हम सब उस 'गधातंत्र' की बानगी बन गए हैं जो किसी एक शब्द, घटना या किसी एक बयान पर अपनी दबी हुई इच्छाओं की खोह से बाहर निकलते हैं और एक ऐसे 'उल्लूतंत्र' में तब्दील हो जाते हैं जो किसी की बात नहीं सुनते...बस एक हुजूम होता है...डरावना हुजूम। फिर यही उल्लूतंत्र, कुछ स्वार्थी तत्वों से जुड़कर एक 'गिद्धतंत्र' के रूप में हमें निचोड़ता जाता है, वो भी इस तरह कि लोकतंत्र तो छोड़िए इंसानियत भी नहीं बचती।
यह तंत्र फिर 'भीड़तंत्र' में तब्दील होकर अपनी मनमानी करता हुआ वो सारी जायज़-नाजायज़ मांगें मनवाता जाता है जिसे अराजकता को पनपने का एक और मौका मिलता है और हम कठपुतलियों की भांति उनके पंजों में भिंचे तमाशाई बनकर रह जाते हैं।
इस मिले-जुले पूरे तंत्र को उजागर करती हैं दो घटनाएं जो कि मुआवजा मांगने से जुड़ी हैं। कल एक ओर जहां बुलंदशहर बवाल में मारे गएइंस्पेक्टर के परिजनों ने मुआवज़ा घोषित हो जाने के बावजूद ढेर सारी मांगें सरकार के सामने रख दीं तो दूसरी ओर इसी बवाल में मारे गए स्थानीय युवक के परिजनों ने भी मुआवजे के रूप में 50 लाख रुपये की मांग की। विरोध प्रदर्शन में शामिल मृतक युवक के पिता का कहना है कि निर्दोष युवक पुलिस की गोली से मरा इसलिए उसे भी मुआवजा चाहिए।
इंस्पेक्टर के परिजनों को मुआवजे की धनराशि के अलावा ज़मीन, इंटर कॉलेज, मुफ्त शिक्षा, पत्नी को नौकरी और चाहिए जबकि सब जानते हैं कि मारे गए इंस्पेक्टर सुबोध सिंह करोड़ों रुपए मूल्य की चल-अचल संपत्ति के मालिक थे। ये संपत्ति उन्होंने महज वेतन से तो एकत्र नहीं की होगी। इन्हीं इंस्पेक्टर के परिजनों को विभागीय पुलिसकर्मियों द्वारा एकदिन का वेतन देने की घोषणा अलग से की गई है। आगे और कहां कहां से धन इकठ्ठा होगा, अभी कहा नहीं जा सकता।
मुआवजे की इस रससाकशी के बीच दोषी कौन, निर्दोष कौन, यह बहस पीछे खिसक जाती है। पुलिस भी निर्दोष नहीं कही जा सकती क्योंकि उसने न तो उक्त संवेदनशील क्षेत्र में मुस्लिमों के इज्तिमा के लिए हुई गौकशी की शिकायतों को गंभीरता से लिया और ना ही मौके की नजाकत को भांपकर कदम उठाने की जरूरत समझी।
दूसरी ओर विरोध प्रदर्शन कर रहे युवकों ने हथियारों का प्रयोग करके अपना पक्ष कमजोर कर दिया। कुल मिलाकर क्षेत्र में पुलिस और गौ तस्करों के बीच पनपे संबंधों ने अराजक स्थिति बनाई और घटना इस भयावह रूप में बदल गई। इस तरह तो मुआवजे का हकदार कोई नहीं। न वो पुलिस जिसने समय रहते शिकायत पर गौर किया और न प्रदर्शनरी जिन्होंने कानून हाथ में लेकर सही-गलत का फैसला खुद कर लिया।
किसी मृतक के परिजनों की नियम विरुद्ध मांगों को किसी तरह उचित नहीं कहा जा सकता और उन मांगों को सरकारी धन की वर्षा करके पूरा करना भी जायज नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि सरकारी पैसा किसी राजनीतिक दल की संपत्ति नहीं होती, वह अंतत: वह जनता का ही पैसा होता है। मृतक के प्रति सहानुभूति को उसके परिजन किस तरह भुनाते हैं, इसके अब एक आदि नहीं अनेक उदाहरण सामने आ रहे हैं। सरकारी खजाने को मुआवजे की रेवड़ियां बांटने वाली प्रवृत्ति से बचाना ही होगा।
ज़रा सोचिए कि यदि इसी धन का प्रयोग हम समाज को शिक्षित, सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए करें तो...क्या भीड़तंत्र से मुक्ति नहीं पा सकते। क्या लाश का सौदा करने या मुआवजे लेने व देने की राजनीति से छुटकारा नहीं पा सकते...जरूर पा सकते हैं और तब संभवत: कोई किसी को गधातंत्र, उल्लूतंत्र, गिद्धतंत्र और भीड़तंत्र में नहीं बदल पाएगा।
समाज शिक्षित होगा तो निश्चित ही वह अपने अधिकारों को तो समझेगा ही, साथ ही कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक होगा। सभ्य, शिक्षित व सुसंस्कृत समाज किसी के बहकावे में नहीं आएगा तो भीड़तंत्र का हिस्सा नहीं बनेगा और समाज भीड़तंत्र का हिस्सा नहीं बनेगा तो बुलंदशहर जैसी अराजकता भी पैदा नहीं होगी।
-अलकनंदा सिंह
यह तंत्र फिर 'भीड़तंत्र' में तब्दील होकर अपनी मनमानी करता हुआ वो सारी जायज़-नाजायज़ मांगें मनवाता जाता है जिसे अराजकता को पनपने का एक और मौका मिलता है और हम कठपुतलियों की भांति उनके पंजों में भिंचे तमाशाई बनकर रह जाते हैं।
इस मिले-जुले पूरे तंत्र को उजागर करती हैं दो घटनाएं जो कि मुआवजा मांगने से जुड़ी हैं। कल एक ओर जहां बुलंदशहर बवाल में मारे गएइंस्पेक्टर के परिजनों ने मुआवज़ा घोषित हो जाने के बावजूद ढेर सारी मांगें सरकार के सामने रख दीं तो दूसरी ओर इसी बवाल में मारे गए स्थानीय युवक के परिजनों ने भी मुआवजे के रूप में 50 लाख रुपये की मांग की। विरोध प्रदर्शन में शामिल मृतक युवक के पिता का कहना है कि निर्दोष युवक पुलिस की गोली से मरा इसलिए उसे भी मुआवजा चाहिए।
इंस्पेक्टर के परिजनों को मुआवजे की धनराशि के अलावा ज़मीन, इंटर कॉलेज, मुफ्त शिक्षा, पत्नी को नौकरी और चाहिए जबकि सब जानते हैं कि मारे गए इंस्पेक्टर सुबोध सिंह करोड़ों रुपए मूल्य की चल-अचल संपत्ति के मालिक थे। ये संपत्ति उन्होंने महज वेतन से तो एकत्र नहीं की होगी। इन्हीं इंस्पेक्टर के परिजनों को विभागीय पुलिसकर्मियों द्वारा एकदिन का वेतन देने की घोषणा अलग से की गई है। आगे और कहां कहां से धन इकठ्ठा होगा, अभी कहा नहीं जा सकता।
मुआवजे की इस रससाकशी के बीच दोषी कौन, निर्दोष कौन, यह बहस पीछे खिसक जाती है। पुलिस भी निर्दोष नहीं कही जा सकती क्योंकि उसने न तो उक्त संवेदनशील क्षेत्र में मुस्लिमों के इज्तिमा के लिए हुई गौकशी की शिकायतों को गंभीरता से लिया और ना ही मौके की नजाकत को भांपकर कदम उठाने की जरूरत समझी।
दूसरी ओर विरोध प्रदर्शन कर रहे युवकों ने हथियारों का प्रयोग करके अपना पक्ष कमजोर कर दिया। कुल मिलाकर क्षेत्र में पुलिस और गौ तस्करों के बीच पनपे संबंधों ने अराजक स्थिति बनाई और घटना इस भयावह रूप में बदल गई। इस तरह तो मुआवजे का हकदार कोई नहीं। न वो पुलिस जिसने समय रहते शिकायत पर गौर किया और न प्रदर्शनरी जिन्होंने कानून हाथ में लेकर सही-गलत का फैसला खुद कर लिया।
किसी मृतक के परिजनों की नियम विरुद्ध मांगों को किसी तरह उचित नहीं कहा जा सकता और उन मांगों को सरकारी धन की वर्षा करके पूरा करना भी जायज नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि सरकारी पैसा किसी राजनीतिक दल की संपत्ति नहीं होती, वह अंतत: वह जनता का ही पैसा होता है। मृतक के प्रति सहानुभूति को उसके परिजन किस तरह भुनाते हैं, इसके अब एक आदि नहीं अनेक उदाहरण सामने आ रहे हैं। सरकारी खजाने को मुआवजे की रेवड़ियां बांटने वाली प्रवृत्ति से बचाना ही होगा।
ज़रा सोचिए कि यदि इसी धन का प्रयोग हम समाज को शिक्षित, सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए करें तो...क्या भीड़तंत्र से मुक्ति नहीं पा सकते। क्या लाश का सौदा करने या मुआवजे लेने व देने की राजनीति से छुटकारा नहीं पा सकते...जरूर पा सकते हैं और तब संभवत: कोई किसी को गधातंत्र, उल्लूतंत्र, गिद्धतंत्र और भीड़तंत्र में नहीं बदल पाएगा।
समाज शिक्षित होगा तो निश्चित ही वह अपने अधिकारों को तो समझेगा ही, साथ ही कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक होगा। सभ्य, शिक्षित व सुसंस्कृत समाज किसी के बहकावे में नहीं आएगा तो भीड़तंत्र का हिस्सा नहीं बनेगा और समाज भीड़तंत्र का हिस्सा नहीं बनेगा तो बुलंदशहर जैसी अराजकता भी पैदा नहीं होगी।
-अलकनंदा सिंह
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