मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

दो 31 तारीखों के बीच पूरा जीवन जी लिया अमृता प्रीतम ने

दो 31 तारीखों के बीच पूरा जीवन जी लिया अमृता प्रीतम ने, जी हां, 31 अगस्‍त 1919 को जन्‍मी Amrita Pritam का निधन भी 31 अक्‍तूबर 2005 को हुआ।
पंजाबी की प्रसिद्ध कवियित्री श्रीमती अमृता प्रीतम भारत के वरिष्ठ साहित्यकारों में से एक थीं। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि पंजाबी कविता की अपनी एक अलग पहचान है, उसकी अपनी शक्ति है अपना सौंदर्य है, अपना तेवर है और वे उसका प्रतिनिधित्व करती हैं।
अमृता प्रीतम का जन्म १९१९ में गुजरांवाला पंजाब में हुआ। बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं हुई। किशोरावस्था से लिखना शुरू किया — कविता, कहानी और निबंध। पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुयीं और देशी विदेशी अनेक भाषाओं में अनूदित भी हुईं। वे १९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा द्वारा, १९८८ में बल्गारिया वैप्त्त्सरोव पुरस्कार (अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८१ में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ से सम्मानित हुईं।
 उन्‍हें श्रद्धांजलिस्‍वरूप  मैं उन्‍हीं की तीन पंजाबी कविताऐं देना चाहती हूं , जिनका हिन्‍दी अनुवाद भी साथ ही दिया गया है।
1. मेरा पता
अज मैं आपणें घर दा नंबर मिटाइआ है
ते गली दे मत्थे ते लग्गा गली दा नांउं हटाइया है
ते हर सड़क दी दिशा दा नाउं पूंझ दित्ता है
पर जे तुसां मैंनूं ज़रूर लभणा है
तां हर देस दे, हर शहर दी, हर गली दा बूहा ठकोरो
इह इक सराप है, इक वर है
ते जित्थे वी सुतंतर रूह दी झलक पवे
– समझणा उह मेरा घर है।
मेरा पता का हिन्‍दी अनुवाद
मेरा पता
आज मैंने अपने घर का नंबर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, एक वर है
और जहाँ भी आज़ाद रूह की झलक पड़े
– समझना वह मेरा घर है।

2. इक ख़त
मैं – इक परबत्ती ‘ते पई पुस्तक।
शाइद साध–बचन हाँ, जां भजन माला हाँ,
जां कामसूत्र दा इक कांड,
जो कुझ आसण ‘ते गुप्त रोगां दे टोटके,
पर जापदा – मैं इन्हां विचों कुझ वी नहीं।
(कुझ हुंदी तां ज़रूर कोई पढ़दा)
ते जापदा इक क्रांतिकारीआं दी सभा होई सी
ते सभा विच जो मत्ता पास होईआ सी
मैं उसे दी इक हथ–लिखत कापी हाँ।
ते फेर उत्तों पुलिस दा छापा
ते कुझ पास होईआ सी, कदे लागू न होईआ
सिर्फ़ ‘कारवाई’ खातर सांभ के रखिआ गिआ।
ते हुण सिर्फ़ कुझ चिड़िआं अउदीआं
चुझ विच तीले लिअउंदीआं
ते मेरे बदन उत्ते बैठ के
उह दूसरी पीढ़ी दा फिकर करदीआं।
(दूसरी पीढ़ी दा फिकर किन्ना हसीन फिकर है!)
पर किसे उपराले लई चिड़िआं दे खम्ब हुंदे हन
ते किसे मते दा कोई खम्ब नहीं हुंदा।
(जां किसे मते दी कोई दूसरो पीढ़ी नहीं हुंदी?)
हिन्‍दी अनुवाद
एक ख़त
मैं – एक आले में पड़ी पुस्तक।
शायद संत–वचन हूँ, या भजन–माला हूँ,
या काम–सूत्र का एक कांड,
या कुछ आसन, और गुप्त रोगों के टोटके
पर लगता है मैं इन में से कुछ भी नहीं।
(कुछ होती तो ज़रूर कोई पढ़ता)
और लगता – कि क्रांतिकारियों की सभा हुई थीं
और सभा में जो प्रस्ताव रखा गया
मैं उसी की एक प्रतिलिपि हूँ
और फिर पुलिस का छापा
और जो पास हुआ कभी लागू न हुआ
सिर्फ़ कार्रवाई की ख़ातिर संभाल कर रखा गया।
और अब सिर्फ़ कुछ चिड़ियाँ आती हैं
चोंच में कुछ तिनके लाती हैं
और मेरे बदन पर बैठ कर
वे दूसरी पीढ़ी की फ़िक्र करती हैं
(दूसरी पीढ़ी की फ़िक्र कितनी हसीन फ़िक्र है!)
पर किसी भी यत्न के लिए चिड़ियों के पंख होते हैं,
पर किसी प्रस्ताव का कोई पंख नहीं होता।
(या किसी प्रस्ताव की कोई दूसरी पीढ़ी नहीं होती?)
3. तू नहीं आया
चेतर ने पासा मोड़िया, रंगां दे मेले वास्ते
फुल्लां ने रेशम जोड़िया – तू नहीं आया
होईआं दुपहिरां लम्बीआं, दाखां नू लाली छोह गई
दाती ने कणकां चुम्मीआं – तू नहीं आया
बद्दलां दी दुनीआं छा गई, धरती ने बुक्कां जोड़ के
अंबर दी रहिमत पी लई – तू नहीं आया
रुकखां ने जादू कर लिआ, जंग्गल नू छोहंदी पौण दे
होंठों ‘च शहद भर गिआ – तू नहीं आया
रूत्तां ने जादू छोहणीआं, चन्नां ने पाईआं आण के
रातां दे मत्थे दौणीआं – तू नहीं आया
अज फेर तारे कह गए, उमरां दे महिलीं अजे वी
हुसनां दे दीवे बल रहे – तू नहीं आया
किरणां दा झुरमुट आखदा, रातां दी गूढ़ी नींद चों
हाले वी चानण जागदा – तू नहीं आया
हिन्‍दी अनुवाद
तू नहीं आया
चैत ने करवट ली, रंगों के मेले के लिए
फूलों ने रेशम बटोरा – तू नहीं आया
दोपहरें लंबी हो गईं, दाख़ों को लाली छू गई
दरांती ने गेहूँ की वालियाँ चूम लीं – तू नहीं आया
बादलों की दुनिया छा गई, धरती ने दोनों हाथ बढ़ा कर
आसमान की रहमत पी ली – तू नहीं आया
पेड़ों ने जादू कर दिया, जंगल से आई हवा के
होंठों में शहद भर गया – तू नहीं आया
ऋतु ने एक टोना कर दिया, चाँद ने आकर
रात के माथे झूमर लटका दिया – तू नहीं आया
आज तारों ने फिर कहा, उम्र के महल में अब भी
हुस्न के दिये जल रहे हैं – तू नहीं आया
किरणों का झुरमुट कहता है, रातों की गहरी नींद से
रोशनी अब भी जागती है – तू नहीं आया।
प्रस्‍तुति : अलकनंदा सिंह

बुधवार, 25 अक्टूबर 2017

समय के दो पाट: कहां ये और कहां वो

समय के दो पाटों में से एक पाट पर हैं शास्‍त्रीय संगीत की पुरोधा गिरिजा देवी की प्रस्‍तुतियां और दूसरे पाट  पर हैं ढिंचक पूजा जैसी रैपर की अतुकबंदी वाली रैपर-शो'ज (जिसे प्रस्‍तुति नहीं कहा जा सकता)।

समय बदला है, नई पीढ़ी हमारे सामने नए नए प्रयोग कर रही है, अच्‍छे भी और वाहियात भी, परंतु अभी वह  संगीत-सरगम की पहली शर्त भी पूरी नहीं कर पा रही। पहली शर्त होती है कि इन प्रयोगों में मन को क्‍या  भाता है, मन किसे याद रख पाता है, किसे सुनकर बार बार दोहराने-गुनगुनाने-झूमते चले जाने का जी चाहता  है...। ये शर्त पूरी होते ही कसौटी होती है किसी कला के जनजन तक पहुंचकर प्रसिद्धि पाने की। और जब  जनजन तक पहुंचेगी तभी तो सदियों तक याद रखी जाएगी।

मेरे विचार से किसी गीत के अच्छा होने के लिए अच्छी कविता के साथ अच्छे गायन का संगम होना  आवश्यक है। मुझे संगीत की समझ बस इतनी है कि जो मेरे मन को अच्छा लगे वही अच्छा संगीत है।
इसलिए किसी भी अच्छे संगीत की पहचान यदि कान से की जाए दिमाग से नहीं, तो ज्‍यादा सही होगा।  संभवत आनंद का सृजन ही हर कला का मूल उद्देश्य भी है इसीलिए ठुमरी जैसे लोकशास्त्रीय गायन को  सुनने-सुनाने का अपना एक अलग आनंद है।
  आप भी सुनिए गिरिजा देवी की गाई ठुमरी- इस लिंक पर



बहरहाल, ठुमरी की रानी पद्मविभूषण गिरिजा देवी के देहांत की खबर के बाद से ही उनकी ठुमरियां एक एक  कर चले ही जा रही हैं दिमाग में...बाबुल मोरा नैहर छूटा जाए..., ऐहि ठइयां मोतिया हेराय गइलै रामा...।
दशकों पहले गाई गई ये ठुमरी आजतक उसी खनक के साथ हमारी जुबान से कभी भी रस घोल देती है, चाहे  रसोई में होऊं या आफिस में, ठुमरी तो है ही ऐसी चीज। ठुमरी हो और गिरिजा देवी का मनदर्शन ना हो ऐसा  कैसे हो सकता है भला।

अब बात करती हूं समय के दूसरे पाट पर चल रहे उस संगीत की जिसको सुनना जितना कष्‍टप्रद होता है,  उसे समझना बूते के बाहर, संगीत के नाम पर कुछ बेहूदी बातों को (जिसमें नशे की व अश्‍लीलता की बातें  समाहित होती हैं) हमें सुनाया जाता है।
नीचे ढिंचक पूजा के गाए का लिंक दे रही हूं-

https://www.youtube.com/watch?v=frw6uu3nonQ

लिबास के नाम पर गायिका एक कान में बाली, रंगबिरंगे बालों के  साथ, कभी कभी तो ये बाल सिर पर एक ही तरफ होते हैं और दूसरी ओर से साफ किए गए होते हैं। उदाहरण  के तौर पर बता दूं, शायद आप भी जानते होंगे कि कलर्स चैनल पर चल रहा है बिग बॉस 11, इस रिएलिटी  शो में एक प्रतिभागी का नाम है ढिंचक पूजा, जी हां, ढिंचक... लड़की पूजा, यानि ऐसी गायिका जो अपनी  बातों को ढुलकते हुए हमें सुनाती है जिसे संगीत कहा जाता है (आप भी यदि इसे किसी एंगल से संगीत कह  सकें तो)। ढिंचक पूजा के गाने को कोई भी दोहरा नहीं सकता क्‍योंकि वह गायन तो होता ही नहीं इसीलिए वह  शायद बिगबॉस के बाद किसी को याद भी नहीं रहेगी।

समय के इस दूसरे पाट पर खड़े 'ढिंचक पूजा' के संगीत को सुनकर मुझे अपनी उस विरासत के लिए दुख  होता है जो कभी तानसेनों को जन्‍म दिया करती थी, जहां राग ईश्‍वर होते थे। जो गायक के स्‍वर से निकलते  ही आनंद बिखेर देते थे। संगीत के एक अचल स्‍तंभ की भांति खड़ी रहने वाली गिरिजा देवी भी संगीत की इस  बाजारूपन और निम्‍नतर होते जाने से बेहद व्‍यथित थीं। निश्‍चित ही रैप- जैज़ संगीत हो सकता है मगर मन  को सुकून तो भारतीय संगीत से ही मिलता है चाहे वह लोकसंगीत हो या शास्‍त्रीय। ये मैं नहीं, अब तो पश्‍चिमी सभ्‍यता भी भारतीय संगीत की दीवानी हो चुकी है।

समय के इन दोनों पाटों को कृपया पुरातन और आधुनिक के चश्‍मे से ना देखिएगा, वरना संगीत का असली  रस नहीं पहचान पाऐंगे। संभवत: यही कारण है कि पहले पाट की गिरिजा देवी कालजयी हो जाती हैं और  ढिंचक पूजा...क्षणभंगुर।

जो भी हो, बहुत याद आऐंगी ठुमरी की महारानी गिरिजा देवी और जनजन की 'अप्‍पा जी'

- अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

इस दीपावली बाहर का प्रकाश भीतर भी जाना चाहिए

दीपावली के महापर्व पर आज लिखने को बहुत कुछ है मगर मैं शब्‍दों से खाली हूं और इसीलिए पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के आलोक पर्व का सहारा लिया।

आलोक पर्व में ज्योतिर्मयी देवी लक्ष्मी पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि लोग कहे-सुने जाते हैं कि अंधकार महाबलवान है। उससे जूझने का संकल्‍प मूढ़ दर्शन मात्र है, तो क्‍या यह संकल्‍प शक्‍ति का पराभव है। मनुष्‍यता की अवमानना है। दीवाली कहती है कि अंधकार से जूझने का संकल्‍प ही यथार्थ है। अंधकार की सैकड़ों परतें हैं। उससे जूझना ही मनुष्‍यत्‍व है। जूझने का संकल्‍प ही महादेवता है। उसी को प्रत्‍यक्ष करने की क्रिया को लक्ष्‍मी पूजा कहते हैं।

आज से दीपोत्‍सव का पंचदिवसीय पर्व आरंभ हो चुका है। घरों पर लटकती रंगबिरंगी झालरें, टेराकोटा दीपकों की नई-नई लुभावनी डिजाइन्‍स और रंगोली की वृहद परिकल्‍पनाएं हमारी कलाओं को उभारती हुई इन पांच दिनों तक साकार रूप में हमारे सामने होंगी। इन कलाओं में हम अपनी सोच को सजायेंगे। दीपावली से जुड़ी कथाविस्‍तारों से अलग हम दीपावली के ध्‍येय की ओर शायद ही ध्‍यान दे पायें कि आखिर इसे प्रकाश से भरपूर उल्‍लास के संग मनाने की परंपरा क्‍योंकर स्‍थापित की गई होगी।

हमारा हर पर्व मन से मन की यात्रा के उद्देश्‍य के साथ मनाया जाता था मगर आपाधापी में ऊपरी सजावट का बोझ बढ़ाते गए और हम पर्वों का मुख्‍य उद्देश्‍य तिरोहित करते गए। यह भूलते गए कि दीपावली मन के अंधेरों को हटाकर रोशनी की ओर प्रस्‍थान का नाम है।

आजकल विचारकों की भीड़ लगी हुई है जो विचारों, इच्‍छाओं, राजनैतिक विश्‍लेषणों, धार्मिक-सामाजिक उन्‍मादों से लबालब चल रहे हमारे देश में हर विषय पर अपनी राय रख रहे हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि साक्षात् वेद हमारे समक्ष अपना ज्ञान उड़ेले जा रहे हैं और हम मूढ़मति-अज्ञानी करबद्ध उनका मुंह ताक रहे हैं। इन्‍हीं ”ज्ञान के भंडारों” ने अपने उपदेशों में सदैव त्‍याग की बात तो की, मगर भोग को नकारते रहे।
ऐसा कैसे हो सकता है कि आप सिर्फ मीठा ही खाते रहें। बिना तीखे के मीठा भी बेस्‍वाद होगा। अगर यही होता तो ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ की बात ही नहीं होती अर्थात् भोग भी त्याग के साथ होना चाहिए। लगातार एक संतुलन की बात है यह। दीपावली के आरंभ दिवस ‘धनतेरस’ का भी तो यही संदेश है कि एक दीया लक्ष्‍मी जी का, दूसरा धन्‍वातरि का, और तीसरा यम के लिए। धन, स्‍वास्‍थ्‍य जीवन के लिए आवयश्‍क है तो मृत्‍यु से अभय रखने को यम से प्रार्थना भी आवश्‍यक है। और यह संदेश पूरे पांच दिन तक अलग-अलग तरीकों से जन मानस में फैलाने की व्‍यवस्‍था का नाम है दीपावली क्‍योंकि संतुलन के साथ प्रकाश का महत्‍व और बढ़ जाता है।

अब इस दीपावली पर मन से मन की यात्रा करके तो देखें, हमारी सारी जीवन-ऊर्जा बाहर की तरफ यात्रा कर रही है और हम भीतर अंधेरे में पड़े हैं, यह ऊर्जा भीतर की तरफ लौटे तो यही ऊर्जा प्रकाश बनेगी, यह ऊर्जा ही प्रकाश है।

घरों को सजाकर इसका उद्देश्‍य पूरा नहीं होगा। इस दीपावली पर बस इतना करना होगा कि हमारा जो सारा प्रकाश बाहर पड़ रहा है- पेड़-पौधों-लोगों पर उसे अपने भीतर ही ठहराना होगा ताकि हम सबको देखने से पहले स्‍वयं को देखें और अपने प्रति अंधे न बनें क्‍योंकि सबको देखने से क्या होगा? जिसने अपने को न देखा, उसने कुछ भी न देखा।

हमें मनुष्‍यता की अवमानना नहीं करनी है क्‍योंकि सैकड़ों परतों वाले अंधकार से जूझने का संकल्‍प यथार्थ में बदलना है। हमारा जूझारूपन ही हमारे संकल्‍प का देवता है जिसे साधकर वास्‍तविक लक्ष्‍मी पूजा करनी होगी। तभी होगी शुभ दीपावली।

- Alaknanda singh

गुरुवार, 12 अक्टूबर 2017

शोषण की नई भाषा गढ़ता 'फंसाने' का चलन और बच्‍चियां

Photo Courtsy: Google
कल अंतर्राष्‍ट्रीय बालिका दिवस पर बेटियों के लिए बहुत कुछ सुना,  देखा और पढ़ा भी। सभी कुछ बेहद भावनात्‍मक था। कल इसी बालिका  दिवस पर बच्‍चियों को सुप्रीम कोर्ट ने भी बड़ी सौगात दे दी।

सुप्रीम कोर्ट ने बालविवाह जैसी कुरीतियों पर प्रहार करते हुए ऐतिहासिक  निर्णय दिया कि अब नाबालिग पत्‍नी से संबंध बनाने को 'रेप' माना  जाएगा और इसमें पॉक्‍सो एक्‍ट के तहत कार्यवाही होगी।
आदेश का सबसे महत्‍वपूर्ण पहलू यह है कि उक्‍त निर्णय देश के सभी  धर्मों, संप्रदायों और वर्गों पर समान रूप से लागू होगा। कोर्ट ने इसके  साथ ही रेप के प्रावधान आईपीसी की धारा 375 के 'अपवाद'-2 में जो  उम्र का उल्‍लेख '15 से कम नहीं' दिया गया है, को हटाकर '18 से कम  नहीं' कर दिया। इस 'अपवाद-2' में 15 वर्ष की उम्र वाली लड़की के साथ  विवाह के उपरांत यौन संबंध बनाने को 'रेप नहीं' माना गया था।

ज़ाहिर है ये 'अपवाद-2' ही उन लोगों के लिए हथियार था जो बालविवाह  को संपन्‍न कराते थे। बाल विवाह निवारण कानून की धारा 13 से प्राप्‍त  आंकड़े बताते हैं कि हर अक्षय तृतीया पर हमारे देश में हजारों बाल  विवाह होते हैं, जिसके बाद कम उम्र की दुल्‍हनें यानि बच्‍चियों को  यौनदासी बनने पर विवश किया जाता है।
हम सभी जानते हैं कि दंड के बिना कोई भी कुरीति से जूझना आसान  नहीं होता है क्‍योंकि यह समाज में घुन की तरह समाई हुई है।  ऐसे में  यह ऐतिहासिक फैसला इससे निपटने के लिए बड़ा हथियार साबित  होगा। बच्‍चियों के हक में इसके दूरगामी परिणाम भी अच्‍छे होंगे। हम  जानते हैं कि पति-पत्‍नी के बीच 'बराबरी के अलावा जीवन व व्‍यक्‍तिगत  आजादी का अधिकार' देने वाले कानून भी हैं मगर विवाहित नाबालिगों  के साथ ज्‍यादती भी तो कम नहीं हैं।

बच्‍चियों के शारीरिक व मानसिक विकास की धज्‍जियां उड़ाई जाती रही  हैं, और यह सिर्फ इसलिए होता रहा क्‍योंकि सरकारें विवाहोपरांत संबंध  को परिभाषित करते हुए रेप की धारा में 'अपवाद-2' को जोड़कर  बालविवाह बंद करने का फौरी ढकोसला करती रहीं और बच्‍चियां इनकी  भेंट चढ़ती रहीं। इतना ही नहीं, यौन संबंध बनाने को सहमति की उम्र  भी 15 से बढ़ाकर 18 तब की गई, जब निर्भया केस हुआ।   

इंडिपेंडेंट थॉट नामक संगठन की याचिका पर दिए गए इस ऐतिहासिक   फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह व्‍यवस्‍था दी है कि 18 वर्ष से कम उम्र की  पत्‍नी के साथ सेक्‍स 'रेप' ही होगा और लड़की की शिकायत पर पुलिस  रेप का केस दर्ज कर सकती है।

कोर्ट के आदेश की आखिरी लाइन ''लड़की की शिकायत मिलने पर  पुलिस रेप का केस दर्ज कर सकती है'' बस यही आखिरी लाइन कोर्ट के  फैसले की इस नई व्‍यवस्‍था के दुरुपयोग की पूरी-पूरी संभावना पैदा  करती है। मेरी आशंका उस आपराधिक मानसिकता को लेकर है जो हर  कानून को मानने से पहले उसके दुरुपयोग के बारे में पहले ही अपने  आंकड़े बैठा लेती है।

दहेजविरोधी कानून, बलात्‍कार विरोधी कानून, पॉक्‍सो, यौन शोषण की  धाराएं किस कदर मजाक का विषय बन गए हैं, इसके उदाहरण हर रोज  बढ़ते जा रहे हैं। अनेक निरपराध परिवार जेल में सिर्फ इन कानूनों के  दुरुपयोग की सजा भुगत रहे हैं। अब महिला-पुरुष के बीच स्‍वाभाविक  संबंध भी आशंकाओं से घिरते जा रहे हैं। इन सभी कानूनों को अब  महिलाऐं भी ब्‍लैकमेलिंग के लिए खूब प्रयोग करने लगी हैं।

कार्यस्‍थल पर महिला कर्मचारी हों या घरों में काम करने वाली मेड, मन  मुताबिक शादी न होने पर 'बहू' द्वारा दहेज मांगने का आरोप लगाने का  चलन हो या अपनी बच्‍ची या बच्‍चे को आगे कर पॉक्‍सो के तहत  'फंसाने' का चलन। इन सबका दुरुपयोग जमकर हो रहा है मगर इन  सामाजिक-उच्‍छृंखलताओं और बदले की भावनाओं का तोड़ तो तब तक  नहीं हो सकता जब तक कि समाज के भीतर से आवाज न उठे।

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इतना तो अवश्‍य होगा कि समाज  की बेहतरी और 'सच में पीड़ित' बच्‍चियों के लिए लड़ने वालों को हौसला  मिल जाएगा।

इन्‍हीं विषयों पर मैं कुछ इस तरह सोचती हूं कि-

रोज नए प्रतिमान गढ़े
रोज नया सूरज देखा
पर अब भी राहु की छाया का
भय अंतस मन से नहीं गया,
लिंगभेद का ये दानव,
अपने संग लेकर आया है-
कुछ नए राहुओं की छाया,
कुछ नई जमातें शोषण की,
कि सीख रही हैं स्‍त्रियां भी-
अब नई भाषाएं शोषण की।

-अलकनंदा सिंह

गुरुवार, 5 अक्टूबर 2017

बतर्ज़ अताउल मुस्‍तफा...हाईकोर्ट ने दिखाया आईना

क्‍यों उनकी राष्‍ट्रभक्‍ति वीडियोग्राफी की मोहताज है

यदि खुशहाल जीवन जीने के लिए प्रेम, कर्तव्‍य और मौलिक  अधिकारों में से किसी एक का चुनाव करने को कहा जाए तो आप  किसे चुनेंगे।
जहां तक मेरा ख्‍याल है, जीवन को सही और संतोषपूर्वक जीने के  लिए इन सभी की आवश्‍यकता होती है परंतु जब आप ये सोच लेते  हैं कि ''जो आप सोच रहे हैं वह ही आखिरी सत्‍य है'' तो फिर  किसी अन्‍य का समझाना भी कोई मायने नहीं रखता।

राष्‍ट्र के प्रति प्रेम, कर्तव्‍य और राष्‍ट्र को 'राष्‍ट्र' बनाए रखने के  लिए प्राप्‍त मौलिक अधिकारों के नाम पर आजकल जो 'खेल' होने  लगा है और राष्‍ट्र की एकता के लिए जायज हर बात को  राजनैतिक चश्‍मे से देखा जाने लगा है, उसके मद्देनजर यह जरूरी  हो गया है कि राष्‍ट्र के प्रति जवाबदेही भी तय की जानी चाहिए।

कल इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्‍वपूर्ण फैसले में कहा है कि  संविधान का सहारा सिर्फ अधिकारों का ढिंढोरा पीटने के लिए नहीं  लिया जाना चाहिए, कर्तव्‍यों को भी समझना चाहिए। राष्‍ट्रगान और  राष्ट्रध्‍वज का सम्‍मान करना प्रत्‍येक नागरिक का कर्तव्‍य है,  इसलिए राष्‍ट्रगान गाना और राष्‍ट्रध्‍वज फहराना, सभी शिक्षण  संस्‍थाओं व अन्‍य संस्‍थानों के लिए अनिवार्य है।

यह बातें चीफ जस्‍टिस डी. बी. भोंसले व जस्‍टिस यशवंत वर्मा की  खंडपीठ ने मऊ के अताउल मुस्‍तफा की उस याचिका को खारिज  करते हुए कहीं जिसमें प्रदेश सरकार के 3 अगस्‍त 2017 व 6  सितंबर 2017 के उस शासनादेश को चुनौती दी गई थी जिसमें  प्रदेशभर के मदरसों में अनिवार्य रूप से राष्‍ट्रगान करने की बात  लिखी थी। अताउल मुस्‍तफा ने इस साशनादेश को रद्द करने की  मांग की थी और इसे ''देशभक्‍ति थोपना'' बताया था। मुस्‍तफा ने  तो याचिका में यहां तक कह दिया कि यदि इसे अनिवार्य किया  जाता है तो यह उनकी धार्मिक आस्‍था और विश्‍वास के विरुद्ध है। 

याचिकाकर्ता अताउल मुस्‍तफा और इसकी जैसी सोच रखने वालों ने  क्‍या कभी ये भी सोचा है कि आखिर प्रदेश सरकार को मदरसों के  लिए ही ऐसा आदेश देने की जरूरत क्‍यों पड़ी, और इससे भी  ज्‍यादा शर्म की बात ये कि राष्‍ट्रगान व राष्‍ट्रध्‍वज के लिए 'सर्कुलर'  जारी करना पड़ा। जो कार्य स्‍वभावत: किये जाने चाहिए उसके लिए  सरकार को 'कहना' क्‍यों पड़ा? 

समझ में नहीं आता कि भाजपा सरकारों के हर कदम को  कट्टरवादी लोग मुस्‍लिम' विरोधी ही क्‍यों समझते हैं, क्‍या एक  राष्‍ट्र-एकभावना से काम नहीं किया जा सकता। क्‍या मुस्‍लिम इस  देश में मेहमान हैं। मीडिया में भी इन्‍हें ही 'संप्रदाय विशेष' क्‍यों कहा जाता  है। क्‍यों अधिकांश मुस्‍लिम, संविधान प्रदत्त अधिकारों की बात तो  करते हैं किंतु राष्‍ट्र के प्रति अपने कर्तव्‍य को नहीं समझते।  अल्‍पसंख्‍यकों में एक मुस्‍लिम वर्ग ही ऐसा है जो राजनीति से  लेकर नीतिगत फैसलों तक तथा राष्‍ट्र की सुरक्षा से लेकर शांति  कायम रखने के प्रयासों तक में टांग अड़ाता है और स्‍वयं को  दबा-कुचला तथा ''बेचारा'' साबित करने में लगा रहता है।

जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी की और उसके बाद उत्‍तर प्रदेश में योगी  आदित्‍यनाथ की सरकार बनी है तभी से अचानक लोगों को मौलिक  अधिकार, धार्मिक अधिकार, ''खाने-पीने'' का अधिकार, देश की  अस्‍मिता को गरियाने का अधिकार, धार्मिक भावना के नाम पर  अराजकता का अधिकार याद आने लगा है। अचानक उन्‍हें लगा कि  ''अरे, ये भी तो मुद्दे हैं जिन पर सरकार को घेरा जा सकता है,  और सीधे सरकार न घिर सके तो कोर्ट के ज़रिए उसे और उसके  निर्णयों को चुनौती दी जा सकती है''। कर्तव्‍यों को ताक पर रखकर  अधिकारों की इस मुहिम को चलाने वाले इन तत्‍वों को संभवत: ये  पता नहीं था कि उनकी हर बात बूमरैंग की भांति उन पर ही भारी  पड़ने वाली है।

हाईकोर्ट ने मुस्‍तफा की याचिका खारिज करते हुए प्रदेश के  मुख्‍यसचिव को इस आशय का निर्देश भी दिया है कि सभी  मदरसों-शिक्षण संस्‍थाओं में राष्‍ट्रगान और राष्‍ट्रध्‍वज संबंधी दिए  गए राज्‍य सरकार के आदेश-निर्देशों का पालन करायें।

कितने कमाल की बात है कि राष्ट्रगान गाने के विरुद्ध कोर्ट में  याचिका लगायी जाती है और बात बात पर कैंडल मार्च निकालने वाले सभी बुद्धिजीवी खामोश रहते हैं।

पहले राष्‍ट्रगीत वन्दे मातरम्, अब राष्ट्रगान और फिर तिरंगा  फहराने पर आपत्‍ति, आखिर कट्टरवादियों की ये मुहिम कहां जाकर  ठहरेगी अथवा ये हर मुद्दे पर कोर्ट के आदेश-निर्देशों को ही मानने  के लिए बाध्‍य होंगे।

लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत यह अधिकारों का मजाक उड़ाना तो है  ही, साथ ही लाखों मुकद्दमों की सुनवाई के बोझ से दबी  न्‍यायपालिका के समय का दुरुपयोग करना भी है।
बहरहाल यह सोच ही शर्मनाक और आत्‍मघाती है लिहाजा इस पर  पाबंदी लगानी चाहिए वरना आज तक प्रचलित यह ''जुमला'' कि  हर मुसलमान बेशक आतंकवादी नहीं होता किंतु हर आतंकवादी,  मुसलमान ही क्‍यों होता है, आगे चलकर कड़वा सच न बन जाए।  राष्‍ट्र के प्रति सम्‍मान का भाव न रखने की ऐसी सोच ही कहीं  मुसलमानों को ऐसे रास्‍ते पर तो नहीं ले जा रही जहां उसका  खामियाजा पूरी कौम को भुगतना पड़ जाए और उनकी राष्‍ट्रभक्‍ति  पर हमेशा के लिए सवालिया निशान लग जाए। म्‍यांमार के  रोहिंग्‍या मुसलमानों का दर-दर भटकना इस स्‍थिति के आंकलन  करने का मौका दे रहा है,बशर्ते कट्टरवादी इसे समझने को तैयार  हों। म्‍यांमार उन्‍हें नागरिकता देने को तैयार नहीं है और बांग्‍लादेश  तथा चीन जैसे मुल्‍क उन्‍हें शरण देने से परहेज कर रहे हैं। और  तो और इस्‍लाम के नाम पर भारत से अलग हुआ पाकिस्‍तान भी  उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखता।   
बेहतर हो कि मुस्‍लिम खुद को राष्‍ट्र के जिम्‍मेदार नागरिक की तरह पेश करें और कठमुल्‍लों  एवं वोट के सौदागरों का मोहरा बनने की बजाय विचार करें कि  उनके क्रिया-कलाप शक के दायरे में क्‍यों आते जा रहे हैं।  जिस  दिन वह इस दिशा में विचार करने लगेंगे, उस दिन उन्‍हें यह भी  समझ में आ जाएगा कि किसी सरकार को क्‍यों मदरसों के अंदर  राष्‍ट्रगान के लिए आदेश देना पड़ता है और क्‍यों उनकी राष्‍ट्रभक्‍ति  वीडियोग्राफी की मोहताज है। 
- अलकनंदा सिंह