सबसे पहले एक शेर-
बड़े खौफ़ में रहते हैं वो, जो ज़हीन होते हैं
मगर खौफ़ की मौत तो जाहिल मरा करते हैं...
और इन्हीं दो पंक्तियों के साथ आज सुबह तक चोटी काटने की घटनाओं की संख्या बढ़कर 62 पहुंच गई।
ग़ज़ब है इस देश की रंगत कि हर छ: महीने के अंतराल पर कोई न कोई ऐसी अफवाह मुहैया करा देती है जो लोगों के ''ज़ाहिल होने'' का फायदा बखूबी उठाती है।
गाहे ब गाहे फैलने वाली इन अफवाहों के चलन पर गौर करें तो एक बात इनमें कॉमन है कि इनके शिकार और शिकारी दोनों ही उस तबके से आते हैं जहां जागरूकता का नामोनिशान नहीं होता, ये दायरा गांव-खेड़े से लेकर शहर के उन लोगों तक फैला है जो किसी भी बात को जांच-परखने की बजाय जस का तस मान लेने के आदी होते हैं। इन्हीं का फायदा धर्म के छद्म गुरुओं से लेकर तांत्रिकों तक उठाया जाता है, एक कदम और आगे बढ़कर बाजार भी इन्हें कैश करने में पीछे नहीं रहता।
डर का बाजार से बहुत बड़ा रिश्ता है। लोगों में बीमारियों का डर फैलाकर दवा कंपनियां और चिकित्सक हों या गरीब होने का डर फैलाकर चिटफंड कंपनियां, करियर में पीछे रह जाने का डर फैलाकर टैक्निकल एजूकेशन संस्थान, पति-भाई-पिता की 'उम्र कम' हो जाने का डर फैलाकर कई त्यौहारों को अपने तरीके से सैलिब्रेट करन वाने वाली कंपनियां हों, सभी डर फैलाकर अपनी मार्केटिंग का स्कोप बढ़ा रहे हैं। तो फिर चोटी काटने की अफवाह को सच कैसे मान लिया जाए।
यह और कुछ नहीं मास हिस्टीरिया नाम की मानसिक समस्या है। इस समस्या के तहत एक स्थान विशेष में रहने वाला पूरा समूह किसी अफवाह पर भरोसा कर लेता है और उसे सच मानने लगता है। और तो और इन्हें सच मानकर लोग इस तरह की हरकतें करने भी लगते हैं। इसी तरह एक बार मुंहनोचवा की खबर फैली थी जिसे आजतक किसी ने नहीं देखा लेकिन अफवाह पर लोगों को इतना विश्वास हो गया कि सोते वक्त उन्हें लगने लगा कि कोई उन्हें नोचकर भाग रहा है।
मास हिस्टीरिया के ऐसे केस भारत में होते हों , ऐसा नहीं है बल्कि यह पूरे विश्व में फैले हुए हैं तभी तो ''इकॉनॉमिक वॉरफेयर: सीक्रेट ऑफ वेल्थ क्रिएशन इन द एज ऑफ वेलफेयर पॉलिटिक्स'' के लेखक जायद के. अब्देलनर कहते हैं कि
“Always remember... Rumors are carried
by haters, spread by fools, and
accepted by idiots.”
होम्योपैथी में तो बाकायदा किसी भी रोग का इलाज ही मानसिक लक्षणों के आधार पर किया जाता है और मास व इंडीविजुअल हिस्टीरिया के लक्षणों में पाया गया है कि रोगी को हमेशा अपने आसपास कोई छाया सी महसूस होती है, कभी कोई दूसरा (invisible) उन्हें शरीर के अमुक अंगों पर कोच रहा होता है, कभी रोगी को लगता है कि उसके शरीर में बहुत दर्द व जलन है जबकि पैथॉलॉजिकली लक्षण किसी बीमारी के नहीं मिलते। इन मानसिक अवस्थाओं के लक्षणों वाले रोगियों को होम्योपैथी में दवाओं से ठीक करने का निश्चित प्रावधान है।
अफवाहों के इस बाजार में मीडिया का भी अपना हिस्सा है, वह ज़रा सी बात को तूल देने का आदी है, रीडर्स और व्यूअर्स की संख्या का लालच सारे एथिक्स किनारे करवा देता है और जागरूकता फैलाने के लिए जिस माध्यम को प्रयुक्त किया जाना चाहिए, वह फ्रंट पेज पर चोटी कटने की घटनाओं को लीड बनाकर अपना जहालत और लालच दोनों दिखा देता है। चोटी कटी, अस्त-व्यस्त कपड़ों में बेहोश पड़ी महिलाओं के फोटो आज के हर समाचारपत्र का चेहरा होते हैं। जिन्हें जागरूकता फैलाने और अंधविश्वास को हटाने का माध्यम बनना चाहिए, वे भी अफवाहों से अपना कलेक्शन करने की सोच रहे हैं।
बहरहाल अफवाहें हमारी अपनी सोच का आइना होती हैं, हमारी सोच जितनी डरी हुई होगी उतनी ही ''किसी और की बात'' ''किसी और का सच'' '' किसी और का चरित्र'' अपने मनमुताबिक ढाल लेगी। ''किसी और'' के लिए किया गया आंकलन स्वयं की सोच पर आधारित होता है।
पुलिस-प्रशासन चाहे कितनी भी एडवाइजरी जारी कर दे मगर चोटी कटने जैसी इस डरी हुई सोच का इलाज तो प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं करना होगा।
समाज में अंधविश्वास के प्रति लगातार जागरुकता अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है। सामाजिक चेतना ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जो अफवाहों की संक्रामकता को कम कर सकता है।
और अंत में एक अनाम कवि की कविता- इन अफवाहों के नाम
अफवाहें भी उड़ती/उड़ाई जाती हैं,
जैसे जुगनुओं ने मिलकर
जंगल में आग लगाई
तो कोई उठे कोहरे को
उठी आग का धुंआ बता रहा
तरुणा लिए शाखों पर उग रहे
आमों के बोरों के बीच
छुप कर बैठी कोयल
जैसे पुकार कर कह रही हो
बुझा लो उड़ती अफवाहों की आग
मेरी मिठास सी कुह-कुहू पर ना जाओ
ध्यान ना दो उड़ती अफवाहों पर
सच तो यह है कि अफवाहों से
उम्मीदों के दीये नहीं जला करते
बल्कि उम्मीदों पर पानी फिर जाता है
ख्वाब कभी अफवाह नहीं बनते
और यदि ऐसा होता तो अफवाहें
मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे,गिरजाघर से
अपनी जिंदगी की भीख
भला क्यों मांगती ?
- अलकनंदा सिंह
Blog: www.abchhodobhi.blogspot.in
बड़े खौफ़ में रहते हैं वो, जो ज़हीन होते हैं
मगर खौफ़ की मौत तो जाहिल मरा करते हैं...
और इन्हीं दो पंक्तियों के साथ आज सुबह तक चोटी काटने की घटनाओं की संख्या बढ़कर 62 पहुंच गई।
ग़ज़ब है इस देश की रंगत कि हर छ: महीने के अंतराल पर कोई न कोई ऐसी अफवाह मुहैया करा देती है जो लोगों के ''ज़ाहिल होने'' का फायदा बखूबी उठाती है।
गाहे ब गाहे फैलने वाली इन अफवाहों के चलन पर गौर करें तो एक बात इनमें कॉमन है कि इनके शिकार और शिकारी दोनों ही उस तबके से आते हैं जहां जागरूकता का नामोनिशान नहीं होता, ये दायरा गांव-खेड़े से लेकर शहर के उन लोगों तक फैला है जो किसी भी बात को जांच-परखने की बजाय जस का तस मान लेने के आदी होते हैं। इन्हीं का फायदा धर्म के छद्म गुरुओं से लेकर तांत्रिकों तक उठाया जाता है, एक कदम और आगे बढ़कर बाजार भी इन्हें कैश करने में पीछे नहीं रहता।
डर का बाजार से बहुत बड़ा रिश्ता है। लोगों में बीमारियों का डर फैलाकर दवा कंपनियां और चिकित्सक हों या गरीब होने का डर फैलाकर चिटफंड कंपनियां, करियर में पीछे रह जाने का डर फैलाकर टैक्निकल एजूकेशन संस्थान, पति-भाई-पिता की 'उम्र कम' हो जाने का डर फैलाकर कई त्यौहारों को अपने तरीके से सैलिब्रेट करन वाने वाली कंपनियां हों, सभी डर फैलाकर अपनी मार्केटिंग का स्कोप बढ़ा रहे हैं। तो फिर चोटी काटने की अफवाह को सच कैसे मान लिया जाए।
यह और कुछ नहीं मास हिस्टीरिया नाम की मानसिक समस्या है। इस समस्या के तहत एक स्थान विशेष में रहने वाला पूरा समूह किसी अफवाह पर भरोसा कर लेता है और उसे सच मानने लगता है। और तो और इन्हें सच मानकर लोग इस तरह की हरकतें करने भी लगते हैं। इसी तरह एक बार मुंहनोचवा की खबर फैली थी जिसे आजतक किसी ने नहीं देखा लेकिन अफवाह पर लोगों को इतना विश्वास हो गया कि सोते वक्त उन्हें लगने लगा कि कोई उन्हें नोचकर भाग रहा है।
मास हिस्टीरिया के ऐसे केस भारत में होते हों , ऐसा नहीं है बल्कि यह पूरे विश्व में फैले हुए हैं तभी तो ''इकॉनॉमिक वॉरफेयर: सीक्रेट ऑफ वेल्थ क्रिएशन इन द एज ऑफ वेलफेयर पॉलिटिक्स'' के लेखक जायद के. अब्देलनर कहते हैं कि
“Always remember... Rumors are carried
by haters, spread by fools, and
accepted by idiots.”
होम्योपैथी में तो बाकायदा किसी भी रोग का इलाज ही मानसिक लक्षणों के आधार पर किया जाता है और मास व इंडीविजुअल हिस्टीरिया के लक्षणों में पाया गया है कि रोगी को हमेशा अपने आसपास कोई छाया सी महसूस होती है, कभी कोई दूसरा (invisible) उन्हें शरीर के अमुक अंगों पर कोच रहा होता है, कभी रोगी को लगता है कि उसके शरीर में बहुत दर्द व जलन है जबकि पैथॉलॉजिकली लक्षण किसी बीमारी के नहीं मिलते। इन मानसिक अवस्थाओं के लक्षणों वाले रोगियों को होम्योपैथी में दवाओं से ठीक करने का निश्चित प्रावधान है।
अफवाहों के इस बाजार में मीडिया का भी अपना हिस्सा है, वह ज़रा सी बात को तूल देने का आदी है, रीडर्स और व्यूअर्स की संख्या का लालच सारे एथिक्स किनारे करवा देता है और जागरूकता फैलाने के लिए जिस माध्यम को प्रयुक्त किया जाना चाहिए, वह फ्रंट पेज पर चोटी कटने की घटनाओं को लीड बनाकर अपना जहालत और लालच दोनों दिखा देता है। चोटी कटी, अस्त-व्यस्त कपड़ों में बेहोश पड़ी महिलाओं के फोटो आज के हर समाचारपत्र का चेहरा होते हैं। जिन्हें जागरूकता फैलाने और अंधविश्वास को हटाने का माध्यम बनना चाहिए, वे भी अफवाहों से अपना कलेक्शन करने की सोच रहे हैं।
बहरहाल अफवाहें हमारी अपनी सोच का आइना होती हैं, हमारी सोच जितनी डरी हुई होगी उतनी ही ''किसी और की बात'' ''किसी और का सच'' '' किसी और का चरित्र'' अपने मनमुताबिक ढाल लेगी। ''किसी और'' के लिए किया गया आंकलन स्वयं की सोच पर आधारित होता है।
चोटी कटवा: पुलिस-प्रशासन की एडवाइजरी |
पुलिस-प्रशासन चाहे कितनी भी एडवाइजरी जारी कर दे मगर चोटी कटने जैसी इस डरी हुई सोच का इलाज तो प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं करना होगा।
समाज में अंधविश्वास के प्रति लगातार जागरुकता अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है। सामाजिक चेतना ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जो अफवाहों की संक्रामकता को कम कर सकता है।
और अंत में एक अनाम कवि की कविता- इन अफवाहों के नाम
अफवाहें भी उड़ती/उड़ाई जाती हैं,
जैसे जुगनुओं ने मिलकर
जंगल में आग लगाई
तो कोई उठे कोहरे को
उठी आग का धुंआ बता रहा
तरुणा लिए शाखों पर उग रहे
आमों के बोरों के बीच
छुप कर बैठी कोयल
जैसे पुकार कर कह रही हो
बुझा लो उड़ती अफवाहों की आग
मेरी मिठास सी कुह-कुहू पर ना जाओ
ध्यान ना दो उड़ती अफवाहों पर
सच तो यह है कि अफवाहों से
उम्मीदों के दीये नहीं जला करते
बल्कि उम्मीदों पर पानी फिर जाता है
ख्वाब कभी अफवाह नहीं बनते
और यदि ऐसा होता तो अफवाहें
मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे,गिरजाघर से
अपनी जिंदगी की भीख
भला क्यों मांगती ?
- अलकनंदा सिंह
Blog: www.abchhodobhi.blogspot.in
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें