हिंदी के वरिष्ठ लेखक कृष्ण बलदेव वैद का आज निधन हो गया। हिन्दी के आधुनिक गद्य-साहित्य में सब से महत्वपूर्ण लेखकों में गिने जाने वाले कृष्ण बलदेव वैद ने डायरी लेखन, कहानी और उपन्यास विधाओं के अलावा नाटक और अनुवाद के क्षेत्र में भी अप्रतिम योगदान दिया है। अपनी रचनाओं में उन्होंने सदा नए से नए और मौलिक-भाषाई प्रयोग किये हैं जो पाठक को 'चमत्कृत' करने के अलावा हिन्दी के आधुनिक-लेखन में एक खास शैली के मौलिक-आविष्कार की दृष्टि से विशेष अर्थपूर्ण हैं।
इनका जन्म डिंगा, (पंजाब (पाकिस्तान)) में २७ जुलाई १९२७ को हुआ। दक्षिण दिल्ली के 'वसंत कुंज' के निवासी वैद लम्बे अरसे से अमरीका में अपनी लेखिका पत्नी चंपा वैद और दो विवाहित बेटियों के साथ रह रहे थे ।
कृष्ण बलदेव वैद अपने दो कालजयी उपन्यासों- उसका बचपन और विमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ के लिए सर्वाधिक चर्चित हुए हैं। एक मुलाक़ात में उन्होंने कहा था- "साहित्य में डलनेस को बहुत महत्व दिया जाता है। भारी-भरकम और गंभीरता को महत्व दिया जाता है। आलम यह है कि भीगी-भीगी तान और भिंची-भिंची सी मुस्कान पसंद की जाती है। और यह भी कि हिन्दी में अब भी शिल्प को शक की निगाह से देखा जाता है। बिमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँ को अश्लील कहकर खारिज किया गया। मुझ पर विदेशी लेखकों की नकल का आरोप लगाया गया, लेकिन मैं अपनी अवहेलना या किसी बहसबाजी में नहीं पड़ा। अब मैं 82 का हो गया हूँ और बतौर लेखक मैं मानता हूँ कि मेरा कोई नुकसान नहीं कर सका। जैसा लिखना चाहता, वैसा लिखा। जैसे प्रयोग करना चाहे किए।"
वैदजी का रचना-संसार बहुत बड़ा है- विपुल और विविध अनुभवों से भरा। इसमें हिन्दी के लिए भाषा और शैली के अनेकानेक नए, अनूठे, निहायत मौलिक और बिलकुल ताज़ा प्रयोग हैं। हमारे समय के एक ज़रूरी और बड़े लेखकों में से एक वैद जी नैतिकता, शील अश्लील और भाषा जैसे प्रश्नों को ले कर केवल अपने चिंतन ही नहीं बल्कि अपने समूचे लेखन में एक ऐसे मूर्तिभंजक रचनाशिल्पी हैं, जो विधाओं की सरहदों को बेहद यत्नपूर्वक तोड़ता है। हिन्दी के हित में यह अराजक तोड़फोड़ नहीं, एक सुव्यवस्थित सोची-समझी पहल है- रचनात्मक आत्म-विश्वास से भरी। अस्वीकृतियों का खतरा उठा कर भी जिन थोड़े से लेखकों ने अपने शिल्प, कथ्य और कहने के अंदाज़ को हर कृति में प्रायः नयेपन से संवारा है वैसों में वैदजी बहुधा अप्रत्याशित ढब-ढंग से अपनी रचनाओं में एक अलग विवादी-स्वर सा नज़र आते हैं। विनोद और विट, उर्दूदां लयात्मकता, अनुप्रासी छटा, तुक, निरर्थकता के भीतर संगति, आधुनिकता- ये सब वैद जी की भाषा में मिलते हैं। निर्भीक प्रयोग-पर्युत्सुकता वैद जी को मनुष्य के भीतर के अंधेरों-उजालों, जीवन-मृत्यु, सुखों-दुखों, आशंकाओं, डर, संशय, अनास्था, ऊब, उकताहट, वासनाओं, सपनों, आशंकाओं; सब के भीतर अंतरंगता झाँकने का अवकाश देती है। मनुष्य की आत्मा के अन्धकार में किसी अनदेखे उजाले की खोज करते वह अपनी राह के अकेले हमसफ़र हैं- अनूठे और मूल्यवान।
इनका जन्म डिंगा, (पंजाब (पाकिस्तान)) में २७ जुलाई १९२७ को हुआ। दक्षिण दिल्ली के 'वसंत कुंज' के निवासी वैद लम्बे अरसे से अमरीका में अपनी लेखिका पत्नी चंपा वैद और दो विवाहित बेटियों के साथ रह रहे थे ।
कृष्ण बलदेव वैद अपने दो कालजयी उपन्यासों- उसका बचपन और विमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ के लिए सर्वाधिक चर्चित हुए हैं। एक मुलाक़ात में उन्होंने कहा था- "साहित्य में डलनेस को बहुत महत्व दिया जाता है। भारी-भरकम और गंभीरता को महत्व दिया जाता है। आलम यह है कि भीगी-भीगी तान और भिंची-भिंची सी मुस्कान पसंद की जाती है। और यह भी कि हिन्दी में अब भी शिल्प को शक की निगाह से देखा जाता है। बिमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँ को अश्लील कहकर खारिज किया गया। मुझ पर विदेशी लेखकों की नकल का आरोप लगाया गया, लेकिन मैं अपनी अवहेलना या किसी बहसबाजी में नहीं पड़ा। अब मैं 82 का हो गया हूँ और बतौर लेखक मैं मानता हूँ कि मेरा कोई नुकसान नहीं कर सका। जैसा लिखना चाहता, वैसा लिखा। जैसे प्रयोग करना चाहे किए।"
वैदजी का रचना-संसार बहुत बड़ा है- विपुल और विविध अनुभवों से भरा। इसमें हिन्दी के लिए भाषा और शैली के अनेकानेक नए, अनूठे, निहायत मौलिक और बिलकुल ताज़ा प्रयोग हैं। हमारे समय के एक ज़रूरी और बड़े लेखकों में से एक वैद जी नैतिकता, शील अश्लील और भाषा जैसे प्रश्नों को ले कर केवल अपने चिंतन ही नहीं बल्कि अपने समूचे लेखन में एक ऐसे मूर्तिभंजक रचनाशिल्पी हैं, जो विधाओं की सरहदों को बेहद यत्नपूर्वक तोड़ता है। हिन्दी के हित में यह अराजक तोड़फोड़ नहीं, एक सुव्यवस्थित सोची-समझी पहल है- रचनात्मक आत्म-विश्वास से भरी। अस्वीकृतियों का खतरा उठा कर भी जिन थोड़े से लेखकों ने अपने शिल्प, कथ्य और कहने के अंदाज़ को हर कृति में प्रायः नयेपन से संवारा है वैसों में वैदजी बहुधा अप्रत्याशित ढब-ढंग से अपनी रचनाओं में एक अलग विवादी-स्वर सा नज़र आते हैं। विनोद और विट, उर्दूदां लयात्मकता, अनुप्रासी छटा, तुक, निरर्थकता के भीतर संगति, आधुनिकता- ये सब वैद जी की भाषा में मिलते हैं। निर्भीक प्रयोग-पर्युत्सुकता वैद जी को मनुष्य के भीतर के अंधेरों-उजालों, जीवन-मृत्यु, सुखों-दुखों, आशंकाओं, डर, संशय, अनास्था, ऊब, उकताहट, वासनाओं, सपनों, आशंकाओं; सब के भीतर अंतरंगता झाँकने का अवकाश देती है। मनुष्य की आत्मा के अन्धकार में किसी अनदेखे उजाले की खोज करते वह अपनी राह के अकेले हमसफ़र हैं- अनूठे और मूल्यवान।
साहित्य के वटवृक्ष को नमन
जवाब देंहटाएंसादर श्रद्धा सुमन
जवाब देंहटाएंजी
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