सुप्रीम कोर्ट दुखी है…मुज़फ्फ़रपुर शेल्टर होम कांड के बाद देवरिया से आई भयानक खबर से त्रस्त है वह… कि देशभर में यह क्या हो रहा है, लेफ्ट, राइट और सेंटर…सब जगह रेप हो रहा है, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार हर छह घंटे में एक लड़की का रेप हो रहा है। देशभर में प्रति वर्ष 38 हजार से ज्यादा रेप हो रहे हैं। देश में सबसे ज्यादा रेप मध्य प्रदेश में हो रहे हैं, दूसरा नंबर यूपी का है…आदि-आदि।
तो आज बात इस पर होनी चाहिए कि आखिर क्यों जरूरत पड़ी शेल्टर होम्स की, क्यों शेल्टर होम्स जैसी सरकारी या सरकार से सहायता प्राप्त व्यवस्थाएं इतनी बदहाल हैं कि हालात की मारी अबलाओं को आश्रय की जगह नर्क भोगने पर मजबूर होना पड़ता है। यहां पहुंचने वाली लड़कियां चाहे जवान हों, या नन्हीं बच्चियां, किशोरवय हों या अधेड़ महिलाएं, और यहां तक कि वृद्धाएं ही क्यों न हों, सभी आहत होती हैं। शारीरिक बल के साथ इनका आत्मबल भी काफी हद तक टूट जाता है। धन पास नहीं होता और अपनों से बेज़ार होती हैं। आखिर वे सब इस दशा तक पहुंचती कैसे हैं।
कहने को तो घर वालों का दुर्व्यवहार पहला कारण बताया जाता है मगर इस दुव्यर्वहार की जड़ों में जायें तो समाज की ढहती व्यवस्थाएं असली वजह हैं।
कहने को तो घर वालों का दुर्व्यवहार पहला कारण बताया जाता है मगर इस दुव्यर्वहार की जड़ों में जायें तो समाज की ढहती व्यवस्थाएं असली वजह हैं।
वृद्धाश्रमों की तरह ही शेल्टर होम खोलने की जरूरत तब पड़ी जब समाज ने अपना दायित्व निभाना छोड़ दिया। समाज की संरचना का औचित्य ही यदि पीछे छूटने लगे तो ऐसी स्थितियां पैदा होना स्वाभाविक है। समाज किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं, बल्कि समूह में, समूह के लिए, समूह के द्वारा स्थापित कुछ ऐसे मानदंड हैं जो सबके लिए एक जैसे हैं। समाज की एक भी कड़ी कमजोर पड़ते ही सारी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो जाती हैं। फिर ये कमजोर कड़ी ही शेल्टर होम और वृद्धाश्रमों को जन्म देती हैं। यदि समाज अपनी जिम्मेदारी निभाता तो शेल्टर होम बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। ज़रा सोचिए कि क्योंकर कोई भी अपनों को छोड़कर आएगा। मानसिक दिव्यांग महिलायें हों, किसी के प्यार में पड़कर घर छोड़ देने वाली लड़कियां हों या परिजनों की मार से बचने को घर से भागे लड़के हों।
इन सभी के साथ एक बात समान है कि अपनों से मिली ‘अनदेखी’ ने उन्हें सरकारी अथवा गैर सरकारी टुकड़ों पर पलने को विवश कर दिया जिसका फायदा संस्था के संचालकों ने उठाया क्योंकि सरकारी व्यवस्थाएं उस अंधी सुरंगों की तरह हैं जहां घुसने के बाद वापसी का कोई रास्ता होता ही नहीं। यदि होता भी है तो वो इतना संकरा और दूरूह होता है कि उसमें से निकल पाना, हर किसी के बस की बात नहीं होती।
इसके लिए लंबी व जटिल कानूनी प्रक्रिया ही असली जिम्मेदार है। हर कथित समाजसेवा के लिए निवाला बांटने वाली हमारे सरकारें कभी यह देखना ही नहीं चाहतीं कि किसी महिला का पहला निष्कासन भले ही ”सामाजिक निष्क्रियता” के चलते उसके घर से होता हो मगर पूरी तरह हताश व निराश वह सरकारी प्रक्रिया के कारण ही होती हैं। सरकारी अमले से लेकर कोर्ट-कचहरी तक उसे ऐसी मानसिक व शारीरिक यातनाएं देते हैं कि उसके पास उनसे समझौता करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। ज़रा-ज़रा सी बात पर आधी रात को प्रभावशाली लोगों की सुनवाई करने वाले न्यायाधीश महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार पर पानी सिर के ऊपर आने का इंतज़ार करते हैं। समाज की तरह ही इन माननीयों के पास तमाम बहाने हैं। सरकारों को इस मामले में लापरवाही के लिए फटकार लगाने वाली न्याय व्यवस्था ”न्याय में देरी के लिए” अपनी ओर से कोई कदम नहीं उठा रहीं। इसके लिए वह भी सरकार का मुंह देखती है। सरकार से न्यायधीशों के हितों का टकराव अब कोई नई बात नहीं रह गई।
नतीजा ये कि निराश्रितों को उनके घर भेजने में व्यवस्था को इतना समय लग जाता है कि तब तक कोई सेक्स रैकेट संचालक, कोई मानव तस्करी में लिप्त गिरोह उन्हें अपना शिकार बनाने में कामयाब हो जाता है।
नतीजा ये कि निराश्रितों को उनके घर भेजने में व्यवस्था को इतना समय लग जाता है कि तब तक कोई सेक्स रैकेट संचालक, कोई मानव तस्करी में लिप्त गिरोह उन्हें अपना शिकार बनाने में कामयाब हो जाता है।
कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि आधी आबादी को घर से बेघर करने के लिए पहले परिवार और फिर आसपास का ”प्रश्न ना करने वाला” निष्क्रिय समाज तो दोषी है ही, सरकारी व्यवस्थाएं और न्यायपालिका की लेट-लतीफी भी उतनी ही जिम्मेदार है। ऐसे हर घटना का ठीकरा सरकारों के सिर फोड़ने से पहले अदालतों को अपने गिरेबां में एकबार अवश्य झांक लेना चाहिए।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट द्वारा कल मुजफ्फरपुर शेल्टर होम रेप केस की सुनवाई करते हुए सरकारी व्यवस्था को लेकर की गई ‘टिप्प्णी’ पर बिल्कुल फिट बैठती हैं कुंवर नारायण की यह कविता-
कोई दुख,
मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं,
हारा वही है,
जो लड़ा नहीं।
मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं,
हारा वही है,
जो लड़ा नहीं।
तो हमें पारिवार नामक संस्था को बनाए रखने के लिए दूसरों के दुख के भागीदार बनने वाले सामाजिक मूल्यों को तो पुनर्स्थापित करना ही होगा, साथ ही अपने आसपास भी नज़र रखनी होगी। लापरवाह केवल सरकारें ही नहीं, हम भी हैं जो अपनी आंखें मूंदकर ”अकेली महिलाओं” के साथ हुए इस अपराध के भागीदार कहे जा सकते हैं।
-अलकनंदा सिंह
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