिक्स टैबू बनाकर रखे गये, वो सबके सामने आएं। इसके लिए पहले शाहबानो प्रकरण से जो बहस तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के दब्बूपन के कारण below the carpet कर दी गई थी, वही आज केंद्र सरकार ने Center of debate बना दी है। इसके लिए सरकार या सुप्रीम कोर्ट को दोषी बताना पर्सनल लॉ बोर्ड की खुद की अहमियत कम कर देगा क्योंकि इस बार भी एक भुक्तभोगी महिला ने ही अपने लिए सुप्रीम कोर्ट में न्याय मांगा है।

ये एक अभ‍ियान है जिसकी शुरूआत तो एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के इन प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी मगर अब मुस्लिम महिला मंच ने इसके आगे की कमान संभाल ली है। बहस की सूत्रधार शायरा बानो उत्तराखंड की हैं, जिन्होंने अपनी याचिका में कहा है कि उसके साथ क्रूर बर्ताव करने वाले पति ने उसे तीन बार तलाक बोल कर अपनी ज़िन्दगी से अलग कर दिया। शायरा बानो का कहना है कि पर्सनल लॉ के तहत मर्दों को हासिल तलाक-ए-बिदत यानी तीन बार तलाक कहने का हक़ महिलाओं को गैरबराबरी की स्थिति में रखने वाला है।

शायरा ने अपनी याचिका में निकाह हलाला के प्रावधान को भी चुनौती दी है। इस प्रावधान के चलते तलाक के बाद कोई महिला दोबारा अपने पति से शादी नहीं कर सकती। अपने पूर्व पति से दोबारा शादी करने के लिए उसे पहले किसी और मर्द से शादी कर तलाक लेना पड़ता है।

याचिका में मुस्लिम मर्दों को 4 महिलाओं से विवाह की इजाज़त को भी चुनौती दी गई है। याचिका में कहा गया है कि ये सभी प्रावधान संविधान से हर नागरिक को मिले बराबरी और सम्मान के साथ जीने के अधिकार के खिलाफ हैं। ऐसे में मुस्लिम महिलाओं को बराबरी और सम्मान दिलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लीकेशन एक्ट के सेक्शन 2 को असंवैधानिक करार देना चाहिए। इस सेक्शन में इन प्रावधानों का ज़िक्र है।

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अनिल दवे और ए के गोयल की बेंच ने इस याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी कर जवाब माँगा जिस पर कानून एवं न्याय मंत्रालय ने अपने हलफनामे में लैंगिक समानता, धर्मनिरपेक्षता, अंतर्राष्ट्रीय नियमों, धार्मिक प्रथाओं और विभिन्न इस्लामी देशों में मार्शल लॉ का उल्लेख करते हुए कहा कि शीर्ष अदालत को तीन तलाक और बहुविवाह के मुददे पर नए सिरे से निर्णय देना चाहिए।
जाहिर है कि सातवीं सदी के इस इस्लामी कानून को आज 21वीं सदी में भी जस का तस लागू किया जाना सिर्फ शादीशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए ही नहीं पूरे मुस्लिम समाज के लिए भी खतरनाक है।

मुस्‍ल‍िमों में ‘तीन तलाक’ की प्रथा पर बैन लगाने से जुड़े भारतीय मुस्‍ल‍िम महिला आंदोलन की मांग का यूपी की प्रथम महिला काजी ने भी समर्थन किया है। हिना जहीर नकवी ने इस प्रथा को ‘कुरान की आयतों का गलत मतलब निकाला जाना’ करार दिया है।
नकवी ने इस प्रथा पर तत्‍काल प्रभाव से बैन लगाने की मांग भी की। नकवी ने कहा कि मौखिक तौर पर तलाक देने की प्रथा का बेजां इस्‍तेमाल हुआ है। इसने मुस्‍ल‍िम महिलाओं की जिंदगी को खतरे में डाल दिया है। इससे सिर्फ तलाक को बढ़ावा मिल रहा है। यहां तक कि कुरान में इस तरह का कोई निर्देश नहीं दिया गया, जिससे मौखिक तलाक को बढ़ावा दिया जाए। यह कुरान की आयतों को गलत मतलब निकाला जाना है।’ 
गौरतलब है कि करीब 50 हजार मुस्‍ल‍िम महिलाओं व पुरुषों ने तीन तलाक की प्रथा पर बैन से जुड़ी याचिका पर दस्‍तखत किए हैं। अब इसमें राष्‍ट्रीय महिला आयोग से दखल देने की भी मांग मुस्लिम महिला मंच कर रहा है।
देखते हैं कि इस बहस और टकराव का परिणाम क्या निकलेगा, बहरहाल बात निकल चुकी है दूर तलक
जाने के लिए... 
मशहूर कव्वाल साबरी ब्रदर्स ने अमीर खुसरो के शब्दों को क्या खूब गाया है-
बहुत कठिन है डगर पनघट की...मुस्लिम महिलाओं की इस डगर की कठिनाई तो अभी शुरु हुई है, परंतु इतना भरोसा है कि न्याय अवश्यंभावी है।

- अलकनंदा सिंह

शनिवार, 15 अक्टूबर 2016

सरस्वती नदी के Scientific प्रमाण मिले, भूगर्भ वैज्ञानिकों के दल ने सौंपी रिपोर्ट

प्राचीनकाल में काल में बहने वाली सरस्वती नदी के Scientific प्रमाण मिल गए हैं और वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय में आदि बद्री से गुजरात में कच्छ के रण से होकर धौलावीरा तक करीब पौने पांच हजार किलोमीटर तक जमीन के भीतर विशाल जल भंडार का भी पता चला है जिससे हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तरी गुजरात तक के क्षेत्र की प्यास बुझाई जा सकती है।
जाने-माने भूगर्भ वैज्ञानिक प्रोफेसर के एस वाल्दिया की अध्यक्षता वाले एक विशेषज्ञ दल ने केन्द्रीय जल संसाधन एवं नदी विकास तथा गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती को उत्तर-पश्चिम भारत में पुरावाहिकाओं की प्राक्कलन रिपोर्ट शनिवार को यहां एक कार्यक्रम में सौंपी जिसमें सरस्वती नदी के अस्तित्व में रहने की बात प्रमाणित हुई है।
इस मौके पर सुश्री भारती ने कहा कि यह विश्व की सबसे प्रामाणिक रिपोर्ट है और इससे प्रमाणित हो गया है कि गुजरात, राजस्थान और हरियाणा में कभी सरस्वती नदी बहती थी जो हिमालय के आदि बद्री से निकलती थी और पश्चिम में गुजरात में हड़प्पा कालीन नगर धौलावीरा तक बहती थी।
भारती ने कहा कि वह चाहती थीं कि सरस्वती नदी का कोई अस्तित्व रहा है या नहीं, यह बात धार्मिक एवं आस्था से जुड़े विश्वास के आधार पर नहीं बल्कि ठोस वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित होनी चाहिए और उन्हें खुशी है कि विशेषज्ञ समिति में शामिल वैश्विक स्तर पर बेहद प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने व्यापक अध्ययन करके इसकी पुष्टि की है।
उन्होंने कहा कि आगे इस बारे में अध्ययन किया जाएगा कि सरस्वती की सुप्त जलधारा की क्षमता कहां कितनी है और उससे गुजरात, राजस्थान और हरियाणा में सूखे का मुकाबला कैसे किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि पानी की नयी धारा को लाने की तुलना में पुरानी धारा को पुनर्जीवित करना कम खर्चीला होता है।
उन्होंने कहा कि उनकी कोशिश होगी कि प्रकृति एवं पर्यावरण से छेड़छाड़ किए बिना और जैव विविधता की रक्षा करते हुए उसके उपयोग के उपाय किए जाएं। इस रिपोर्ट पर विस्तृत विचार मंथन के लिए जल्द ही एक सम्मेलन बुलाया जाएगा।
गौरतलब है कि पौराणिक सरस्वती नदी को जिंदा करने के लिए हरियाणा में पहले से ही खुदाई का काम चल रहा था। हरियाणा की खट्टर सरकार कई बार केंद्र से मदद के लिए गुहार लगा चुकी है। बाद में केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती ने एक टास्क फोर्स का गठन कर इस पर शोध किए जाने का आदेश दिया था।
कुछ महीने पहले जब हरियाणा के यमुनानगर में सरस्वती नदी की खुदाई के दौरान जल निकला तो बड़े-बड़े नेता दर्शन के लिए पहुंचे। अब हरियाणा के तीन जिलों में सरस्वती नदी का प्रवाह क्षेत्र मानते हुए 260 किलोमीटर में खुदाई की तैयारी हो रही है। हिंदू ग्रंथों में सरस्वती नदी का कई जगह जिक्र मिलता है। ऋग्वेद का पहला हिस्सा इसी नदी के किनारे लिखा गया।
महाभारत में इस नदी के गायब होने की बात लिखी गई है। नासा और इसरो को अंतरिक्ष से मिले सिग्नल भी इस नदी के रूट की गवाही देते हैं।
हरियाणा में खुदाई में जो पानी मिल रहा है वो सरस्वती नदी का है या नहीं, इसकी जांच-पड़ताल अब केंद्र सरकार का टास्क फोर्स करेगी लेकिन कहा ये भी जाता है कि करीब 10 हजार साल पहले सरस्वती नदी के किनारे लोग रहते थे। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर 1500 किलोमीटर में बहने वाली सरस्वती नदी लुप्त कैसे हो गई?

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2016

खून का पानी हो जाना

''खून का पानी हो जाना'', ये एक कहावत है जिसे कभी निर्लज्जता कभी कायरता और कभी- कभी कमजोर मन से जोड़ा जाता है। चिकित्सा विज्ञान में यही खून जब पानी होने लगता है तो व्यक्ति शारीरिक व मनोवैज्ञानिक दोनों ही स्तर पर लाइलाज होने लगता है। जो भी हो, मगर इस एक वाक्य के निहितार्थ अनेक हैं। कई अर्थों में, कई संदर्भों में इसे अलग अलग मायनों के साथ प्रयोग किया जाता रहा है।

आजकल की परिस्थ‍ितियों में इसका काफी उपयोग किया जा रहा है।

सामरिक स्तर पर हमारी सेना ने बता दिया कि ''खून के पानी हो जाने'' से पहले ही यदि दुश्मन को उसी के घर में शांत बैठने के लिए बाध्य कर दिया जाए तो न केवल देश की सीमाऐं सुरक्ष‍ित रहेंगीं बल्कि देश के खून में एक रवानगी आएगी जो प्रगति के लिए, विश्व में सकारात्मक संदेश देने के लिए बेहद जरूरी है।

उरी हमले के बाद पाकिस्तान से आयातित आतंकवादियों पर भारतीय सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक कर उनके तमाम लांच पैड्स को ध्वस्त किया और उन्हें धूल चटा दी। जाहिर है सेना का ''खून, खून था... पानी नहीं'' था। उसमें गर्मी थी... आतंक के खि‍लाफ एक लौ जल रही थी। सेना  चाहती थी कि यह गर्मी उन लोगों को भी महसूस हो जो हमार ज़मीं और हमारे लोगों पर बुरी नज़र रखे हैं।

''खून के पानी हो जाने'' का राजनैतिक उदाहरण भी आजकल सोशल मीडिया की शान बना हुआ है। जेडीयू के डा. अजय आलोक हों, आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल, कांग्रेस के संजय निरुपम हों या फिर कांग्रेस के ही युवराज राहुल गांधी क्यों न हों, सभी ने अपने अपने निर्लज्ज बयानों व भाषणों से बता दिया है कि ''खून के पानी हो जाने'' पर ही हम सीमा पर रोज-ब-रोज हो रही शहादतों का मखौल उड़ाने की बेशर्म हिम्मत कर पाते हैं। उनका अपमान कर सकते हैं।

सर्जिकल स्ट्राइक के लिए हौसला बंधाने वाले प्रधानमंत्री व रक्षा मंत्री से लेकर डीजीएमओ तक से इसके सुबूत मांग सकते हैं, ना देने पर उन्हें सैनिकों के खून की दलाली करने वाला कह सकते हैं।

बेशक इतनी बेशर्मी के लिए हिम्मत चाहिए, और वो तभी आ सकती है जब व्यक्ति का खून पानी हो गया हो, जब वह देश हित और दुश्मन के हित में फर्क कर पाने की मानसिक हालत में ही ना हो।

इनकी रगों में बह रहा खून,  निश्चित ही पानी बन चुका है जो यह महसूस नहीं कर पा रहा कि आजादी के साढ़े छह दशक बाद देश को ऐसा नेतृत्व मिला है जो पूरे विश्व में भारत को सेंटर ऑफ नेसेसिटी और सेंटर ऑफ अट्रैक्शन बनाने के प्रयास में जुटा हुआ है। अब देश के पास शांति के कबूतर उड़ाने का समय नहीं है और ना हम देखेंगे, या हम देख रहे हैं, जैसे तकिया कलाम इस्तेमाल करने वाला शासन है।

अब नेतृत्व कहता है क‍ि नई पीढ़ी को विश्व का सिरमौर बनाना है... कमर कसनी होगी... और ये वही कर सकता है जो अपनी रगों में खून की गर्मी को महसूस करता हो, मगर उसकी इस श‍िद्दत को वो लोग नहीं जान सकते जो अपने खून को पानी कर चुके हों।

ये अपनी रगों में पानी लेकर चलने वाले ''वही लोग'' हैं जो कुछ अखलाकों की ''इच्छा'' के लिए गायों की हत्या पर रोष तक जाहिर नहीं करते, पयूर्षण पर्व में गोमांस की बिक्री बंद कर दिए जाने पर इसे धर्म की आजादी से जोड़ते हैं, गौमांस पार्टियों का आयोजन करते हैं, स्वयं को हिन्दू कहने में शर्म महसूसकरते हैं, हैदराबाद यूनीवर्सिटी में रोहित वेमुला द्वारा आत्महत्या कर लिए जाने पर केंद्र सरकार को जिम्मेदार बताते हैं, जेएनयू में भारत के टुकड़े करने वालों को हीरो बनाने पर तुले रहते हैं तथा कश्मीर के सेपरेटिस्ट को अपना भाई बताते हैं।

ये वही लोग हैं जो अलगाववादियों द्वारा मुंह पर दरवाजा बंद करने के बावजूद उनकी चिरौरी करते हैं। राजनीति में जयचंदों की इतनी बड़ी फौज आखि‍र देश के उत्थान में क्या सहयोग कर पाएगी, अब यह बताने की कतई जरूरत नहीं।

बॉलीवुड और साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे बंदों की कमी नहीं है जि‍नके शरीर में बहने वाला खून कब का पानी हो चुका है जो स्वयं को ''देशहित'' से अलहदा रखने में शान समझते हैं। कला और साहित्य के क्षेत्र से आशा की जाती है कि कम से कम इनकी ''आत्मा'' तो बाकी रहे, इन्हें दर्द समझ में आए, इनके अंदर देश के प्रति स्वाभ‍िमान जगाने की क्षमता हो मगर एक सर्जिकल स्ट्राइक और उरी हमले के शहीदों के उदाहरण ने इनकी कलई खोल दी कि बॉलीवुड का ही नहीं साहित्य का भी अपना अंडरवर्ल्ड होता है जो देश के दुश्मनों की लार पोंछता हुआ उनकी खि‍दमत में बिछ जाता है।

अवार्ड वापसी करने वाले साहित्यकारों का ''खून तो तभी पानी'' हो चुका था जब इन्होंने देश के टुकड़े करने वालों को अभ‍िव्यक्ति की आजादी के तहत अपना सपोर्ट दिया था। ऐसे में भला हम इन साहित्यकारों से उम्मीद भी कैसे करें कि इनका खून दुश्मन की हरकतों पर खौलेगा। रही बात बॉलीवुड की, तो उससे जुड़े अध‍िकांश लोगों का खून कब का पानी बन चुका है वरना चार दिन तक मीडिया इन्हें देशप्रेम याद दिलाता रहा और ये पाकिस्तान का ही राग अलापते रहे कि '' कला सरहदों में कैद नहीं की जा सकती''।

यह बॉलीवुड ही है जो कला से ज्यादा मनी लांड्रिंग और ब्लैकमनी के बारे में चिंतित रहता है और पाकिस्तानी कलाकार उनके इस काम में अच्छा ज़रिया बनते हैं तो उनके लिए देश क्या...और देश के दुश्मन क्या।
बहरहाल जिनका खून पानी हो चुका है , अब  जरूरत उनके सर्जिकल स्ट्राइक की भी है। इसे कौन करेगा और कब , बस इसी का इंतज़ार है।

- अलकनंदा सिंह



सोमवार, 3 अक्टूबर 2016

Thank U नाना…आपने अंधों के शहर में आइना तो दिखाया

नाना ने आज 'कलाकार देश के सामने खटमल हैं' बोलकर जिस तरह बेबाकी से बॉलीवुड के कथ‍ित ''कलाकारों '' का सच बयान किया है, वह अंधों के शहर को आइना दिखाने जैसी बात है। मैं नाना की फिल्मों की ही नहीं बल्कि उनकी निभाई सामाजिक भूमिकाओं की भी फैन हूं मगर उनकी ये बेबाकी बॉलीवुड के कई घ‍िनौने सच सामने ला देती है। जिन कलाकारों की भूमिकाओं को हम एंज्वाय करते हैं, उनकी बेवकूफाना बातें बतातीं हैं कि उनकी फिल्मों का ''सुपरहिट तत्व'' कितना खोखला होता है। 
भारत द्वारा PoK में घुसकर आतंकियों पर Surgical Strike करने के बाद आतंकी वारदातों और आतं‍की समूहों के ख‍िलाफ एक शब्द भी नहीं बोलने वाले पाकिस्तानी एक्टर्स के उस सच को सामने ला दिया है जो बरसों से भारतीय फिल्म जगत में घुसपैठ तो कर रहा था लेकिन उसके ख‍िलाफ कोई मुखर होकर बोलता नहीं था।   गायक अभ‍िजीत भट्टाचार्य ने आवाज बुलंद की तो किसी ने उनका साथ नहीं दिया और अब पाकिस्तानी एक्टर्स व सिंगर्स की मंशा सामने आ रही है क‍ि वह बॉलीवुड तथा भारत को अपने लिए सिर्फ और सिर्फ एक मंडी समझते रहे हैं।
जहां तक मुझे जानकारी है पाकिस्तानी गायकों व कलाकारों को सिर्फ फिल्मों में ही नहीं बल्कि रियेलिटी शो में भी भारतीय फिल्म और टीवी इंडस्ट्री के ऐसे कॉकस का साथ मिला हुआ है जो भारतीय प्रतिभाओं के न सिर्फ पेट पर लात मार रहे थे बल्कि अवांछित गतिविध‍ियों में भी लिप्त हैं।
प्रसिद्ध गायक राहत फतेह अली खान इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं जिन्हें मनी लांड्रिंग केस में भारत आने से ही रोक दिया गया था।
फिल्म इंडस्ट्री के प्रोड्यूसर्स की सबसे पुरानी संस्था आईएमपीपीए ने पाकिस्तानी कलाकारों पर बॉलीवुड में काम करने की पाबंदी लगाने के बाद सलमान खान, करन जौहर, महेश भट्ट जैसों के बयान बता रहे हैं कि उनके पाकिस्तानी फेवर के पीछे सब कुछ इतना सीधा- साधा नहीं है, सच की परतें अभी और भी हैं जो पाकिस्तान से वाया दुबई यहां आ रही हैं।
ये बॉलीवुड इंवेस्टमेंट का वो अंडरवर्ल्ड है, जो अपनी लक्ष्मन रेखा में किसी कलाकार को घुसने नहीं देता, जो खेमों और कैंपों में बंटा हुआ है, उसे पाकिस्तानी कलाकार इसीलिए भाते हैं कि वो इन कैंप्स के लिए ''बेस्ट पपेट'' साबित होते हैं। जो टूरिस्ट वीजा पर आते हैं और यहां जो भी कमाते हैं, उसका खुलासा करने को बाध्य नहीं किए जाते ल‍िहाजा बॉलीवुड की ब्लैक कमाई का चक्रव्यूह बदस्तूर चलता रहता है। 
इसके ठीक विपरीत नाना पाटेकर का पत्रकारों से ये कहना कि देश पहले है, बाक़ी सब बाद में, यह बताता है कि जो देश के भीतर बैठकर देश की जड़ें कुतरने की कोश‍िश में हैं, वे चाहे हिंदुस्तानी कलाकार हों या पाकिस्तानी, अब मुखौटों में नहीं छुप पाऐंगे।
नाना पाटेकर ने कहा, "मुझे लगता है पाकिस्तान, कलाकार ये बातें बाद में, पहले मेरा देश. देश के अलावा मैं किसी को जानता नहीं और न मैं जानना चाहूंगा."
"हम कलाकार देश के सामने खटमल की तरह इतने से हैं, हमारी क़ीमत कोई नहीं है, पहले देश है."
पाकिस्तानी कलाकारों के मुद्दे पर बॉलीवुड में राय बंटी होने पर उन्होंने कहा, "बॉलीवुड क्या कहता है मैं नहीं जानता, मैंने ढाई साल सेना में गुज़ारे हैं तो मुझे मालूम है कि हमारे जो जवान हैं उनसे बड़ा हीरो कोई हो नहीं सकता दुनिया में."
उन्होंने कहा, "हमारे असली हीरो सेना के जवान हैं, हम तो बहुत मामूली और नकली लोग हैं. हम जो बोलते हैं .उस पर ध्यान मत दो."
पाटेकर ने पत्रकारों से कहा, "तुम्हें समझ में आया मैं किनके बारे में बोल रहा हूँ तो मैं उन्हीं के बारे में बोल रहा हूँ."
उन्होंने कहा, "हम जो पटर-पटर करते हैं उस पर ध्यान मत दो, इतनी अहमियत मत दो किसी को. उनकी औक़ात नहीं है उतनी अहमियत की."
निश्चित ही जो नाना ने कहा, कभी उसकी तस्दीक जावेद अख्तर कर चुके हैं।
इस मसले पर भारत के कुछ बुद्धिजीवी भी पाकिस्तानी कलाकारों के पक्ष में खड़े नजर आते हैं, वह भी इस तर्क के साथ कि कला और आतंकवाद को अलग करके देखा जाना चाहिए। इन बुद्धिजीवियों को कौन समझाए कि कोई कला कभी राष्ट्रहित से बड़ी नहीं हो सकती। राष्ट्र की कीमत पर कला को बढ़ाने की वकालत करने वालों को यह बात समझनी होगी ।
अदनान सामी जैसे कलाकार, तारिक फतह जैसे बुद्धिजीवी जो सच पाकिस्तान का बयां करते हैं, वह हमारे इन ''कथ‍ित बॉलीवुड के अमनपसंदों और बातचीत के पैरोकरों'' को कब दिखाई देगा, यह तो नहीं कहा जा सकता, अलबत्ता नाना पाटेकर जैसे राष्ट्रभक्त कलाकार इनकी आंखों को किरक‍िरा अवश्य करते रहेंगे।
अब मामला कमाई का ही नहीं, और ना ही दुबई कनेक्शंस व इंवेस्टमेंट कॉकस का रह गया है, यह चार कदम आगे बढ़कर राष्ट्र और इस पर आए आतंकवाद के खतरे से जुड़ गया है। हमारे सुपरस्टार्स के ''ऊंचे कदों'' के लिए ये ताकीद है कि अब बस, बहुत हो गया ढोंगों का बाजार ... ।
अब या तो इस बाजार की आड़ में अपनी काली कमाई के लिए राष्ट्र की अस्म‍िता के साथ ख‍िलवाड़ करने का घिनौना खेल बंद कर दो अन्यथा जिस जनता ने आज सिर-आंखों पर बैठाकर सितारों का दर्जा दिलवा रखा है, वही उस मुकाम तक ले जाएगी जहां बड़े-बडे सितारे इस कदर गर्दिश में समा जाते हैं क‍ि इतिहास भी उन्हें दोहराने की जहमत नहीं उठाता। 
- अलकनंदा सिंह

शनिवार, 1 अक्टूबर 2016

शारदीय नवरात्र: जीवित स्त्र‍ियों को जूते में पानी पिला कर किस शक्ति की आराधना करें हम ?

ज़रा सोच कर देख‍िए कि आप शारदीय नवरात्र आरम्भ होने पर पूजा संपन्न करने के बाद कोई ऐसी खबर दिखाई दे कि वह आपकी पूरी की पूरी आस्था को ही हिला दे और यह सोचने पर बाध्य कर दे कि क्या सचमुच ईश्वर अस्तित्व में है या क्या हमारा सबके लिए सद्बुद्धि मांगना सार्थक हुआ।
आज ऐसी ही एक खबर ने आस्था और मनुष्यता के बीच संबंधों की कलई खोल दी।
आज मुझे अंधविश्वास के ख‍िलाफ लड़ने वाले नरेंद्र दाभोलकर जैसे व्यक्तित्व की कमी बहुत अखर रही है। अश‍िक्षा और रुढि़यां आत्मसम्मान को कुचल देती हैं। विवशता उनका हथ‍ियार बन जाती है मजलूमों पर कहर ढाने के लिए।

मनुष्यता को हिला देने वाली ये खबर कुछ यूं है...कि

राजस्थान के भीलवाड़ा में अंधविश्वास को लेकर हालात आज भी नहीं बदले हैं। घटना के अनुसार यहां के ''बंकाया माता'' मंदिर में भूत का साया भगाने के नाम पर महिलाओं को जूतों में भरकर महिलाओं को पानी पिलाया जाता है। यहां भूत उतारने के नाम पर महिलाओं को जूते सिर पर रखकर चलने को कहा जाता है। यही नहीं, उन्हें गंदे जूतों में पानी भरकर पीने को मजबूर भी किया जाता है। ऐसा दशकों से चला आ रहा है, लेकिन किसी ने रोकने की कोशिश नहीं की।
झाड़-फूंक के नाम पर मंदिर का पुजारी मनमानी हरकतें करवाता है। औरतों को जूते सिर पर रखकर कई किलोमीटर तक चलाया जाता है। वहीं एक हौद में पानी भरा रहता है। आस्था का हवाला देकर वहां का पानी जूतों में भरकर पीने को मजबूर किया जाता है। ऐसी महिलाओं को बाल पकड़कर 200 सीढ़ियों पर घसीटा जाता है और पुरुष देखते रहते हैं।
यकीन नहीं होता ना... कि महिलाओं के साथ किया जाने वाला यह अमानवीय बर्ताव 21वीं सदी की सोच से परे है।
भारत में भी महिला सशक्तिकरण की ना जाने कितनी बातें कितने कसीदे रोज बरोज गढ़े जाते हैं मगर ऐसी रूढि़यों के लिए आगे आने की हिम्मत नहीं की जाती।
ये सब ठीक उसी दिन पता चलना हृदय को कोंच गया जब कि आज से ही शारदीय नवरात्र का शुभारंभ हुआ है और ''बंकाया माता'' मंदिर में भूत भगाने का यह ''कुत्सित'' कार्यक्रम अगले नौ दिनों तक चलेगा भी।
एक आश्चर्य इस बात का भी है कि ये भूत भी जेंडर देखकर आते हैं यानि महिला पर ही आते हैं, पुरुषों पर नहीं। और ये जेंडरवाइज ही उतारे भी जाते हैं, हालांकि पुजारी के अनुसार ये भूत अपना असर कम कर देते हैं मगर पूरी तरह से नहीं जाते।
अर्थात् प्रताड़ना का ये सिलसिला बदस्तूर '' पीडि़त'' महिला के जीवित रहने तक जारी रहता है।

पूरी तरह मानसिक विक्षोभ को भूत कहकर जिस तरह औरतों के साथ दरिंदगी की जाती है, उसका एक और उदाहरण- पीडि़त महिला को मंदिर में बुलाए जाने से पहले तीन दिन तक पानी नहीं दिया जाता, ऐसा  उस ''भूत'' को दंडित करने के लिए किया जाता है ताकि वह मंदिर में आने से पहले कमजोर हो जाए और ''उतारे जाते'' समय वह किसी को नुकसान ना पहुंचाने पाए।

जाहिर है प्यासी महिला को जब कई किलोमीटर तक पैदल चलाकर पानी की हौद में उतारा जाता है तो वह पानी पीने के लिए किसी भी शर्त को मानने को तैयार रहती है, फिर चाहे वह जूते में ही पानी क्यों ना पीना पड़े,  प्यास के आगे वह अश‍िक्षित महिला विवश हो जाती है और पुजारी इसी विवशता फायदा उठाते हुए अपना सिक्का जमा लेता है उसके परिजनों पर।

बहरहाल...  शारदीय नवरात्र शुरू होने पर आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन कलश स्थापना के साथ ही माँ दुर्गा की पूजा शुरू हो गई जिसमें देवी दुर्गा के नौ रूपों की पूजा होगी । आज प्रथम दिन की देवी मां शैलपुत्री का वाहन वृषभ, दाहिने हाथ में त्रिशूल, और बायें हाथ में कमल सुशोभित है। शैलपुत्री के पूजन करने से 'मूलाधार चक्र' जाग्रत होता है जिससे अनेक प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं... आदि धार्मिक प्रवचन , आख्यानों पर राजस्थान की इस एक खबर ने
शैलपुत्री के प्रतीकात्मक स्वरूप में '' मौजूद'' होने और हमारे द्वारा स्त्री को देवी मानने की खोखली रवायत की असलियत खोल दी है।

आख‍िर हम इन जीवित स्त्र‍ियों को जूते में पानी पिला पिला कर किस शक्ति की आराधना कर रहे हैं , और यदि कर रहे हैं तो क्या ये सचमुच फलीभूत हो सकेगी.. .. मेरा संशय बढ़ रहा है। मंत्रों की शक्ति को पुजारी अपनी धूनी भरी मुठ्ठी में जोर से पकड़ कर उस पीडि़त महिला पर फेंक रहा ... है... और मैं जोर जोर से दोहरा रही हूं...

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति. चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति.महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।

- अलकनंदा सिंह








बुधवार, 14 सितंबर 2016

हिन्दी दिवस पर विशेष: दिल्ली सरकार का भाषादूत सम्मान पर विवाद, Om Thanvi का भी इस्तीफा


दिल्ली सरकार का भाषादूत सम्मान पर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा , हिंदी अकादमी के संचालन समिति सदस्य वरिष्ठ पत्रकार Om Thanvi ने भी इस्तीफा दे दिया है ।
दिल्ली की केजरीवाल सरकार अपनी हिंदी अकादमी की ओर से दिए जा रहे भाषादूत सम्मान को लेकर और घिर गई है। पहले लेखकों को इस सम्मान के लिए आमंत्रित करने और बाद में खेद जताकर इनकार कर देने से अकादमी की  संचालन समिति में रोष है। समिति के सदस्य वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने तो पद से इस्तीफा दे दिया है, वहीं भाषादूत के लिए चुने गए दो लेखकों, ललित कुमार और राहुल देव ने ये सम्मान लेने से ही इनकार कर दिया है।
गौरतलब है कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की अध्यक्षता वाली हिंदी अकादमी की कर्ताधर्ता जानी-मानी साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा हैं। अकादमी ने पहले पत्र के जरिये लेखक अरुण देव, अशोक कुमार पांडेय, संतोष चतुर्वेदी, अभिषेक श्रीवास्तव, और पत्रकार शिवेंद्र सिंह को भाषादूत सम्मान देने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन दो दिन पहले ही त्रुटिवश नाम शामिल होने का पत्र भेजकर खेद जता दिया, इसके बाद सोशल मीडिया पर केजरीवाल सरकार की जमकर आलोचना हो रही है।
इधर, इस पूरे विवाद में अकादमी की संचालन समिति के सदस्य ओम थानवी ने इस्तीफा दे दिया है। थानवी ने बताया कि यह हिंदी अकादमी की स्वायत्तता पर कुठाराघात है। प्रतिष्ठित कथाकार मैत्रेयी पुष्पा को अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया गया तब हम सबको खुशी हुई थी, भले पदेन अध्यक्ष मुख्यमंत्री होते हैं। फिर मैत्रेयी जी के कहने पर मैंने संचालन समिति की सदस्यता स्वीकार कर ली। कैसी विडंबना है कि संचालन समिति का सदस्य हूं और सोशल मीडिया से पता चलता है कि हिंदी दिवस पर अकादमी ‘डिज़िटल दुनिया’ के लेखकों-पत्रकारों को ‘भाषादूत’ सम्मान से सम्मानित कर रही है। यह फैसला कब हो गया? अगर ऐसे ही होता है तो अकादमी की संचालन समिति क्यों बनती है? आखिर किसी निर्णायक समिति आदि की संस्तुति पर संचालन समिति की सम्मति दरकार होती है कि नहीं? निर्णायक समिति कब बनी?
थानवी ने कहा कि मुझे पुरस्कृत होने वाले कुछ नाम देखकर सदमा भी लगा। खासकर हर सरकार के दरबारी अशोक चक्रधर का, जो खुद इस अकादमी के उपाध्यक्ष रहे हैं। कृष्ण बलदेव वैद को पुरस्कार घोषित कर वापस लेने का काम भी उन्हीं के वक्त हुआ। तब साहित्यकारों ने इसका सामूहिक विरोध किया था। बाकी कुछ नाम मसलन राहुल देव (जनसत्ता वाले नहीं)- मैंने सुने तक नहीं। लेकिन खुशी की बात है कि राहुल देव ने इस तरह लेखकों का अपमान करने वाले कदम का विरोध करते हुए यह सम्मान लेने से इनकार कर दिया है।
थानवी ने कहा कि चौंकाने वाली बात यह भी है कि मैंने इस विवाद पर सुबह मैत्रेयी जी को फ़ोन भी किया था तो उन्होंने बताया कि ये नाम उनके सुझाए हुए नहींहैं। उनके सुझाए नाम तो संस्कृति मंत्री ने ख़ारिज कर दिए। जबकि उपाध्यक्ष की संस्तुति के बाद अकादमी कार्यालय ने उन पांच लेखकों (अरुण देव, अशोक कुमार पांडेय आदि) से संपर्क कर पत्र भी भेज दिए थे। बाद में उन्हें निरस्त कर दिया गया। मुझे नहीं लगता कि किसी हिंदी सेवी का इससे बड़ा अपमान अकादमी कर सकती है।
थानवी ने कहा कि इस प्रकरण में सबसे ज़्यादा जहां अकादमी की स्वायत्तता आहत हुई है, वहीं हम संचालन समिति के सदस्यों का भी अपमान हुआ है, जिनकी अब तक तो कोई बैठक ही नहीं हुई और पुरस्कार तय-निरस्त भी हो गए। उन्‍होंने कहा कि ऐसे परिवेश में मैं अकादमी को सहयोग नहीं कर सकता और इस्तीफा देने की सूचना भी मैंने अकादमी को प्रेषित कर दी है।
इधर, इंटरनेट पर कविता कोष जैसे सर्वाधिक लोकप्रिय पोर्टल के मॉडरेटर ललित कुमार ने अकादमी के इस व्यवहार को हिंदी सेवियों का अपमान बताया है। ललित कुमार ने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा है कि मैंने हमेशा कहा है कि कविता कोश हम और आप सबकी साझी परियोजना है। साहित्यकार भी इस स्वयंसेवी समाज का हिस्सा हैं। ऐसे में अरुण देव, अशोक कुमार पांडेय और संतोष चतुर्वेदी के साथ हुए प्रकरण के बाद मुझे नहीं लगता कि मैं हिंदी अकादमी का भाषादूत सम्मान स्वीकार कर सकता हूं। इसलिए मैं हिंदी अकादमी, दिल्ली का भाषादूत सम्मान विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर रहा हूं।
दूसरी ओर राहुल देव ने भी भाषादूत सम्मान लेने से इनकार कर दिया। राहुल ने तो यहां तक कह दिया कि उन्हें पता ही नहीं कि उन्हें सम्मान क्यों दिया जा रहा है? उन्हें तो कन्‍फर्म करना पड़ा कि सम्मानित किए जाने वाले व्यक्ति वे ही हैं।
राहुल ने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा है- मुझे अकादमी से परसों स्वीकृति के लिए एक फोन आया था कि आपको सम्मानित कर रहे हैं, मुझे यह जानकार थोड़ा आश्चर्य भी हुआ था कि मैंने ऐसा कौन सा काम कर दिया जो अकादमी मुझे सम्मानदे रही है। इस सम्मान की वैसे तो कोई आवश्यकता नहीं थी, फिर भी अगर देना था तो निश्चित रूप से यह तीनों साहित्यकार अरुण देव, अशोक कुमार पांडेय और संतोष चतुर्वेदी मुझसे ज्यादा योग्य और उचित थे फिर रातोरात इस तरह निर्णय में बदलाव बेहद अपमानजनक होता, किसी के भी लिए। यह सब देखकर मैंने इस सम्मान को लेने से पहले ही इनकार कर दिया। अकादमी की कार्यप्रणाली की निंदा और पूरी भर्त्सना के साथ, उनका पुरस्कार उन्हें ही मुबारक हो।

बुधवार, 7 सितंबर 2016

संयुक्त राष्ट्र चार्टर का संस्कृत में अनुवाद

संयुक्त राष्ट्र के चार्टर का संस्कृत में अनुवाद किया गया है। यह चार्टर संयुक्त राष्ट्र की बुनियादी संधि है। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरूद्दी ने कल कहा, ‘‘चार्टर अब संस्कृत में उपलब्ध है। इस उत्कृष्ट प्रयास के लिए डॉ जितेंद्र कुमार त्रिपाठी आपका शुक्रिया।’’ उन्होंने ट्विटर पर चार्टर के संस्कृत कवर की एक तस्वीर भी डाली।
डॉ जितेंद्र कुमार त्रिपाठी लखनऊ स्थित अखिल भारतीय संस्कृत परिषद के सचिव हैं। संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय संगठन सम्मेलन के खत्म होने के साथ अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में 26 जून, 1945 को संयुक्त राष्ट्र चार्टर पर हस्ताक्षर किया गया था और यह 24 अक्तूबर, 1945 से प्रभाव में आया।
चार्टर संयुक्त राष्ट्र की सभी छह आधिकारिक भाषाओं में उपलब्ध है।

चार्टर संयुक्त राष्ट्र क्या है

संयुक्त राष्ट्र अधिकारपत्र (United Nations Charter) वह पत्र है जिसपर 50 देशों के हस्ताक्षर द्वारा संयुक्त राष्ट्र स्थापित हुआ। अक्सर इस पत्र को संविधान माना जाता है, पर वास्तव में यह एक संधि है। इस पर अवश्यक 50 हस्ताक्षर 26 जून 1945 को हुए, पर संयुक्त राष्ट्र वास्तव में 24 अक्टूबर 1945 को स्थापित हुआ जब पांच मुख्य संस्थापक देशों (चीन गणराज्य, फ़्रांस, संयुक्त राज्य, संयुक्त राजशाही और सोवियत संघ) ने इस पत्र को स्वीकृत किया।



अधिकारपत्र का संगठन

इस अधिकारपत्र का संगठन कुछ-कुछ संयुक्त राज्य के संविधान जैसा है। पत्र का प्रारंभ एक प्रस्तावना से होता है। बाकी का पत्र अध्यायों में विभाजित है।

अध्याय 1 : संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों का अर्पण। इनमें से दो अहम अद्दुश्य है अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा।

अध्याय 2 : संयुक्त राष्ट्र के सदस्य बनने की कसौटियों का अर्पण।

अध्याय 3 से 15 : संयुक्त राष्ट्र के अलग-अलग अंगों और संस्थाओं तथा उनके अधिकारों का विवरण।

अध्याय 16 एवं 17 : संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के पहले के अंतर्राष्ट्रीय कनूनों का संयुक्त राष्ट्र के साथ जोड़ने की प्रक्रिया।

अध्याय 18 से 19 : इस अधिकारपत्र के संशोधन और दृढ़ीकरण की प्रक्रियाएं।


इनमें से कुछ बेहद अहम अध्याय हैं जैसे कि


अध्याय 6 : सुरक्षा परिषद का अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों को जांचने और सुलझाने का अधिकार।

अध्याय 7 : संघर्षों को सुलझाने के लिए सुरक्षा परिषद की आर्थिक, राजनयिक और सामरिक योग्यताएं।

अध्याय 9 एवं 10 : आर्थिक और सामाजिक सहयोग में संयुक्त राष्ट्र का अधिकार और इस अधिकार का प्रबंध करने वाली आर्थिक एवं सामाजिक परिषद का विवरण।

अध्याय 12 एवं 13 : उपनिवेशों को स्वतंत्र करने का प्रबंध।

अध्याय 14 : अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के अधिकार।

अध्याय 15 : सचिवालय के अधिकार।

बुधवार, 24 अगस्त 2016

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर: मातृत्व के बाजार को बचाने का प्रयास है सरोगेसी रेगुलेशन बिल 2016

कर्मण्यवाध‍िकारस्ते मा फलेषु कदाचन्
श्रीमद्भगवत गीता का यह उपदेश हम ना जाने कितनी बार दोहराते आए हैं परंतु जब इसे सार्थक सोच के साथ क्रियान्वित होते देखते हैं तो निश्च‍ित ही भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाना भी सार्थक हो जाता है।

आज और कल भगवान श्री कृष्ण के जन्म की धूम मची है। हमारे यहां ब्रज में तो जन्माष्टमी मनाने  का अपना एक अलग आनंद , एक अलग अंदाज़ होता है, इस बार भी है , चारों ओर भक्ति का अंबार उड़ेला जा रहा है। मां यमुना अपने  उसी रूप में दर्शन दे रही हैं जैसे कि श्री कृष्ण जन्म के समय उफन रही थीं और आज से लेकर अगले एक हफ्ते तक ब्रज में उत्सव का यही हाल रहना है मगर आज ऐन जन्माष्टमी से पहले  भारत सरकार की ओर से एक समाचार ऐसा आया है जिसे श्री कृष्ण जन्म पर ''मातृत्व और नवजातों'' के अस्तित्व को बाजार की वस्तु बनाने पर रोक लगाने के क्रम में देखा जाना चाहिए।

मोदी कैबिनेट ने आज उस बिल को मंजूरी दे दी जिसमें Surrogacy (किराये की कोख) पर लगाम लगाने का प्रावधान है। साथ ही Surrogacy वाली मां के अधिकारों की रक्षा के उपाय भी किये गये हैं। इसके साथ ही सरोगेसी से जन्मे बच्चों के अभिभावकों को कानूनी मान्यता देने का प्रावधान है।

सरोगेसी रेगुलेशन बिल 2016 कैबिनेट से पास

कैबिनेट से पास सरोगेसी रेगुलेशन बिल 2016 मुताबिक अविवाहित पुरुष या महिला, सिंगल, लिव इन में रह रहा जोड़ा और समलैंगिक जोड़े अब सरोगेसी के लिए आवेदन नहीं कर सकते. इसके साथ ही अब सिर्फ रिश्तेदार महिला महिला ही सरोगेसी के जरिए मां बन सकती है.
केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सरोगेसी बिल पर कहा, “आज कल प्रसव पीड़ा से बचने के लिए सरोगेसी फैशन बन गई है. भारत लोगों के सरोगेसी हब बन गया था इसलिए बिल की जरूरत महसूस हुई.”

फिल्मी हस्तियों पर भी निशाना साधा

सुषमा स्वराज ने इशारों-इशारों में फिल्मी हस्तियों पर भी निशाना साधा. उन्होंने कहा, ”बड़े सितारे जिनके न सिर्फ दो बच्चे हैं, बल्कि एक बेटा और बेटी भी है, वे भी सरोगेसी का सहारा लेते हैं.”
स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रस्ताव के अनुसार किराये की कोख मसौदा विधेयक 2016 का लक्ष्य देश में किराये की कोख संबंधी प्रक्रिया के नियमन को समुचित ढंग से अंजाम देना है.

क्या है कैबिनेट से पास हुए सरोगेसी बिल में
कैबिनेट से पास हुए बिल में व्यावसायिक सरोगेसी पर पूरी तरह बैन लगाने का प्रस्ताव है. इसके साथ ही अब सिर्फ रिश्तेदार ही सेरोगेट मां बन सकती है.
जिन माता-पिता के पहले से एक संतान है या उन्होंने एक संतान को गोद लिया है तो वे दूसरी संतान के लिए सरोगेसी का सहारा नहीं ले सकते.
देश भर में सरोगेसी के लिए 2000 क्लीनिक हैं. अब सिर्फ भारतीय भारतीय नागरिक ही सरोगेसी के जरिए बच्चे को जन्म दे सकते हैं.
पांच साल से शादीशुदा जोड़े, जिनकी कोई संतान नहीं है वो ही सरोगेसी के लिए आवेदन कर सकते हैं. अविवाहित, सिंगल, लिव इन में रह रहा जोड़ा और समलैंगिक जोड़े सरोगेसी के लिए आवेदन नहीं कर सकते.
सरोगेसी के लिए सरोगेसी में उम्र की सीमा भी तय कर दी गई है. इसके मुताबिक पुरुष की उम्र 26-55 साल और महिला की उम्र 25-50 साल होगी तभी वे सरोगेसी के लिए आवेदन कर सकते हैं.
अगर सरोगेसी के लिए आवेदन करने वाला जोड़ा किसी बीमारी से ग्रसित है तो वो आवेदन नहीं कर सकता.
इसके साथ ही एक महिला सिर्फ एक बार ही सरोगेसी के जरिए बच्चे को जन्म दे सकती है.
सरोगेसी के जरिए बच्चे को जन्म दे जा रही महिला का शादीशुदा होना जरूरी है. इसके साथ ही वह पहले भी एक बच्चे को जन्म दे चुकी हो.
सभी सरोगेसी क्लीनिक का रजिस्टर होना जरूरी है. अगर सरोगेसी के बाद जन्मे बच्चे को अपनाने से इनकार किया जाता है तो उसके लिए बिल में 10 साल की जेल और 10 लाख तक के जुर्माने का प्रावधान है.
सरोगेसी के जरिए पैदा हुए बच्चे के पास वो सभी कानूनी अधिकार होंगे सामान्य रूप से पैदा हुए बच्चे के पास होते हैं. सरोगेसी क्लीनिक को पच्चीस सालों का रिकॉर्ड मौजूद रखना होगा.
स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री की अध्‍यक्षता में केंद्र पर नेशनल सरोगेसी बोर्ड, राज्य और केंद्र शासित प्रदेश स्तर तक स्टेट सरोगेसी बोर्ड का गठन किया जाएगा.

क्यों पड़ी सरोगेसी बिल की जरूरत
सरकार ने हाल में स्वीकार किया था कि वर्तमान में किराये की कोख संबंधी मामलों को नियन्त्रित करने के लिए कोई वैधानिक तंत्र नहीं होने के चलते ग्रामीण एवं आदिवासी इलाकों सहित विभिन्न क्षेत्रों में किराये की कोख के जरिये गर्भधारण के मामले हुए जिसमें शरारती तत्वों द्वारा महिलाओं के संभावित शोषण की आशंका रहती है।

हालांकि ये भी सच है कि कथ‍ित महिला अध‍िकारवादियों द्वारा इस बिल के ख‍िलाफ कल से ही आलोचनाओं का अंबार लगने वाला है  मगर श्री कृष्ण जन्मोत्सव पर सरकार की ओर से मातृत्व को बाजार की वस्तु बनाने और उपभोक्तावाद से बचाने के लिए किया गया प्रयास काबिलेतारीफ है।
कुल मिला कर बात इतनी है कि मां की गरिमा को आज तक कोई ना खरद सका है ना ही कोई बेच पाया है मगर बेहद मुफलिसी और बेहद अमीरी के इस खाईनुमा वातावरण में सरोगेसी एक व्यापार बन चुकी थी, इसे समय रहते रोका जाना जरूरी था ताकि कोख खरीदना फैशन ना बन पाए ।

- अलकनंदा सिंह 

रविवार, 14 अगस्त 2016

शुक्रिया बरेली, स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर इस तोहफे की बहुत ज़रूरत थी

ठीेक 15 अगस्त की पूर्वसंध्या पर बरेली आला हजरत की दरगाह से ऐसी खबर सुनने को मिलेगी, इससे ज्यादा खुशनुमा  बात  क्या  होगी हमारे लिए,  देश  के  लिए , देश  के अमन  के  लिए। उन कथ‍ित सेक्यूलरि‍स्टों के मुंह पर  जोरदार  तमाचा  है  ये  खबर कि आला हजरत की दरगाह से संचालित  होने  वाले मदरसों  में अब दो साल का ‘आतंकवाद विरोधी’ कोर्स शुरू किया गया है ताकि देश के भविष्य को बचाया जा सके। गाहे ब गाहे मुस्लिम युवकों को आतंक का हथ‍ियार बनाने वालों के लिए ये सबक बनेगा। 

जीहां, UP में मदरसों की एक बड़ी सीरीज चलाने वाले संस्थान ने अब दो साल का ‘आतंकवाद विरोधी’ कोर्स शुरू किया है. ये मदरसा बरेली आला हजरत की दरगाह से संचालित होते हैं. इसमें मुफ्ती की पढ़ाने करने वाले छात्रों को पढ़ाया जाएगा कि किस तरह आतंकवादी कुरान और हदीस की गलत व्याख्या कर उसे दहशतगर्दी के लिए इस्तेमाल करते हैं. इस कोर्स में आतंकवाद का इतिहास, भारत में आतंकवाद और आतंकवाद से इस्लाम की हुई बदनामी जैसे टॉपिक भी शामिल हैं.
ये नया कोर्स रुहेलखंड के 48 मदरसों में शुरू किया गया है लेकिन इसे धीरे-धीरे पूरे मुल्क में फैलाने की योजना है. इस तरह अब इन मदरसों के छात्र इस्लाम की तालीम के साथ-साथ दहशतगर्दी के बारे में भी पढ़ेंगे, क्योंकि दहशतगर्द इस्लाम के नाम पर ही दहशतगर्दी कर रहे हैं.
दुनिया के सबसे खूंखार आतंकवादी संगठन आईएसआईएस के झंडे पर भी ‘अल्लाह’ और ‘मोहम्मद’ ही लिखा है लिहाजा मुफ्ती की पढ़ाई करने वालों को पढ़ाया जाएगा कि किस तरह आतंकवादी इस्लाम को बदनाम कर रहे हैं.
इस कोर्स को शुरू करने वाले बरेली के मुफ्ती मोहम्मद सलीम नूरी कहते हैं-
सलीम नूरी ने कहा, “आतंकवादी धर्म को अफीम की तरह इस्तेमाल करते हैं. आतंकी ट्रेनिंग कैंपों में किसी नए दहशतगर्द के जेहन में उठने वाले हर सवाल का जवाब कुरान और हदीस की गलत व्याख्या कर दिया जाता है, ताकि आतंक फैलाते वक्त उसे कोई अफसोस न हो. उन्हें बताया जाता है कि काफिर को जिंदा रहने का कोई हक नहीं है. काफिर के जान-माल दोनों पर मोमिन का अख्तियार है. अल्लाह की राह में आत्मघाती हमला जायज है. बेगुनाहों की मौत पर अफसोस की जरूरत नहीं क्योंकि वे भी तुम्हारे हाथों मरकर जन्नत जाएंगे. काफिरों का कत्ल ही जिहाद है. काफिरों से लड़कर शहीद हुए तो जन्नत में हूरें मिलेंगी.”
लेकिन आतंकवाद विरोधी इस कोर्स में इन सब मुद्दों की सही व्याख्या पढ़ाई जाएगी, ताकि मुफ्ती बनने वाले छात्र आतंकवादियों के झूठ को समझ सकें. कुरान की सूरा अल काफिरून की आयत नंबर-109 पढ़ाई जाएगी जो कहती है, “मैं उसकी इबादत नहीं करता, जिसकी तुम करते हो. और तुम उसकी इबादत नहीं करते, जिसकी मैं करता हूं…तुम्हारा धर्म तुम्हारे साथ और मेरा धर्म मेरे साथ है.” और कुरान की सूरा अल बक्रा की आयत नंबर-256 भी पढ़ाई जाएगी जो कहती है, मजहब को लेकर कोई जोर-जबरदस्ती नहीं है. अल्लाह सब कुछ सुनने और जानने वाला है.
मुफ्ती सलीम नूरी कहते हैं कि हम छात्रों को कुरान की दोनों व्याख्या पढ़ाएंगे. एक वह जो सही है और दूसरी वह जो आतंकवादी बताता है. फिर हम छात्रों को यह भी बताएंगे कि इसका रेफरेंस कॉन्टेक्सट (संदर्भ) क्या है. कैसे आतंकवादी कुरान की किसी आयत के अधूरे हिस्से को आउट ऑफ कॉन्टेक्सट (संदर्भ से परे) उद्धृत कर उसका मतलब बदल देता है…यह लोगों की आंखें खोलने वाला होगा.
मजहब के नाम पर जो ब्रेन वॉश किया जाता है, उसमें बताया जाता है कि असली जिंदगी मरने के बाद हासिल होगी, जब मरने के बाद जन्नत में हूरें मिलेंगी, जो हमेशा जवान रहेंगी. इस ब्रेन वॉश का एक वाकया दुबई के एक अंग्रेजी अखबार में काम करने वाले पाकिस्तानी मूल के वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे बताया कि पाकिस्तान में एक आत्मघाती हमले में एक आतंकवादी जख्मी होकर बेहोश हो गया. अस्पताल के आईसीयू में जब उसे होश आया तो अपने करीब खड़ी नर्स से पूछा कि बाकी हूरें कहां हैं? अगर इस नए कोर्स की तालीम फैलाई जाए तो जरूर लोगों को समझ में आएगा कि यह इस्लाम नहीं, सिर्फ दहशतगर्दी है.

तो मुफ्ती सलीम नूरी साहब आप पर निश्चित  ही  इस  पर  मशहूर कवि- शायर दुष्यंत कुमार  के कुछ अशआर एकदम फ‍िट  बैठते हैं -
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख ।

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख ।

अब यकीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख ।

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख ।

ये धुन्धलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख ।

राख़ कितनी राख़ है, चारों तरफ बिख़री हुई,
राख़ में चिनगारियाँ ही देख अंगारे न देख । 

अभी तो आग़ाज़ है ये देखते हैं कि इस मुहिम के राष्ट्रवादी रास्ते पर और कितने आते हैं कि कारवां बन जाए।

- अलकनंदा सिंह