जब कर्तव्य पर सिर्फ और सिर्फ पैसा हावी होने लगे और ”सरकारी नौकरी” इस बात की गारंटी हो कि बिना कुछ किए धरे भी तनख्वाह आपको मिल ही जाएगी तो वही होता है जो आजकल उत्तर प्रदेश के कमोवेश सभी सरकारी स्कूलों में हो रहा है। यहां मौजूद 90 प्रतिशत शिक्षक, शिक्षा व्यवस्था को इसी प्रकार पलीता लगा रहे हैं। यूं भी जब मेंड़ ही खेत को खाने लगे तो खेत का अस्तित्व ही कहां बचेगा। प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था इसी तरह अपने अस्तित्व को मिटते देख रही है।
सृजनात्मकता, नवोन्मेष को धता बताते हुए शिक्षामित्र, बीटीसी, बीएड, डीएड, डीएलएड, टीईटी, सीटीईटी के माध्यम नौकरी प्राप्त लगभग दर्जनभर से ज्यादा तरह के पदों पर ”कार्य” करने वाले शिक्षकों की भरमार के बावजूद प्राइमरी शिक्षा को स्वयं शिक्षकों ने ही मजाक बनाकर रख दिया है।
बच्चे स्कूलों से नदारद हैं, शिक्षक स्कूल आ ही नहीं रहे और यदि आ भी रहे हैं तो कक्षाएं नहीं ले रहे। बच्चे पहाड़े, पीएम, सीएम , जिले का नाम, दिन व महीनों तक के नाम नहीं बता पा रहे। आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है। सरकार इसके लिए जब तनख्वाह दे रही है तो यह जिम्मेदारी किसकी है।
पिछले लगभग दो हफ्तों से मथुरा जिला प्रशासन लगातार जिले के सभी सरकारी स्कूलों में चेकिंग कर रहा है, आख्या में अनुपस्थित शिक्षकों की तनख्वाह काटी जाने की संस्तुति भी एडीएम कर रहे हैं, एबीएसए, बीएसए द्वारा रेगुलर चेकिंग न करने की शिकायत लिखित में दे रहे हैं, परंतु कुछ भी काम नहीं आ रहा और स्कूलों में शिक्षकों की मनमानी अपने चरम पर है।
शिक्षकों की इस सीनाजोरी के लिए मीडिया भी उतना ही दोषी है क्योंकि जब-जब शिक्षकों के धरना प्रदर्शन होते हैं तो बड़ी सी हेडलाइन, इनकी दुर्दशा को लेकर छापते हैं या दिखाते हैं परंतु शिक्षा की इस तरह दुर्दशा करने पर उन्हीं शिक्षकों के खिलाफ मीडिया एक शब्द नहीं लिखता।
हर महीने बंधी-बंधाई तनख्वाह के बावजूद शिक्षामित्र, सहायक शिक्षक आदि पदों पर बैठे अकर्मण्य लोग, बच्चों को शिक्षित करना तो दूर स्वयं ही अनुशासन तोड़ने के बहाने ढूढ़ते रहते हैं। वेतन भत्तों के लिए मरने-मारने पर हर वक्त आमादा तथा बात-बात में हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट पहुंचने वाले इन ”कथित” ठेकेदार शिक्षकों के बूते प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था अपनी दुर्दशा से नहीं निकल सकती।
एक कड़वा सच ये भी है कि शिक्षा व्यवस्था जिन कांधों पर चढ़कर दौड़नी चाहिए थी, वे सिर्फ इसे ढो रहे हैं। अपने ”हालातों” के चलते शिक्षा जैसे उच्च्तम मानदंड वाले क्षेत्र में ”नौकरी” कर रहे 90 प्रतिशत शिक्षकों में शिक्षा देने का जज़्बा पूरी तरह से गायब है। जो स्वयं ही शिक्षा के मायने नहीं जानते, उनसे भला बच्चों को शिक्षित करने की आशा कैसे रखी जाए।
बहरहाल, ये हालात चिंतनीय हैं क्योंकि करोड़ों के बजट के बाद भी रिजल्ट शून्य है। वक्त आ गया है कि अब सरकार को ड्रेस, बस्ते, जूते, मिड डे मील से आगे बढ़कर सोचना होगा ताकि सरकारी स्कूलों में पढ़ने आने वाले बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ न हो सके।
शिक्षकों से तो इतना ही कहा जा सकता है कि…
ख्वाहिशों का मोहल्ला बहुत बड़ा होता है..
बेहतर है हम ज़रूरतों की गली में मुड़ जाएं..और अपने कर्तव्य को निभायें।
बेहतर है हम ज़रूरतों की गली में मुड़ जाएं..और अपने कर्तव्य को निभायें।
-अलकनंदा सिंह
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (05-08-2019) को "नागपञ्चमी आज भी, श्रद्धा का आधार" (चर्चा अंक- 3418) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'