वह 15 मार्च 2012 का दिन था जब उत्तर प्रदेश का भविष्य किसी नौजवान मुख्यमंत्री के हाथों में देख प्रदेश के हर वर्ग में कुछ अपेक्षाओं ने जन्म लिया था कि कम से कम अब तो पूरे प्रदेश को हाथियों की मूर्तियों से... तानाशाहीपूर्ण कुशासन से......सारी कुव्यवस्थाओं के लिए राज्य सरकार द्वारा केंद्र को और केंद्र द्वारा राज्य सरकार को कोसने वाले बदहाली के राग गायन से मुक्ति मिलेगी।
लेकिन महज डेढ़ साल में ही सत्तारूढ़ सपा ने कुछ पाया हो या ना पाया हो मगर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव प्रशासनिक उद्दंडता पर रोने और अपनी लाचारी का ढिंढोरा पीटने वाले मंत्रियों के सुर में सुर जरूर मिलाने लगे हैं।
ये तो शासन की बदगुमानी ही कही जायेगी कि एक ओर प्रशासनिक अफसरों को हद में रहने की हिदायत दी जाती है तो दूसरी ओर उनके काम न करने पर चार-चार आंसू बहाये जाते हैं। अराजकता का ऐसा माहौल कि प्रदेश में किसी भी क्षेत्र के विकास की कामना ज़मींदोज़ हुई जा रही है...वह एक दिवास्वप्न बन गई है।
तानाशाही और अफरातफरी का ऐसा आलम कि अफसरों के 'परों' को काटकर कहा जा रहा है कि किसी भी तरह तुन्हें उड़ना तो होगा और 'सिर्फ' लोकसभा चुनाव तक हिन्दू बनाम मुसलमान का भय फैलाते हुए इसी अराजकता को कैश करने का माहौल बनाये रखना होगा।
ताज़ा मामला युवा आईएएस अफसर और नोएडा की एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल का है।
जहां राई भी ना हो वहां पूरा का पूरा पहाड़ खड़ा कर देने की काबिलियत रखने वाले हमारे नेता अपने स्वार्थ में किस कदर अफसरशाही का प्रयोग करते हैं, इसकी ज्वलंत मिसाल है दुर्गाशक्ति का मामला।
बहरहाल, अब इलाहाबाद हाईकोर्ट में दुर्गाशक्ित के लिए दायर याचिका पर सुनवाई होनी है, तब तक कुछ भी कहना उचित नहीं होगा।
फिलहाल वे सस्पेंड हैं और मंथन का केंद्रबिंदु बनी हुई हैं...सत्तारूढ़ सराकार थोड़ी चिंतित है कि अब तक उसके इशारों पर नाचने वाली प्रशासनिक कठपुतलियां दुर्गाशक्ित के पक्ष में एक हो रही हैं और अफसर मंथन कर रहे हैं कि सर्वोच्च प्रतिष्ठा वाली सर्विस की आन कैसे बचाई जाये।
यूं कहा जा सकता है कि दुर्गा तो महज माध्यम बन गईं हैं। दरअसल अफसरों व नेताओं द्वारा एक दूसरे को ''यूज'' करने की उठापटक का ये खेल अब निर्णायक मोड़ पर आ गया है।
इस बीच आईएएस लॉबी का भी विचारमंथन सकारात्मक दिशा में जाते हुए देखना सचमुच आने वाले समय की दिशा व दशा दिखा रहा है कि वह कम से कम किसी मुद्दे पर एकराय तो हुए और उन्हीं के बीच से लालची अफसरों को ठीक करने की आवाजें तो उठीं।
अब देखना यह होगा कि राजनेताओं के इशारों पर नाचने वाले अफसर अपने आकाओं को क्या सही राह दिखा पाते हैं अथवा चंद दिनों बाद उसी रटी-रटाई राह पर चल पड़ते हैं जिसके वो लगभग आदी हो गये हैं।
- अलकनंदा सिंह
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