ये बदहवास सा वक्त हमारी रूहों के गिर्द कुछ इस तरह चस्पा किया जा चुका है कि तमाम कोशिशें नाकाफी मालूम पड़ती हैं, बावजूद इसके हम मायूस नहीं हैं, कतई नहीं। ऐसा लगता है कि हम जितना आगे जाने की कोशिश करते हैं, उतनी ही हमारी टांगें पीछे की ओर खींचने वाले पहले से ताक लगाए बैठे हैं।
जंतर-मंतर पर बुधवार को एक खास वर्ग द्वारा #NotInMyName अभियान के ज़रिये देशभर में व्याप्त उस हिंसक ''माहौल के खिलाफ प्रदर्शन'' किया गया जिसे यह वर्ग ''प्रायोजित हिंसा'' मानता है। और यह भी मानता है कि इस हिंसा को सरकारी संरक्षण प्राप्त है। खासकर केंद्र की मोदी सरकार का और उन प्रदेश की भाजपा शासित सरकारों का।
प्रदर्शनकारियों में वो सारे लोग भी शामिल थे जो बीफ खाने के पक्षधर हैं और इस माहौल को अपनी और अपनी जैसी पूर्वाग्रही ''सेक्यूलर सोच'' वाले कथित इलीट पत्रकारों के दृष्टिकोण से परिभाषित करते हुए हैशटैग चलाते हैं।
ये प्रदर्शनकारी ''भीड़ द्वारा हत्या'' किए जाने की घटनाओं के खिलाफ आधे सच के साथ अपना पक्ष रख रहे थे क्योंकि पूरा सच वो बोल नहीं सकते।
क्योंकि पूरा सच उनकी कुत्सित सोच और उनके इलीट वर्ग द्वारा भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारों के खिलाफ रची जा रही सुनियोजित साजिश को सामने ला सकता है। वे सिर्फ उन घटनाओं का ज़िक्र कर रहे थे जिसमें कथित गौरक्षकों का टारगेट कोई न कोई मुस्लिम बना था और जिसके सहारे बड़ी सहजता के साथ दक्षिणपंथी राजनीति को जोड़ा जा सकता था। वो उन घटनाओं का जि़क्र नहीं कर रहे थे जिसमें भीड़ की हिंसक प्रवृत्ति का शिकार सामान्य वर्ग के लोग हुए। वो उस घटना का भी जिक्र नहीं कर रहे थे जिसमें जम्मू कश्मीर पुलिस के डीएसपी अब्दुल अयूब पंडित की जान ले ली गई। ये प्रदर्शनकारी उन हिन्दुओं की बेरहम हत्याओं पर भी चुप थे जो केरल में मुस्लिमों द्वारा लगातार की जा रही हैं।
भीड़ तो वह भी हत्यारी ही कही जाएगी जो किसी महिला को डायन कहकर उसे मार डालती है किंतु क्राइम और क्राइम की मानसिकता को खांचों में बांटकर देखे जाने के कारण ही अब स्थितियां इतनी भयावह हो गई हैं कि गौ पालने वाले मुस्लिम को भी गौहत्यारों के रूप में प्रचारित किया जा रहा है तथा गायों की रक्षा करने के नाम पर गेरुआ वस्त्र व टीका लगाकर रहने वाले अपराधियों को गौरक्षक, लेकिन डायन बताकर निरीह महिलाओं की हत्या को सामान्य अपराध की श्रेणी में रखा जाता है।
जहां तक बात है गौभक्ति की, तो गौभक्ति की आड़ में किसी इंसान की हत्या को सही सिद्ध नहीं किया जा सकता लिहाजा प्रदर्शन अपराधी मानसिकता के खिलाफ होने चाहिए, न कि राजनीति चमकाने के लिए मोदी सरकार अथवा दक्षिणपंथी सरकारों के खिलाफ।
पूर्वाग्रह से ग्रस्त ऐसे विरोध इसीलिए दिल्ली में जंतर-मंतर तक ही सिमटे रहते हैं और चंद घंटों अथवा चंद दिनों में दिमाग से निकल जाते हैं। कुछ एनजीओ को सामने लाकर एनडीटीवी की ऐसे प्रदर्शनों में सहभागिता बताती है कि इससे व्यावसायिक व राजनैतिक वजहें भी जुड़ी हैं।
बहरहाल, #NotInMyName अभियान में शामिल तत्वों ने अपने विचारों से यह ज़ाहिर करा दिया कि उनकी पूरी कवायद मौजूदा केंद्र सरकार के खिलाफ थी, ना कि हिंसक घटनाओं के खिलाफ क्योंकि इन लोगों के अनुसार हिंसा का यह माहौल 2015 के बाद से बना है और 2014 में मोदी की सरकार बनने के साथ इसकी शुरूआत हुई है।
गौरतलब है कि 2015 में बीफ रखने की आशंका के मद्देजनर गाजियाबाद निवासी अखलाक की हत्या कर दी गई थी।
अखलाक की हत्या के बाद से लगातार ये खास वर्ग कुछ-कुछ समय के अंतराल पर किसी न किसी घटना को मुद्दा बनाकर प्रदर्शन करता रहा है। इस बार के प्रदर्शन का मुद्दा भीड़ द्वारा सिर्फ मुस्लिमों की हत्या किए जाना बनाया गया।
मुठ्ठीभर प्रदर्शनकारियों के सहारे प्रदर्शन के प्रायोजक टीवी चैनल्स यह भी दर्शाने की कोशिश कर रहे थे कि पूरे देश में ऐसी ''हिंसा'' के खिलाफ जबर्दस्त गुस्सा है मगर वे यह भूल गए कि न तो वामपंथ के नजरिए से पूरा देश देखता है और न दिल्ली के जंतर-मंतर पर इकठ्ठा होने वाले खास सोच के लोग पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं।
जिस मीडिया और सोशल मीडिया को माध्यम बनाकर वो ''देश में अभिव्यक्ति की आजादी ना होने'' का कथित सच दिखा रहे थे, वह भी सिक्के का एक ही पहलू है।
उनके इस सच का दूसरा पहलू शाम होते-होते कन्हैया कुमार व उमर खालिद की उपस्थिति के रूप में सबके सामने आ गया और सोशल मीडिया को भी पता लग गया कि कितने दोगलेपन के साथ चलाया जा रहा था #NotInMyName अभियान। सोशल मीडिया के ही माध्यम से ऐसी सेल्फी और तस्वीरें भी सामने आईं जिनमें उमर खालिद मुस्कुराकर अपने ''प्रशंसकों'' को ''पोज'' दे रहा था।
कुछ गंभीर प्रश्न उमर खालिद और कन्हैया कुमार की उपस्थिति और मुस्कुराकर सेल्फी लेने से उभरते हैं। जैसे अगर ये अभियान भीड़ द्वारा मुस्लिमों की हत्या की भर्त्सना के लिए चलाया जा रहा था तो इसमें कोई हिन्दू विक्टिम शामिल क्यों नहीं था। उसमें केरल के आरएसएस कार्यकर्ताओं की हत्या को स्थान देने से क्यों परहेज किया गया। धार्मिक भावनाएं तो उनके साथ भी जुड़ी होती हैं।
जंतर-मंतर के वामपंथी प्रदर्शनकारियों और उनके प्रायोजक टीवी एंकर्स को 1984 के सिख विरोधी दंगे भी याद तो जरूर होंगे। इन दंगों में मारे गए हजारों निर्दोष सिखों के परिजन आज तक उनके और अपने गुनाह की वजह पूछते फिर रहे हैं। शासन-प्रशासन से लेकर न्यायपालिकाओं तक की चौखट पर पगड़ी रख रहे हैं। सात समंदर पार से भी आवाजें बुलंद कर रहे हैं किंतु उनके लिए कोई तथाकथित बुद्धिजीवी न तो प्रदर्शन करता है और न अपने अवार्ड लौटाता है क्योंकि इन बुद्धिजीवियों की नजर में वह कोई हिंसा नहीं थी। उस हिंसा के शिकार इंसान नहीं, एक कौम भर थे। ऐसी कौम जिससे राजनीति के तवे पर रोटी सेंकने का वक्त गुजर गया। बस लकीर पीटी जा रही है, और वह भी पीड़ित परिवारों द्वारा। उस नरसंहार के राजनीतिक हित जितने पूरे हो सकते थे, हो चुके। वह आउटडेटेड हो चुका है। ताजा मुद्दा दक्षिणपंथी सत्ता पर चोट करने का है।
मुझे तो हास्यास्पद ये भी लगा कि आत्ममुग्धता के शिकार एनडीटीवी के कथित बुद्धिजीवी पत्रकार रवीश कुमार प्रदर्शन में भाग लेने वाली रामजस कॉलेज की छात्राओं से पूछ रहे थे कि क्या आपको डर लगता है?
रवीश को कौन समझाए कि डरे हुए लोग घरों की चारदीवारी के अंदर दरवाजे बंद करके रहते हैं न कि सरकार विरोधी तख्तियों के साथ जंतर-मंतर पर प्रदर्शन की पिकनिक में शामिल होते हैं।
सच तो यह है कि मुसलमानों को मिला ये कथित राजनैतिक विशिष्टता का दर्जा ही हिन्दू-मुस्लिम के बीच दिन-प्रतिदिन खाई चौड़ी करने का काम कर रहा है और इसी की परिणति है कि अपराधियों की भीड़ को भी धर्म के आधार पर रेखांकित किया जाने लगा है।
विक्टिम चाहे मुस्लिम हो या फिर हिंदू, वह सिर्फ विक्टिम होता है और न्याय का सिद्धांत उसका धार्मिक विभाजन करने की इजाजत नहीं देता।
इस माहौल में जब कि प. बंगाल, केरल और कश्मीर से लेकर मध्य भारत तक वैचारिक, मानसिक एवं राजनैतिक खलबली मची हुई है, ''आलम खुर्शीद'' की ये नज़्म एकदम फिट बैठती है-
दरवाज़े पर दस्तक देते डर लगता है
सहमा-सहमा-सा अब मेरा घर लगता है
साज़िश होती रहती है दीवार ओ दर में
घर से अच्छा अब मुझको बाहर लगता है
झुक कर चलने की आदत पड़ जाए शायद
सर जो उठाऊँ दरवाज़े में सर लगता है
क्यों हर बार निशाना मैं ही बन जाता हूँ
क्यों हर पत्थर मेरे ही सर पर लगता है
ज़िक्र करूँ क्या उस की ज़ुल्म ओ तशद्दुद का मैं
फूल भी जिसके हाथों में पत्थर लगता है
लौट के आया हूँ मैं तपते सहराओं से
शबनम का क़तरा मुझको सागर लगता है
ठीक नहीं है इतना अच्छा बन जाना भी
जिस को देखूँ वो मुझ से बेहतर लगता है
इक मुद्दत पर आलम बाग़ में आया हूँ मैं
बदला-बदला-सा हर इक मंज़र लगता है।
यह नज़्म इसलिए फिट बैठती है कि इसे धर्म, जाति तथा संप्रदाय के खांचों में बांटकर नहीं लिखा गया। इसे हर उस सामान्य नागरिक के नजरिए से लिखा गया है जो हर हिंसक प्रवृत्ति से डरता है। फिर चाहे वो हिंसा मानसिक हो या शारीरिक, राजनीतिक हो या कूटनीतिक।
गांधी बापू ने यूं ही नहीं कहा था कि हिंसा का तात्पर्य सिर्फ हथियार से ही नहीं होता, वैचारिक हिंसा हथियारों की हिंसा से कहीं अधिक घातक और कहीं अधिक मारक होती है।
- अलकनंदा सिंह
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