किसी अपराध के लिए कानून बनने के साथ ही उसे ध्वस्त करने के तरीके भी ईज़ाद कर लिए जाते हैं। हमारे देश में कानून का दुरुपयोग कोई नया नहीं है और हमारे देश में ही क्यों दुनिया के सभी देशों में यही होता है तभी तो क्राइम दिनों-दिन अपने वीभत्स रूप में हमारे सामने आता रहता है।
समाजिक ताने-बाने को ध्वस्त किए बिना कानून का राज बनाए रखने में कार्यपालिका तथा न्याय पालिका का खासा योगदान होता है।
कहा भले ही जाता हो कि अधिकारी का कोई जेंडर नहीं होता मगर निर्णय देते समय न्यायिक अधिकारी का जेंडर अपराध के पीछे की सच्चाई को जानने में सहायक होता ही है। यह साइकोलॉजिकल कारण है, इससे मुंह नहीं फेरा जा सकता। वह पुरुष है तो भी और स्त्री है तो भी, तमाम दिमागी मकड़जालों के साथ वह अपनी विचारशक्ति से अपने निर्णय को तोलता है।
कोई न्यायिक अधिकारी अगर कानूनी लीक पर ही चलना चाहे तो बात अलग है, परंतु इन्हीं में से कुछ ऐसे भी होते हैं जो कानूनी धाराओं के साथ-साथ बदलते रिश्तों तथा मानवीय एवं सामाजिक कारणों को देखते हुए अपने निर्णय सुनाते हैं।
कोई न्यायिक अधिकारी अगर कानूनी लीक पर ही चलना चाहे तो बात अलग है, परंतु इन्हीं में से कुछ ऐसे भी होते हैं जो कानूनी धाराओं के साथ-साथ बदलते रिश्तों तथा मानवीय एवं सामाजिक कारणों को देखते हुए अपने निर्णय सुनाते हैं।
ऐसा ही एक निर्णय कल यमुनानगर/हरियाणा की क्राइम अगेन्स्ट वीमन की न्यायाधीश पूनम सुनेजा की अदालत से आया। मामला था 19 साल तक दुष्कर्म किये जाने का। न्यायाधीश सुनेजा ने कहा कि महिला के बयान विश्वास योग्य नहीं हैं। 19 साल तक आपसी सहमति से बने संबंध, दुष्कर्म की श्रेणी में नहीं आ सकते। व्यापारी के यहां घरेलू काम करने वाली महिला ने 19 साल तक दुष्कर्म का आरोप लगाते हुए कोर्ट से न्याय की मांग की थी जिसकी सुनवाई कर अपने 38 पेज के फैसले में न्यायाधीश ने व्यापारी को दुष्कर्म के आरोप से बरी कर दिया।
कोई सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी जान सकता है कि पीड़िता 19 साल तक कथित तौर पर दुष्कर्म करवाती रही और चुप भी रही, फिर अचानक उसका ज़मीर जागा और वह अदालत जा पहुंची न्याय मांगने।
गौरतलब है कि एंटी रेप लॉ में बिना किसी सुबूत के दुष्कर्म पीड़िता के बयान ही अपराध साबित करने के काफी माने गए हैं, बलात्कार जैसे अपराधों के खिलाफ कड़ी सजा के प्रावधान करने के मकसद से नए कानून में कहा गया है कि अपराधी को कड़े कारावास की सजा तक दी जा सकती है जो 20 साल से कम नहीं होगी और इसे आजीवन कारावास तक में तब्दील किया जा सकता है।
इस कानून से अपने हित साधने और टारगेट बनाकर पुरुषों को ब्लैकमेल करने के लिए भी महिलाओं को एक टूल की तरह इस्तेमाल किया जाता है, जिसके कारण कई बार वास्तविक पीड़िताओं को इसका खमियाजा भुगतना पड़ता है। ऐसा करने वाले अपराधियों और ब्लैकमेलर्स का एक माइंडसेट बन चुका है कि आरोप लगाओ और बिना सुबूत के किसी को भी ज़लील करवा दो। ऐसे में आरोपित व्यक्ति या तो ब्लैकमेल होता रहता है या फिर वह समझौता कर भारी राशि चुकाता है क्योंकि वह जेल जाने के साथ-साथ जलील नहीं होना चाहता।
हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण लगभग हर रोज आते हैं कि पीड़िताएं घर में अकेली होती हैं… उनके परिजन घर से बाहर होते हैं…नामजद लोग आते हैं… बारी बारी से तमंचे की नोंक पर दुष्कर्म करते हैं… धमकी देते हुए चले जाते हैं…पीड़िता भयवश आरोपियों के चले जाने के बाद भी चिल्लाती नहीं है…और फिर कई दिनों बाद कथित पीड़िता अपने पति या पिता के साथ जाकर पुलिस में केस दर्ज कराती है वह भी नामज़द…और नामज़दगी के कारण फिर शुरू होता है बारगेनिंग का सिलसिला…। ऐसे में कोई भी कह देगा कि इस पूरे घटनाक्रम में पीड़ता कितनी ”निरीह” थी।
ऐसा ही मामला था 19 साल से दुष्कर्म की कथित पीड़ित महिला का जिसमें न्यायाधीश पूनम सुनेजा ने तर्कशक्ति का सहारा लिया और सच में सही फैसला सुनाया। इसे एतिहासिक फैसला भी कहा जा सकता है।
दुष्कर्म विरोधी कानून से पहले हम दहेज विरोधी कानून तथा एससी/एसटी कानून का दुरुपयोग भलीभांति देख चुके हैं और समाज को इसका खामियाजा भुगतते भी देखते हैं। कितने परिवारों को इस कानून के दुरुपयोग की वजह से कंगाल होते और महिला तथा बच्चों तक को इसमें पिसते देखा गया है। अब समाज में दुष्कर्म के मामलों की अच्छी-खासी बढ़ोत्तरी बताती है कि महिलाओं के अबला एवं निरीह होने की जो तस्वीर सामने रखी जाती है, वह पूरा सच बयां नहीं करती। उसमें ‘छद्म’ की भी मिलावट बड़े पैमाने पर होती जा रही है, समाज में फैलते ”फरेब के इस नए एंगल” पर भी काम करना होगा अन्यथा जिस कानून को महिलाओं के लिए वरदान माना जा रहा है कल वहीअभिषाप साबित हो सकता है।
विश्वास की जिस धुरी पर टिककर महिला और पुरुष के संबंध समाज की रचना करते हैं, वह विश्वास ही पूरी तरह टूट गया तो समाज का छिन्न-भिन्न होना तय है। और समाज छिन्न-भिन्न हो गया तो बचेगा क्या। रिश्ते-नाते सब बेमानी हो जाएंगे, साथ ही बेमानी हो जाएगा यह कानून भी क्योंकि कानून का मकसद अंतत: सामाजिक समरसता कायम करना ही होता है न कि समाज का तोड़ना।
न्यायाधीश पूनम सुनेजा धन्यवाद की पात्र हैं कि उन्होंने 19 सालों की सहमति को बलात्कार मानने से इंकार कर दिया। किसी भी न्यायाधीश का फैसला अपने स्तर से एक नज़ीर पेश करता है और वह नज़ीर बहुत काम करती है। पूनम सुनेजा ने भी निश्चित ही एक ऐसी ही नज़ीर पेश की है।
ऐसा ही मामला था 19 साल से दुष्कर्म की कथित पीड़ित महिला का जिसमें न्यायाधीश पूनम सुनेजा ने तर्कशक्ति का सहारा लिया और सच में सही फैसला सुनाया। इसे एतिहासिक फैसला भी कहा जा सकता है।
दुष्कर्म विरोधी कानून से पहले हम दहेज विरोधी कानून तथा एससी/एसटी कानून का दुरुपयोग भलीभांति देख चुके हैं और समाज को इसका खामियाजा भुगतते भी देखते हैं। कितने परिवारों को इस कानून के दुरुपयोग की वजह से कंगाल होते और महिला तथा बच्चों तक को इसमें पिसते देखा गया है। अब समाज में दुष्कर्म के मामलों की अच्छी-खासी बढ़ोत्तरी बताती है कि महिलाओं के अबला एवं निरीह होने की जो तस्वीर सामने रखी जाती है, वह पूरा सच बयां नहीं करती। उसमें ‘छद्म’ की भी मिलावट बड़े पैमाने पर होती जा रही है, समाज में फैलते ”फरेब के इस नए एंगल” पर भी काम करना होगा अन्यथा जिस कानून को महिलाओं के लिए वरदान माना जा रहा है कल वहीअभिषाप साबित हो सकता है।
विश्वास की जिस धुरी पर टिककर महिला और पुरुष के संबंध समाज की रचना करते हैं, वह विश्वास ही पूरी तरह टूट गया तो समाज का छिन्न-भिन्न होना तय है। और समाज छिन्न-भिन्न हो गया तो बचेगा क्या। रिश्ते-नाते सब बेमानी हो जाएंगे, साथ ही बेमानी हो जाएगा यह कानून भी क्योंकि कानून का मकसद अंतत: सामाजिक समरसता कायम करना ही होता है न कि समाज का तोड़ना।
न्यायाधीश पूनम सुनेजा धन्यवाद की पात्र हैं कि उन्होंने 19 सालों की सहमति को बलात्कार मानने से इंकार कर दिया। किसी भी न्यायाधीश का फैसला अपने स्तर से एक नज़ीर पेश करता है और वह नज़ीर बहुत काम करती है। पूनम सुनेजा ने भी निश्चित ही एक ऐसी ही नज़ीर पेश की है।
- अलकनंदा सिंह