गुरुवार, 11 जून 2015

तो क्या इन हैवानों के लिए कोई कुछ नहीं बोलेगा

दुनिया से गुलामी प्रथा का खात्मा हुए 19वीं शताब्दी से अबतक न जाने कितने बदलाव आए और दुनिया को तरक्की के नए नए आयाम दे गए मगर आईएस के रोजाना के कारनामे हमें बहुत कुछ सोचने पर विवश कर देते हैं कि क्या सचमुच यज़ीदी औरतों पर वे जो अपनी हैवानियत के प्रयोग कर रहे हैं,  उसका अंत क्या उनका सफाया कर देने भर से हो जाएगा । क्या उनके सफाए से वो ''मानसिकता'' भी खत्म हो जाएगी जो औरतों, लड़कियों और बच्चों के शरीरों पर अपना युद्ध लड़ती है। उनकी आत्मा रौंद कर अपने परचम फहराती है । 

विश्व के अन्य देशों की बात छोड़ दें , वो तो इस हैवानियत को सिर्फ देख रहे हैं , यूएन भी उन यज़ीदी औरतों की खबरों पर अपने उपदेश झाड़ रहा है मगर कोई कुछ नहीं कर रहा। और मीडिया की तो बात क्या कही जाए...?  औरतों के रोते हुए चेहरों से वे सब के सब भारी पैसा बना रहे हैं। उन औरतों के नुचे हुए शरीर के पीछे छुपी उनकी नुची हुई आत्मा को कोई न देख पा रहा है और न ही दिखा पा रहा है।

आज बस एक खबर भर है कि यौन हिंसा से जुड़े एक यूएन प्रतिनिध‍ि की रपट के अनुसार इराक और सीरिया से अपहृत किशोरियों को आईएस आतंकी गुलामों के बाजार में सिगरेट के एक पैकेट की कीमत पर बेच रहे हैं। इस रपट को तैयार करने वाले क्या बिल्कुल वैसा ही व्यवहार नहीं कर रहे जैसे कि कोई फोटो जर्नलिस्ट जलते हुए या डूबते हुए व्यक्ति से इंटरव्यू ले रहा हो... और उस फोटो से वो नाम कमाने की जुगत लगा रहा हो...। 

ये हकीकत अप्रैल में जुटाए गए आंकड़ों पर आधारित है जब यूएन के विशेष दूत जैनब बांगुरा इराक और सीरिया का दौरा कर लौटे । उन्होंने आईएस के चंगुल से जसतस छूटी किशोरियों और औरतों के मुंह से हृदयविदारक दास्तां सुनीं । लड़कियों ने बताया कि किसी भी क्षेत्र पर कब्जा करने के बाद आतंकी वहां की औरतों , लड़कियों को अपहृत कर लेते हैं फिर सरेआम उन्हें नहलाकर निर्वस्त्र या करके उनकी बोली लगाई जाती है , कभी कभी तो एक सिगरेट के पैकेट की कीमत या एक शर्त या फ‍िर कुछ डॉलर में उन्हें बेच दिया जाता है । तुर्की लेबनान जॉर्डन के श‍िविरों में इनकी दुदर्शा की कहानियां अटी पड़ी हैं। फिलहाल बांगुरा इन पर रपट तैयार कर रहे हैं, मगर रपट से उन औरतों और लड़कियों के दर्द को सुना तो जा सकता है मगर तब तक कितना दर्द उनमें बह चुका होगा , इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता ।

क्या आईएस के जुल्म के मारी औरतों की ये खबरें हमारे देश के इस्लामी हुनरमंदों तक नहीं पहुंच रहीं ?
भारत के उलेमा इस बावत बोलने में तंगदिली क्यों दिखा रहे हैं ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि आईएस की मानसिकता से भारतीय इस्लामिक विद्वान भी इत्त‍िफाक रखते हों ?
भारतीय उलेमा आईएस की हैवानियत पर चुप्पी साध कर आख‍िर ज़ाहिर क्या कराना चाहते हैं ?
उनकी सोच क्या सिर्फ देश में सियासती फैसलों पर अपनी नाराजगी जताने तक स‍िमटकर रह गई है ?
शिया हों , सुन्नी हों, कुर्द हों, यज़ीदी हों ... कोई भी हों औरत तो औरत होती है , यौन अपराध किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता । इन अपराधों के नतीजतन जो बच्चे पैदा होंगे, आख‍िर उनकी मानसिकता कितनी घातक हो सकती है। जेनेटिक्स पर साइकोलॉजिकल इफेक्ट नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यहीं पर बात आ जाती है नैतिकता की, इंसानियत के पतन की,  इंतिहाई जहालत की ... मगर भारतीय इस्लामिक विद्वानों की इस बावत चुप्पी ठीक नहीं है।

बात बात पर अपना विरोध जताने जो लोग इलेक्ट्रानिक मीडिया का मुंह ताकते हैं , क्या वे दो शब्द भी आईएस के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं रखते ?

ये मजहब की कौन सी परिभाषा है जो शरीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बनाने से तो मना करती है मगर जुल्म के खि‍लाफ मुंह भी नहीं खोलती ?

भारत में तो योग पर भी बवेला कर देते हैं यही विद्वान... गोया कि उनके बच्चे कहीं नैतिक हो गए तो उनके चंगुल से निकल जाऐंगे ... मगर  इराक में जो हो रहा है उस पर चुप्पी इसके इस्लामिक ज्ञान पर प्रश्नचिन्ह लगाती है । यूं तो आईएस की सताई औरतों की आह स्वयं आईएस को तो देर सबेर खत्म कर ही देगी , मगर इस पर चुप्पी साधने वालों को भी  कठघरे में खड़ा करेगी जो मजहब की रोटी खाते हैं।
भारत अपने हाल ही के निर्णयों से विश्व के केंद्र में आया हुआ है । इस समय भारतीय इस्लामिक विद्वानों और अकीदतमंदों को इसका फायदा उठाते हुए आईएस के औरतों पर जुल्मों के खिलाफ एकजुट हो आगे आना चाहिए।  

निश्चति ही भारतीय इस्लामिक विद्वानों को इस बावत अपनी ओर से अंतर्राष्ट्रीय प्रयास करने चाहिए ताकि जुल्म करने वालों की अगली पीढ़ी हैवान बनने से बचाई जा सके। ये ज़हालत और जुल्म की इंतिहा है , इसे किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।

जहालत और जुल्म के इस दौर पर अज़हर इनायती का एक शेर है बिल्कुल सही बैठता है -

जहाँ से इल्म का हम को ग़ुरूर होता है
वहीं से होती है बस इब्तिदा जहालत की

- अलकनंदा सिंह  

सोमवार, 8 जून 2015

बहती गंगा है हाथ धोने से भी बाज आयें क्या...?

कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में में स्वस्थ दिमाग बसता है और स्वस्थ दिमाग से स्वस्थ चरित्र की स्थापना की होती है जिससे स्वस्थ समाज का निर्माण होता है और स्वस्थ रहने के लिए किसी भी धर्म व संप्रदाय में कोई बंदिशें नहीं लगाई गईं। फ‍िर क्यों योग दिवस मनाने को लेकर इतनी खींचातानी हो रही है। 21 जून को यदि देश अपनी इस थाती को दुनिया के सामने प्रदर्श‍ित करके जीवन के लिए अमूल्य निध‍ि 'स्वास्थ्य' के प्रति अपनी गंभीरता को प्रगट करता है या इसके जरिये राष्ट्रवाद का संदेश देता है तो उसमें गलत क्या है।
खुद को हेय दृष्ट‍ि से देखकर महान नहीं  बना जा सकता। तथाकथ‍ित समाजवाद के नाम पर भारतीय जनमानस में जो अभी तक यह धारणा बैठा दी गई कि यदि हम अपने प्राचीन महात्म्य की बात कर रहे हैं तो वह हिंदूवादी है या फ‍िर पुरातन पंथी, इस ग्रंथ‍ि से निकलना होगा। इस ग्रंथ‍ि से निकलने की कोश‍िश ही तो है कि अाज योग सिर्फ भारत का ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजि‍त होने जा रहा है।  
जनसांख्यिकी आंकड़ों के अनुसार इस समय देश में युवाओं का प्रतिशत ज्यादा है और युवाओं के कंधे पर चढ़कर हम अगली सदी में देश को सर्वोच्च स्थान तक ले जाने की कामना करते हैं। ऐसे में उनके कंधों को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी किसकी है। क्या शारीरिक, मानसिक व चारित्रिक रूप से अस्वस्थ और न‍िर्बल पीढ़ी के सहारे हम देश को आगे ले जाने का स्वप्न पाल रहे हैं।
भारत जैसे युवा देश को अच्छे स्वास्थ्य के ओर ले जाना पूरे के पूरे समाज को स्वस्थ बनाना है। कुछ वर्षों पहले तक योग को लगभग भुला दिया गया था। सुबह की सैर व प्राणायाम  से लेकर व्यायाम और अखाड़ों की ओर जाने वाले युवाओं को पिछड़ा समझा जाने लगा। बाबा रामदेव के प्रात: कालीन टीवी ने  सामूहिक रूप से यदि योग को इतनी व्यापकता में लोगों तक न पहुंचाया होता तो आज भी हम योग के सामान्य से लाभों से भी अपरिचित ही होते। यह अलग बात है कि बाबा रामदेव की बात करते ही लोग उनकी व्यापारिक गत‍िविधि‍यों पर बात करने लगते हैं और उनके मूल प्रयासों को भूल जाते हैं। ऐसा नहीं था कि बाबा रामदेव से पहले योग देश में किया नहीं जा रहा था मगर उसे आमजन तक लाने का श्रेय तो बाबा को ही जाता है।
योग सिर्फ शरीर का ही नहीं मन का भी व्यायाम है और मन चाहे हिंदू का हो या मुसलमान का, स्वस्थ रहने का अधिकार तो हर व्यक्ति का है। कुछ लोगों द्वारा बवाल मचाया जा रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर सूर्यासन करने की इजाज़त उनका धर्म नहीं देता। न जाने कहां कहां से अज़ान, वजू और आयतों के उदाहरण दिये जा रहे हैं कि अल्लाह के अलावा हम किसी के आगे सर नहीं  झुकाते जबकि सूर्य नमस्कार में पहला आसन ही सूर्य के सामने सज़दा करना है।
अगर धार्मिक दृष्टि से कहा जाये तो कोई ज़रा इन लकीर के फकीरों से पूछे कि जब सारी कायनात के ज़र्रे ज़र्रे में अल्लाह है तो सूर्य क्या उस कायनात का हिस्सा नहीं है । और यदि सामाजिक दृष्टि से देखें तो जो आज सूर्य नमस्कार को धर्म पर हमले के रूप में देख रहे हैं, वे यह भी तो बतायें कि स्वयं उन्होंने कुरान के नाम पर पूरे समाज की अस्वस्थता और मानसिक पिछड़ेपन के लिए क्या क्या कर दिया ... । क्या उन्होंने इस्लाम को इतना कमजोर और लाचार समझ रखा है जो एक स्वस्थ राष्ट्र की परिकल्पना में वह सबके साथ नहीं आ सकता। ये लोग सज़दे की बात कहकर बस विरोध करने के लिए विरोध कर रहे हैं, क्योंकि ये अच्छी तरह जानते हैं कि इसी तरह वे लाइमलाइट में आ सकते हैं, मीडिया में छा सकते हैं, इलेक्ट्रॉनिक चैनलों को बाइट दे सकते हैं, सारी जिंदगी निकल गई जिनकी गली मोहल्लों में, वे भला क्योंकर ये मौका चूकें, बहती गंगा है हाथ धोने से भी बाज आयें ...?
पूरे विश्व में इस्लाम के नाम पर अपनी घ‍िनौनी हरकतों से जिस आईएस ने पूरे धर्म को संदेह के घेरे में ला दिया है, उस पर यही ठेकेदार कुछ कभी नहीं बोलते जबकि अपने बच्चों से स्वस्थ रहने का एक आसान सा तरीका भी इनसे बर्दाश्त नहीं हो रहा। इस्लाम की आख‍िर इतनी अलग-अलग सी परिभाषाएं क्यों हैं। निश्चित ही धर्म के नाम पर और विरोध के हथकंडों से ये उस पूरी युवा पीढ़ी के सामने ऐसे उदाहरण रख रहे हैं जो उन्हें राष्ट्र के साथ खड़ा होने से वंचित करेगा।
यह  सब भी तब हो रहा है जब ईरान और अफगानिस्तान व इंडोनेशिया जैसे खालिस मुस्लिम देशों में योग को राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किया जा रहा है। इस्लाम के भारतीय अलम्बरदार क्या अब ये बताने की जहमत उठायेंगे कि आख‍िर उक्त तीनों देश इस्लाम और इबादत की जो नाफरमानी कर रहे हैं, उनके लिए इनके पास क्या उपदेश हैं?
चूंकि ये सरकार बीजेपी की है तो सरकार के हर कदम पर उन्हें विरोध का अवसर मिल रहा है और अपनी तवज्जो को कैश करने का मौका भी वरना पिछली सरकारों में कोई मुद्दा ही कहां था मीडिया में छाने का... ।
बहरहाल,  योग के ज़रिये पूरे विश्व के स्वास्थ की कामना एक वृहद सोच वाला देश ही कर सकता है और जो लोग इसमें अपने अपने अड़ंगे लगा रहे हैं, वो देश के साथ साथ देशवासियों और खासकर अपनी युवा पीढ़ी को संस्कारों व उनके अच्छे स्वास्थ से वंचित रखना चाहते हैं, इसके अलावा और कुछ नहीं ।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है क‍ि ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे कि वे राष्ट्र के लिए सोच सकें क्योकि इन्हें ही सबसे ज्यादा जरूरत है प्रणायाम की और सकारात्मक सोच की भी। 
- अलकनंदा सिंह

रविवार, 31 मई 2015

एड्स पीडि़तों के लिए निकिता सिंह का नया उपन्यास ऑफ्टर ऑल दिस टाइम

नई दिल्ली/ न्यूयॉर्क। निकिता सिंह का नया उपन्यास ऑफ्टर ऑल दिस टाइम आ रहा है। अपने पिछले छह उपन्यासों में प्रेम संबंध और रिश्तों का तानाबाना बुनने के बाद 24 वर्षीय लेखिका निकिता सिंह इसी तरह के विषय पर नया गल्प लेकर आ रहीं हैं।
पेंगुइन रैंडम हाउस की लोकप्रिय कहानीकारों में गिनी जाने वाली निकिता न्यूयॉर्क से रचनात्मक लेखन की पढ़ाई कर रहीं हैं। उनकी नयी पुस्तक ‘ऑफ्टर ऑल दिस टाइम’ आई है।
निकिता अपने उपन्यास में महिला किरदारों को प्रभावशाली तरीके से पेश करती हैं लेकिन पुरष विरोधी होने से भी बचती हैं।
उनकी नयी पुस्तक इस बात को बयां करती है कि एचआईवी से ग्रस्त लोग किस तरह प्रेमपूर्ण जीवन जीते हैं।

गुरुवार, 28 मई 2015

गोहत्या रोकने के लिए एकजुट होकर अभियान चलायेगा मुस्लिम समाज

लखनऊ। इस रमजान मुस्लिम समाज गोहत्या रोकने के लिए एकजुट होकर अभियान चलायेगा और गोमांस का बहिष्कार करेगा। इसके लिए उत्तर प्रदेश मुस्लिम व्यापारी संघ के 450 कार्यकर्ता रमजान शुरू होने के साथ ही मुस्लिम बहुल इलाकों में जाकर मुसलमानों को समझाएंगे कि इस्लाम में गोमांस खाने पर पाबंदी है।
मुस्लिम व्यापारी संघ के अध्यक्ष शमीम शम्सी का कहना है कि मुसलमानों के चौथे और आखिरी खलीफा हजरत अली ने गाय के मांस को जहर और इसके दूध को अमृत बताया था मगर जानकारी न होने के कारण मुस्लिम समाज गोमांस को लेकर धार्मिक, कानूनी और सामाजिक तर्कों में उलझ जाता है।
यूपी मुस्लिम व्यापारी संघ ने गोहत्या और गोमांस की बिक्री पर रोक से भी एक कदम आगे बढ़ाते हुए इसके निर्यात पर भी प्रतिबंध लगाने मांग की है। इस मसले पर संघ के पदाधिकारी जल्द ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने जा रहे हैं।
पहले इसी मुद्दे पर व्यापारी संघ ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी मुलाकात की थी। उन्हें मांगपत्र भी सौंपा था। शमीम को उम्मीद है कि मोदी सरकार से इस मुद्दे पर सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलेगी। अगले महीने से शुरू होने वाले अभियान के लिए 450 युवा कार्यकर्ताओं की टीम तैयार की गई है।
व्यापारी संघ ने गोमांस पर बैन के साथ गो पालकों को गाएं पालने के लिए मुआवजा दिए जाने की मांग की है। संघ के मुताबिक गरीब किसान दूध न देने वाली गायों को तंगी में कसाइयों को बेच देते हैं। ऐसे में बूढ़ी और दूध न देने वाली गायों को बचाने के लिए उनके पालकों को सरकार की तरफ से आर्थिक मदद दी जाए और ऐसी गायों का पंजीकरण किया जाए।
मुस्लिम व्यापारी संघ ने आरोप लगाया है कि प्रदेश के सभी स्लॉटर हाउस बाहुबली और राजनीतिक दलों के नेताओं के हैं। इन नेताओं की पैरवी बड़े नेता भी करते हैं। यही वजह है कि कोशिशों के बावजूद स्लॉटर हाउसों पर कोई कार्यवाही नहीं होती। इसके बजाय गोमांस का निर्यात लगातार बढ़ता जा रहा है।
शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जवाद ने इस मुस्लिम व्यापारी संगठन की इस पहल पर कहा, ‘यूपी में गाय के गोश्त का प्रयोग न के बराबर है। अगर ऐसा कोई अभियान चलाया जा रहा है तो वह सराहनीय है। मौका आया तो हम भी योगदान देंगे।’

बुधवार, 27 मई 2015

एएमयू के प्रोफेसर ने कहा, समलैंगिकों के अड्डे हैं मदरसे

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर आपत्तिजनक टिप्पणी करने के आरोप में घिर गए हैं। उनके ऊपर मदरसों को ‘अधर्म और समलैंगिकता के अड्डे’ कहने का आरोप लगा है। स्टूडेंट्स में उनके खिलाफ भारी नाराजगी देखी जा रही है।
यूनिवर्सिटी के हिस्ट्री डिपार्टमेंट के प्रोफेसर वसीम राजा पर आरोप लगा है कि उन्होंने वॉट्सऐप पर एक टीवी चैनल को मेसेज भेजा था। इस मेसेज में लिखा था कि मौलाना इस तरह की गतिविधियों में लगे हुए हैं और मुस्लिम युवाओं का भविष्य तभी बदलेगा, जब देश के सभी मदरसे बैन कर दिए जाएं। चैट के स्क्रीन ग्रैब्स में राजा यह कहते दिखते हैं, ‘हम मदरसों को हटाना चाहते हैं, जहां समलैंगिकता को बोलबाला है और मौलाना इसमें शामिल हैं।’
प्रोफेसर पिछले 3 दशकों से यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे हैं। उन्होंने इस तरह के मेसेज भेजने से इंकार किया है। उन्होंने कहा, ‘मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा है। मैं कई सार्क कॉन्फ्रेंसेस में हिस्सा ले चुका हूं और हमेशा कम्युनिटी के पुनर्गठन की बात की है। क्या मदरसे हमारी कम्युनिटी में नहीं आते? इसका मतलब यह नहीं है मैंने ऐसा कुछ कहा है। मेरा फोन हैक कर लिया गया था। अब मैंने ग्रुप को बैन कर दिया है।’
स्टूडेंट्स ने राजा की टिप्पणियों की कड़ी आलोचना की है। रिसर्च स्कॉलर शाह आलम तुर्क ने कहा, ‘मैं ग्रुप में चैट कर रहा था, तभी राजा ने ऐसी बातें कहीं। मैंने उन्हें कहा कि अपने विचार रखना आपका संवैधानिक अधिकार है, मगर आप तथ्यों के बिना इस तरह से अपमान नहीं कर सकते। यह पूर्वग्रह है और इससे हमारी कम्युनिटी कमजोर होगी, मजबूत नहीं।’
अन्य स्टूडेंट्स ने भी इसी तरह के विरोध किया है। एक ने कहा, ‘आप जैसे लोग यूनिवर्सिटी का नाम बदनाम कर रहे हैं। आपक इस जगह पहुंचे हैं तो बोलने से पहले सोचिए।’ AMUTA सचिव मुस्तफा जैदी ने कहा कि प्रोफेसर को बोलने से पहले कुछ सोचना चाहिए था। उन्होंने कहा, ‘इस तरह के बयान नाराजगी पैदा कर सकते हैं। उन्हें ऐसा कहना ही नहीं चाहिए था।’
एएमयू पीआरओ राहत अबरा ने कहा कि वीसी अभी बाहर हैं और उनके लौटने के बाद ही यह तय किया जाएगा कि इस मामले में क्या कार्यवाही की जाए।

रविवार, 24 मई 2015

देश का पहला संस्कृत रॉक बैंड है ध्रुव

भोपाल। भोपाल का ‘ध्रुव रॉक बैंड’ कई मायनों में अलग है क्योंकि ये ख़ुद को देश का पहला संस्कृत रॉक बैंड बताता है. यह बैंड ऋग्वेद के मंत्रों को क्लासिकल और वेस्टर्न म्यूज़िक के साथ तैयार कर रहा है.
इस बैंड ने अपनी पहली प्रस्तुति मार्च में दी. 10 सदस्यों वाले इस बैंड को अब कई जगह परफॉर्मेंस देने के बुलावे मिलने लगे हैं.
इस बैंड को बनाने वाले डॉ. संजय द्विवेदी ने बताया, ”हमारा मक़सद संस्कृत को आम भाषा बनाना है. इसे कुछ वजहों से लोगों ने कुछ विशेष लोगों के लिए बना दिया था. समय के साथ हम संस्कृत को आसान नहीं बना पाए. हमारी कोशिश इसे आम लोगों तक पहुंचाने की है.”
संजय बताते हैं, “पहली परफॉर्मेंस में ही लोगों ने इस बैंड को काफ़ी सराहा. लोग और सुनने का आग्रह कर रहे थे.”
उनका कहना है कि इस विधा में वो जो भी करेंगे वो पहली बार होगा, यही उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है.
संस्कृत में पीएचडी संजय ने इस बैंड के साथ ऐसे लोगों को जोड़ा है जो हर तरह से अपनी विधा में परांगत हैं.
वैभव संतूर और ज्ञानेश्वरी बैंड में गायक हैं.
वैभव बताते हैं, “संस्कृत में एक-एक शब्द के उच्चारण का महत्व है. उच्चारण में ज़रा सी ग़लती से शब्दों के अर्थ बदल सकते हैं. यही वजह है कि हर रोज़ चार-चार घंटे रियाज़ करना पड़ता है.”
एआर रहमान संगीत अकादमी से ट्रेनिंग पाने वाले सन्नी शर्मा बैंड के ड्रमर है. सन्नी शर्मा ने एमटीवी के लिए भी परफ़ॉर्म किया है.
उन्होंने बताया, “संस्कृत श्लोकों में ड्रम के उपयोग की गुंजाइश बहुत कम थी लेकिन इस पर भी काम किया गया और अब ड्रम का भी बख़ूबी उपयोग किया जा रहा है.”
संजय द्विवेदी मानते हैं कि सूफी संस्कृत का ही हिस्सा है. यही वजह है कि सूफी संगीत हमारे दिल को छूता है और सुकून भी देता है.
बैंड से जुड़े सभी लोग मानते हैं कि उन्होंने कल्पना ही नहीं की थी कि वो अपने हुनर का उपयोग इस तरह के बैंड के लिए करेंगे.

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

प्रकृति और जीवन के प्राणतत्व हनुमान

आम जन में एक व्यक्ति और एक भक्त के तौर पर देखे जाने वाले हनुमान को पराक्रम, उत्साह, मति, शील, माधुर्य और नीति के साथ साथ गाम्भीर्य चातुर्य और धैर्य के प्रतिमान स्थापित करते देखा गया है परंतु इसकी वैज्ञानिकता की ओर ध्यान न देने के कारण हनुमान की सार्थकता सिर्फ पुराणों और भक्ति साहित्य तक सिमट कर रह गई है।
हनुमान को पुराणों से लेकर आज तक अमर माना गया है। अनेक उपमाओं के साथ कहा गया कि इस विशाल ब्रह्मांड में हनुमान जैसा कोई नहीं है। इन्हीं उपमाओं में हनुमान के लिए 'वायुपुत्र' का भी प्रयोग होता है। वायुपुत्र कहे जाने के पीछे की दार्शनिक प्रतीकात्मक भूमिका जानना आवश्यक है। वायु, गति, पराक्रम, विद्या, भक्ति और प्राण शब्द का पर्याय है। वायु के बिना या वायु की वृद्धि से प्राणियों का जीवन संभव नहीं है। यहां तक कि योग की आधार भूमिका के रूप में किसी भी साधक और योगी के लिए तो प्राण वायु का नियमन  है। चूं कि पवन सभी का प्राणदाता जनक है और इसी प्राणतत्व के कारण हनुमान पवनपुत्र कहलाते जाते हैं तो प्राणवायु से जीवन का आधार जुड़ा है । सृष्टि में जब तक वायु है , पवन है तब तक प्राण हैं और जब तक प्राण हैं हनुमान भी हैं । हनुमान के अमरत्व का सीधा सीधा संबंध प्राणवायु से है अर्थात् हर प्राणी जो सांस ले रहा है व‍ह हनुमान को अपनी हर सांस में जी रहा है ।  
इसीलिए पौराणिक ग्रंथ हों या भक्ति साहित्य अथवा लोकाचार में उनकी अमरतापूर्ण उपस्थ‍िति की बात हो,  हनुमान को अनगढ़ श‍िव का रूप भी इसीलिए बताया गया है क्योंकि वह प्राण और उसकी शक्ति से जुड़े हैं।
पौराण‍िक क्रम में तेरहवां स्थान रखने वाले ' स्कंद पुराण' के महेश्वर खंड में स्वयं शिव ने हनुमान के रुद्र रूप का वर्णन किया है -

योवै चैकादशो रुद्रो हनुमान स महाकपि: ।
अवतीर्ण : सहायार्थ विष्णोरमित तेजस:।।

ऋग्वेद के भी 10.64.8 मंत्र की व्याख्या में नीलकंठ शि‍व ने हनुमान को रुद्रों में ग्यारहवाँ रुद्र बताया है जो सभी रुद्रों में अंतिम है। शिव पुराण की रुद्र संहिता में हनुमान के परब्रह्म स्वरूप की संपूर्णता और रुद्र से हनुमान की एकाकारता का वर्णन मिलता है। 'स्कंद पुराण' के अनुसार हनुमान से बढ़कर जगत में कोई नहीं है। एक और उद्धरण मिलता है कि याज्ञवल्क्य ने ऋषि भारद्वाज को बोध प्रदान करते हुए कहा है कि- "परमात्मा नारायण ही श्री हनुमान हैं।"
'वायु पुराण' के पूर्वार्द्ध में भगवान महादेव के हनुमान रूप में अवतार लेने का उल्लेख है।

साहित्यिक दृष्टि से हनुमान को  गोस्वामी तुलसीदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'हनुमान बाहुक' में तथा  'विनय पत्रिका' के अनेक पदों में शंकर रूप मानकर 'देवमणि' रुद्रावतार महादेव, वामदेव, कालाग्रि आदि नामों से संबोधित तो किया परंतु भक्ति रस में डूबे होने के कारण हनुमान के परब्रह्म होने का सत्य मात्र एक बलशाली वानर , रामभक्त व अमर देव होने तक ही सिमट गया।
यह सत्य है कि पवनपुत्र हनुमान की हमारी प्रत्येक श्वास में उपस्थ‍िति है जिसको परब्रह्म के अतिरिक्त और किस रूप में  देखा जा सकता है भला। प्राण-तत्व की उपस्थ‍िति के बिना  क्या हम जीवन की कल्पना कर सकते हैं । यह तो प्रकृति के किसी भी रूप व काल में  जीवन के लिए अनिवार्य रही है।
हनुमान जयंती पर एक बार फिर आज जब धार्मिक प्रतीकों देवी देवताओं के अस्तित्व को धार्मिक दृष्टिकोण के साथ साथ आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी देखा परखा जा रहा है, नये नये शोध हो रहे हैं , तब ऐसे में हनुमान की शक्तियों , वे परब्रह्म क्यों कहलाये हैं और उनके आचरण को हम आज अपने जीवन में किस तरह नियम व संयम से उतार सकते हैं , यह जानने की आवश्यकता है । 

- अलकनंदा सिंह

रविवार, 29 मार्च 2015

जश्न-ए-बहार मुशायरे में इस बार चीन और पाकिस्तान के शायर भी आयेंगे

नई दिल्‍ली। ‘जश्न-ए-बहार’ मुशायरे में इस बार पाकिस्तान और चीन समेत दुनियाभर के नामचीन उर्दू शायर शमा रौशन करेंगे.
तीन अप्रैल को आयोजित होने जा रहा यह मुशायरा देश का सबसे बड़ा गैर राजनीतिक जश्न होता है और इस बार 17वें मुशायरे में जावेद अख्तर और वसीम बरेलवी जैसी हस्तियां शिरकत करेंगी.
इनमें बीजिंग से झांग शिचुआन, न्यूयार्क से अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह, टोरंटो से अशफाक हुसैन जैदी और जेद्दाह से उमर सलीम अल एदरूस प्रमुख हैं.
उर्दू शायरी के चाहने वालों को इस सालाना जश्न का बेसब्री से इंतजार रहता है जिसमें पाकिस्तान के शायरों को खासतौर से पसंद किया जाता है. इस बार इस्लामाबाद से किर नाहीद, लाहौर से अमजद इस्लाम अमजद और कराची से आम्बरीन हासिब मुशायरे की रौनक बढ़ाने के लिए आ रहे हैं.
मुशायरे का आयोजन दिल्ली पब्लिक स्कूल मथुरा रोड में किया जाएगा. अलीगढ़ मुस्लिम विश्‍वविद्यालय के वाइस चांसलर जमीनउद्दीन शाह मुशायरे के खास मेहमान होंगे और वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर इसकी अध्यक्षता करेंगे.
भारतीय शायरों में कोलकाता से मुनव्वर राना, मुरादाबाद से मंसूर उस्मानी और मेरठ से पोपुलर मेरठी भी अपनी शायरी पेश करेंगे.
जश्न-ए-बहार ट्रस्ट की संस्थापक और उर्दू कार्यकर्ता कामना प्रसाद कहती हैं कि भारत में मुशायरे को हमेशा से ही धर्मनिरपेक्ष दृष्टि से देखा जाता रहा है जिसकी पहचान उर्दू और हिंदुस्तानी चरित्र को समेटे हुए है. हम इस संस्थान को जिंदा रखने तथा इसे और बेहतरीन बनाने की कोशिश में हैं.

शनिवार, 28 मार्च 2015

कन्या पूजन का प्रोफेशनलिज़्म

सामने के घर से कन्या पूजन के बाद बाहर आती बच्चियों की उम्र  बमुश्किल 5 से 8 वर्ष के बीच रही होगी। एक हाथ में  हलवा, पूरी और दूसरे हाथ में ऑब्लिगेशन गिफ्ट्स। कई घरों से बुलावे सुबह ही आ चुके थे। कुछ के अभी भी आ रहे थे। इतने बिजी कि घरों में पूजन करते हुए जो पूरियां खाने को दी जा रही थीं, उन्हें गेट से निकलते ही सही जगह पर फेंकने तक की फुरसत ना थी, वे यूं ही डस्टबिन के बाहर की ही ओर फेंकी जा रही थीं। तभी एक बच्ची जो उनमें सबसे छोटी थी, ने पूछा, ''अब कहां जाना है '' । कन्या ग्रुप की लीडर ने कहा, देखो अब नंबर तो सक्सेना आंटी के यहां जाने का है... मगर ... ! सब बच्चियां उसका मुंह देख रही थीं ।
वे सब बड़ी लड़की के ''मगर'' के बाद कुछ कहने का इंतज़ार कर रही थीं। लड़की आगे बोली, ''देखो ऐसा करते हैं कि सक्सेना आंटी के यहां चलते हैं मगर वहां खाना नहीं खायेंगे, उनसे कह देंगे कि पैक कर दो।'' छोटी बच्ची ने फिर पूछा, क्यों... खाना क्यों नहीं खायेंगे, उन्होंने तो मेरे मन पसंद की सब्जी और बूंदी का रायता भी बनाया है, मुझे तो वही खाना है ... ।
बड़ी लड़की ने कहा, मैंने खाने से थोड़े ही मना किया है पागल, खाना हम उनसे पैक करा लेंगे, फिर तू घर जाकर खा लेना।'' वो आगे बोली, हम खाना तो अग्रवाल आंटी के यहां का खायेंगे, वो साथ में महंगे गिफ्ट भी देती हैं और उनके ए. सी. भी तो है ना... डाइनिंग रूम में। सक्सेना आंटी तो बस कुरकुरे का पैकेट, एक पेंसिल बॉक्स और थोड़ी सी एक्लेयर्स दे देतीं हैं बस, जैसे कि ये कोई खजाना पकड़ा रही हों। वो 3 सेक्टर वाला चिंटू बता रहा था कि अग्रवाल आंटी ने तो इस बार स्मार्टफोन्स मंगाए हैं, कन्याओं को देने के लिए ... अब तुम्हीं बताओ, मैं सही कह रही हूं ना। ''सबने एक सुर से अपनी लीडर की हां में हां मिलाई।
सक्सेना आंटी के घर के सामने पहुंचते ही उन्होंने अपने जोरदार अभ‍िनय से बता दिया, ''आंटी, अभी भूख नहीं है, आप तो खाना पैक कर दो, हम घर जाकर खा लेंगे।''
परंपरा और देवी भक्ति की मारी बेचारी सक्सेना आंटी मन मसोस कर रह गईं कि कन्याओं के वे सिर्फ पैर ही पूज पायेंगीं और अपने सामने भोजन खिलाने के पुण्य से वंचित रह जायेंगी। क्या करतीं, उन्होंने खाना पैक किया, गिफ्ट भी पैक किया और पैर पूज कर हर कन्या को विदा किया।
अगले पांच मिनट में वे कन्याएं अग्रवाल आंटी के घर ए. सी. डाइनिंग रूम में विराजमान थीं। देवी जो ठहरीं, स्मार्ट फोन्स के पैकेट देखकर अचानक उनके भरे हुए पेट खाली हो गये थे। सक्सेना आंटी के तुच्छ पैकेट वो बाहर ही छोड़ कर आई थीं।
मेरी सामने घटे इस पूरे वाकये ने ना जाने कितने ही प्रश्नों को जन्म दे दिया... मसलन जिन्हें हम कन्या समझते हैं ...क्या वास्तव में  वे उस परिभाषा को पूरा करती हैं... , या कि भरे पेट पर किसी को भोजन कराने से क्या सचमुच पुण्य मिल सकेगा... क्या भोजन के साथ गिफ्ट्स का चलन छोटे छोटे बच्चों में लालच को जन्म नहीं दे रहा ... यदि इसी लालच के चलते बच्चे अपने फायदे, कम फायदे या ज्यादा फायदे के बारे में नहीं सोचेंगे क्या...  क्या करें जो कुछ 'हासिल' हो सके जैसी सोच के कारण क्या वो कन्याएं हम ढूढ़ पायेंगे जो निष्कपट, निश्छल हों, जिनके लिए सब बराबर हों चाहे वो सक्सेना आंटी हों या अग्रवाल आंटी ...  आदि।
प्रश्न बहुत हैं मगर उत्तर हमारी सोच पर निर्भर करता है कि हम उसे किस दायरे में रखकर देखना चाहते हैं।
खैर, ये वो सच है जो हमें अपना अंतस खंगालने पर विवश करता है कि इस हाइटेक युग में हम अपनी परंपराओं के साथ कहां खड़े हैं। और कहीं हम उन्हें ढोने के चक्कर में पुण्य की जगह कुछ और तो नहीं कमा रहे।

- अलकनंदा सिंह  

रविवार, 15 मार्च 2015

ये भी तो असंसदीय ही है ना ...

कहते हैं कि शब्द ब्रह्म होता है और शब्द अच्छा है या बुरा, उसके उपयोग पर निर्भर करता है। आज तक देखा गया है कि सामाजिक व्यवहार में कोई भी शब्द अपनी उपयोगिता व अनुपयोगिता उसके प्रयोग पर निर्भर करती है  । ऐसे ही कुछ शब्द हैं जिन्हें अच्छा या बुरा कहा जाता है और उन्हें संभ्रांत व निकृष्ट की श्रेणी में रखा जाता है । इस पूरी जद्दोजहद में उन शब्दों का अपना क्या दोष जो बुरे, अछूत या असंसदीय कहे जाते हैं अथवा उन शब्दों का क्या योगदान माना जाए जो व्यक्त‍ि या परिस्थ‍िति को महान बनाती है ।

फिर शब्द असंसदीय कैसे हो सकता भला , उसे प्रयोग करने वाले व्यक्ति या उस मानसिकता को तो असंसदीय कहा जा सकता है जो देश , काल या समाज के लिए घातक हो परंतु शब्द किसी भी कोण से असंसदीय नहीं कहा जा सकता।

जब से पढ़ा है कि शिवसेना के सांसद हेमंत ' गोडसे ' ने लोकसभा और राज्यसभा के डिप्टी चेयरमैन को पत्र लिखकर कहा है कि उनकी जाति को असंसदीय शब्दों की सूची से हटाया जाए। लोकसभा सचिवालय ने सांसद के प्रश्न का जवाब देते हुए कहा कि महात्‍मा गांधी के हत्यारे नाथूराम ' गोडसे ' के नाम से जुड़ी जाति गोडसे को लेकर कुछ गलती हुई है पर इस विषय में अंतिम निर्णय लोकसभा और राज्यसभा के अध्यक्ष ही लेंगे। संसद के रिकॉर्ड्स बताते हैं कि किस 'गोडसे' को असंसदीय शब्द के तौर पर प्रतिबंधित किया गया है मगर इसका भुगतान पूरी जाति को असंसदीय कहलाने के रूप में भुगतना पड़ रहा है ।

रिकॉर्ड्स के अनुसार इस बारे में अप्रैल 1956 में लोकसभा के डिप्टी स्पीकर हुकुम सिंह ने इस बाबत जब आदेश दिए थे तो उस समय स्टेट रिऑर्गनाइजेशन बिल पर चर्चा हो रही थी। तभी दो सांसदों ने नाथूराम गोडसे के नाम को उछाला था। इसके बाद हुकुम सिंह ने ऐसे आदेश दिए थे। इसके बाद वर्ष 2014 में संसद के शीत सत्र के दौरान सीपीएम सांसद पी राजीव ने हिंदू महासभा की तरफ से देश भर में नाथूराम गोडसे के बुत लगाने के खिलाफ आवाज उठाई थी। तब पी जे कुरियन ने एक बार फिर से पूर्व में लिए गए निर्णय की तरफ लोगों का ध्यान खींचा था।

यह राजनीतिज्ञों की अजब सी मानसिकता पर प्रश्नचिन्ह तो लगाती ही है। यूं भी गुनाह किसी एक ने किया और सजा पूरी की पूरी जाति को मिले , क्या ये न्याय कहा जाएगा। संसद के रिकॉर्ड के मुताबिक 'गोडसे' शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। यह एक असंसदीय शब्द है। हेमंत गोडसे ने पत्र ‌में लिखा है कि यह कैसे किया जा सकता है कि एक पूरी की पूरी जाति को ही असंसदीय शब्द की सूची में रख दिया जाए। यह मेरी गलती नहीं है कि मेरी जाति गोडसे है। इसके लिए मैं कुछ नहीं कर सकता हूं और न ही अपनी जाति को बदलने जा रहा हूं। सांसद हेमंत गोडसे ने कहा कि गोडसे शब्द को असंसदीय शब्द की श्रेणी में शामिल करना एक समुदाय विशेष और मेरे लिए बहुत ही पीड़ा की बात है। इस जाति के साथ महाराष्ट्र में बहुत से लोग रहते हैं।

निश्चति ही गोडसे लिखा जाना क्या पूरी की पूरी जाति को महात्मा गांधी का हत्यारा बना देना नहीं है ? 'गोडसे' को बैन या असंसदीय घोषि‍त किए जाने से आहत सांसद की बात हमें उस पीड़ा का अहसास कुछ कुछ इसी तरह कराती है कि जैसे किसी पिछड़े इलाके के लोगों ने किसी एक जाति को समाज से निकाल बाहर किया हो वह भी किसी एक व्यक्ति की गलती के कारण।

ये शब्दों पर हमारी तानाशाही ही है कि जिस जाति में आप पैदा हुए उस को सिर्फ इसलिए प्रतिबंधित कर दिया जाए कि वह किसी एक शख्स से किसी खास वजह से जुड़ी हुई रही है ....  तो क्या हम पीढि़यों को भी उसी गुनाह का भागीदार बना रहे हैं , यह तो ज्यादती हुई ना ?  असंसदीय क्या है ... वह सोच जो पूरी जाति को देश की मुख्यधारा से अलग कर दे या वह शब्द 'गोडसे' ।

- अलकनंदा सिंह

रविवार, 8 मार्च 2015

महिला दिवस: इंडियाज डॉटर और ग्रे शेड्स से आगे भी हैं जहां...

आज महिला दिवस है, 8 मार्च... यानि लफ़्जों के हुनरमंदों की एक और शालीन दिखने वाली आजमाइश होगी....जिस पर समाज के हर तबके से लंबे चौड़े व्याख्यानों की झड़ी भी लगेगी।
पूरे दिन मीडिया में सभी स्तर से तर्कों-वितर्क करके औरत पर रहमोकरम का अंबार खड़ा किया जायेगा। साहित्यिक भद्रजन (स्त्री व पुरुष दोनों) स्त्री-विमर्श का पोथी-पत्रा खोलकर '' बेचारी स्त्री'' के लिए, उसके उत्थान के लिए कसीदों का पुलिंदा मुंह पर मारने को तत्पर दिखाई देंगे। ये सारी कवायद सिर्फ इसलिए होगी ताकि इस घोर कलियुगी संसार में एक निरीह प्राणी स्त्री ही तो है जो बड़ी शिद्दत से इस दिन का इंतज़ार करती है कि आओ... और मेरे होने पर एक दिन का रहम खाओ। फिर .... ? ओह.... !

सब अपने- अपने हिस्से का रहम आज उड़ेल देंगे और ये सब राष्ट्रीय ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हो रहा है। जिस तरह कि इसी एक दिन को कैश करने की मुसलसल कोशि‍श की है बीबीसी 4 के लिए बनाई डॉक्यूमेंटरी ''इंडियाज डॉटर'' के माध्यम से। ब्रिटिश फिल्म मेकर लेज्ली उडविन चर्चा में हैं अपनी इस फिल्म को लेकर। जिसमें एक सच बड़े ही वीभत्स ढंग से सामने आया है। बलात्कारी की सोच क्या हो सकती है, उसे बयान करने के बहाने बहसों का लंबा चौड़ा काफिला तैयार हो चुका है। संभवत: लेज्ली को बलात्कारी के दुष्कृत्य से, उसकी हैवानियत से, निर्भया के हश्र से, उसके माता पिता का फटता हृदय देखने भर से शायद संतुष्ट‍ि नहीं मिली थी और इसलिए उन्होंने उसकी मानसिकता को शब्दों में पिरोकर पूरा प्रचार करवाया।

इसी तरह महिला दिवस के बहाने खास चर्चा में हैं ब्रिटि‍श लेखिका ईएल जेम्स की किताब  ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे’।  ये किताब दुनियाभर में अपनी ख्याति बटोरने के बाद अब भारत में उन लोगों के बीच पैठ बनाने की कोश‍िश कर रही है जो स्त्री की स्वतंत्रता को उसकी यौन-उन्मुक्तता के चश्मे से देखते हैं।
ईएल जेम्स की किताब एक कारोबारी और एक कॉलेज स्टुडेंट के ‘अजीबो-गरीब’ कामुक रिश्ते पर आधारित है जो 2012 में आते ही लोकप्रिय हो गई थी।
आश्चर्य होता है यह जानकर कि शुचिता की बात करने वाले भारतीय समाज में  तीन भागों वाले इस उपन्यास की अब तक तीन लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं।
सचमुच प्रगति के नए आख्यान बन चुके हैं और समय काफी आगे बढ़ चुका है, तभी तो अमेरिका और ब्र‍िटेन की तरह इस उपन्यास पर बनी फिल्म अब हमारे देश में सेंसर बोर्ड की अनुमति का इंतज़ार कर रही है....हद है...।
हद ये भी है...कि इस बीच महिला दिवस पर बाजार अपनी ही  टेक्नोलॉजी से काम कर रहा है। अब देखि‍ए ना कि... बाजार ने चाहा तभी तो उसने 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' को टोटल ब्राइट बनाकर बेच डाला और बाजार ने चाहा तभी उसने निर्भया की डॉक्यूमेंटरी को विवादित बनाकर अपनी टीआरपी बढ़वा ली।  इससे फायदा तो सिर्फ बाजार नियामकों को ही हुआ, उनमें किताब के प्रकाशक हैं,  सेक्स ट्वॉयज बेचने वाली वेबसाइट्स हैं, बीबीसी और उनकी डॉक्यूमेंटरी पर पैनल्स बैठाकर बहस करने वाले टीआरपी-क्रेजी भारतीय चैनल भी हैं।
गौरतलब है कि 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' में उस सैडिस्ट जीवनशैली का उल्लेख है जिसमें लोग सेक्स के दौरान एक-दूसरे को दर्द देते हैं, क्योंकि दर्द के लेन-देन और ताकत की अभिव्यक्ति उनकी कामुकता को एक नए मुकाम तक ले जाती है। इस जीवन शैली को बीडीएसएम के नाम से भी जाना जाता है।
इस जीवनशैली में एक शख्स ‘डॉमिनेन्ट’ यानी प्रधान है और दूसरा ‘सबमिसिव’ यानी अधीन है। पहले का हक है अपना जोर आजमाना और दूसरे की जिम्मेदारी है उस शक्ति के प्रदर्शन को बर्दाश्त करना।
क्या यह किसी भी दुष्कर्म से अलग है... क्या इस किताब की बिक्री हमें सावधान नहीं करती कि समाज में डॉमिनेंट और सबमिसिव को बराबरी पर लाने की बातें सिर्फ मंचीय ड्रामे हैं... उनमें आज बेडरूम के अंदर थ्र‍िल पैदा करने के लिए किताब का सहारा लिया जा रहा है... तो क्या गारंटी है कि कल यही किताब पढ़ने वाले अपने थ्र‍िल के लिए उसे सड़कों पर या नन्हीं बच्चि‍यों  पर नहीं आजमाऐंगे, फिर इसमें चाहे डॉमिनेंट औरत हो या मर्द, इससे क्या फ़र्क पड़ता है ? 
निश्चति ही ये ग्रे शेड्स का भुगतान हमारे देश में औरतों-लड़कियों-बच्चि‍यों को ही ज्यादा करना होगा क्योंकि थ्र‍िल के लिए दर्द देना तो बलात्कार ही हुआ ना, फिर ग्रे शेड्स की नायिका में और निर्भया या अन्य वीभत्स बलात्कारियों में फ़र्क ही कहां है?
डॉमिनेंट और सबमिसिव की थ्योरी उसी देश से आ सकती है जो भरे पेट पर जुगाली करते- करते सोचते हैं कि पेट तो भर गया... अब इसे पचाने के लिए और क्या खाया जाए... मगर यही पचाने के लिए कुछ थ्रिल खोजने वाली थ्योरी,  उस देश में सिर्फ और  सिर्फ बलात्कार ही परोस सकती है जहां तन भर कपड़ा- मन भर चैन के लिए सारी जिंदगी खटते-खटते निकल जाती है । हमारे देश में  'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' की बेतहाशा बिक्री हो या इंडियाज डॉटर  पर बहस,  एक ऐसे बदबूदार कचरे को जन्म दे रही है जो समस्या की जड़ों तक नहीं पहुंचने देगा।
आज जब औरत शरीर से लेकर मन तक की स्वतंत्रता को पाने के लिए  घर से लेकर बाहर तक नित नए युद्ध लड़ रही है तब, 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे'  और 'इंडियाज डॉटर'  से आगे जाकर हमें सोचना होगा क्योंक‍ि यही सोच बलात्कारि‍यों की सोच को जानने जैसे वाहियाती सवालों और कामुकता को डॉमिनेंट व सबमिसिव के बीच लटका कर पूरी की पूरी स्त्री अस्मिता पर ही प्रश्नच‍िन्ह ही नहीं लगाती बल्कि उन जाहिलाना करतूतों को भी ग्लैमराइज करती है जो  हमेशा स्त्री-देह पर अटकी रहती हैं।
 
ये स्त्री को लेकर उथली-छिछली समीक्षाएं बंद होनी चाहिए। ना तो स्त्री सिर्फ बाजार का मोहरा है और ना ही रसोई-बेडरूम में चस्पा की गई कोई तस्वीर जिसे जब चाहो तब अपने मन के रंग भर दो ...जब चाहो तब बेरंग कर दो ... पश्चिम ही नहीं तथाकथित  आधुनिक भारतीयों को भी ये सच जान लेना चाहिए ... 
ज़ाहिर है कि पश्चिम अब भी स्त्री को एक शरीर के दायरे से बाहर देख ही नहीं पा रहा जबकि भारतीय संदर्भ में इसकी व्याख्या काफी आगे बढ़ चुकी है। देखते हैं अभी इस यात्रा को लक्ष्य तक पहुंचने में अभी और कितने पड़ावों से जूझना होगा।
गौर से देखि‍ए तो पानी, हवा तथा चींटी का भाग्य और जज़्बा एक सा होता है ....वह अपना रास्ता खुद ही खोजती है, बनाती है .. उसे अपने शेड्स दिखाने के लिए अपने ही समाज, अपनी  ही संस्कृति में से रास्ते निकालने पड़ते हैं और वही वह कर भी रही है वरना आज इतनी कंपनियों के उच्चासन पर वो पहुंची ही ना होती । हां, कुछ कहावतें हैं जो बदलनी चाहिए ताकि औरत अपने लिए भी जी सके ...जैसे कि किसी पुरुष की कामयाबी के पीछे स्त्री का हाथ होता है,  तो ये कहावत उल्टी क्यों नहीं हो सकती ... अब समय है कि ये कहावत उल्टी बहनी चाहिए ... ।


- अलकनंदा सिंह 

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

नीरज-शहरयार पुरस्कार हेतु आवेदन आमंत्रित

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अलीगढ़। अपर जिलाधिकारी नगर एवं प्रभारी अधिकारी प्रदर्शनी अलीगढ़ ने अवगत कराया है कि राजकीय औद्योगिक एवं कृषि प्रदर्शनी द्वारा अच्छे और स्तरीय काव्य लेखकों को प्रोत्साहित करने हेतु हिन्दी-उर्दू सेवा के काव्य विधाओं पर पुरुस्कार दिये जायेंगे। पुरस्कार हिन्दी कवि एवं उर्दू काव्य लेखक को दिया जायेगा।
गौरतलब है कि रख्यात शायर व ज्ञानपीठ विजेता प्रो. कुंवर अखलाक मुहम्मद खान उर्फ शहरयार ने कई फिल्मों के लिए गाने लिखे। ‘उमरावजान’ के गाने तो आज भी हर किसी की जुबान पर हैं। दर्जनों नामचीन पुरस्कार पा चुके शहरयार को वर्ष 2008 में साहित्य का सर्वोच्च ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था। पुरस्कार सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के हाथों नवाजा गया। वे उर्दू के चौथे शायर थे, जिन्हें ज्ञानपीठ से नवाजा गया। उन्होंने वर्ष 1978 में गमन, वर्ष 1981 उमरावजान और वर्ष 1986 अंजुमन के लिए गाने लिखे।इसी तरह गोपालदास नीरज ऐसे पहले व्यक्ति हैं जिन्हें शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भारत सरकार ने दो-दो बार सम्मानित किया, पहले पद्म श्री से, उसके बाद पद्म भूषण से। यही नहीं, फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्हें लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार यह पुरुस्कार 1,01000(एक लाख एक हजार) रूपये का होगा जिसमें 18 वर्ष से 50वर्ष तक के कवि भाग लें सकेंगे। जो कवि इस प्रतियोगिता में भाग लेना चाहता है वह अपनी रचनाओं की 07 प्रतियों का सैट बनाकर,एवं जीवन-वृत्त के साथ जन्मतिथि प्रमाण पत्र भी  03 मार्च तक 2015 तक अपर जिलाधिकारी अलीगढ़ के कार्यालय में भेज सकता है । उन्होंने आगे बताया कि कवि आवेदन के रूप में अपनी कृति का नाम, अपना नाम, उम्र, जन्म स्थान, मोबाइल नं0 उत्तर प्रदेश में रहने का 10 साल का प्रमाण पत्र, काव्य की विधा/विषय, प्रकाशन का वर्ष, प्रकाशक का नाम और पता के साथ प्रमाणित करते हुए कि मेरे द्वारा रचित काव्य नाम कृति स्वेप्ररणा से स्वरचित है ।

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

पुस्तक मेला : आवाज़ों के बाजारों में खामोशी पहचाने कौन....

कुछ इसी अंदाज़ में विश्व पुस्तक मेला अपनी आखि‍री रस्म को निभाता अगली साल के लिए अपना साजोसामान जुटा ले गया और साथ ही यह भी बता गया कि अब साहित्य को पाठक से ज्यादा बाजार की आवश्यकता है जो समय समय पर अपने कलेवरों के नये रुख से बाजार को अवगत कराता रहे और बुद्धि से ज्यादा वो खनकते सिक्कों में नज़र आए।
बाजार की इन आवश्यकताओं की फेसबुक पर साहित्यकारों द्वारा पोस्ट की जाने वाली ' पुस्तक विमोचन की तस्वीरों'  की भरमार ये चुगली कर गई कि तमाम सफलताओं के दावों के बाद भी पुस्तक मेले में आम साहित्य प्रेमियों की अपेक्षा प्रोफेशनल साहित्यकारों की भीड़ ज्यादा रही।

साहित्‍य भी बाजार की भाषा गढ़ने लगा है ,  बोलने लगा है । ऐसे में कालजयी कृतियां भला कैसे जन्‍म ले सकती हैं। प्रेमचंद की गंवई कहानियां आज भी प्रासंगिक हैं, दिलों पर राज करती हैं, निपट निरक्षर कबीरदास,सूरदास, रहीम रसखान पर शोधकार्य चल रहे हैं कि उनकी सोच ऐसी उनका विचार वैसा टाइप...आदि आदि।
कभी सोचें तो मिलेगा कि चाहे आधुनिक काल के प्रेमचंद हों या भक्‍तिकाल के वो कवि सभी बाजार के शस्‍त्र और बाजार के नियमों से अनभिज्ञ ही थे।उन्‍हें चिंता नहीं थी कि किसी संपादक या किसी प्रकाशक या किसी पीआर को इंप्रेस करना है तभी जाकर वो फेमस हो पायेगा , ऐसा ना करने की सूरत में उसे कोई देखना भी गवारा नहीं करेगा।
बाजार दिलों की भाषा नहीं जानता, अलबत्‍ता जरूरतें जानता है और इन्‍हीं जरूरतों का सौदा करने में आनंद महसूस करता है। बाजार ऐसी शै है कि जिसके कदम जहां भी पड़े, ज़हनी रूमानियत गायब होती गई। मानवीय दृष्‍टिकोण से सोचने का तरीका ही बदलता गया। क्‍वालिटी पर क्वांटिटी पर भारी पड़ती गई मगर उसका खुद का वजन भी तो हवा होता गया ,सोचने के दृष्ट‍िकोण हल्‍के  होते गये। पुस्तक मेलों का नजारा बताने को काफी है कि आज भी क्‍वालिटी पर क्‍वांटिटी भारी पड़ रही है। क्‍वांटिटी का  अपना गणित होता है कि कैसे भी छा जाओ, हावी हो जाओ। बाजार किसी भी वस्‍तु की आत्‍मा को मानवीय जैसे शब्‍दों पर नचाता जरूर है मगर वह रूह तक बस जाने की क्षमता नहीं रखता ..... तभी तो कालजयी कृतियों से हम दूर से दूर हो गए  हैं । बाकी जो कसर बाकी थी वो हिंग्लिश ने पूरी कर ही दी है। बहरहाल पुस्तक मेले से है लौटकर आने वालों को मालूम है जन्न्त की हकीकत लेकिन ....

साहित्य में प्रोफेशनलिज्म का ये नया आयाम दिखा। इसी प्रोफेशनलिज्म को दिखाया उन साहित्यकारों ने जो जीवन भर साहित्य की एबीसी तलाशते रहे और उम्र के अपने आखिरी दौर में एक किताब लिखकर  किसी न किसी बड़े नामचीन साहित्यकार को कैप्चर कर उससे अपनी पुस्तक का विमोचन करा मारा। कई अवसरों पर तो पुस्तक विमोचन कार्यक्रम के दौरान भीड़ के रूप में साहित्यप्रेमी नहीं, बल्कि लेखक के आत्मीय व्यक्ति अधि‍क देखे गये ।ये बात कड़वी है मगर खरी खरी है।
अधिकांशत: देखा गया है कि पुस्तक मेलों में  दर्जनों पुस्तकों का लोकार्पण नामी-गिरामी साहित्यकार करते हैं। कई बार तो ये विमोचन करने वाले साहित्यकार, विमोचित हो रही पुस्तक के बारे में पढ़ना तो दूर की बात, अपना लिखा भी कभी दूसरी बार नहीं पढ़ पाते लेकिन लेखक मंच पर शान से पुस्तकों को हाथ में लेकर फोटो खिंचवाने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी रहती है।
बेहद उबाऊ रहता है ... एक पुस्तक के बाद दूसरी पुस्तक का विमोचन और उस पर लंबी-लंबी निरर्थक चर्चाएं। जिनका वाकई कोई मतलब नहीं निकलता। ये चर्चाएं न तो आम साहित्यप्रेमियों तक पहुंचती हैं, और न ही उन्हें याद रहती हैं, जिन्होंने कुछ समय पहले ही उस किताब के बारे में ‘बहुत अच्छी-अच्छी’ बातें की होती हैं।
पता तो ये भी चला है कि पुस्तक विमोचन के इस कार्यक्रम को करने कराने में न तो बड़े प्रकाशक पीछे हैं और न ही छोटे प्रकाशक। पुस्तकों पर परिचर्चा आयोजित तो होती है, लेकिन महज मंचीय हसी-मजाक से आगे कोई बात बढ़ ही नहीं पाती। परिणति होती है चाय-पान से। और फिर परिचितों के हाथ में पुस्तकें थमाकर विदा कर दिया जाता है। इन लोकार्पण कार्यक्रमों बाढ़ से सोशल मीडिया साहित्यकारों व विमोचकों की  तस्वीरों के लगाने का जो सिलसिला 15 फरवरी से शुरू हुआ है लेकिन चलेगा महीनों । तैयार रहिए्गा .... यानि कुछ कुछ खट्टी...  कुछ कुछ मीठी ।
  यहां विमर्श और साहित्य से जो दूर चला गया उसी पुस्तक मेले के बारे में तो बस इतना ही कह सकती हूं  कि  ....

ये वही आलमे दौर है , ये वही निशां हैं लफ़्जों के
जहां गुफ्तगू होती नहीं बस शोशेबाजी चस्पा है ....

- अलकनंदा सिंह