रविवार, 19 अगस्त 2018

Rape संबंधी आरोपों के लिए नज़ीर पेश करता एक महिला जज का फैसला

किसी अपराध के लिए कानून बनने के साथ ही उसे ध्वस्‍त करने के तरीके भी ईज़ाद कर लिए जाते हैं। हमारे देश में कानून का दुरुपयोग कोई नया नहीं है और हमारे देश में ही क्‍यों दुनिया के सभी देशों में यही होता है तभी तो क्राइम दिनों-दिन अपने वीभत्‍स रूप में हमारे सामने आता रहता है।
समाजिक ताने-बाने को ध्‍वस्त किए बिना कानून का राज बनाए रखने में कार्यपालिका तथा न्‍याय पालिका का खासा योगदान होता है।
कहा भले ही जाता हो कि अधिकारी का कोई जेंडर नहीं होता मगर निर्णय देते समय न्‍यायिक अधिकारी का जेंडर अपराध के पीछे की सच्‍चाई को जानने में सहायक होता ही है। यह साइकोलॉजिकल कारण है, इससे मुंह नहीं फेरा जा सकता। वह पुरुष है तो भी और स्‍त्री है तो भी, तमाम दिमागी मकड़जालों के साथ वह अपनी विचारशक्‍ति से अपने निर्णय को तोलता है।
कोई न्‍यायिक अधिकारी अगर कानूनी लीक पर ही चलना चाहे तो बात अलग है, परंतु इन्‍हीं में से कुछ ऐसे भी होते हैं जो कानूनी धाराओं के साथ-साथ बदलते रिश्‍तों तथा मानवीय एवं सामाजिक कारणों को देखते हुए अपने निर्णय सुनाते हैं।
ऐसा ही एक निर्णय कल यमुनानगर/हरियाणा की क्राइम अगेन्‍स्‍ट वीमन की न्‍यायाधीश पूनम सुनेजा की अदालत से आया। मामला था 19 साल तक दुष्‍कर्म किये जाने का। न्‍यायाधीश सुनेजा ने कहा कि महिला के बयान विश्‍वास योग्‍य नहीं हैं। 19 साल तक आपसी सहमति से बने संबंध, दुष्‍कर्म की श्रेणी में नहीं आ सकते। व्‍यापारी के यहां घरेलू काम करने वाली महिला ने 19 साल तक दुष्‍कर्म का आरोप लगाते हुए कोर्ट से न्‍याय की मांग की थी जिसकी सुनवाई कर अपने 38 पेज के फैसले में न्‍यायाधीश ने व्‍यापारी को दुष्‍कर्म के आरोप से बरी कर दिया।
कोई सामान्‍य बुद्धि वाला व्‍यक्‍ति भी जान सकता है कि पीड़िता 19 साल तक कथित तौर पर दुष्‍कर्म करवाती रही और चुप भी रही, फिर अचानक उसका ज़मीर जागा और वह अदालत जा पहुंची न्‍याय मांगने।
गौरतलब है कि एंटी रेप लॉ में बिना किसी सुबूत के दुष्‍कर्म पीड़िता के बयान ही अपराध साबित करने के काफी माने गए हैं, बलात्कार जैसे अपराधों के खिलाफ कड़ी सजा के प्रावधान करने के मकसद से नए कानून में कहा गया है कि अपराधी को कड़े कारावास की सजा तक दी जा सकती है जो 20 साल से कम नहीं होगी और इसे आजीवन कारावास तक में तब्दील किया जा सकता है।
इस कानून से अपने हित साधने और टारगेट बनाकर पुरुषों को ब्‍लैकमेल करने के लिए भी महिलाओं को एक टूल की तरह इस्‍तेमाल किया जाता है, जिसके कारण कई बार वास्‍तविक पीड़िताओं को इसका खमियाजा भुगतना पड़ता है। ऐसा करने वाले अपराधियों और ब्‍लैकमेलर्स का एक माइंडसेट बन चुका है कि आरोप लगाओ और बिना सुबूत के किसी को भी ज़लील करवा दो। ऐसे में आरोपित व्‍यक्‍ति या तो ब्‍लैकमेल होता रहता है या फिर वह समझौता कर भारी राशि चुकाता है क्‍योंकि वह जेल जाने के साथ-साथ जलील नहीं होना चाहता।
हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण लगभग हर रोज आते हैं कि पीड़िताएं घर में अकेली होती हैं… उनके परिजन घर से बाहर होते हैं…नामजद लोग आते हैं… बारी बारी से तमंचे की नोंक पर दुष्‍कर्म करते हैं… धमकी देते हुए चले जाते हैं…पीड़िता भयवश आरोपियों के चले जाने के बाद भी चिल्‍लाती नहीं है…और फिर कई दिनों बाद कथित पीड़िता अपने पति या पिता के साथ जाकर पुलिस में केस दर्ज कराती है वह भी नामज़द…और नामज़दगी के कारण फिर शुरू होता है बारगेनिंग का सिलसिला…। ऐसे में कोई भी कह देगा कि इस पूरे घटनाक्रम में पीड़ता कितनी ”निरीह” थी।
ऐसा ही मामला था 19 साल से दुष्‍कर्म की कथित पीड़ित महिला का जिसमें न्‍यायाधीश पूनम सुनेजा ने तर्कशक्‍ति का सहारा लिया और सच में सही फैसला सुनाया। इसे एतिहासिक फैसला भी कहा जा सकता है।
दुष्‍कर्म विरोधी कानून से पहले हम दहेज विरोधी कानून तथा एससी/एसटी कानून का दुरुपयोग भलीभांति देख चुके हैं और समाज को इसका खामियाजा भुगतते भी देखते हैं। कितने परिवारों को इस कानून के दुरुपयोग की वजह से कंगाल होते और महिला तथा बच्‍चों तक को इसमें पिसते देखा गया है। अब समाज में दुष्‍कर्म के मामलों की अच्‍छी-खासी बढ़ोत्तरी बताती है कि महिलाओं के अबला एवं निरीह होने की जो तस्‍वीर सामने रखी जाती है, वह पूरा सच बयां नहीं करती। उसमें ‘छद्म’ की भी मिलावट बड़े पैमाने पर होती जा रही है, समाज में फैलते ”फरेब के इस नए एंगल” पर भी काम करना होगा अन्‍यथा जिस कानून को महिलाओं के लिए वरदान माना जा रहा है कल वहीअभिषाप साबित हो सकता है।
विश्‍वास की जिस धुरी पर टिककर महिला और पुरुष के संबंध समाज की रचना करते हैं, वह विश्‍वास ही पूरी तरह टूट गया तो समाज का छिन्‍न-भिन्‍न होना तय है। और समाज छिन्‍न-भिन्‍न हो गया तो बचेगा क्‍या। रिश्‍ते-नाते सब बेमानी हो जाएंगे, साथ ही बेमानी हो जाएगा यह कानून भी क्‍योंकि कानून का मकसद अंतत: सामाजिक समरसता कायम करना ही होता है न कि समाज का तोड़ना।
न्‍यायाधीश पूनम सुनेजा धन्‍यवाद की पात्र हैं कि उन्‍होंने 19 सालों की सहमति को बलात्‍कार मानने से इंकार कर दिया। किसी भी न्‍यायाधीश का फैसला अपने स्‍तर से एक नज़ीर पेश करता है और वह नज़ीर बहुत काम करती है। पूनम सुनेजा ने भी निश्‍चित ही एक ऐसी ही नज़ीर पेश की है।
- अलकनंदा सिंह

सोमवार, 13 अगस्त 2018

कहने को तो वेश्‍या एक ऐसा शब्‍द है जिसे बोलने में माइक्रो सेकेंड ही लगते हैं मगर...

शब्‍दों की ताकत बताने वाली टिप्‍पणी



शब्‍दों का चयन सोच समझकर करना चाहिए, क्‍योंकि रोष में बोला गया एक भी घातक शब्‍द तलवार से भी ज्‍यादा भयानक वार कर सकता है और शब्‍द वाण से लक्षित व्‍यक्‍ति  (यदि वह निर्दोष है तो) का जीवन हमेशा के लिए बदल जाता है। हालांकि बोलने वाले को इसका अहसास भी नहीं होता कि उसने किस तरह एक समूचे व्‍यक्‍तित्‍व की हत्‍या करने का अपराध किया है। हद तो तब होती है जब शब्‍दवाण चलाने वाला स्‍वयं को ''सही-सिद्ध'' करने में लग जाता है। 

दक्षिण भारत का ऐसा ही एक मामला कल सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुना गया, जिसमें एक महिला द्वारा एक युवती को ''वेश्‍या'' कहने पर उस युवती ने आत्‍महत्‍या कर ली। सुप्रीम कोर्ट ने आत्‍महत्‍या के लिए उकसाने में दोषी महिला रानी उर्फ सहायारानी की सजा को बरकरार रखा और ''शब्‍दों की ताकत बताने वाली'' उक्‍त टिप्‍पणी की।

कहने को तो वेश्‍या एक ऐसा शब्‍द है जिसे बोलने में माइक्रो सेकेंड ही लगते हैं मगर ये एक समूचे वजूद को तिलतिलकर मारने के लिए अहिंसक दिखने वाला हिंसक तरीका है, इस एक शब्‍द में बोलने वाले की मानसिकता और उसके लक्ष्‍य का भलीभांति पता तो चल ही जाता है।

कम से कम में ज्‍यादा घातक वार करने वाला ये शब्‍द एक स्‍त्री के लिए कई चुनौतियां एकसाथ पेश करता है जिसमें सबसे कठिन चुनौती होती है स्‍वयं को निर्दोष साबित करना और इससे स्‍वयं को मुक्‍त करा पाना। इसकी सफाई में कहा गया एक-एक शब्‍द उसको झकझोर कर रख देता है। चारित्रिक दोष बताने वाला ये एक शब्‍द अक्सर बिना सुबूतों के ही अपनी प्रचंड मारक शक्‍ति से वार करता है। इससे जूझते हुए कुछ महिलाएं सामना करती हैं तो कुछ किसी सबक के रूप में लेती हैं और कुछ ऐसी भी होती हैं दिल पर ले बैठती हैं, जैसा कि उक्‍त मामले में सामने आया है।

निश्‍चित ही आत्‍महत्‍या करने वाली युवती वेश्‍या नहीं थी और ना ही उसकी ऐसी प्रवृत्‍ति रही होगी, तभी तो वह इस शब्‍द को सहन नहीं कर पाई और आत्‍मघात कर बैठी परंतु ऐसे शब्‍दवाणों को चलाने वालों से जूझना कहीं ज्‍यादा सही होता, बजाय इसके कि आत्‍महत्‍या कर ली जाये। किसी भी चारित्रिक दोष के आरोप से स्‍वयं को मुक्‍त करा पाना आसान नहीं होता, स्‍वयं को बार-बार तोलना पड़ता है। 

साइकोलॉजिकल थेरेपी में इस बात का ज़िक्र भी है कि जो लोग शब्‍दों के ज़रिए दूसरों को दुख पहुंचाने की मंशा रखते हैं, दरअसल वे स्‍वयं नकारात्‍मक सोच वाले और असुरक्षित होते हैं। इसी से ही वे इतना डर जाते हैं कि घातक शब्‍दों का सहारा लेते हैं ताकि कहीं कोई उनकी कमजोरी को ना समझे।

मेरा मानना तो ये है कि जो व्‍यक्‍ति अपने ही चरित्र व सुरक्षा को लेकर डरा होता है, उसी का दिमाग ढंग से नहीं सोच पाता और किसी कमजोर पर अपनी इसी सोच का ज़हर उगल देता है। जब यह सोच किसी महिला पर उड़ेली जाती है तब ''वेश्‍या'' कहना किसी को गरियाने के लिए सबसे आसान है।

कम से कम दूसरों को पराजित करने के लिए चारित्रिक दोष जताने वाले शब्‍दों से तो बचा ही जाना चाहिए वरना परिणाम ऐसे ही होते हैं, जिनके बारे में अब सुप्रीम कोर्ट को बताना पड़ रहा है कि शब्‍दों की मार सबसे भयानक होती है। शब्दों की ताकत, तलवार और गोली की ताकत से अधिक होती है।

अब हमें सोचना होगा कि समाज में अपनी ताकत दिखाने के लिए अपशब्‍दों का सहारा न लिया जाए क्‍योंकि अपशब्‍द किसी की जान भी ले सकते हैं और सुप्रीमकोर्ट की सुनवाई का आधार भी बन सकते हैं।

शब्‍दों की मारक क्षमता निश्‍चित तौर पर किसी भी हथियार से ज्‍यादा घातक होती है इसलिए शब्‍दों का सही चयन न सिर्फ बहुत से विवादों से बचाता है बल्‍कि आपके संस्‍कारों का भी परिचायक होता है।

शायद ही किसी को इस बात में संदेह हो कि शालीन शब्‍दों का प्रयोग करके भी अपनी बात पूरी ताकत के साथ कही जा सकती है। जरूरत है तो बस अपने शब्‍दों पर और उन शब्‍दों में निहित शक्‍ति को समझने की।

-अलकनंदा सिंह

बुधवार, 8 अगस्त 2018

सुप्रीम कोर्ट दुखी है…

सुप्रीम कोर्ट दुखी है…मुज़फ्फ़रपुर शेल्‍टर होम कांड के बाद देवरिया से आई भयानक खबर से त्रस्‍त है वह… कि देशभर में यह क्या हो रहा है, लेफ्ट, राइट और सेंटर…सब जगह रेप हो रहा है, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार हर छह घंटे में एक लड़की का रेप हो रहा है। देशभर में प्रति वर्ष 38 हजार से ज्यादा रेप हो रहे हैं। देश में सबसे ज्यादा रेप मध्य प्रदेश में हो रहे हैं, दूसरा नंबर यूपी का है…आदि-आदि।
तो आज बात इस पर होनी चाहिए कि आखिर क्‍यों जरूरत पड़ी शेल्‍टर होम्स की, क्‍यों शेल्‍टर होम्स जैसी सरकारी या सरकार से सहायता प्राप्‍त व्‍यवस्‍थाएं इतनी बदहाल हैं कि हालात की मारी अबलाओं को आश्रय की जगह नर्क भोगने पर मजबूर होना पड़ता है। यहां पहुंचने वाली लड़कियां चाहे जवान हों, या नन्‍हीं बच्‍चियां, किशोरवय हों या अधेड़ महिलाएं, और यहां तक कि वृद्धाएं ही क्‍यों न हों, सभी आहत होती हैं। शारीरिक बल के साथ इनका आत्‍मबल भी काफी हद तक टूट जाता है। धन पास नहीं होता और अपनों से बेज़ार होती हैं। आखिर वे सब इस दशा तक पहुंचती कैसे हैं।
कहने को तो घर वालों का दुर्व्‍यवहार पहला कारण बताया जाता है मगर इस दुव्‍यर्वहार की जड़ों में जायें तो समाज की ढहती व्‍यवस्‍थाएं असली वजह हैं।
वृद्धाश्रमों की तरह ही शेल्‍टर होम खोलने की जरूरत तब पड़ी जब समाज ने अपना दायित्‍व निभाना छोड़ दिया। समाज की संरचना का औचित्‍य ही यदि पीछे छूटने लगे तो ऐसी स्‍थितियां पैदा होना स्‍वाभाविक है। समाज किसी एक व्‍यक्‍ति का नाम नहीं, बल्‍कि समूह में, समूह के लिए, समूह के द्वारा स्‍थापित कुछ ऐसे मानदंड हैं जो सबके लिए एक जैसे हैं। समाज की एक भी कड़ी कमजोर पड़ते ही सारी व्‍यवस्‍थाएं ध्‍वस्‍त हो जाती हैं। फिर ये कमजोर कड़ी ही शेल्‍टर होम और वृद्धाश्रमों को जन्‍म देती हैं। यदि समाज अपनी जिम्‍मेदारी निभाता तो शेल्‍टर होम बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। ज़रा सोचिए कि क्‍योंकर कोई भी अपनों को छोड़कर आएगा। मानसिक दिव्‍यांग महिलायें हों, किसी के प्‍यार में पड़कर घर छोड़ देने वाली लड़कियां हों या परिजनों की मार से बचने को घर से भागे लड़के हों।
इन सभी के साथ एक बात समान है कि अपनों से मिली ‘अनदेखी’ ने उन्‍हें सरकारी अथवा गैर सरकारी टुकड़ों पर पलने को विवश कर दिया जिसका फायदा संस्‍था के संचालकों ने उठाया क्‍योंकि सरकारी व्‍यवस्‍थाएं उस अंधी सुरंगों की तरह हैं जहां घुसने के बाद वापसी का कोई रास्‍ता होता ही नहीं। यदि होता भी है तो वो इतना संकरा और दूरूह होता है कि उसमें से निकल पाना, हर किसी के बस की बात नहीं होती।
इसके लिए लंबी व जटिल कानूनी प्रक्रिया ही असली जिम्‍मेदार है। हर कथित समाजसेवा के लिए निवाला बांटने वाली हमारे सरकारें कभी यह देखना ही नहीं चाहतीं कि किसी महिला का पहला निष्‍कासन भले ही ”सामाजिक निष्‍क्रियता” के चलते उसके घर से होता हो मगर पूरी तरह हताश व निराश वह सरकारी प्रक्रिया के कारण ही होती हैं। सरकारी अमले से लेकर कोर्ट-कचहरी तक उसे ऐसी मानसिक व शारीरिक यातनाएं देते हैं कि उसके पास उनसे समझौता करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। ज़रा-ज़रा सी बात पर आधी रात को प्रभावशाली लोगों की सुनवाई करने वाले न्‍यायाधीश महिलाओं के साथ हो रहे अत्‍याचार पर पानी सिर के ऊपर आने का इंतज़ार करते हैं। समाज की तरह ही इन माननीयों के पास तमाम बहाने हैं। सरकारों को इस मामले में लापरवाही के लिए फटकार लगाने वाली न्‍याय व्‍यवस्‍था ”न्‍याय में देरी के लिए” अपनी ओर से कोई कदम नहीं उठा रहीं। इसके लिए वह भी सरकार का मुंह देखती है। सरकार से न्‍यायधीशों के हितों का टकराव अब कोई नई बात नहीं रह गई।
नतीजा ये कि निराश्रितों को उनके घर भेजने में व्‍यवस्‍था को इतना समय लग जाता है कि तब तक कोई सेक्‍स रैकेट संचालक, कोई मानव तस्‍करी में लिप्‍त गिरोह उन्‍हें अपना शिकार बनाने में कामयाब हो जाता है।
कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि आधी आबादी को घर से बेघर करने के लिए पहले परिवार और फिर आसपास का ”प्रश्‍न ना करने वाला” निष्‍क्रिय समाज तो दोषी है ही, सरकारी व्‍यवस्‍थाएं और न्‍यायपालिका की लेट-लतीफी भी उतनी ही जिम्‍मेदार है। ऐसे हर घटना का ठीकरा सरकारों के सिर फोड़ने से पहले अदालतों को अपने गिरेबां में एकबार अवश्‍य झांक लेना चाहिए।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट द्वारा कल मुजफ्फरपुर शेल्‍टर होम रेप केस की सुनवाई करते हुए सरकारी व्‍यवस्‍था को लेकर की गई ‘टिप्‍प्‍णी’ पर बिल्‍कुल फिट बैठती हैं कुंवर नारायण की यह कविता-
कोई दुख,
मनुष्‍य के साहस से बड़ा नहीं,
हारा वही है,
जो लड़ा नहीं।
तो हमें पारिवार नामक संस्‍था को बनाए रखने के लिए दूसरों के दुख के भागीदार बनने वाले सामाजिक मूल्‍यों को तो पुनर्स्‍थापित करना ही होगा, साथ ही अपने आसपास भी नज़र रखनी होगी। लापरवाह केवल सरकारें ही नहीं, हम भी हैं जो अपनी आंखें मूंदकर ”अकेली महिलाओं” के साथ हुए इस अपराध के भागीदार कहे जा सकते हैं। 
-अलकनंदा सिंह

बुधवार, 1 अगस्त 2018

इस मंथन का हिस्‍सा बनकर तो देखिए

जैसा कि कूर्म पुराण और विष्‍णु पुराण में कहा गया है कि जब  संसार में आसुरी शक्‍तियों का शासन चरम पर था तब संतुलन बनाने  के समुद्र मंथन की युक्‍ति निकाली गई। ना तो आसुरी शक्‍तियां  (जैसा कि कथाओं में बताया जाता है) भयानक शक्‍ल वाली थीं और  ना ही अजीबो-गरीब लिबास-अस्‍त्र-शस्‍त्रों वाली थीं बल्‍कि वो एक ऐसे  विचार वाली थीं जो सभ्‍य समाज के लिए तकलीफदेह थीं।
इसीलिए  समुद्र मंथन की जरूरत पड़ी।

मंथन कोई एक घटना नहीं थी बल्‍कि ब्रह्मांड के सृष्‍टिचक्र को   दुरुस्‍त करने का एक जरिया था और बहुत जरूरी था क्‍योंकि  जब-जब आसुरी शक्‍तियां और निकृष्‍ट सोच हावी होती है तब-तब  ऐसे किसी मंथन की आवश्‍यकता पड़ती ही है।

फिलहाल कई विश्‍वस्‍तरीय ''एस्‍ट्रोनॉमिकल स्‍टडीज'' की मानें तो हमें  प्रत्‍यक्षत: दिखाई ना देने वाली मंथन की ये प्रक्रिया 2008 से शुरू भी  हो चुकी है जो 2020 में अपने सद्विचारों-सद्कृत्‍यों-सद्भावनाओं को  सामने लाना शुरू कर देगी।

यूं भी हमारे ग्रंथ बताते हैं कि मंथन में सबसे पहले हलाहल ही  निकला था। आज भी हलाहल ही निकल रहा है, जो घोर आपराधिक  सोच व कृत्‍यों के रूप में हमारे सामने है।

यहां एक और बात गौर करने लायक है कि उक्‍त एस्‍ट्रोनॉमिकल  स्‍टडीज के साथ कुछ एस्‍ट्रोलॉजिकल स्‍टडी भी जुड़ गई हैं। उदाहरण  के लिए 1943 के बाद ऐसा पहली बार हो रहा है जब एक साल के  अंदर ही तीन-तीन ग्रहण पड़ रहे हैं। जबकि ग्रहण सामान्‍यत: जोड़े में  पड़ते हैं। साथ में मंगल ग्रह का धरती के करीब आना, जोकि  आकस्‍मिक घटना नहीं है। 2020 में प्‍लूटो (यमग्रह अथवा प्‍लेनेट  ऑफ हेल) और शनि (न्‍यायग्रह) के एक साथ आने की पूर्वस्‍थिति ही  है जो एक दूसरे से सिर्फ 6 डिग्री पर होंगे तथा एक दूसरे को  प्रभावित करेंगे और मंथनस्‍वरूप निकलेगा आज की आपराधिक सोचों  को दूर करने का ''फल''।

आजकल तो ऐसी-ऐसी आसुरी घटनाएं हमारे सामने आ रही हैं जिन  पर विश्‍वास करना मुश्‍किल होता है। जैसे कि बुराड़ी व बिहार में एक  सुशिक्षित परिवारों द्वारा सामूहिक आत्‍महत्‍या कर लेना, ब्‍लूव्‍हेल  चैलेंज में बच्‍चे ही नहीं बड़ों द्वारा भी स्‍वयं अपनी हत्‍या (इसे  आत्‍महत्‍या कहना ठीक नहीं लग रहा) किया जाना, सामूहिक  बलात्‍कार, बकरी जैसे जानवर के साथ सामूहिक बलात्‍कार, बच्‍चियों  के साथ जघन्‍यतम अपराध और मॉब लिंचिंग। ऐसी घटनाओं का  सिलसिला अब ''किकी डांस चैलेंज'' पर आ पहुंचा है, हालांकि जैसा  कि समय बता रहा है ये अभी और बढ़ेगा।

''किकी डांस चैलेंज'' में कनाडा के रैपर ड्रेक के एक गाने ''किकी डू यू  लव मी'' के एक डांस मूव को धीमी गति से चलती कार से सड़क पर  कूदकर दिखाना होता है साथ ही वापस कार में चढ़ना होता है, अभी  तक इसमें कई जाने जा चुकी हैं और तमाम चेतावनियों के बाद भी  ''खाये-अघाए' और बौराए'' लोग इसे रोजाना एक्‍सेप्‍ट भी कर रहे हैं।


बहरहाल, मंथन के इस दौर में हमारी जिम्‍मेदारी और बढ़ जाती है  कि ऐसी आपराधिक सोचों व घटनाओं पर विलाप करने तथा  एस्‍ट्रोनॉमिकल व एस्‍ट्रोलॉजिकल के बहाने दूसरों को गरियाने की  बजाय स्‍वयं अपने कर्तव्‍य पर ध्यान केंद्रित करें एवं समाज को  सकारात्‍मक सोच से भरने का हरसंभव प्रयास करें।

ये समय संक्रमणकारी विचारों से बचकर अपने आसपास की  गतिविधियों पर नज़र रखने का भी है। किसी को अकेला या संदिग्‍ध  स्‍थिति में देखें तो उसे टोकें। एक बार का टोकना किसी भी गलत  विचार को मार सकने में बहुत कारगर होता है। इस एक कदम से हम भी किसी अपराध की संभावना को रोक सकते हैं।

प्राकृतिक बदलाव को तो हम नहीं रोक सकते और ना ही उसे गति दे  सकते हैं परंतु निजी स्‍तर पर किसी घटना के प्रति ''हमें क्‍या या  हमारे साथ तो नहीं हुई'' वाली सोच को जरूर बदल सकते हैं। सभ्‍य  समाज बनाने की दिशा में इतना प्रयास भी काफी है।

किकी चैलेंज हो या बलात्‍कार अथवा मॉब लिंचिंग सभी में भीड़ का  हिस्‍सा बनने या रुककर फोटो लेने की बजाय स्‍वयं अपनी जिम्‍मेदारी  निभायें तो सार्थक परिणाम सामने आ सकते हैं। 

भीड़तंत्र हर युग में अच्‍छी सोच को प्रभावित करने की कोशिश करता  रहा है लिहाजा आज भी कर रहा है, किंतु याद रहे कि भीड़ में  दिमाग नहीं होता और इसीलिए बुद्धिमान लोग हमेशा भीड को  नियंत्रित करने में सफल रहे हैं।

बेहतर होगा कि कठपुतली बनने की बजाय, डोर थामने वाले बनो।    मात्र शोर मचाकर आप भीड़तंत्र के उद्देश्‍य की पूर्ति ही करते हैं  इसलिए चुपचाप मंथन का हिस्‍सा बनिए। विश्‍वास कीजिए कि सदा  की भांति इस दौर में भी जीत सद्विचारों की ही होगी और अंतत:  नतीजे सार्थक निकलेंगे। 

- अलकनंदा सिंह