मैं अपने चश्मे से डरी हुई नैतिकता को जब ढहते देखती हूं, निरीह औरतों और बच्चियों का शरीर उधेड़ने वाले भेड़ियों को देखती - सुनती हूं... तो समझ नहीं आता है कि इस विषय पर किस कोण से अपनी बात रखूं कि सारी बातें कह पाऊं, कितना कुछ है कहने को..कितना कुछ है बताने को।जानती हूं कि जितना भी लिखूंगी कम ही लगेगा..दोहराया हुआ भी लग सकता है।
आदिकाल-वैदिककाल और न जाने कितने कालों के उदाहरण हमारे पुराणों में मौज़ूद हैं- ये बताने के लिए कि औरत चाहे विदुषी बन गई, शासक भी बनी, घर से बाहर तक सबकुछ संभाला, बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को संभाला, मगर पुरुष की मानसिकता को इतना भी लिबरल नहीं बना पाई कि बता सके उसे कि मैं भी हूं...मेरी इच्छायें...और सांसें भी मेरे वज़ूद में घुली हैं....और तो क्या कहें औरत के लिए, जिसे अपना 'एक मुकम्मल घर' तक हासिल न हो पाया हो, वह आज हाथों में अगर नारे और बैनर लेकर अपने को खोज रही है..बता रही है तो ये सुखद परिवर्तन तो हैं ना। मैं मात्र इसी आशावाद से सुरक्षित महसूस कर पा रही हूं अगली पीढ़ी तक बड़ी होने वाली बेटियों का भविष्य..।
यूं बलात्कार जैसा अपराध तो पूरी दुनिया में और बहुत पहले से मौज़ूद है। अंतर अब इतना आया है कि घटनाओं पर से पर्दा उठने लगा है, अपराधी को अपराधी कहने का साहस कर पाई है औरत। महानगरों में ही सही, कह तो पा रही है कि इसमें मैं क्यों दोषी मानी जाऊं।
एक ओर मुंबई रेप केस की बखिया उधेड़ू बहस चल रही थी टीवी पर तभी मैंने एक डेनिश फिल्म मेकर की फिल्म देखी, ये इत्तिफ़ाक ही था कि उसका सब्जेक्ट भी मुंबई की घटना से मिलता जुलता था।
विदेशों में तो इस विषय पर न सिर्फ चर्चा होती है बल्कि हमारे बॉलीवुडिया मसालों से इतर हॉलीवुड भी बड़ा हिस्सेदार है ये बताने में समस्या का मूल कहां है और क्या हैं कारण। इन प्वाइंट्स पर फिल्मों ने बाकायदा एवार्ड तक जीते हैं। इनमें नैतिक अवमूल्यन की वजह और इसका सामाजिक बुनावट में हिस्सा आदि सब तय किया जाता है, इस पर चर्चा के बगैर नैतिकता के मानदंडों पर हायतौबा करना कुछ ठीक नहीं होगा।
तो जो फिल्म मैं देख रही थी उसके बारे में बताना चाहूंगी, हो सकता है आपमें से किसी ने देखी भी हो। अभी तक आपने सुना होगा 'ड्रग एडिक्ट', 'अल्कोहल एडिक्ट'। अब पढ़ने में आ रहा है कि 'लव एडिक्ट' भी होते हैं। एक फिल्ममेकर हैं डेनमार्क के ...नाम है परनील रोज ग्रॉंजिकर(Pernille Rose Gronkjier), उन्हीं की फिल्म आई है- 'लव एडिक्शन' जिसका प्यार से कुछ लेना-देना नहीं है, बल्कि शॉर्ट फिल्म है।
इस फिल्म की केंद्रीय भूमिका में है एक लव एडिक्ट, जिसका सम्बन्ध उपेक्षित बचपन और उससे उत्पन्न पीड़ा से है। उन्होंने फिल्म में बताया है कि किस तरह से 'अल्कोहल' और 'ड्रग' के मुकाबले 'लव एडिक्शन' से मुक्ति पाना सर्वाधिक कठिन है। इन एडिक्ट्स पर नेगेटिविटी जब हावी होती है तो बलात्कार जैसे कृत्य करते हैं।
इस संबंध में ग्रॉंजिकर कहते हैं- They are those who are not worth loving.
ये 'लव एडिक्ट' वही लोग होते हैं जिन्होंने बचपन में घोर उपेक्षा, अकेलापन और प्यार में दुत्कार सहे होते हैं।
बहरहाल मनोविज्ञान चाहे कितने ही विश्लेषण कर ले मगर भुक्तभोगी का न तो कोई विश्लेषण होता है न ही इस से अपराध की गंभीरता कम हो जाती है। सोचने की बारी तो पुरुषों की है अब...
आदिकाल-वैदिककाल और न जाने कितने कालों के उदाहरण हमारे पुराणों में मौज़ूद हैं- ये बताने के लिए कि औरत चाहे विदुषी बन गई, शासक भी बनी, घर से बाहर तक सबकुछ संभाला, बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को संभाला, मगर पुरुष की मानसिकता को इतना भी लिबरल नहीं बना पाई कि बता सके उसे कि मैं भी हूं...मेरी इच्छायें...और सांसें भी मेरे वज़ूद में घुली हैं....और तो क्या कहें औरत के लिए, जिसे अपना 'एक मुकम्मल घर' तक हासिल न हो पाया हो, वह आज हाथों में अगर नारे और बैनर लेकर अपने को खोज रही है..बता रही है तो ये सुखद परिवर्तन तो हैं ना। मैं मात्र इसी आशावाद से सुरक्षित महसूस कर पा रही हूं अगली पीढ़ी तक बड़ी होने वाली बेटियों का भविष्य..।
यूं बलात्कार जैसा अपराध तो पूरी दुनिया में और बहुत पहले से मौज़ूद है। अंतर अब इतना आया है कि घटनाओं पर से पर्दा उठने लगा है, अपराधी को अपराधी कहने का साहस कर पाई है औरत। महानगरों में ही सही, कह तो पा रही है कि इसमें मैं क्यों दोषी मानी जाऊं।
एक ओर मुंबई रेप केस की बखिया उधेड़ू बहस चल रही थी टीवी पर तभी मैंने एक डेनिश फिल्म मेकर की फिल्म देखी, ये इत्तिफ़ाक ही था कि उसका सब्जेक्ट भी मुंबई की घटना से मिलता जुलता था।
विदेशों में तो इस विषय पर न सिर्फ चर्चा होती है बल्कि हमारे बॉलीवुडिया मसालों से इतर हॉलीवुड भी बड़ा हिस्सेदार है ये बताने में समस्या का मूल कहां है और क्या हैं कारण। इन प्वाइंट्स पर फिल्मों ने बाकायदा एवार्ड तक जीते हैं। इनमें नैतिक अवमूल्यन की वजह और इसका सामाजिक बुनावट में हिस्सा आदि सब तय किया जाता है, इस पर चर्चा के बगैर नैतिकता के मानदंडों पर हायतौबा करना कुछ ठीक नहीं होगा।
तो जो फिल्म मैं देख रही थी उसके बारे में बताना चाहूंगी, हो सकता है आपमें से किसी ने देखी भी हो। अभी तक आपने सुना होगा 'ड्रग एडिक्ट', 'अल्कोहल एडिक्ट'। अब पढ़ने में आ रहा है कि 'लव एडिक्ट' भी होते हैं। एक फिल्ममेकर हैं डेनमार्क के ...नाम है परनील रोज ग्रॉंजिकर(Pernille Rose Gronkjier), उन्हीं की फिल्म आई है- 'लव एडिक्शन' जिसका प्यार से कुछ लेना-देना नहीं है, बल्कि शॉर्ट फिल्म है।
इस फिल्म की केंद्रीय भूमिका में है एक लव एडिक्ट, जिसका सम्बन्ध उपेक्षित बचपन और उससे उत्पन्न पीड़ा से है। उन्होंने फिल्म में बताया है कि किस तरह से 'अल्कोहल' और 'ड्रग' के मुकाबले 'लव एडिक्शन' से मुक्ति पाना सर्वाधिक कठिन है। इन एडिक्ट्स पर नेगेटिविटी जब हावी होती है तो बलात्कार जैसे कृत्य करते हैं।
इस संबंध में ग्रॉंजिकर कहते हैं- They are those who are not worth loving.
ये 'लव एडिक्ट' वही लोग होते हैं जिन्होंने बचपन में घोर उपेक्षा, अकेलापन और प्यार में दुत्कार सहे होते हैं।
बहरहाल मनोविज्ञान चाहे कितने ही विश्लेषण कर ले मगर भुक्तभोगी का न तो कोई विश्लेषण होता है न ही इस से अपराध की गंभीरता कम हो जाती है। सोचने की बारी तो पुरुषों की है अब...
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