दीपावली के महापर्व पर आज लिखने को बहुत कुछ है मगर मैं शब्दों से खाली
हूं और इसीलिए पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के आलोक पर्व का सहारा लिया।
आलोक पर्व में ज्योतिर्मयी देवी लक्ष्मी पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि लोग कहे-सुने जाते हैं कि अंधकार महाबलवान है। उससे जूझने का संकल्प मूढ़ दर्शन मात्र है, तो क्या यह संकल्प शक्ति का पराभव है। मनुष्यता की अवमानना है। दीवाली कहती है कि अंधकार से जूझने का संकल्प ही यथार्थ है। अंधकार की सैकड़ों परतें हैं। उससे जूझना ही मनुष्यत्व है। जूझने का संकल्प ही महादेवता है। उसी को प्रत्यक्ष करने की क्रिया को लक्ष्मी पूजा कहते हैं।
आज से दीपोत्सव का पंचदिवसीय पर्व आरंभ हो चुका है। घरों पर लटकती रंगबिरंगी झालरें, टेराकोटा दीपकों की नई-नई लुभावनी डिजाइन्स और रंगोली की वृहद परिकल्पनाएं हमारी कलाओं को उभारती हुई इन पांच दिनों तक साकार रूप में हमारे सामने होंगी। इन कलाओं में हम अपनी सोच को सजायेंगे। दीपावली से जुड़ी कथाविस्तारों से अलग हम दीपावली के ध्येय की ओर शायद ही ध्यान दे पायें कि आखिर इसे प्रकाश से भरपूर उल्लास के संग मनाने की परंपरा क्योंकर स्थापित की गई होगी।
हमारा हर पर्व मन से मन की यात्रा के उद्देश्य के साथ मनाया जाता था मगर आपाधापी में ऊपरी सजावट का बोझ बढ़ाते गए और हम पर्वों का मुख्य उद्देश्य तिरोहित करते गए। यह भूलते गए कि दीपावली मन के अंधेरों को हटाकर रोशनी की ओर प्रस्थान का नाम है।
आजकल विचारकों की भीड़ लगी हुई है जो विचारों, इच्छाओं, राजनैतिक विश्लेषणों, धार्मिक-सामाजिक उन्मादों से लबालब चल रहे हमारे देश में हर विषय पर अपनी राय रख रहे हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि साक्षात् वेद हमारे समक्ष अपना ज्ञान उड़ेले जा रहे हैं और हम मूढ़मति-अज्ञानी करबद्ध उनका मुंह ताक रहे हैं। इन्हीं ”ज्ञान के भंडारों” ने अपने उपदेशों में सदैव त्याग की बात तो की, मगर भोग को नकारते रहे।
ऐसा कैसे हो सकता है कि आप सिर्फ मीठा ही खाते रहें। बिना तीखे के मीठा भी बेस्वाद होगा। अगर यही होता तो ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ की बात ही नहीं होती अर्थात् भोग भी त्याग के साथ होना चाहिए। लगातार एक संतुलन की बात है यह। दीपावली के आरंभ दिवस ‘धनतेरस’ का भी तो यही संदेश है कि एक दीया लक्ष्मी जी का, दूसरा धन्वातरि का, और तीसरा यम के लिए। धन, स्वास्थ्य जीवन के लिए आवयश्क है तो मृत्यु से अभय रखने को यम से प्रार्थना भी आवश्यक है। और यह संदेश पूरे पांच दिन तक अलग-अलग तरीकों से जन मानस में फैलाने की व्यवस्था का नाम है दीपावली क्योंकि संतुलन के साथ प्रकाश का महत्व और बढ़ जाता है।
अब इस दीपावली पर मन से मन की यात्रा करके तो देखें, हमारी सारी जीवन-ऊर्जा बाहर की तरफ यात्रा कर रही है और हम भीतर अंधेरे में पड़े हैं, यह ऊर्जा भीतर की तरफ लौटे तो यही ऊर्जा प्रकाश बनेगी, यह ऊर्जा ही प्रकाश है।
घरों को सजाकर इसका उद्देश्य पूरा नहीं होगा। इस दीपावली पर बस इतना करना होगा कि हमारा जो सारा प्रकाश बाहर पड़ रहा है- पेड़-पौधों-लोगों पर उसे अपने भीतर ही ठहराना होगा ताकि हम सबको देखने से पहले स्वयं को देखें और अपने प्रति अंधे न बनें क्योंकि सबको देखने से क्या होगा? जिसने अपने को न देखा, उसने कुछ भी न देखा।
हमें मनुष्यता की अवमानना नहीं करनी है क्योंकि सैकड़ों परतों वाले अंधकार से जूझने का संकल्प यथार्थ में बदलना है। हमारा जूझारूपन ही हमारे संकल्प का देवता है जिसे साधकर वास्तविक लक्ष्मी पूजा करनी होगी। तभी होगी शुभ दीपावली।
- Alaknanda singh
आलोक पर्व में ज्योतिर्मयी देवी लक्ष्मी पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि लोग कहे-सुने जाते हैं कि अंधकार महाबलवान है। उससे जूझने का संकल्प मूढ़ दर्शन मात्र है, तो क्या यह संकल्प शक्ति का पराभव है। मनुष्यता की अवमानना है। दीवाली कहती है कि अंधकार से जूझने का संकल्प ही यथार्थ है। अंधकार की सैकड़ों परतें हैं। उससे जूझना ही मनुष्यत्व है। जूझने का संकल्प ही महादेवता है। उसी को प्रत्यक्ष करने की क्रिया को लक्ष्मी पूजा कहते हैं।
आज से दीपोत्सव का पंचदिवसीय पर्व आरंभ हो चुका है। घरों पर लटकती रंगबिरंगी झालरें, टेराकोटा दीपकों की नई-नई लुभावनी डिजाइन्स और रंगोली की वृहद परिकल्पनाएं हमारी कलाओं को उभारती हुई इन पांच दिनों तक साकार रूप में हमारे सामने होंगी। इन कलाओं में हम अपनी सोच को सजायेंगे। दीपावली से जुड़ी कथाविस्तारों से अलग हम दीपावली के ध्येय की ओर शायद ही ध्यान दे पायें कि आखिर इसे प्रकाश से भरपूर उल्लास के संग मनाने की परंपरा क्योंकर स्थापित की गई होगी।
हमारा हर पर्व मन से मन की यात्रा के उद्देश्य के साथ मनाया जाता था मगर आपाधापी में ऊपरी सजावट का बोझ बढ़ाते गए और हम पर्वों का मुख्य उद्देश्य तिरोहित करते गए। यह भूलते गए कि दीपावली मन के अंधेरों को हटाकर रोशनी की ओर प्रस्थान का नाम है।
आजकल विचारकों की भीड़ लगी हुई है जो विचारों, इच्छाओं, राजनैतिक विश्लेषणों, धार्मिक-सामाजिक उन्मादों से लबालब चल रहे हमारे देश में हर विषय पर अपनी राय रख रहे हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि साक्षात् वेद हमारे समक्ष अपना ज्ञान उड़ेले जा रहे हैं और हम मूढ़मति-अज्ञानी करबद्ध उनका मुंह ताक रहे हैं। इन्हीं ”ज्ञान के भंडारों” ने अपने उपदेशों में सदैव त्याग की बात तो की, मगर भोग को नकारते रहे।
ऐसा कैसे हो सकता है कि आप सिर्फ मीठा ही खाते रहें। बिना तीखे के मीठा भी बेस्वाद होगा। अगर यही होता तो ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ की बात ही नहीं होती अर्थात् भोग भी त्याग के साथ होना चाहिए। लगातार एक संतुलन की बात है यह। दीपावली के आरंभ दिवस ‘धनतेरस’ का भी तो यही संदेश है कि एक दीया लक्ष्मी जी का, दूसरा धन्वातरि का, और तीसरा यम के लिए। धन, स्वास्थ्य जीवन के लिए आवयश्क है तो मृत्यु से अभय रखने को यम से प्रार्थना भी आवश्यक है। और यह संदेश पूरे पांच दिन तक अलग-अलग तरीकों से जन मानस में फैलाने की व्यवस्था का नाम है दीपावली क्योंकि संतुलन के साथ प्रकाश का महत्व और बढ़ जाता है।
अब इस दीपावली पर मन से मन की यात्रा करके तो देखें, हमारी सारी जीवन-ऊर्जा बाहर की तरफ यात्रा कर रही है और हम भीतर अंधेरे में पड़े हैं, यह ऊर्जा भीतर की तरफ लौटे तो यही ऊर्जा प्रकाश बनेगी, यह ऊर्जा ही प्रकाश है।
घरों को सजाकर इसका उद्देश्य पूरा नहीं होगा। इस दीपावली पर बस इतना करना होगा कि हमारा जो सारा प्रकाश बाहर पड़ रहा है- पेड़-पौधों-लोगों पर उसे अपने भीतर ही ठहराना होगा ताकि हम सबको देखने से पहले स्वयं को देखें और अपने प्रति अंधे न बनें क्योंकि सबको देखने से क्या होगा? जिसने अपने को न देखा, उसने कुछ भी न देखा।
हमें मनुष्यता की अवमानना नहीं करनी है क्योंकि सैकड़ों परतों वाले अंधकार से जूझने का संकल्प यथार्थ में बदलना है। हमारा जूझारूपन ही हमारे संकल्प का देवता है जिसे साधकर वास्तविक लक्ष्मी पूजा करनी होगी। तभी होगी शुभ दीपावली।
- Alaknanda singh
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