किसी भी समाज की प्रगति उसकी इस वैचारिक तरलता से मापी जाती है कि वहां अभिव्यक्ति की आजादी और विचारों की तरलता का प्रवाह कितना है। कुंद विचारों के साथ पूछे गए सवाल या उन सवालों के जवाब अपने मनमाफिक सुनने की आकांक्षा वैचारिक तरलता को बाधित करते हैं। अदालतों के कुछ मापदंड आजकल इसी अवधारणा पर काम करने लगे हैं।
आज अदालती चक्रव्यूह से कौन वाकिफ नहीं है, और इसी चक्रव्यूह पर बनी फिल्म ''जॉली एलएलबी 2'' से बॉम्बे हाईकोर्ट ने चार सीन सिर्फ इसलिए हटाने का आदेश दे दिया कि वो अदालत की अवमानना करते हुए उनके कार्यपद्धति पर ही सवाल उठा रहे थे। कला व साहित्य में अभिव्यक्ति की आजादी क्या सिर्फ सड़कों पर नारे लगाने तक ही है, क्या ये माध्यम हमारी कानूनी व अन्य नियामक संस्थाओं को अपने भीतर झांकने का इशारा भी नहीं कर सकते। फिल्म से सीन हटवा कर क्या बॉम्बे हाईकोर्ट उस जड़ता का परिचय नहीं दे रहा जिसका प्रदर्शन आज तक सेंसर बोर्ड करता आया है और कभी कहानी की मांग पर तो कभी समाज में कड़वाहट फैलाने का भय दिखाकर इंडीविजुअल सोच के तहत फिल्मों को सर्टिफिकेट्स देती रही हैं। यानि सब-कुछ अपने मनमुताबिक हो तो भला, वरना अवमानना के कोड़े से फिल्म को डब्बे में डाल देने का रास्ता तो है ही।
कौन नहीं जानता कि अवमानना के नाम पर सवाल पूछने की इसी आजादी को छीन लेने के कारण आज स्वयं कुछ जज भी अपारदर्शिता के इल्ज़ाम लगाने पर बाध्य हुए हैं। अदालतों में व्याप्त भ्रष्टाचार सामने नहीं आ पा रहा जबकि सब जानते हैं कि सच क्या है। फिल्म अगर सच दिखा रही हैं तो उससे सबक लेते हुए सुधार की गुजाइशें खोजी जानी चाहिए ना कि सवाल करने के मौलिक अधिकार को ही अवमानना का भय दिखाकर ''चुप्प'' कर देना चाहिए। इससे सवाल उठने बंद नहीं होंगे बल्कि ज्यादा शिद्दत के साथ उठाए जाऐंगे।
समाज के विकास के लिए सवाल छलनी की तरह होते हैं, हालांकि यह भी सत्य है कि सवाल पूछने वाले की मनोदशा और उसके पूर्वाग्रह इसमें अहम रोल अदा करते हैं क्योंकि नकारात्मक या किसी खास मकसद से किए गए सवालों का जवाब मिल भी जाए तो संतुष्टि मिलना जरूरी नहीं मगर जहां तक बात ''जॉली एलएलबी 2'' फिल्म की है तो इसके प्रिक्वल जॉली एलएलबी में भी दिखाया गया है कि अदालतों में किस प्रकार वकीलों को बेरोजगारी से बचने के लिए दलाली तक करनी पड़ती है और अदालती चक्रव्यूह में फंसने वालों को किन किन समस्याओं से रूबरू होना पड़ता है, फिल्म में ''स्वविवेक'' के नाम पर जज वादी-प्रतिवादियों से क्या-क्या नहीं कराते हैं। तो फिर आज जॉली एलएलबी 2 के सीन्स पर अदालत की अवमानना कैसे हुई। चेहरा मोड़कर हकीकतों से मुंह छिपा लेना समस्याओं के समाधान का जरिया नहीं हो सकता। इसके लिए समाज से उठ रहे सवालों का जवाब तो अदालतों को ही तलाशना होगा। सीन काटकर फिल्म तो रिलीज हो जाएगी मगर आमजन में गहरे तक पैठ चुकी अदालतों में व्याप्त भ्रष्टाचार की कहानियां जिन सवालों के साथ खड़ी हैं उनका जवाब कौन देगा।
किसी भी समाज के विकास को पारदर्शी सवाल-जवाब होते रहने चाहिए। सवाल उठना और उठाना जीवंतता की निशानी हैं।
लाजिमी है कि यदि हम ज़िंदा समाज हैं तो सवाल उठायेंगे ही और जवाब मिलने पर समाज व इसकी नियामक संस्थाओं का संचालन, समाज में सकारात्मक सुधार लाएगा बशर्ते अदालत अथवा कोई भी संस्था स्वस्थ सोच के साथ ''सिर्फ अपनी'' नहीं पूरे समाज का हित सोचे।
निश्चित जानिए कि फिल्म से चार सीन हटावाने की बजाय यदि अदालत उसमें उठाए गए सवालों पर गौर करती और अपने यहां फैली भ्रष्ट व अराजक स्थितियों को दूर करने के लिए कोई टिप्पणी करती तो इसका संदेश दूर तक जाता।
गुलज़ार साहब का एक शेर याद आ रहा है-
आंखों में जल रहा है क्यूं,
बुझता नहीं धुआं
उठता तो है घटा सा
बरसता नहीं धुआं
ऐसा नहीं कि अदालतों के अंदर बैठे विद्वान व माननीय न्यायाधीश, न्याय प्रक्रिया में पूरी तरह समा चुके भ्रष्टाचार से वाकिफ नहीं हैं। वह भली प्रकार वाकिफ हैं किंतु उस पर गौर नहीं करना चाहते। गौर इसलिए नहीं करना चाहते क्योंकि वह अपनी निजी शख्सियत को ही न्याय की तराजू मान चुके हैं। उनकी दृष्टि से देखें तो किसी जज की व्यक्तिगत सोच को ही अंतिम सत्य मान लेना बेहतर है अन्यथा कोई फिल्म हो या लचर कानून-व्यवस्था को दिखाने वाला दूसरा माध्यम, सबके सब अदालती अवमानना के दायरे में आते हैं।
- अलकनंदा सिंह
आज अदालती चक्रव्यूह से कौन वाकिफ नहीं है, और इसी चक्रव्यूह पर बनी फिल्म ''जॉली एलएलबी 2'' से बॉम्बे हाईकोर्ट ने चार सीन सिर्फ इसलिए हटाने का आदेश दे दिया कि वो अदालत की अवमानना करते हुए उनके कार्यपद्धति पर ही सवाल उठा रहे थे। कला व साहित्य में अभिव्यक्ति की आजादी क्या सिर्फ सड़कों पर नारे लगाने तक ही है, क्या ये माध्यम हमारी कानूनी व अन्य नियामक संस्थाओं को अपने भीतर झांकने का इशारा भी नहीं कर सकते। फिल्म से सीन हटवा कर क्या बॉम्बे हाईकोर्ट उस जड़ता का परिचय नहीं दे रहा जिसका प्रदर्शन आज तक सेंसर बोर्ड करता आया है और कभी कहानी की मांग पर तो कभी समाज में कड़वाहट फैलाने का भय दिखाकर इंडीविजुअल सोच के तहत फिल्मों को सर्टिफिकेट्स देती रही हैं। यानि सब-कुछ अपने मनमुताबिक हो तो भला, वरना अवमानना के कोड़े से फिल्म को डब्बे में डाल देने का रास्ता तो है ही।
कौन नहीं जानता कि अवमानना के नाम पर सवाल पूछने की इसी आजादी को छीन लेने के कारण आज स्वयं कुछ जज भी अपारदर्शिता के इल्ज़ाम लगाने पर बाध्य हुए हैं। अदालतों में व्याप्त भ्रष्टाचार सामने नहीं आ पा रहा जबकि सब जानते हैं कि सच क्या है। फिल्म अगर सच दिखा रही हैं तो उससे सबक लेते हुए सुधार की गुजाइशें खोजी जानी चाहिए ना कि सवाल करने के मौलिक अधिकार को ही अवमानना का भय दिखाकर ''चुप्प'' कर देना चाहिए। इससे सवाल उठने बंद नहीं होंगे बल्कि ज्यादा शिद्दत के साथ उठाए जाऐंगे।
समाज के विकास के लिए सवाल छलनी की तरह होते हैं, हालांकि यह भी सत्य है कि सवाल पूछने वाले की मनोदशा और उसके पूर्वाग्रह इसमें अहम रोल अदा करते हैं क्योंकि नकारात्मक या किसी खास मकसद से किए गए सवालों का जवाब मिल भी जाए तो संतुष्टि मिलना जरूरी नहीं मगर जहां तक बात ''जॉली एलएलबी 2'' फिल्म की है तो इसके प्रिक्वल जॉली एलएलबी में भी दिखाया गया है कि अदालतों में किस प्रकार वकीलों को बेरोजगारी से बचने के लिए दलाली तक करनी पड़ती है और अदालती चक्रव्यूह में फंसने वालों को किन किन समस्याओं से रूबरू होना पड़ता है, फिल्म में ''स्वविवेक'' के नाम पर जज वादी-प्रतिवादियों से क्या-क्या नहीं कराते हैं। तो फिर आज जॉली एलएलबी 2 के सीन्स पर अदालत की अवमानना कैसे हुई। चेहरा मोड़कर हकीकतों से मुंह छिपा लेना समस्याओं के समाधान का जरिया नहीं हो सकता। इसके लिए समाज से उठ रहे सवालों का जवाब तो अदालतों को ही तलाशना होगा। सीन काटकर फिल्म तो रिलीज हो जाएगी मगर आमजन में गहरे तक पैठ चुकी अदालतों में व्याप्त भ्रष्टाचार की कहानियां जिन सवालों के साथ खड़ी हैं उनका जवाब कौन देगा।
किसी भी समाज के विकास को पारदर्शी सवाल-जवाब होते रहने चाहिए। सवाल उठना और उठाना जीवंतता की निशानी हैं।
लाजिमी है कि यदि हम ज़िंदा समाज हैं तो सवाल उठायेंगे ही और जवाब मिलने पर समाज व इसकी नियामक संस्थाओं का संचालन, समाज में सकारात्मक सुधार लाएगा बशर्ते अदालत अथवा कोई भी संस्था स्वस्थ सोच के साथ ''सिर्फ अपनी'' नहीं पूरे समाज का हित सोचे।
निश्चित जानिए कि फिल्म से चार सीन हटावाने की बजाय यदि अदालत उसमें उठाए गए सवालों पर गौर करती और अपने यहां फैली भ्रष्ट व अराजक स्थितियों को दूर करने के लिए कोई टिप्पणी करती तो इसका संदेश दूर तक जाता।
गुलज़ार साहब का एक शेर याद आ रहा है-
आंखों में जल रहा है क्यूं,
बुझता नहीं धुआं
उठता तो है घटा सा
बरसता नहीं धुआं
ऐसा नहीं कि अदालतों के अंदर बैठे विद्वान व माननीय न्यायाधीश, न्याय प्रक्रिया में पूरी तरह समा चुके भ्रष्टाचार से वाकिफ नहीं हैं। वह भली प्रकार वाकिफ हैं किंतु उस पर गौर नहीं करना चाहते। गौर इसलिए नहीं करना चाहते क्योंकि वह अपनी निजी शख्सियत को ही न्याय की तराजू मान चुके हैं। उनकी दृष्टि से देखें तो किसी जज की व्यक्तिगत सोच को ही अंतिम सत्य मान लेना बेहतर है अन्यथा कोई फिल्म हो या लचर कानून-व्यवस्था को दिखाने वाला दूसरा माध्यम, सबके सब अदालती अवमानना के दायरे में आते हैं।
- अलकनंदा सिंह
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