शनिवार, 28 दिसंबर 2013

जीते जी मक्‍खियों को निगलती पीढ़ी

हमारे यहां अकसर कहा जाता है कि किसी भी क्षेत्र में प्रसिद्धि पाने के लिए जितनी मेहनत करनी होती है, उससे कहीं ज्‍यादा उसे बरकारार रखने में जरूरी होती है लेकिन कई बार ऐसा देखा गया है कि बरकरार रखने वाली यही चुनौती उन पीढ़ियों के लिए बोझ बन जाती है जो इन विरासतों की गवाह बनती हैं। फिर उनके लिए इस तरह प्रसिद्धि पाने और उसे बनाये रखने के लिए स्‍थापित नियमों में फेरबदल की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती...पीढ़ियां फिर भी इन चुनौतियों से जूझ रही हैं क्‍योंकि जीवन है तो आशा है और आशा है तो चुनौतियां भी अवश्‍य बनी ही रहती हैं।
अब देखिए न ...लगभग पूरे देश में ही चल निकली कांग्रेस विरोधी लहर की रफ्तार धीमी करने के लिए, पार्टी के 'युवराज' और मोदी द्वारा दिये गये नये नाम 'शहजा़दे' के वज़न को ढोते हुए राहुल गांधी पिछले दिनों जब मुज़फ्फ़रनगर के दंगापीड़ितों से मिलने पहुंचे तो तमाम राजनैतिक बातों, नारों और सांत्‍वनाओं के बीच उनके चेहरे पर एक 'बेचारगी' झलक रही थी। ये बेचारगी किसी गरीब की नहीं थी, बल्‍कि गरीबों और असहायों के सामने 'बड़े होने' की लाचारगी से उपजी 'कुछ ना' कर पाने की थी।
दरअसल, राजनीति ने राहुल गांधी को लेकर आमजन के बीच कुछ ऐसी धारणाएं स्‍थापित  कर दी हैं कि हम इनका नाम आते ही एक भ्रष्‍टाचारी पार्टी के किसी गेम खेलने वाले विलेन की तस्‍वीर को सामने पाते हैं या फिर देश के अहम मुद्दों पर चुप्‍पी साधे तमाशबीन नेता के तौर पर आंकने लगते हैं और इस सबके बीच जो कुछ घटित होता है उसे हम एक रटे रटाये अंदाज़ में देखते हैं कि वो सोनिया गांधी के बेटे हैं..फिलहाल सत्‍ताधारी पार्टी के सबसे ताकतवर नेता हैं...आदि आदि।
बेशक, दागी सांसदों को लेकर संसद के रुख पर अध्‍यादेश को नॉनसेंस कहने वाले,पार्टी का कुनबा बढ़ाने के लिए भी नई-नई तकनीकें आजमाने वाले, और अब आदर्श सोसाइटी घोटाले की जांच रिपोर्ट को खारिज करने वालों पर सवालिया निशान लगाकर राहुल गांधी ने बार-बार यह जताने की कोशिश की है कि सरकार जिस तरह काम करती रही है वह बिल्‍कुल भी सही नहीं है परंतु उनके कहने की टाइमिंग गड़बड़ रहती है और वो अपने शब्‍दों को जाया करते दिखते हैं। यह महज इसलिए कि विरासत की राजनीति को ढोने की मजबूरी उन्‍हें ''अपनी तरह'' से कुछ करने नहीं दे रही।
एक दूसरा उदाहरण हैं उत्‍तर प्रदेश की कमान संभालने वाले मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव का। मुलायम सिंह के स्‍थापित नियम अखिलेश के राजनैतिक कॅरियर को पूरी तरह ज़मींदोज करने पर उतारू हैं।अपने बेटे को मुलायमसिंह अभी तक मुख्‍यमंत्री मान ही नहीं पाये ।अखिलेश के हर कदम पर उन्‍हें मंच से सरेआम डांट देना ,उनकी आलोचना करना, जबरन उनकी टीम पर अपनी पसंद थोपना, कुछ ऐसे बिंदु हैं जो अखिलेश की लाचारगी को बढ़ा ही रहे हैं, काम करना तो दूर वो अपनी तरह से सोच भी नहीं पा रहे वरना क्‍या कारण है कि जो अखिलेश ,पद की शपथ लेने के बाद जोश से लबरेज़ दिखते थे आज वो हर बात पर खुंदक निकालते नज़र आते हैं।
सोनिया गांधी हों या मुलायम सिंह..... या ऐसे ही दूसरे राजनैतिक धुरंधर, सभी को समझ लेना चाहिए कि राजनीतिक विरासतों को ढोने का वक्‍त अब बीत चुका है। यह नये प्रयोगों का दौर है। जब हम आज की पीढ़ी को स्‍कूलों से लेकर कॅरियर तक अपना रास्‍ता खुद चुनने की वकालत करते हैं तो राजनीति में इससे परहेज क्‍यों ? राजनीति तो खालिस पब्‍लिक से जुड़ा ऐसा मामला है, जो कॅरियर कम और जनसेवा अधिक है। ''आप'' की दिल्‍ली में जीत एक नये दौर की कहानी रच गई है । राहुल गांधी और अखिलेश यादव भी इस परिवर्तन को भलीभांति समझ रहे हैं मगर वो विरासत की राजनीति ढोने पर मजबूर हैं और दूध में पड़ी मक्‍खी को जीते जी निगलने के लिए सिर्फ इसलिए विवश हैं क्‍योंकि वह उन राजनैतिक हस्‍तियों (व्‍यापारियों) के  उत्‍तराधिकारी  हैं  जिन्‍होंने अपने बच्‍चों को भी नहीं बख्‍शा।
- अलकनंदा सिंह

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