क्या कहा ? राजनीति और सच , दोनों एक साथ ? नहीं ...नहीं । राजनेता है तो वह सच नहीं बोल सकता, बोलना चाहे तो भी सच उसे न जाने कितने झूठों के साथ लपेट कर धीमे से सरकाना पड़ता है, और यदि कभी सच बोल दिया सीधे सीधे, तो मीडिया ही बचता है आड़ लेने को, कि नहीं भाई मैंने ऐसा (सच) कुछ नहीं कहा, वो तो मीडिया ने तोड़ मरोड़ कर पेश कर दिया है। आज ऐसा ही कुछ विदेश राज्य मंत्री और सेना के पूर्व जनरल श्री वी. के. सिंह के सच कहे जाने पर मचे बवाल का सीन था।
भोपाल में कल से शुरू होने जा रहे दसवें हिंदी सम्मेलन से पूर्व आयोजित प्रेस वार्ता में वी. के. सिंह ने पत्रकारों द्वारा कुछ नामी सहित्यकारों को न बुलाए जाने के सवाल पर कुछ ऐसा सच कह दिया जो बड़े साहित्यकारों की नैतिकता की बखिया उधेड़ता दिखा। मीडिया ने भी इसे अच्छे मसाले के साथ पेश किया।
सिंह से जब पूछा गया कि इस आयोजन में ज्यादातर बड़े साहित्यकारों की उपेक्षा की गई और आपने कई बड़े नामों को इसमें आमंत्रित नहीं किया तो सिंह साहब ने कहा कि कुछ साहित्यकार हिंदी सम्मेलन में सिर्फ शराब पीने आते थे। इस बयान का साहित्यकारों ने विरोध भी शुरू कर दिया है।
हालांकि बतौरे-सफाई बाद में वीके सिंह ने सारा ठीकरा मीडिया के सिर फोड़ते हुए कहा कि बिका हुआ है मीडिया, मीडिया ने उनका बयान तोड़-मरोड़ कर पेश किया है। मुझे तो बताया गया था कि साहित्कार अपनी किताबों, लेखों को लेकर शराब के नशे में लड़ते-झगड़ते थे... । वीके सिंह ऐसा कहकर विवाद से पीछा छुड़ाने की कोशिश करते रहे, बस।
निश्चित ही यह वह सच था, जो न सिर्फ एक राजनेता द्वारा कहा गया बल्कि सम्मेलन के आधार स्तंभों यानि साहित्यकारों की निजता पर तीखा हमला भी था।
संभवत: शराब तो बहानाभर है उन साहित्यकारों से पीछा छुड़ाने का जो सरकार की भावनाओं से ताल नहीं बिठाते अथवा दक्षिणपंथी सोच से अलग रहते हैं या फिर 'वामपंथी बेचारगी' से तरबतर हैं ।
यूं भी ज़रा सोचिए ! जब आयोजक शराब मुहैया ही नहीं करायेंगे तो आमंत्रित अतिथि और वह भी साहित्यकार कम से कम अपनी जेब से तो पीने से रहा।
तो जनाब वी. के. सिंह साहब ! ये कोई ग़ालिब का ज़माना तो है नहीं और ना ही फिराक़ गोरखपुरी का, कि उम्दा रचनाओं के बाहर आने के लिए भी शराब एक माध्यम बन रही हो। ये तो इक्कीसवीं सदी है, जब साहित्य की उम्दा रचनाओं के लिए नहीं बल्कि साहित्य के बाजार को तिकड़मी बनाने के लिए शराब को पिया और पिलाया जाता है। अब के साहित्यकार घर फूंक कर न तो शराब पीते हैं और न ही साहित्य रचने के लिए शराब पीते हैं। अब शराब साहित्य का नहीं मार्केटिंग का आधार है।
मेरा ख़याल है कि सिंह साहब शायद पूरी तरह से अपनी बात कह नहीं पाये, वो अधूरे राजनेता हैं ना।
यह तो मैं भी कहूंगी कि सरकार का बड़प्पन इसी में रहता कि वह हिंदी सम्मेलन में सभी बड़े साहित्यकारों को आमंत्रित करती। आखिर सम्मेलन के वे आधार स्तंभ तो हैं ही। कुछ 'बड़ों' को न बुलाकर सरकार ने स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चला ली है। इस एक बयान से सिंह साहब ने बैठे बिठाए बुद्धिजीवियों के विरोध को आमंत्रण दे दिया।
- सुमित्रा सिंह चतुर्वेदी
भोपाल में कल से शुरू होने जा रहे दसवें हिंदी सम्मेलन से पूर्व आयोजित प्रेस वार्ता में वी. के. सिंह ने पत्रकारों द्वारा कुछ नामी सहित्यकारों को न बुलाए जाने के सवाल पर कुछ ऐसा सच कह दिया जो बड़े साहित्यकारों की नैतिकता की बखिया उधेड़ता दिखा। मीडिया ने भी इसे अच्छे मसाले के साथ पेश किया।
सिंह से जब पूछा गया कि इस आयोजन में ज्यादातर बड़े साहित्यकारों की उपेक्षा की गई और आपने कई बड़े नामों को इसमें आमंत्रित नहीं किया तो सिंह साहब ने कहा कि कुछ साहित्यकार हिंदी सम्मेलन में सिर्फ शराब पीने आते थे। इस बयान का साहित्यकारों ने विरोध भी शुरू कर दिया है।
हालांकि बतौरे-सफाई बाद में वीके सिंह ने सारा ठीकरा मीडिया के सिर फोड़ते हुए कहा कि बिका हुआ है मीडिया, मीडिया ने उनका बयान तोड़-मरोड़ कर पेश किया है। मुझे तो बताया गया था कि साहित्कार अपनी किताबों, लेखों को लेकर शराब के नशे में लड़ते-झगड़ते थे... । वीके सिंह ऐसा कहकर विवाद से पीछा छुड़ाने की कोशिश करते रहे, बस।
निश्चित ही यह वह सच था, जो न सिर्फ एक राजनेता द्वारा कहा गया बल्कि सम्मेलन के आधार स्तंभों यानि साहित्यकारों की निजता पर तीखा हमला भी था।
संभवत: शराब तो बहानाभर है उन साहित्यकारों से पीछा छुड़ाने का जो सरकार की भावनाओं से ताल नहीं बिठाते अथवा दक्षिणपंथी सोच से अलग रहते हैं या फिर 'वामपंथी बेचारगी' से तरबतर हैं ।
यूं भी ज़रा सोचिए ! जब आयोजक शराब मुहैया ही नहीं करायेंगे तो आमंत्रित अतिथि और वह भी साहित्यकार कम से कम अपनी जेब से तो पीने से रहा।
तो जनाब वी. के. सिंह साहब ! ये कोई ग़ालिब का ज़माना तो है नहीं और ना ही फिराक़ गोरखपुरी का, कि उम्दा रचनाओं के बाहर आने के लिए भी शराब एक माध्यम बन रही हो। ये तो इक्कीसवीं सदी है, जब साहित्य की उम्दा रचनाओं के लिए नहीं बल्कि साहित्य के बाजार को तिकड़मी बनाने के लिए शराब को पिया और पिलाया जाता है। अब के साहित्यकार घर फूंक कर न तो शराब पीते हैं और न ही साहित्य रचने के लिए शराब पीते हैं। अब शराब साहित्य का नहीं मार्केटिंग का आधार है।
मेरा ख़याल है कि सिंह साहब शायद पूरी तरह से अपनी बात कह नहीं पाये, वो अधूरे राजनेता हैं ना।
यह तो मैं भी कहूंगी कि सरकार का बड़प्पन इसी में रहता कि वह हिंदी सम्मेलन में सभी बड़े साहित्यकारों को आमंत्रित करती। आखिर सम्मेलन के वे आधार स्तंभ तो हैं ही। कुछ 'बड़ों' को न बुलाकर सरकार ने स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चला ली है। इस एक बयान से सिंह साहब ने बैठे बिठाए बुद्धिजीवियों के विरोध को आमंत्रण दे दिया।
- सुमित्रा सिंह चतुर्वेदी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें