दो दिन पहले जागरण फोरम में देश की न्याय व्यवस्था से जुडी ''महान-विभूतियों'' ने न्याय व्यवस्था की पेचीदगियों और देरी से न्याय होने पर बात तो की परंतु ये बिल्कुल ऐसा ही लगा जैसे कोई साहूकार कह रहा हो कि वह ब्याज नहीं लेगा। इन विभूतियों में पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा थे तो रिटायर्ड जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा व पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी भी थे।
सच तो यह है कि कोलेजियम की बात पर सरकार को नाकों चने चबवाने वाले और मात्र रोस्टर पर अपनी साख को सरेआम उछालने वाले इन ''माननीयों'' के मुंह से अब ये बातें शोभा नहीं देतीं। उनके मुंह से न्याय व्यवस्था में सुधार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या तीन तलाक व सबरीमाला पर निर्णयों को लेकर कही गई बातें ऐसी लगती हैं जैसे कोई कुटिल व्यक्ति धर्मोपदेश दे रहा हो।
हम सब भ्रष्टाचार और असमानता आदि के लिए यूं ही राजनेताओं को गरियाते रहते हैं जबकि कौन नहीं जानता कि लाखों में तनख्वाह पाने और आलीशान सुविधाभोगी न्यायाधीशों को न तो करोडों मुकद्दमों के बोझ से लदी अदालतों की फिक्र है और ना ही उन बेचारों की जो इनकी कुटिलताओं का खामियाज़ा विचाराधीन कैदियों के रूप में भुगत रहे हैं।
इसी हफ्ते खुद सुप्रीम कोर्ट ने विचाराधीन कैदियों की भारी-भरकम संख्या को लेकर चिंता जताई। इनके मामलों का जल्द निपटारा करने के लिए जरूरी कदम उठाने को कहा। जेलों की अमानवीय स्थितियों के लिए क्षमता से अधिक विचाराधीन कैदियों का होना बताया किंतु यह नहीं बताया कि ऐसा होगा किस तरह। किसी ठोस योजना के बिना क्या सुप्रीम कोर्ट अपनी मंशा को पूरा करा पाएगा।
एक आंकड़े के अनुसार जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या कुल कैदियों का करीब 67 प्रतिशत है। तो अब कौन यह बताएगा कि हुजूर आप ही तो हैं इस कुव्यवस्था को जन्म देने और इसे आगे बढ़ाने वाले। कौन बताए सुप्रीम कोर्ट को कि विचाराधीन कैदियों का ये अपार प्रतिशत आपकी इस ''न्याय प्रक्रिया'' से ही उपजा है।
निश्चित ही अब ऐसे विचाराधीन कैदियों को रिहा करने के बारे में कोई ठोस फैसला लिया जाना चाहिए जो छोटे-छोटे अपराधों के लिए सालों से सलाखों के पीछे हैं। जो जमानत राशि नहीं चुका पाने अथवा जमानती का इंतजाम न कर पाने के कारण संभावित सजा की अवधि से भी अधिक समय अंदर गुजार चुके हैं। एक गणना के अनुसार उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ एवं उत्तराखंड में विचाराधीन कैदियों की संख्या सर्वाधिक है। तो सवाल किस पर उठना चाहिए ?
किसी आतंकी की फांसी पर रोक के लिए एक रात में केस निपटाने वाले इन्हीं माननीय न्यायाधीशों ने इस बारे में समीक्षा समितियों को अगले छह महीने तक सिर्फ मासिक बैठक कर राहत के उपाय खोजने को कहा है।
क्या अब समय नहीं आ गया कि अब उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों या जिला अदालतों से भी सवाल किये जाएं और मुकद्दमों के निपटारे की समयसीमा तय की जाये। चूंकि अब सोशल मीडिया पर हर घटना-अपराध का क्षीर-नीर देर सबेर सामने आ ही जाता है और दोषी कौन, सुबूत किसके पक्ष में हैं या किसके खिलाफ साजिश हुई, यह तक चर्चा का विषय बनता है लिहाजा न्यायिक प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है।
रही बात अवमानना के डंडे की तो उसका भी डर अब लोगों के मन से निकलता जा रहा है। इसके ज्वलंत उदाहरण हैं सबरीमाला मंदिर पर दिया गया निर्णय और अयोध्या के मंदिर-मस्जिद मामले पर की गई गैरजरूरी टिप्पणी।
न्यायपालिका को अब समझना होगा कि धन और रसूख के बल पर तारीखों में अटकाने वाली कुव्यवस्था को दूर करने के लिए स्वयं उसे अपने लिए मानदंड स्थापित करने होंगे क्योंकि समय की कसौटी पर अब तो स्वयं न्यायाधीश और पूरी की पूरी न्यायप्रक्रिया भी है। न्यायप्रक्रिया को साबित करना है कि वह किस तरह निष्पक्ष रहकर समय रहते उचित फैसला सुना सकती है।
राजा और रंक के लिए कानून की अलग-अलग परिभाषाएं अब ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाएंगी। विचाराधीन कैदियों पर ठोस उपाय के लिए समीक्षा समितियों को 6 महीने का समय देना बताता है कि न्यायव्यवस्था कितनी संवेदनशील है। यदि यही संवेदनशीलता है तो विधायिका और न्यायपालिका में फर्क कहां रह जाता है।
कुल मिलकर देखा जाए तो न्यायपालिका पर अब दोहरी जिम्मेदारी है। एक ओर उसे जहां विधायिका के दिन-प्रतिदिन गिरते स्तर को संभालना है वहीं दूसरी ओर आम आदमी में न्यायिक प्रक्रिया का भरोसा कायम रखना है, क्योंकि यदि देश के आम इंसान को यह आखिरी उम्मीद भी टूटती नजर आई तो तय जानिए कि लोकतंत्र के खतरे में पड़ने का जुमला सार्थक सिद्ध होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।
इस व्यवस्था पर न्यायाधीशों के चिंतन को कवि संजय पटवा जी के शब्दों में कुछ यूं कहा जा सकता है...
बंद कर दिया सांपों को सपेरे ने यह कहकर,
अब इंसान ही इंसान को डसने के काम आ रहा है।
-सुमित्रा सिंह चतुर्वेदी
सच तो यह है कि कोलेजियम की बात पर सरकार को नाकों चने चबवाने वाले और मात्र रोस्टर पर अपनी साख को सरेआम उछालने वाले इन ''माननीयों'' के मुंह से अब ये बातें शोभा नहीं देतीं। उनके मुंह से न्याय व्यवस्था में सुधार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या तीन तलाक व सबरीमाला पर निर्णयों को लेकर कही गई बातें ऐसी लगती हैं जैसे कोई कुटिल व्यक्ति धर्मोपदेश दे रहा हो।
हम सब भ्रष्टाचार और असमानता आदि के लिए यूं ही राजनेताओं को गरियाते रहते हैं जबकि कौन नहीं जानता कि लाखों में तनख्वाह पाने और आलीशान सुविधाभोगी न्यायाधीशों को न तो करोडों मुकद्दमों के बोझ से लदी अदालतों की फिक्र है और ना ही उन बेचारों की जो इनकी कुटिलताओं का खामियाज़ा विचाराधीन कैदियों के रूप में भुगत रहे हैं।
इसी हफ्ते खुद सुप्रीम कोर्ट ने विचाराधीन कैदियों की भारी-भरकम संख्या को लेकर चिंता जताई। इनके मामलों का जल्द निपटारा करने के लिए जरूरी कदम उठाने को कहा। जेलों की अमानवीय स्थितियों के लिए क्षमता से अधिक विचाराधीन कैदियों का होना बताया किंतु यह नहीं बताया कि ऐसा होगा किस तरह। किसी ठोस योजना के बिना क्या सुप्रीम कोर्ट अपनी मंशा को पूरा करा पाएगा।
एक आंकड़े के अनुसार जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या कुल कैदियों का करीब 67 प्रतिशत है। तो अब कौन यह बताएगा कि हुजूर आप ही तो हैं इस कुव्यवस्था को जन्म देने और इसे आगे बढ़ाने वाले। कौन बताए सुप्रीम कोर्ट को कि विचाराधीन कैदियों का ये अपार प्रतिशत आपकी इस ''न्याय प्रक्रिया'' से ही उपजा है।
निश्चित ही अब ऐसे विचाराधीन कैदियों को रिहा करने के बारे में कोई ठोस फैसला लिया जाना चाहिए जो छोटे-छोटे अपराधों के लिए सालों से सलाखों के पीछे हैं। जो जमानत राशि नहीं चुका पाने अथवा जमानती का इंतजाम न कर पाने के कारण संभावित सजा की अवधि से भी अधिक समय अंदर गुजार चुके हैं। एक गणना के अनुसार उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ एवं उत्तराखंड में विचाराधीन कैदियों की संख्या सर्वाधिक है। तो सवाल किस पर उठना चाहिए ?
किसी आतंकी की फांसी पर रोक के लिए एक रात में केस निपटाने वाले इन्हीं माननीय न्यायाधीशों ने इस बारे में समीक्षा समितियों को अगले छह महीने तक सिर्फ मासिक बैठक कर राहत के उपाय खोजने को कहा है।
क्या अब समय नहीं आ गया कि अब उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों या जिला अदालतों से भी सवाल किये जाएं और मुकद्दमों के निपटारे की समयसीमा तय की जाये। चूंकि अब सोशल मीडिया पर हर घटना-अपराध का क्षीर-नीर देर सबेर सामने आ ही जाता है और दोषी कौन, सुबूत किसके पक्ष में हैं या किसके खिलाफ साजिश हुई, यह तक चर्चा का विषय बनता है लिहाजा न्यायिक प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है।
रही बात अवमानना के डंडे की तो उसका भी डर अब लोगों के मन से निकलता जा रहा है। इसके ज्वलंत उदाहरण हैं सबरीमाला मंदिर पर दिया गया निर्णय और अयोध्या के मंदिर-मस्जिद मामले पर की गई गैरजरूरी टिप्पणी।
न्यायपालिका को अब समझना होगा कि धन और रसूख के बल पर तारीखों में अटकाने वाली कुव्यवस्था को दूर करने के लिए स्वयं उसे अपने लिए मानदंड स्थापित करने होंगे क्योंकि समय की कसौटी पर अब तो स्वयं न्यायाधीश और पूरी की पूरी न्यायप्रक्रिया भी है। न्यायप्रक्रिया को साबित करना है कि वह किस तरह निष्पक्ष रहकर समय रहते उचित फैसला सुना सकती है।
राजा और रंक के लिए कानून की अलग-अलग परिभाषाएं अब ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाएंगी। विचाराधीन कैदियों पर ठोस उपाय के लिए समीक्षा समितियों को 6 महीने का समय देना बताता है कि न्यायव्यवस्था कितनी संवेदनशील है। यदि यही संवेदनशीलता है तो विधायिका और न्यायपालिका में फर्क कहां रह जाता है।
कुल मिलकर देखा जाए तो न्यायपालिका पर अब दोहरी जिम्मेदारी है। एक ओर उसे जहां विधायिका के दिन-प्रतिदिन गिरते स्तर को संभालना है वहीं दूसरी ओर आम आदमी में न्यायिक प्रक्रिया का भरोसा कायम रखना है, क्योंकि यदि देश के आम इंसान को यह आखिरी उम्मीद भी टूटती नजर आई तो तय जानिए कि लोकतंत्र के खतरे में पड़ने का जुमला सार्थक सिद्ध होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।
इस व्यवस्था पर न्यायाधीशों के चिंतन को कवि संजय पटवा जी के शब्दों में कुछ यूं कहा जा सकता है...
बंद कर दिया सांपों को सपेरे ने यह कहकर,
अब इंसान ही इंसान को डसने के काम आ रहा है।
-सुमित्रा सिंह चतुर्वेदी
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