“अघोर दर्शन का सिद्धांत है आध्यात्मिक ज्ञान हासिल करना है और ईश्वर से मिलना तथा ईश्वर के साक्षात्कार हेतु शुद्धता के नियमों से भी परे चले जाना.”
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज का कुंभ मेला शुरू होने में अब सिर्फ़ एक दिन का समय बचा है.
कुंभ के दौरान गंगा में डुबकी लगाने के लिए देश-विदेश से संगम किनारे पहुंचे तमाम संप्रदायों के हज़ारों साधु इकट्ठा हुए हैं.
इन्हीं साधुओं में एक वर्ग ऐसा भी है जिसे लेकर आम जनमानस के बीच भय की स्थिति बनी रहती है. साधुओं के इस वर्ग को ‘अघोरी समुदाय’ कहते हैं.
ऐसी अवधारणा है कि अघोरी श्मशान घाट में रहते हैं, जलती लाशों के बीच खाना खाते हैं और वहीं सोते हैं.
इस तरह की बातें भी प्रचलित हैं कि अघोरी नग्न घूमते हैं, इंसानी मांस खाते हैं, खोपड़ी में खाना खाते हैं और दिन-रात गांजा पीते रहते हैं.
लंदन में ‘स्कूल ऑफ़ अफ्रीकन एंड ओरिएंटल स्टडीज़’ में संस्कृत पढ़ाने वाले मैलिंसन कई अघोरी साधुओं के साथ बातचीत के आधार पर बताते हैं, “अघोरी मत स्वाभाविक वर्जनाओं का सामना करके उन्हें तोड़ने में यकीन रखते हैं. वे अच्छाई और बुराई के सामान्य नियमों को ख़ारिज करते हैं. आध्यात्मिक प्रगति का उनका रास्ता अजीबोगरीब प्रक्रियाओं, जैसे कि इंसानी मांस और अपना मल खाने जैसी चीज़ों से होकर गुज़रता है. लेकिन वो ये मानते हैं कि दूसरों द्वारा त्यागी गई इन चीज़ों का सेवन करके वे परम चेतना को प्राप्त करते हैं.”
ऑक्सफ़र्ड में पढ़ाई कर चुके मैलिंसन एक महंत और गुरु भी हैं लेकिन उनके समुदाय में अघोरी समुदाय की प्रक्रियाएं वर्जित हैं.
अघोरियों का इतिहास
अगर अघोरी संप्रदाय के इतिहास की बात करें तो ये शब्द 18वीं शताब्दी में चर्चा का विषय बना लेकिन इस संप्रदाय ने उन प्रक्रियाओं को अपनाया है जिसके लिए कपालिका संप्रदाय जाना जाता था.
कपालिका संप्रदाय में इंसानी खोपड़ी से जुड़ी तमाम परंपराओं के साथ-साथ इंसान की बलि देने की भी प्रथा थी लेकिन अब ये संप्रदाय अस्तित्व में नहीं है.
हालांकि, अघोर संप्रदाय ने कपालिका संप्रदाय की तमाम चीजों को अपने जीवन में शामिल कर लिया है.
हिंदू समाज में ज़्यादातर पंथ और संप्रदाय तय नियमों के मुताबिक़ चलते हैं.
संप्रदायों को मानने वाले संगठनात्मक ढंग से नियमों का पालन करते हैं. आम समाज से सरोकार बनाकर रखते हैं लेकिन अघोरियों के साथ ऐसा नहीं है. इस संप्रदाय से जुड़े साधु अपने घर वालों से संपर्क खत्म कर देते हैं और बाहर वालों पर भरोसा नहीं करते हैं.
मैलिंसन बताते हैं, “अघोरी संप्रदाय में साधुओं के बौद्धिक कौशल में काफ़ी अंतर देखा जाता है. कुछ अघोरी इतनी तीक्ष्ण बुद्धि के थे कि राजाओं को अपनी राय दिया करते थे. एक अघोरी तो नेपाल के एक राजा का सलाहकार भी रहे हैं.”
कोई नफ़रत नहीं
अघोरियों पर एक किताब ‘अघोरी: अ बायोग्राफ़िकल नॉवल’ लिखने वाले मनोज ठक्कर बताते हैं कि लोगों के बीच उनके बारे में भ्रामक जानकारी ज़्यादा है.
वह बताते हैं, “अघोरी बेहद सरल होते हैं और प्रकृति के साथ रहना पसंद करते हैं. वह किसी तरह की कोई डिमांड नहीं करते.”
“वह हर चीज़ को ईश्वर के अंश के रूप में देखते हैं. वह न तो किसी से नफ़रत करते हैं और न ही किसी चीज को ख़ारिज करते हैं इसीलिए वे किसी जानवर और इंसानी मांस के बीच भेदभाव नहीं करते हैं. इसके साथ ही जानवरों की बलि उनकी पूजा पद्धति का एक अहम अंग है.”
“वे गांजा पीते हैं लेकिन नशे में रहने के बाद भी अपने बारे में उन्हें पूरा ख्याल रहता है”
मैलिंसन और ठक्कर दोनों ही विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसे काफ़ी कम लोग हैं जो अघोरी पद्धति का सही ढंग से पालन कर रहे हैं.
हालांकि, ठक्कर मानते हैं कि “अघोरी किसी से पैसे नहीं लेते और सभी के कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं. वे इस बात की परवाह नहीं करते हैं कि कोई संतान-प्राप्ति के लिए आशीर्वाद मांग रहा है या घर बनाने के लिए.”
किस भगवान की पूजा करते हैं अघोरी
अघोरी सामान्यत: शिव की पूजा करते हैं, जिन्हें विनाश का देवता कहा जाता है. इसके साथ ही वह शिव की पत्नी शक्ति की भी पूजा करते हैं.
उत्तर भारत में सिर्फ़ पुरुष ही अघोरी संप्रदाय के सदस्य बन सकते हैं लेकिन बंगाल में महिलाओं को भी श्मशान घाट पर देखा जा सकता है. हालांकि, महिला अघोरियों को कपड़े पहनने होते हैं.
ठक्कर कहते हैं, “ज़्यादातर लोग मौत से डरते हैं. श्मशान घाट मौत का प्रतीक होते हैं लेकिन अघोरियों की शुरुआत यहीं से होती है. वे लोग आम लोगों के मूल्यों और नैतिकता को चुनौती देना चाहते हैं.”
समाज सेवा में शामिल
अघोरी साधुओं को समाज में सामान्यता: स्वीकार्यता हासिल नहीं है लेकिन बीते कुछ सालों में इस समुदाय ने समाज की मुख्य धारा में शामिल होने की कोशिश की है.
कई जगहों पर अघोरियों ने लेप्रसी (कोढ़) को रोकने के लिए अस्पतालों का निर्माण किया है और उनका संचालन भी कर रहे हैं.
मिनेसोटा आधारित मेडिकल कल्चरल और एंथ्रोपॉलिजिस्ट रॉन बारेट ने इमोरी रिपोर्ट के साथ इंटरव्यू में बताते हैं, “अघोरी उन लोगों के साथ काम कर रहे हैं जिन्हें समाज में अछूत समझा जाता है. एक तरह से लेप्रसी ट्रीटमेंट क्लीनिक ने श्मशान घाट की जगह ले ली है. और अघोरी बीमारी के डर पर जीत हासिल कर रहे हैं.”
कुछ अघोरी साधु फ़ोन और पब्लिक ट्रांसपोर्ट का भी इस्तेमाल करते हैं.
इसके अलावा सार्वजनिक स्थानों पर जाते समय कुछ अघोरी साधु कपड़े भी पहनते हैं.
अघोरियों की संख्या का आकलन लगाना तो मुश्किल है लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि अघोरियों की संख्या हज़ारों में होनी चाहिए.
कुछ अघोरियों ने सार्वजनिक रूप से ये स्वीकार किया है कि उन्होंने मृत शरीरों के साथ सेक्स किया है. लेकिन वे गे सेक्स को स्वीकार्यता नहीं देते.
ख़ास बात यह है कि जब अघोरियों की मौत हो जाती है तो उनके मांस को दूसरे अघोरी नहीं खाते. उनका सामान्य तौर पर दफ़नाकर या जलाकर अंतिम संस्कार किया जाता है.
Courtsey-BBC
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज का कुंभ मेला शुरू होने में अब सिर्फ़ एक दिन का समय बचा है.
कुंभ के दौरान गंगा में डुबकी लगाने के लिए देश-विदेश से संगम किनारे पहुंचे तमाम संप्रदायों के हज़ारों साधु इकट्ठा हुए हैं.
इन्हीं साधुओं में एक वर्ग ऐसा भी है जिसे लेकर आम जनमानस के बीच भय की स्थिति बनी रहती है. साधुओं के इस वर्ग को ‘अघोरी समुदाय’ कहते हैं.
ऐसी अवधारणा है कि अघोरी श्मशान घाट में रहते हैं, जलती लाशों के बीच खाना खाते हैं और वहीं सोते हैं.
इस तरह की बातें भी प्रचलित हैं कि अघोरी नग्न घूमते हैं, इंसानी मांस खाते हैं, खोपड़ी में खाना खाते हैं और दिन-रात गांजा पीते रहते हैं.
लंदन में ‘स्कूल ऑफ़ अफ्रीकन एंड ओरिएंटल स्टडीज़’ में संस्कृत पढ़ाने वाले मैलिंसन कई अघोरी साधुओं के साथ बातचीत के आधार पर बताते हैं, “अघोरी मत स्वाभाविक वर्जनाओं का सामना करके उन्हें तोड़ने में यकीन रखते हैं. वे अच्छाई और बुराई के सामान्य नियमों को ख़ारिज करते हैं. आध्यात्मिक प्रगति का उनका रास्ता अजीबोगरीब प्रक्रियाओं, जैसे कि इंसानी मांस और अपना मल खाने जैसी चीज़ों से होकर गुज़रता है. लेकिन वो ये मानते हैं कि दूसरों द्वारा त्यागी गई इन चीज़ों का सेवन करके वे परम चेतना को प्राप्त करते हैं.”
ऑक्सफ़र्ड में पढ़ाई कर चुके मैलिंसन एक महंत और गुरु भी हैं लेकिन उनके समुदाय में अघोरी समुदाय की प्रक्रियाएं वर्जित हैं.
अघोरियों का इतिहास
अगर अघोरी संप्रदाय के इतिहास की बात करें तो ये शब्द 18वीं शताब्दी में चर्चा का विषय बना लेकिन इस संप्रदाय ने उन प्रक्रियाओं को अपनाया है जिसके लिए कपालिका संप्रदाय जाना जाता था.
कपालिका संप्रदाय में इंसानी खोपड़ी से जुड़ी तमाम परंपराओं के साथ-साथ इंसान की बलि देने की भी प्रथा थी लेकिन अब ये संप्रदाय अस्तित्व में नहीं है.
हालांकि, अघोर संप्रदाय ने कपालिका संप्रदाय की तमाम चीजों को अपने जीवन में शामिल कर लिया है.
हिंदू समाज में ज़्यादातर पंथ और संप्रदाय तय नियमों के मुताबिक़ चलते हैं.
संप्रदायों को मानने वाले संगठनात्मक ढंग से नियमों का पालन करते हैं. आम समाज से सरोकार बनाकर रखते हैं लेकिन अघोरियों के साथ ऐसा नहीं है. इस संप्रदाय से जुड़े साधु अपने घर वालों से संपर्क खत्म कर देते हैं और बाहर वालों पर भरोसा नहीं करते हैं.
मैलिंसन बताते हैं, “अघोरी संप्रदाय में साधुओं के बौद्धिक कौशल में काफ़ी अंतर देखा जाता है. कुछ अघोरी इतनी तीक्ष्ण बुद्धि के थे कि राजाओं को अपनी राय दिया करते थे. एक अघोरी तो नेपाल के एक राजा का सलाहकार भी रहे हैं.”
कोई नफ़रत नहीं
अघोरियों पर एक किताब ‘अघोरी: अ बायोग्राफ़िकल नॉवल’ लिखने वाले मनोज ठक्कर बताते हैं कि लोगों के बीच उनके बारे में भ्रामक जानकारी ज़्यादा है.
वह बताते हैं, “अघोरी बेहद सरल होते हैं और प्रकृति के साथ रहना पसंद करते हैं. वह किसी तरह की कोई डिमांड नहीं करते.”
“वह हर चीज़ को ईश्वर के अंश के रूप में देखते हैं. वह न तो किसी से नफ़रत करते हैं और न ही किसी चीज को ख़ारिज करते हैं इसीलिए वे किसी जानवर और इंसानी मांस के बीच भेदभाव नहीं करते हैं. इसके साथ ही जानवरों की बलि उनकी पूजा पद्धति का एक अहम अंग है.”
“वे गांजा पीते हैं लेकिन नशे में रहने के बाद भी अपने बारे में उन्हें पूरा ख्याल रहता है”
मैलिंसन और ठक्कर दोनों ही विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसे काफ़ी कम लोग हैं जो अघोरी पद्धति का सही ढंग से पालन कर रहे हैं.
हालांकि, ठक्कर मानते हैं कि “अघोरी किसी से पैसे नहीं लेते और सभी के कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं. वे इस बात की परवाह नहीं करते हैं कि कोई संतान-प्राप्ति के लिए आशीर्वाद मांग रहा है या घर बनाने के लिए.”
किस भगवान की पूजा करते हैं अघोरी
अघोरी सामान्यत: शिव की पूजा करते हैं, जिन्हें विनाश का देवता कहा जाता है. इसके साथ ही वह शिव की पत्नी शक्ति की भी पूजा करते हैं.
उत्तर भारत में सिर्फ़ पुरुष ही अघोरी संप्रदाय के सदस्य बन सकते हैं लेकिन बंगाल में महिलाओं को भी श्मशान घाट पर देखा जा सकता है. हालांकि, महिला अघोरियों को कपड़े पहनने होते हैं.
ठक्कर कहते हैं, “ज़्यादातर लोग मौत से डरते हैं. श्मशान घाट मौत का प्रतीक होते हैं लेकिन अघोरियों की शुरुआत यहीं से होती है. वे लोग आम लोगों के मूल्यों और नैतिकता को चुनौती देना चाहते हैं.”
समाज सेवा में शामिल
अघोरी साधुओं को समाज में सामान्यता: स्वीकार्यता हासिल नहीं है लेकिन बीते कुछ सालों में इस समुदाय ने समाज की मुख्य धारा में शामिल होने की कोशिश की है.
कई जगहों पर अघोरियों ने लेप्रसी (कोढ़) को रोकने के लिए अस्पतालों का निर्माण किया है और उनका संचालन भी कर रहे हैं.
मिनेसोटा आधारित मेडिकल कल्चरल और एंथ्रोपॉलिजिस्ट रॉन बारेट ने इमोरी रिपोर्ट के साथ इंटरव्यू में बताते हैं, “अघोरी उन लोगों के साथ काम कर रहे हैं जिन्हें समाज में अछूत समझा जाता है. एक तरह से लेप्रसी ट्रीटमेंट क्लीनिक ने श्मशान घाट की जगह ले ली है. और अघोरी बीमारी के डर पर जीत हासिल कर रहे हैं.”
कुछ अघोरी साधु फ़ोन और पब्लिक ट्रांसपोर्ट का भी इस्तेमाल करते हैं.
इसके अलावा सार्वजनिक स्थानों पर जाते समय कुछ अघोरी साधु कपड़े भी पहनते हैं.
अघोरियों की संख्या का आकलन लगाना तो मुश्किल है लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि अघोरियों की संख्या हज़ारों में होनी चाहिए.
कुछ अघोरियों ने सार्वजनिक रूप से ये स्वीकार किया है कि उन्होंने मृत शरीरों के साथ सेक्स किया है. लेकिन वे गे सेक्स को स्वीकार्यता नहीं देते.
ख़ास बात यह है कि जब अघोरियों की मौत हो जाती है तो उनके मांस को दूसरे अघोरी नहीं खाते. उनका सामान्य तौर पर दफ़नाकर या जलाकर अंतिम संस्कार किया जाता है.
Courtsey-BBC
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