पूर्वाग्रह व्यक्ति के प्रति हों, समाज के प्रति अथवा राजनैतिक पार्टी
के प्रति, किसी भी विषय पर तिल का ताड़ बनाने और उसी आधार पर शंकाओं को
वास्तविकता जैसा दिखाने का माद्दा रखते हैं। रस्सी को सांप बनाकर पेश
करने की यह ज़िद किसी के लिए भी अच्छी नहीं होती। यही पूर्वाग्रह रीतियों
को कुरीतियों में और सुशासन को कुशासन में बदलते दिखाई देते हैं।
आजकल ”बीफ” के बहाने बड़ी हायतौबा हो रही है। जैसे गौमांस नहीं खाऐंगे तो मर जाएंगे अथवा अस्मिता पर संकट छा जाएगा। पशु बाजार के रेगुलेशन पर जो केंद्र सरकार ने नोटिफिकेशन जारी किया है, उसे कुछ राजनैतिक पूर्वाग्रहियों ने आजकल ”बीफ” खाने की ज़िद बना लिया है।
क्या कहता है संविधान
संविधान का अनुच्छेद 48 कहता है कि ”राज्य, कृषि व पशुपालन दोनों को आधुनिक व वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने को प्रयास करेगा, विशिष्ट गायों बछड़ों और अन्य दुधारू पशुओं की नस्लों में सुधार के साथ-साथ उनके वध पर रोक लगाने के लिए कदम उठाएगा।” केंद्र सरकार की नीतियों की आलोचना महज इसलिए की जाए कि वह गैरकांग्रेसी और अपार बहुमत वाली सरकार है, तो यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं, वह भी तब जबकि संविधान के उक्त अनुच्छेद को ना तो भाजपा ने बनाया ना तब नरेंद्र मोदी ही राजनीति में आए थे। इसी अनुच्छेद में गाय को भारतीय संस्कृति का वाहक माना गया है। तो क्या जिन सिरफिरों ने केरल के कन्नूर में गाय के बछड़े के साथ जो वीभत्सता दिखाई, वह संविधान के इसी अनुच्छेद का उल्लंघन नहीं माना जाना चाहिए।
फिलहाल के विवाद में पशु बाजार को लेकर सरकार ने जो नए नियम बनाए हैं, उन्हें इस ”बीफ” विवाद ने परोक्ष कर दिया है जबकि नए नियमों में जानवरों की तस्करी और निर्दयता के पहलुओं पर काफी गौर किया गया है।
गौरतलब है कि 23 मई को जब केंद्र सरकार ने पशु बाजार के लिए नए नियमों की घोषणा की तभी से कुछ तत्व केरल व पश्चिम बंगाल में बीफ को हाइलाइट करके बवाल काट रहे हैं। हालांकि ये समझ से परे है कि केरल में सिर्फ मांस ”निर्यात” करने वाले बूचड़खानों को लाइसेंस मिला हुआ है तो उन्हें दिक्कत क्यों हो रही है।
यूं भी गतवर्षों से जो घटनाऐं सामने आ रही हैं उनके आधार पर ये कहा जा सकता है कि केरल को तो किसी को मारने की ”वजह” भी तलाशने की जरूरत नहीं, वहां तो कुत्ते, गाय, औरत, बच्चे, हाथी और राजनैतिक कार्यकर्ताओं का कत्ल होता आया है।
पश्चिम बंगाल ने भी मवेशियों की खरीद-फरोख्त को लेकर हो-हल्ला मचाया मगर उतना नहीं जितना केरल में हुआ, तमिलनाडु में भी नए नोटिफिकेशन को लेकर थोड़ा बहुत हंगामा हुआ। इसकी बड़ी वजह ये है कि पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में ही पशुओं का सबसे ज्यादा अवैध कारोबार होता है। जहां पश्चिम बंगाल से बांग्लादेश को गर्भवती गायों, बीमार और छोटे जानवरों की अवैध सप्लाई होती है वहीं तमिलनाडु यही काम केरल के लिए करता है।
नेताओं और छात्र संगठनों ने पशुओं को लेकर जिन नए नियमों पर बयानबाजी की, वह बेहद ही खोखली थी। ये जिस तबके से आते हैं…निश्चित जानिए कि इनमें से तमामों ने तो कभी पशु् बाजार की ओर देखा भी नहीं होगा। ये बयानबाजी सिर्फ सियासी तूफान खड़ा करने के लिए हुई और अब भी हो रही है, इस के चक्कर में जो नए नियम बनाए हैं उनकी भी हत्या कर दी गई।
अब देखिए कि आखिर पशु बाजारों पर लगाम लगाना क्यों है जरूरी है। पहले हमें इन बाजारों को नियमित करने की जरूरत को समझना होगा। पशु बाजारों में सिर्फ दो तरह के जानवर बेचने के लिए लाए जाते हैं। पहले तो वो जो दुधारू होते हैं या जिन्हें खेती के काम में इस्तेमाल किया जा सकता है, दूसरे वो जो मांस के लिए बेचे जाते हैं।
यहां यह बात भी जान लेना जरूरी है कि जो उपयोगी जानवर होते हैं उनकी ठीक से देख-रेख भी की जाती है और उन्हें लाने-ले जाने में भी अपेक्षाकृत कम क्रूरता दिखाई जाती है, उनकी तस्करी भी कम होती है। इसकी वजह ये है कि उन्हें आसानी से खरीदार मिल जाते हैं और उनकी सेहत का मालिकों को खयाल रखना पड़ता है, तभी तो उन जानवरों की अच्छी कीमत मिल सकेगी।
इसके ठीक विपरीत जो जानवर मांस के लिए बेचने लाए जाते हैं, उनकी हालत बेहद खराब होती है। किसान आम तौर पर वो जानवर मांस के लिए बेचते हैं, जो उनके लिए बेकार हो चुके होते हैं।
किसान इन जानवरों को दलालों को बेच देते हैं। फिर ये दलाल दर्जन भर या इससे ज्यादा जानवर खरीदते हैं जिन्हें वो बड़े बाजारों में ले जाते हैं, ताकि बड़े दलालों को बेच सकें। कई बिचौलियों और बाजारों से गुजरते हुए ये जानवर इकट्ठे करके गाड़ियों में ठूंस करके दूसरे राज्यों में ठेकेदारो को बेचे जाते हैं।
उत्तरी भारत के राज्यों में सबसे ज्यादा जानवर पश्चिम बंगाल भेजे जाते हैं जो झारखंड, ओडिशा और बिहार से होकर गुजरते हैं। दक्षिण भारत में कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र से जानवरों को केरल भेजा जाता है।
ज्यादातर राज्यों में जानवरों के वध या ट्रांसपोर्ट करने के लिए पशुपालन और राजस्व विभाग से इजाजत लेनी होती है हालांकि किसी भी राज्य में इन नियमों का पालन नहीं होता।
पुलिस चौकियों में पैसे देकर यानि ‘हफ्ता’ देकर जानवरों की तस्करी का ये कारोबर बरसों से चलता आ रहा है। जाने-अनजाने ये सभी लोग जानवरों की तस्करी का हिस्सा बने हुए हैं और ये बीमारी पूरे देश को लगी हुई है।
कुलमिलाकर ये कहा जाए कि जानवरों की तस्करी का ये बहुत बड़ा रैकेट है, जो हर राज्य में सक्रिय है तो गलत ना होगा।
देखिए सरकारी रिपोर्ट क्या कहती है इस रैकेट के बारे में
गृह मंत्रालय ने 2006 में ही ये पाया था कि जानवरो की तस्करी का आतंकवादी फंडिंग से सीधा ताल्लुक है। 2008 में असम धमाकों के बाद गिरफ्तार हूजी के आतंकवादियों ने माना था कि उन्होंने धमाकों के लिए पैसे जानवरों की तस्करी से जुटाए थे। हर साल सिर्फ उत्तर प्रदेश में जानवरों के तस्करों के हाथों सौ से ज्यादा पुलिसवाले मारे जाते हैं।
भारत-बांग्लादेश की सीमा पर कई बीएसएफ जवान इन तस्करों के हाथों कत्ल हो जाते हैं। खाड़ी देशों को मांस के निर्यात में जबरदस्त मुनाफा होता है। इसीलिए मांस माफिया इसके लिए कुछ भी करने को तैयार होता है।
दिल्ली के गाजीपुर स्थित पशु बाजार में महिलाओं के प्रवेश की अलिखित पाबंदी है। वो कहते हैं कि मंडी का मंजर बेहद डरावना और विचलित करने वाला होता है।
बिहार के सोनपुर मेले में जहां जानवर कटते हैं, वहां सिर्फ परिचित दलालों को ही जाने दिया जाता है। स्थिति इतनी भयावह है कि अगर कोई वहां कैमरा लेकर जाता है, तो वो कैमरे के साथ वापस नहीं आ सकता। कई केस में तो उसे स्ट्रेचर पर लादकर लाना पड़े।
पशु बेदर्दी का अंतहीन सिलसिला
वजह वही है कि कसाईखाने का मंजर बेहद खतरनाक होता है. जानवरों को छोटी रस्सियों से बांधा जाता है, खरीदार के इंतजार में जानवर कई दिनों या कई बार हफ्तों तक खड़े रखे जाते हैं। फिर खरीदार उन्हें गाड़ियों में ठूंसकर दूसरे नर्क ले जाते हैं. बदसलूकी के चलते जानवरों की हालत दयनीय होती है। छोटे जानवर बेचने के बाद अपनी मां को तलाशते दिखाई देते हैं।
पशु वध में बेदर्दी एक बड़ा मसला है। किसान के घर से कसाई खाने तक के इस मौत का ये सफर किसी एक खरीदार के मिल जाने से नहीं खत्म होता।
जानवर कई बार बिकते हैं। कई हाथों से गुजरते हैं। हर खरीदार उनसे बदसलूकी करता है। जानवरों को ठीक से खाना-पानी नहीं मिलता क्योंकि हर खरीदार को पता होता है कि इसे आखिर में कत्ल ही होना है। कई बार तो जानवरों को फिटकरी वाला पानी दिया जाता है, जिससे उनके गुर्दे फेल हो जाएं। इससे उनके शरीर में पानी जमा हो जाता है। इससे जानवर हट्टे-कट्टे दिखते हैं। इससे उनकी अच्छी कीमत मिलती है। उन्हें पैदल ही एक बाजार से दूसरे बाजार ले जाया जाता है।
दक्षिण भारत के राज्यों में तो जानवरों की आंखों में मिर्च ठूंस दी जाती है ताकि दर्द से वो खड़े रहें। भले ही खड़े-खड़े थकान से उनकी मौत ही क्यों न हो जाए। मुनाफा बढ़ाने के लिए ज्यादा से ज्यादा जानवर ट्रक में ठूंसकर ले जाए जाते हैं। वो मंजर देखकर कई बार बेहोशी आने लगती है।
तस्करी के दौरान कई जानवर दम घुटने से मर जाते हैं। कई की हड्डियां टूट जाती हैं, आंखें खराब हो जाती हैं, या पूंछ टूट जाती है। किसी के दूसरे अंग बेकार हो जाते हैं।
चढ़ाने-उतारने के दौरान जानवरों को गाड़ियों में फेंक दिया जाता है, जिससे वो जख्मी हो जाते हैं। उन्हें खींचकर गाड़ियों में भर दिया जाता है। उन जानवरों पर ये जुल्म नहीं होता जो दुधारू होते हैं या जिनका खेती में इस्तेमाल हो सकता है।
अत: पशु बाजारों का नियमन और काटने के लिए जानवरों को सीधे किसान से खरीदने से सबसे ज्यादा नुकसान जानवरों के तस्कर माफिया को होगा। उन ठेकेदारों और दलालों को होगा जो तस्करी में शामिल हैं।
क्या होगा नए नियमों से-
नए नियमों से डेयरी के कारोबार से जुड़े लोगों की जवाबदेही भी तय होगी। उनके कारोबार से पैदा हुए बाईप्रोडक्ट को लेकर वो जिम्मेदार बनेंगे। भारत सरकार के इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च ने दूध न देने वाले जानवरों के बेहतर इस्तेमाल के लिए भी कुछ नुस्खे सुझाए हैं।
राज्य सरकारों को इन नुस्खों को भी लागू करना होगा। डेयरी उद्योग को-ऑपेटिव के जरिए संगठित तरीके से चलता है। इनके जरिए बेकार जानवरों को काटने के लिए बेचा जा सकता है। इससे जवाबदेही तय होगी और जानवरों के साथ निर्दयता भी कम होगी।
मवेशियों को लेकर नए नियमों का विरोध हताशा और कायरता के सिवा कुछ नहीं।
बाकी देशवासियों ने इन नियमों के जारी होने के बाद राहत की सांस ली है। दिवंगत पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे ने इन नियमों की शक्ल में देश को सबसे बड़ी विरासत दी है।
और इसी बात पर एक शेर दाग़ देहलवी का-
सब लोग, जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं ।
- अलकनंदा सिंह
आजकल ”बीफ” के बहाने बड़ी हायतौबा हो रही है। जैसे गौमांस नहीं खाऐंगे तो मर जाएंगे अथवा अस्मिता पर संकट छा जाएगा। पशु बाजार के रेगुलेशन पर जो केंद्र सरकार ने नोटिफिकेशन जारी किया है, उसे कुछ राजनैतिक पूर्वाग्रहियों ने आजकल ”बीफ” खाने की ज़िद बना लिया है।
क्या कहता है संविधान
संविधान का अनुच्छेद 48 कहता है कि ”राज्य, कृषि व पशुपालन दोनों को आधुनिक व वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने को प्रयास करेगा, विशिष्ट गायों बछड़ों और अन्य दुधारू पशुओं की नस्लों में सुधार के साथ-साथ उनके वध पर रोक लगाने के लिए कदम उठाएगा।” केंद्र सरकार की नीतियों की आलोचना महज इसलिए की जाए कि वह गैरकांग्रेसी और अपार बहुमत वाली सरकार है, तो यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं, वह भी तब जबकि संविधान के उक्त अनुच्छेद को ना तो भाजपा ने बनाया ना तब नरेंद्र मोदी ही राजनीति में आए थे। इसी अनुच्छेद में गाय को भारतीय संस्कृति का वाहक माना गया है। तो क्या जिन सिरफिरों ने केरल के कन्नूर में गाय के बछड़े के साथ जो वीभत्सता दिखाई, वह संविधान के इसी अनुच्छेद का उल्लंघन नहीं माना जाना चाहिए।
फिलहाल के विवाद में पशु बाजार को लेकर सरकार ने जो नए नियम बनाए हैं, उन्हें इस ”बीफ” विवाद ने परोक्ष कर दिया है जबकि नए नियमों में जानवरों की तस्करी और निर्दयता के पहलुओं पर काफी गौर किया गया है।
गौरतलब है कि 23 मई को जब केंद्र सरकार ने पशु बाजार के लिए नए नियमों की घोषणा की तभी से कुछ तत्व केरल व पश्चिम बंगाल में बीफ को हाइलाइट करके बवाल काट रहे हैं। हालांकि ये समझ से परे है कि केरल में सिर्फ मांस ”निर्यात” करने वाले बूचड़खानों को लाइसेंस मिला हुआ है तो उन्हें दिक्कत क्यों हो रही है।
यूं भी गतवर्षों से जो घटनाऐं सामने आ रही हैं उनके आधार पर ये कहा जा सकता है कि केरल को तो किसी को मारने की ”वजह” भी तलाशने की जरूरत नहीं, वहां तो कुत्ते, गाय, औरत, बच्चे, हाथी और राजनैतिक कार्यकर्ताओं का कत्ल होता आया है।
पश्चिम बंगाल ने भी मवेशियों की खरीद-फरोख्त को लेकर हो-हल्ला मचाया मगर उतना नहीं जितना केरल में हुआ, तमिलनाडु में भी नए नोटिफिकेशन को लेकर थोड़ा बहुत हंगामा हुआ। इसकी बड़ी वजह ये है कि पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में ही पशुओं का सबसे ज्यादा अवैध कारोबार होता है। जहां पश्चिम बंगाल से बांग्लादेश को गर्भवती गायों, बीमार और छोटे जानवरों की अवैध सप्लाई होती है वहीं तमिलनाडु यही काम केरल के लिए करता है।
नेताओं और छात्र संगठनों ने पशुओं को लेकर जिन नए नियमों पर बयानबाजी की, वह बेहद ही खोखली थी। ये जिस तबके से आते हैं…निश्चित जानिए कि इनमें से तमामों ने तो कभी पशु् बाजार की ओर देखा भी नहीं होगा। ये बयानबाजी सिर्फ सियासी तूफान खड़ा करने के लिए हुई और अब भी हो रही है, इस के चक्कर में जो नए नियम बनाए हैं उनकी भी हत्या कर दी गई।
अब देखिए कि आखिर पशु बाजारों पर लगाम लगाना क्यों है जरूरी है। पहले हमें इन बाजारों को नियमित करने की जरूरत को समझना होगा। पशु बाजारों में सिर्फ दो तरह के जानवर बेचने के लिए लाए जाते हैं। पहले तो वो जो दुधारू होते हैं या जिन्हें खेती के काम में इस्तेमाल किया जा सकता है, दूसरे वो जो मांस के लिए बेचे जाते हैं।
यहां यह बात भी जान लेना जरूरी है कि जो उपयोगी जानवर होते हैं उनकी ठीक से देख-रेख भी की जाती है और उन्हें लाने-ले जाने में भी अपेक्षाकृत कम क्रूरता दिखाई जाती है, उनकी तस्करी भी कम होती है। इसकी वजह ये है कि उन्हें आसानी से खरीदार मिल जाते हैं और उनकी सेहत का मालिकों को खयाल रखना पड़ता है, तभी तो उन जानवरों की अच्छी कीमत मिल सकेगी।
इसके ठीक विपरीत जो जानवर मांस के लिए बेचने लाए जाते हैं, उनकी हालत बेहद खराब होती है। किसान आम तौर पर वो जानवर मांस के लिए बेचते हैं, जो उनके लिए बेकार हो चुके होते हैं।
किसान इन जानवरों को दलालों को बेच देते हैं। फिर ये दलाल दर्जन भर या इससे ज्यादा जानवर खरीदते हैं जिन्हें वो बड़े बाजारों में ले जाते हैं, ताकि बड़े दलालों को बेच सकें। कई बिचौलियों और बाजारों से गुजरते हुए ये जानवर इकट्ठे करके गाड़ियों में ठूंस करके दूसरे राज्यों में ठेकेदारो को बेचे जाते हैं।
उत्तरी भारत के राज्यों में सबसे ज्यादा जानवर पश्चिम बंगाल भेजे जाते हैं जो झारखंड, ओडिशा और बिहार से होकर गुजरते हैं। दक्षिण भारत में कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र से जानवरों को केरल भेजा जाता है।
ज्यादातर राज्यों में जानवरों के वध या ट्रांसपोर्ट करने के लिए पशुपालन और राजस्व विभाग से इजाजत लेनी होती है हालांकि किसी भी राज्य में इन नियमों का पालन नहीं होता।
पुलिस चौकियों में पैसे देकर यानि ‘हफ्ता’ देकर जानवरों की तस्करी का ये कारोबर बरसों से चलता आ रहा है। जाने-अनजाने ये सभी लोग जानवरों की तस्करी का हिस्सा बने हुए हैं और ये बीमारी पूरे देश को लगी हुई है।
कुलमिलाकर ये कहा जाए कि जानवरों की तस्करी का ये बहुत बड़ा रैकेट है, जो हर राज्य में सक्रिय है तो गलत ना होगा।
देखिए सरकारी रिपोर्ट क्या कहती है इस रैकेट के बारे में
गृह मंत्रालय ने 2006 में ही ये पाया था कि जानवरो की तस्करी का आतंकवादी फंडिंग से सीधा ताल्लुक है। 2008 में असम धमाकों के बाद गिरफ्तार हूजी के आतंकवादियों ने माना था कि उन्होंने धमाकों के लिए पैसे जानवरों की तस्करी से जुटाए थे। हर साल सिर्फ उत्तर प्रदेश में जानवरों के तस्करों के हाथों सौ से ज्यादा पुलिसवाले मारे जाते हैं।
भारत-बांग्लादेश की सीमा पर कई बीएसएफ जवान इन तस्करों के हाथों कत्ल हो जाते हैं। खाड़ी देशों को मांस के निर्यात में जबरदस्त मुनाफा होता है। इसीलिए मांस माफिया इसके लिए कुछ भी करने को तैयार होता है।
दिल्ली के गाजीपुर स्थित पशु बाजार में महिलाओं के प्रवेश की अलिखित पाबंदी है। वो कहते हैं कि मंडी का मंजर बेहद डरावना और विचलित करने वाला होता है।
बिहार के सोनपुर मेले में जहां जानवर कटते हैं, वहां सिर्फ परिचित दलालों को ही जाने दिया जाता है। स्थिति इतनी भयावह है कि अगर कोई वहां कैमरा लेकर जाता है, तो वो कैमरे के साथ वापस नहीं आ सकता। कई केस में तो उसे स्ट्रेचर पर लादकर लाना पड़े।
पशु बेदर्दी का अंतहीन सिलसिला
वजह वही है कि कसाईखाने का मंजर बेहद खतरनाक होता है. जानवरों को छोटी रस्सियों से बांधा जाता है, खरीदार के इंतजार में जानवर कई दिनों या कई बार हफ्तों तक खड़े रखे जाते हैं। फिर खरीदार उन्हें गाड़ियों में ठूंसकर दूसरे नर्क ले जाते हैं. बदसलूकी के चलते जानवरों की हालत दयनीय होती है। छोटे जानवर बेचने के बाद अपनी मां को तलाशते दिखाई देते हैं।
पशु वध में बेदर्दी एक बड़ा मसला है। किसान के घर से कसाई खाने तक के इस मौत का ये सफर किसी एक खरीदार के मिल जाने से नहीं खत्म होता।
जानवर कई बार बिकते हैं। कई हाथों से गुजरते हैं। हर खरीदार उनसे बदसलूकी करता है। जानवरों को ठीक से खाना-पानी नहीं मिलता क्योंकि हर खरीदार को पता होता है कि इसे आखिर में कत्ल ही होना है। कई बार तो जानवरों को फिटकरी वाला पानी दिया जाता है, जिससे उनके गुर्दे फेल हो जाएं। इससे उनके शरीर में पानी जमा हो जाता है। इससे जानवर हट्टे-कट्टे दिखते हैं। इससे उनकी अच्छी कीमत मिलती है। उन्हें पैदल ही एक बाजार से दूसरे बाजार ले जाया जाता है।
दक्षिण भारत के राज्यों में तो जानवरों की आंखों में मिर्च ठूंस दी जाती है ताकि दर्द से वो खड़े रहें। भले ही खड़े-खड़े थकान से उनकी मौत ही क्यों न हो जाए। मुनाफा बढ़ाने के लिए ज्यादा से ज्यादा जानवर ट्रक में ठूंसकर ले जाए जाते हैं। वो मंजर देखकर कई बार बेहोशी आने लगती है।
तस्करी के दौरान कई जानवर दम घुटने से मर जाते हैं। कई की हड्डियां टूट जाती हैं, आंखें खराब हो जाती हैं, या पूंछ टूट जाती है। किसी के दूसरे अंग बेकार हो जाते हैं।
चढ़ाने-उतारने के दौरान जानवरों को गाड़ियों में फेंक दिया जाता है, जिससे वो जख्मी हो जाते हैं। उन्हें खींचकर गाड़ियों में भर दिया जाता है। उन जानवरों पर ये जुल्म नहीं होता जो दुधारू होते हैं या जिनका खेती में इस्तेमाल हो सकता है।
अत: पशु बाजारों का नियमन और काटने के लिए जानवरों को सीधे किसान से खरीदने से सबसे ज्यादा नुकसान जानवरों के तस्कर माफिया को होगा। उन ठेकेदारों और दलालों को होगा जो तस्करी में शामिल हैं।
क्या होगा नए नियमों से-
नए नियमों से डेयरी के कारोबार से जुड़े लोगों की जवाबदेही भी तय होगी। उनके कारोबार से पैदा हुए बाईप्रोडक्ट को लेकर वो जिम्मेदार बनेंगे। भारत सरकार के इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च ने दूध न देने वाले जानवरों के बेहतर इस्तेमाल के लिए भी कुछ नुस्खे सुझाए हैं।
राज्य सरकारों को इन नुस्खों को भी लागू करना होगा। डेयरी उद्योग को-ऑपेटिव के जरिए संगठित तरीके से चलता है। इनके जरिए बेकार जानवरों को काटने के लिए बेचा जा सकता है। इससे जवाबदेही तय होगी और जानवरों के साथ निर्दयता भी कम होगी।
मवेशियों को लेकर नए नियमों का विरोध हताशा और कायरता के सिवा कुछ नहीं।
बाकी देशवासियों ने इन नियमों के जारी होने के बाद राहत की सांस ली है। दिवंगत पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे ने इन नियमों की शक्ल में देश को सबसे बड़ी विरासत दी है।
और इसी बात पर एक शेर दाग़ देहलवी का-
सब लोग, जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं ।
- अलकनंदा सिंह
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