इस विषय पर मैं पहले भी काफी लिखती रही हूं और आज फिर लिख रही हूं क्योंकि यह विषय मुझे हमेशा से न सिर्फ उद्वेलित करता रहा है बल्कि नए-नए सवाल भी खड़े करता रहा है।
व्यापारिक तौर पर बड़े टर्नओवर के नए वाहक बने सभी धर्मों के अनेक ऐसे धर्मगुरु और धार्मिक संस्थान अपने अपने धर्म के मूलभाव को ही दीमक की तरह चाट जाने पर आमादा हैं जिसमें समाज कल्याण का मूलभाव तिरेहित है इसीलिए सभी ही धर्मों के इस व्यापारिक रूप को लेकर सवाल उठना लाजिमी है।
चूंकि भारत की लगभग पूरी आबादी लगभग धर्मावलंबी है, हर एक व्यक्ति किसी ना किसी धर्म को मानने वाला है और सभी धर्म, पाप से दूर रहने का संदेश देते हैं। हर धर्म में स्वर्ग और नरक की परिभाषाएं भी विस्तार से दी गई हैं, इस सब के बावजूद सभी धर्मावलंबियों में इतना अधिक गुस्सा, इतना स्वार्थ और इतना अनाचार क्यों है?
अपने ''अंडर'' लाखों- करोड़ों अनुयाई होने का दावा करने वाले धर्मगुरू भी इस नाजायज गुस्से के दुष्परिणामों से अपने भक्तों को अवगत क्यों नहीं करा पा रहे।
क्यों धर्म ध्वजाएं सिर्फ सिर्फ मठ, मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघरों की प्रतीक बनकर रह गई हैं, क्यों वह मात्र इन धार्मिक स्थलों पर फहराने के काम आती हैं। जनकल्याण के लिए भी धर्म का वास्तविक संदेश देने से परहेज क्यों किया जा रहा है। पग-पग पर धार्मिक केंद्रों के होते हुए दंगे-फसाद-अत्याचार-अनाचार-व्यभिचार आदि कैसे सर्वव्यापी हैं।
प्रश्न अनेक हैं परंतु उत्तर कमोवेश सभी का एक ही निकलता दिखता है कि धर्म की दुकानें तो सजी हैं और उन दुकानों से अरबों-खरबों का कारोबार भी हो रहा है, इस कारोबार से बेहिसाब चल-अचल संपत्तियां बनाने वाले भी बेशुमार हैं मगर धर्म ही ''मौजूद'' नहीं है। जाहिर है कि ऐसे में कौन तो धर्म को समझाएगा और कौन उसका पालन करेगा।
सर्वविदित है कि जब बात ''धर्म'' से जोड़ दी जाती है तो धर्मावलंबियों और उनके अनुयाइयों की सोच में लग चुकी दीमक को टैबू रखा जाता है और उसी सोच का महिमामंडन पूरी साजिश के तहत बदस्तूर चलता रहता है। सभी धर्माचार्यों और उनके अंधभक्तों की स्थिति इस मामले में समान है। यहां तक कि राजनीतिक दल और सरकारें भी इसी लकीर पर चलती हैं और इनकी आड़ में धर्म की गद्दियां अपने साम्राज्य का विस्तार करती जाती हैं।
चूंकि मैं स्वयं सनातनी हूं और दूसरे किसी धर्म पर मेरा टीका-टिप्पणी करना भी विवाद का विषय बनाया जा सकता है इसलिए फिलहाल अपने ही धर्म में व्याप्त विसंगति का जिक्र करती हूं।
पिछले दिनों हमारे ब्रज का प्रसिद्ध मुड़िया पूर्णिमा मेला (गुरू पूर्णिमा मेला) सम्पन्न हुआ। हमेशा की तरह लाखों लोगों ने आकर गिरराज महाराज यानि गोवर्धन की परिक्रमा कर ना केवल प्रदेश सरकार के खजाने को भरा बल्कि उन गुरुओं के भी भंडार भरे जिन्होंने अपनी चरण-पूजा को बाकायदा एक व्यवसाय का रूप दे रखा है। वैसे गुरू पूजन की परंपरा पुरानी है मगर अब इसकी रीति बदल दी गई है, इसमें प्रोफेशनलिज्म आ गया है। गुरू पूर्णिमा आज के दौर में गुरुओं के अपने-अपने उस नेटवर्क का परिणाम भी सामने लाता है जिससे शिष्यों की संख्या व उनकी हैसियत का पता लगता है।
इन सभी गुरूओं का खास पैटर्न होता है, स्वयं तो ये मौन रहते हैं मगर इनके ''खास शिष्य'' ''नव निर्मित चेलों'' से कहते देखे जा सकते हैं कि हमारे फलां-फलां प्रकल्प चल रहे हैं जिनमें गौसेवा, अनाथालय, बच्च्ियों की शिक्षा, गरीबों के कल्याण हेतु काम किए जाते हैं, अत: कृपया हमारी वेबसाइट पर जाऐं और अपनी ''इच्छानुसार'' प्रकल्प में सहयोग (अब इसे दान नहीं कहा जाता) दें, इसके अतिरिक्त हमारे यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करें ताकि अमृत-प्रवचनों का लाभ आप ले सकें।
एक व्यवस्थित व्यापार की तरह गुरु पूर्णिमा के दिन बाकायदा टैंट...भंडारा...आश्रम स्टे...गुरू गद्दी की भव्यता...गुरूदीक्षा आयोजन की भारी सजावट वाले पंडाल का पूरा ठेका गुरुओं के वे कथित शिष्य उठाते हैं जो न केवल अपना आर्थिक बेड़ापार करते हैं बल्कि बतौर कमीशन गुरुओं के खजाने में भी करोड़ों जमा करवाते हैं। देशज और विदेशी शिष्यों में भेदभाव प्रत्यक्ष होता है क्योंकि विदेशी मुद्रा और विदेशों में गुरु के व्यापारिक विस्तार की अहमियत समझनी होती है।
सूत्र बताते हैं कि नोटबंदी-जीएसटी के भय के बावजूद ब्रज के गुरुओं के ऑनलाइन खाते अरबों की गुरूदक्षिणा से लबालब हो चुके हैं और इनमें उनके चेलों, ठेकेदारों और कारोबारियों का लाभ शामिल नहीं है।
भगवान श्रीकृष्ण के वर्तमान ब्रज और इसकी छवि को ''चमकाने वाले'' अधिकांश धर्मगुरुओं का तो सच यही है, इसे ब्रज से बाहर का व्यक्ति जानकर भी नहीं जान सकता, वह तो ''राधे-राधे'' के नामजाप में खोया रहता है।
हमारी यानि ब्रजवासियों की विडंबना तो देखिए कि हम ना इस सच को निगल पा रहे हैं और ना उगल पा रहे हैं जबकि इन पेशेवर धर्मगुरूओं से छवि तो ब्रज की ही धूमिल होती है।
बहरहाल, खालिस व्यापार में लगे इन धर्मगुरुओं का धर्म-कर्म यदि कुछ प्रतिशत भी समाज में व्याप्त गुस्से, कुरीतियों और बात-बात पर हिंसा करने पर आमादा तत्वों को समझाने में, उनकी सोच को सकारात्मक दिशा देने में लग जाए तो बहुत सी जघन्य वारदातों और दंगे फसादों को रोका जा सकता है।
जहां तक बात है जिम्मेदारी की तो बेहतर समाज सबकी साझा जिम्मेदारी होती है।
सरकारें लॉ एंड ऑर्डर संभालने के लिए होती हैं मगर समाज में सहिष्णुता और जागरूकता के लिए धर्म का अपना बड़ा महत्व है। गुरू पूर्णिमा हो या कोई अन्य आयोजन, ये धर्मगुरू समाजहित में कुछ तो बेहतर योगदान दे ही सकते हैं और इस तरह धर्म की विकृत होती छवि को बचाकर समाज कल्याण का काम कर सकते हैं।
संस्कृत के एक श्लोक में कहा गया है कि धर्मो रक्षति रक्षितः अर्थात तुम धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा| इसे इस प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है कि “धर्म की रक्षा करो, तुम स्वतः रक्षित हो जाओगे| इस एक पंक्ति “धर्मो रक्षति रक्षितः” में कितनी बातें कह दी गईं हैं इसे कोई स्वस्थ मष्तिष्क वाला व्यक्ति ही समझ सकता है|
अब समय आ गया है कि धर्म गुरुओं को यह बात समझनी होगी। फिर चाहे वह किसी भी धर्म से ताल्लुक क्यों न रखते हों, क्योंकि निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए धर्म को व्यावसायिक रुप प्रदान करने में कोई धर्मगुरू पीछे नहीं रहा है। गुरू पूर्णिमा तो एक बड़े धर्म का छोटा सा उदाहरणभर है।
- अलकनंदा सिंह
व्यापारिक तौर पर बड़े टर्नओवर के नए वाहक बने सभी धर्मों के अनेक ऐसे धर्मगुरु और धार्मिक संस्थान अपने अपने धर्म के मूलभाव को ही दीमक की तरह चाट जाने पर आमादा हैं जिसमें समाज कल्याण का मूलभाव तिरेहित है इसीलिए सभी ही धर्मों के इस व्यापारिक रूप को लेकर सवाल उठना लाजिमी है।
चूंकि भारत की लगभग पूरी आबादी लगभग धर्मावलंबी है, हर एक व्यक्ति किसी ना किसी धर्म को मानने वाला है और सभी धर्म, पाप से दूर रहने का संदेश देते हैं। हर धर्म में स्वर्ग और नरक की परिभाषाएं भी विस्तार से दी गई हैं, इस सब के बावजूद सभी धर्मावलंबियों में इतना अधिक गुस्सा, इतना स्वार्थ और इतना अनाचार क्यों है?
अपने ''अंडर'' लाखों- करोड़ों अनुयाई होने का दावा करने वाले धर्मगुरू भी इस नाजायज गुस्से के दुष्परिणामों से अपने भक्तों को अवगत क्यों नहीं करा पा रहे।
क्यों धर्म ध्वजाएं सिर्फ सिर्फ मठ, मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघरों की प्रतीक बनकर रह गई हैं, क्यों वह मात्र इन धार्मिक स्थलों पर फहराने के काम आती हैं। जनकल्याण के लिए भी धर्म का वास्तविक संदेश देने से परहेज क्यों किया जा रहा है। पग-पग पर धार्मिक केंद्रों के होते हुए दंगे-फसाद-अत्याचार-अनाचार-व्यभिचार आदि कैसे सर्वव्यापी हैं।
प्रश्न अनेक हैं परंतु उत्तर कमोवेश सभी का एक ही निकलता दिखता है कि धर्म की दुकानें तो सजी हैं और उन दुकानों से अरबों-खरबों का कारोबार भी हो रहा है, इस कारोबार से बेहिसाब चल-अचल संपत्तियां बनाने वाले भी बेशुमार हैं मगर धर्म ही ''मौजूद'' नहीं है। जाहिर है कि ऐसे में कौन तो धर्म को समझाएगा और कौन उसका पालन करेगा।
सर्वविदित है कि जब बात ''धर्म'' से जोड़ दी जाती है तो धर्मावलंबियों और उनके अनुयाइयों की सोच में लग चुकी दीमक को टैबू रखा जाता है और उसी सोच का महिमामंडन पूरी साजिश के तहत बदस्तूर चलता रहता है। सभी धर्माचार्यों और उनके अंधभक्तों की स्थिति इस मामले में समान है। यहां तक कि राजनीतिक दल और सरकारें भी इसी लकीर पर चलती हैं और इनकी आड़ में धर्म की गद्दियां अपने साम्राज्य का विस्तार करती जाती हैं।
चूंकि मैं स्वयं सनातनी हूं और दूसरे किसी धर्म पर मेरा टीका-टिप्पणी करना भी विवाद का विषय बनाया जा सकता है इसलिए फिलहाल अपने ही धर्म में व्याप्त विसंगति का जिक्र करती हूं।
पिछले दिनों हमारे ब्रज का प्रसिद्ध मुड़िया पूर्णिमा मेला (गुरू पूर्णिमा मेला) सम्पन्न हुआ। हमेशा की तरह लाखों लोगों ने आकर गिरराज महाराज यानि गोवर्धन की परिक्रमा कर ना केवल प्रदेश सरकार के खजाने को भरा बल्कि उन गुरुओं के भी भंडार भरे जिन्होंने अपनी चरण-पूजा को बाकायदा एक व्यवसाय का रूप दे रखा है। वैसे गुरू पूजन की परंपरा पुरानी है मगर अब इसकी रीति बदल दी गई है, इसमें प्रोफेशनलिज्म आ गया है। गुरू पूर्णिमा आज के दौर में गुरुओं के अपने-अपने उस नेटवर्क का परिणाम भी सामने लाता है जिससे शिष्यों की संख्या व उनकी हैसियत का पता लगता है।
इन सभी गुरूओं का खास पैटर्न होता है, स्वयं तो ये मौन रहते हैं मगर इनके ''खास शिष्य'' ''नव निर्मित चेलों'' से कहते देखे जा सकते हैं कि हमारे फलां-फलां प्रकल्प चल रहे हैं जिनमें गौसेवा, अनाथालय, बच्च्ियों की शिक्षा, गरीबों के कल्याण हेतु काम किए जाते हैं, अत: कृपया हमारी वेबसाइट पर जाऐं और अपनी ''इच्छानुसार'' प्रकल्प में सहयोग (अब इसे दान नहीं कहा जाता) दें, इसके अतिरिक्त हमारे यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करें ताकि अमृत-प्रवचनों का लाभ आप ले सकें।
एक व्यवस्थित व्यापार की तरह गुरु पूर्णिमा के दिन बाकायदा टैंट...भंडारा...आश्रम स्टे...गुरू गद्दी की भव्यता...गुरूदीक्षा आयोजन की भारी सजावट वाले पंडाल का पूरा ठेका गुरुओं के वे कथित शिष्य उठाते हैं जो न केवल अपना आर्थिक बेड़ापार करते हैं बल्कि बतौर कमीशन गुरुओं के खजाने में भी करोड़ों जमा करवाते हैं। देशज और विदेशी शिष्यों में भेदभाव प्रत्यक्ष होता है क्योंकि विदेशी मुद्रा और विदेशों में गुरु के व्यापारिक विस्तार की अहमियत समझनी होती है।
सूत्र बताते हैं कि नोटबंदी-जीएसटी के भय के बावजूद ब्रज के गुरुओं के ऑनलाइन खाते अरबों की गुरूदक्षिणा से लबालब हो चुके हैं और इनमें उनके चेलों, ठेकेदारों और कारोबारियों का लाभ शामिल नहीं है।
भगवान श्रीकृष्ण के वर्तमान ब्रज और इसकी छवि को ''चमकाने वाले'' अधिकांश धर्मगुरुओं का तो सच यही है, इसे ब्रज से बाहर का व्यक्ति जानकर भी नहीं जान सकता, वह तो ''राधे-राधे'' के नामजाप में खोया रहता है।
हमारी यानि ब्रजवासियों की विडंबना तो देखिए कि हम ना इस सच को निगल पा रहे हैं और ना उगल पा रहे हैं जबकि इन पेशेवर धर्मगुरूओं से छवि तो ब्रज की ही धूमिल होती है।
बहरहाल, खालिस व्यापार में लगे इन धर्मगुरुओं का धर्म-कर्म यदि कुछ प्रतिशत भी समाज में व्याप्त गुस्से, कुरीतियों और बात-बात पर हिंसा करने पर आमादा तत्वों को समझाने में, उनकी सोच को सकारात्मक दिशा देने में लग जाए तो बहुत सी जघन्य वारदातों और दंगे फसादों को रोका जा सकता है।
जहां तक बात है जिम्मेदारी की तो बेहतर समाज सबकी साझा जिम्मेदारी होती है।
सरकारें लॉ एंड ऑर्डर संभालने के लिए होती हैं मगर समाज में सहिष्णुता और जागरूकता के लिए धर्म का अपना बड़ा महत्व है। गुरू पूर्णिमा हो या कोई अन्य आयोजन, ये धर्मगुरू समाजहित में कुछ तो बेहतर योगदान दे ही सकते हैं और इस तरह धर्म की विकृत होती छवि को बचाकर समाज कल्याण का काम कर सकते हैं।
संस्कृत के एक श्लोक में कहा गया है कि धर्मो रक्षति रक्षितः अर्थात तुम धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा| इसे इस प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है कि “धर्म की रक्षा करो, तुम स्वतः रक्षित हो जाओगे| इस एक पंक्ति “धर्मो रक्षति रक्षितः” में कितनी बातें कह दी गईं हैं इसे कोई स्वस्थ मष्तिष्क वाला व्यक्ति ही समझ सकता है|
अब समय आ गया है कि धर्म गुरुओं को यह बात समझनी होगी। फिर चाहे वह किसी भी धर्म से ताल्लुक क्यों न रखते हों, क्योंकि निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए धर्म को व्यावसायिक रुप प्रदान करने में कोई धर्मगुरू पीछे नहीं रहा है। गुरू पूर्णिमा तो एक बड़े धर्म का छोटा सा उदाहरणभर है।
- अलकनंदा सिंह
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