प्रयागराज कुंभ के दौरान दो दिन पूर्व आयोजित संस्कृति-संसद में आजादी के बाद पहली बार मुस्लिम चिंतकों के मुंह से यह सुना गया कि भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं, बल्कि दूसरी सबसे बड़ी आबादी है।
इन चिंतकों में राष्ट्रीय मुद्दों व मुस्लिम समाज पर बारीक नज़र रखने वाले मुखर वक्ता डा. सैयद रिजवान अहमद भी शामिल थे।
संस्कृति-संसद में सभी मुस्लिम चिंतकों द्वारा मुस्लिमों का गणनात्मक सत्य स्वीकारना भरतीय गणराज्य के लिए सुखद संकेत माना जा सकता है।
कौन नहीं जानता कि देश के मुस्लिम समाज में आज भी प्रगतिवाद बनाम कट्टरवाद का युद्ध जारी है और संख्या बल के नजरिए से कट्टरवाद हमेशा प्रगतिवाद पर हावी रहा है। इस समाज में यह सब इसलिए ज्यादा है क्योंकि यह मदरसा संस्कृति से बाहर ही नहीं निकल पाया। मदरसों के जिस माहौल में बच्चे शिक्षा ग्रहण करते हैं, उसे देश की प्रगति के सापेक्ष नहीं कहा जा सकता।
हर सुधारवाद को मुस्लिम धर्म पर संकट माना जाता रहा है इसीलिए अल्पसंख्यक-अल्पसंख्यक की रट लगाते हुए आज भी देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी विकास के आधुनिक ढांचे से दूर खड़ी हुई है। ऐसा न होता तो ज्यामितीय गति से बढ़ रही मुस्लिम जनसंख्या के बावजूद समाज की महिलाओं को तीनतलाक खत्म करने व निकाह हलाला जैसी कड़वी सच्चाइयों के लिए सरकार और कोर्ट का मुंह ना देखना पड़ता।
देश के संसाधनों का बराबर उपयोग करते हुए भी मुस्लिमों का विक्टिमाइजेशन ना तो स्वयं मुस्लिम समाज की प्रगति के पक्ष में है और ना ही देश के सौहार्द्र के।
जाहिर है कि मुस्लिमों को वोटबैंक के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए उन्हें जानबूझकर अल्पसंख्यक बनाए रखा गया ताकि राष्ट्रीय फैसलों में उनकी गैरमौजूदगी बनी रहे और वो नेताओं के मोहरे की तरह इस्तेमाल होते रहें। इसीलिए आजतक दूसरी सबसे बड़ी आबादी के बावजूद मुस्लिमों का कोई एक नेता राष्ट्रीय राजनीति में दूर-दूर तक नहीं दिखता।
बहरहाल, संस्कृति-संसद में माथे पर तिलक लगाकर व कुर्ताधोती पहनकर पहुंचने वाले डा. सैयद रिजवान अहमद ने कुंभनगर में वर्तमान राजनीति, मुस्लिम धर्म-चिंतन और मुस्लिम समाज को राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में देखते हुए अपनी प्रतिक्रिया बेबाकी से दी। डा. रिजवान ने कहा कि हमें यह हर हाल में स्वीकरना ही होगा कि हम 'सिर्फ भारतीय हैं', 'अल्पसंख्यक नहीं', हमारे पूर्वज एक ही थे, समयान्तर में बस हमारी पूजा पद्धतियां अलग हुई हैं। संस्कृति-संसद में सभी मुस्लिम चिंतकों ने कहा कि हिंदू समाज आज भी बंटा हुआ है, इसे धर्माचार्यों को देखना होगा, मुस्लिमों को हम देख लेंगे और देश की संस्कृति को बचाने व समृद्ध करने के लिए अब संयुक्त प्रयास बेहद जरूरी हैं और इन्हें हर हाल में अंजाम तक ले जाना होगा। टोपी और चंदन का परस्पर आदान-प्रदान करना होगा तभी हमारी संस्कृति भारतीयता की ऊंचाइयां छू सकेगी।
अब देखना यह होगा कि कुंभनगर से किया गया मुस्लिम चिंतकों का ये सुखद आवाह्न देश, समाज और राजनीति की किस-किस धरा से निकलता हुआ आगे बढ़ पाता है।
-अलकनंदा सिंह
इन चिंतकों में राष्ट्रीय मुद्दों व मुस्लिम समाज पर बारीक नज़र रखने वाले मुखर वक्ता डा. सैयद रिजवान अहमद भी शामिल थे।
संस्कृति-संसद में सभी मुस्लिम चिंतकों द्वारा मुस्लिमों का गणनात्मक सत्य स्वीकारना भरतीय गणराज्य के लिए सुखद संकेत माना जा सकता है।
कौन नहीं जानता कि देश के मुस्लिम समाज में आज भी प्रगतिवाद बनाम कट्टरवाद का युद्ध जारी है और संख्या बल के नजरिए से कट्टरवाद हमेशा प्रगतिवाद पर हावी रहा है। इस समाज में यह सब इसलिए ज्यादा है क्योंकि यह मदरसा संस्कृति से बाहर ही नहीं निकल पाया। मदरसों के जिस माहौल में बच्चे शिक्षा ग्रहण करते हैं, उसे देश की प्रगति के सापेक्ष नहीं कहा जा सकता।
हर सुधारवाद को मुस्लिम धर्म पर संकट माना जाता रहा है इसीलिए अल्पसंख्यक-अल्पसंख्यक की रट लगाते हुए आज भी देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी विकास के आधुनिक ढांचे से दूर खड़ी हुई है। ऐसा न होता तो ज्यामितीय गति से बढ़ रही मुस्लिम जनसंख्या के बावजूद समाज की महिलाओं को तीनतलाक खत्म करने व निकाह हलाला जैसी कड़वी सच्चाइयों के लिए सरकार और कोर्ट का मुंह ना देखना पड़ता।
देश के संसाधनों का बराबर उपयोग करते हुए भी मुस्लिमों का विक्टिमाइजेशन ना तो स्वयं मुस्लिम समाज की प्रगति के पक्ष में है और ना ही देश के सौहार्द्र के।
जाहिर है कि मुस्लिमों को वोटबैंक के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए उन्हें जानबूझकर अल्पसंख्यक बनाए रखा गया ताकि राष्ट्रीय फैसलों में उनकी गैरमौजूदगी बनी रहे और वो नेताओं के मोहरे की तरह इस्तेमाल होते रहें। इसीलिए आजतक दूसरी सबसे बड़ी आबादी के बावजूद मुस्लिमों का कोई एक नेता राष्ट्रीय राजनीति में दूर-दूर तक नहीं दिखता।
बहरहाल, संस्कृति-संसद में माथे पर तिलक लगाकर व कुर्ताधोती पहनकर पहुंचने वाले डा. सैयद रिजवान अहमद ने कुंभनगर में वर्तमान राजनीति, मुस्लिम धर्म-चिंतन और मुस्लिम समाज को राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में देखते हुए अपनी प्रतिक्रिया बेबाकी से दी। डा. रिजवान ने कहा कि हमें यह हर हाल में स्वीकरना ही होगा कि हम 'सिर्फ भारतीय हैं', 'अल्पसंख्यक नहीं', हमारे पूर्वज एक ही थे, समयान्तर में बस हमारी पूजा पद्धतियां अलग हुई हैं। संस्कृति-संसद में सभी मुस्लिम चिंतकों ने कहा कि हिंदू समाज आज भी बंटा हुआ है, इसे धर्माचार्यों को देखना होगा, मुस्लिमों को हम देख लेंगे और देश की संस्कृति को बचाने व समृद्ध करने के लिए अब संयुक्त प्रयास बेहद जरूरी हैं और इन्हें हर हाल में अंजाम तक ले जाना होगा। टोपी और चंदन का परस्पर आदान-प्रदान करना होगा तभी हमारी संस्कृति भारतीयता की ऊंचाइयां छू सकेगी।
अब देखना यह होगा कि कुंभनगर से किया गया मुस्लिम चिंतकों का ये सुखद आवाह्न देश, समाज और राजनीति की किस-किस धरा से निकलता हुआ आगे बढ़ पाता है।
-अलकनंदा सिंह
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