सोमवार, 21 अक्टूबर 2024

इसे द‍िवाली नहीं दीवाली बोल‍िए...

 
आज कल अख़बारों में ‘दीवाली’ को ‘दिवाली’ ल‍िखा जाता है जबक‍ि सही शब्द है–दीवाली। 

असल में ‘दीवाली’ का दिवालिया निकले दस-बारह बरस से ज़्यादा नहीं हुए हैं और हमारे ज़िम्मेदार अख़बारों ने ही यह काम किया है, क्योंकि पुस्तक सहित कई और दूसरे लेखन में ‘दीवाली’ का सही रूप अभी तक लिखा जाता रहा है।   

यों बोलचाल में देशज प्रयोग ‘दिवाली’ हम सुन सकते हैं, पर पढ़े-लिखे लोग लिखने-बोलने में सही रूप का प्रयोग करेंगे तो अन्ततः यही हिन्दी के हित में होगा। दुर्भाग्य यह है कि हम अपनी ही भाषा के शब्द के लिए वर्तनी निर्धारण अँग्रेज़ी में लिखे जा रहे DIWALI के आधार पर करने लगते हैं और आई (I) देखकर ‘दीवाली’ के ‘द’ पर छोटी ‘इ’ की मात्रा तय कर देते हैं।

मूल शब्द है, दीप। बताने की ज़रूरत नहीं है कि दीप का मतलब दीया। ‘दीप’ में जुड़ा ‘आलि/आली’ (कतार, शृङ्खला) तो बना ‘दीपालि/दीपाली’। ‘आवलि’ या ‘आवली’ जोड़िए तो ‘दीपावलि’ या ‘दीपावली’। ‘दीप’ में ‘माला’ जुड़ा तो ‘दीपमाला’। ‘मालिका’ जोड़िए तो ‘दीपमालिका’। अर्थ वही है। हिन्दी के स्वभाव के हिसाब से ‘दीपाली’ और ‘दीपावली’ का सहज परिवर्तन ‘दीवाली’ है। 

महादेवी वर्मा की कृति ‘दीपशिखा’ की यह पंंक्त‍ि पढ़िए—इस मरण के पर्व को मैं आज दीवाली बना लूँ। 

सोहनलाल द्विवेदी को पढ़िए—राजा के घर, कँगले के घर/हैं वही दीप सुन्दर सुन्दर/दीवाली की श्री है पग-पग/जगमग जगमग जगमग जगमग! वैसे कविताओं में ‘दीवाली’ और ‘दिवाली’ दोनों मिलेंगे, क्योंकि लय के हिसाब से मात्राओं की कमर थोड़ी लचकाने की ज़रूरत पड़ सकती है।

‘दीवाली’ चाहें तो ‘दीवा’ से भी बना सकते हैं, इसलिए कि ‘दीवा’ की कुण्डली भी संस्कृत के पास मौजूद है। ‘दीवा’ का अर्थ है ‘दीप’ या ‘दीया’, जबकि ‘दिवा’ का अर्थ है दिन। इसी ‘दिवा’ से ‘दिवाकर’ बना है, जिसका अर्थ है सूर्य। संस्कृत का दीप ही ‘दीया’ और ‘दीवा’ तक पहुँचा। ‘दीया’ हमारे अवध में आज भी ‘दीया’ ही है। ‘दीया’ से ‘दियना’, ‘दियरा’, ‘दिवना’ और छोटे दीये के लिए ‘दियरी’ तो बन गया, पर ‘दिया’ नहीं बना, क्योंकि लोगों को पता है कि हम ‘दिया’ को क्रिया के रूप में इतना इस्तेमाल करते हैं कि भ्रम की सम्भावना ज़्यादा बढ़ जाएगी। छूट सिर्फ़ कविताओं के लिए है या कुछ शब्द-संयोगों के लिए। जैसे कि ‘दीया’ में ‘सलाई’ जोड़कर शब्द बना ‘दीयासलाई’ (दीपशलाका) और फिर ‘दियासलाई’।

संस्कृत के शब्द प्राकृत में बिगड़कर आए हैं, पर वहाँ भी ‘दीवाली’ ही मिलेगा, ‘दिवाली’ नहीं। कुछ लोगों का तर्क है कि यह एक नाम है, इसलिए दिवाली लिखना सही है। अब बात यह कि नाम है तो नाम ही रहना चाहिए न! नाम को तो और भी दृढ़ता के साथ बिगड़ने से बचाना चाहिए। आख़िर किसने कह दिया कि नाम ‘दीवाली’ नहीं ‘दिवाली’ है? 

सही बात यही है कि ‘दिवाली’ अमानक प्रयोग है, पर जब चलाया ही जाएगा तो ‘महाजनो येन गतः स पन्थाः’ की तरह आम लोग भी इसे ही मानक मान लेंगे। 

अच्छा है कि हम शब्दों के सही रूप को यथाशक्य अपनाएँ और अपनी भाषा को अराजक होने से बचाएँ। हमारे अख़बार चाहें तो एक साफ़-सुथरी भाषा आने वाली पीढ़ियों को सौंप सकते हैं।

बुधवार, 16 अक्टूबर 2024

ये पोस्ट उनके ल‍िए जो #RatanTata का अंधसमर्थन कर ब‍िछे जा रहे हैं


 रतन टाटा के हाथ में जब टाटा समूह का नेतृत्व आया तो उन्होंने आर्ट के नाम पर 'न्यूड‍िटी'  को प्रमोट करने वाले  #PAG यानी "प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप" को खुले हाथ से संरक्षण द‍िया और भारतीय संस्कृत‍ि को आर्ट के जर‍िए प्रदर्श‍ित करने वाले  #बंगाल_स्कूल_ऑफ_आर्ट को खत्म कर दिया । 

इसी प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के पेंटर थे, हेब्बार, शुजा, रजा और मकबूल फिदा हुसैन। यह सत्य टाटा स्टील चेयरमैन रूसी मोदी ने बताया था, ज‍िन्हें बाद में नाइत्तफिाकी के चलते रतन टाटा ने टाटा स्टील से न‍िकाल बाहर क‍िया था। 

ये देख‍िए उन प्रोग्रेस‍िव कलाकारों की कुछ कलाकृत‍ियां जो अरबप‍ितयों के ड्रॉइंग रूम्स की शोभा बनीं। 



F. N. Souza, Self Portrait,1949, Oil on board.
 












.N Souza, Mithuna 

 
Akbar Padamsee. Lovers, 1952. Oil on board. H. 62 x W. 32 in. (157.5 x 81.3 cm). Collection Amrita Jhaveri.







F.N. Souza. Temple Dancer, 1957



नई पीढ़ी को यह सच भी जानना जरूरी है 

इसी प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के पेंटर्स द्वारा अध‍िकतम न्यूड पेंट‍िंग्स बनाई गईं और ज‍िनकी कीमत लाखों से शुरू होकर करोड़ों तक में गई। उस समय आर्थ‍िक अपराध के ल‍िए मनीलॉड्र‍िंग जैसा शब्द आमजन के जुबान पर नहीं था और सांस्कृत‍िक सोच भी वामपंथ की कैद में थी इस ल‍िए इन सभी च‍ित्रकारों को कला के नाम पर भगवान की तरह पूजा जाने लगा। हम भारतीय सभ्यता को न्यूड‍िटी के हाथों कुचलता देखते रहे एकदम शून्य भाव से। हम नहीं समझ सके क‍ि ये प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट दरअसल कला का पराभव है। 

अपनी सफाई में इन्होंने हमेशा खजुराहो को सामने कर द‍िया परंतु ये नहीं बताया क‍ि वे काम क्रीड़ा के आसन थे जो योग की श्रेणी में आते हैं।


बहरहाल क‍िसी भी शख्स‍ियत के दो चेहरे होते हैं, रतन टाटा के भी थे, हमें उन दोनों चेहरों को देखकर अपना आंकलन स्वयं करना चाह‍िए क‍ि हम कहां तक इसे देश, संस्कार, और भारतीय सभ्यता के ह‍ित में देखते हैं।   

K.H. Ara, Untitled (Large Nude), 1965. Oil on canvas. H. 68 7/8 x W. 27 1/2 in. (175 x 70cm). Collection of Jamshyd and Pheroza Godrej. Courtesy of the lender. - अलकनंदा स‍िंंह


सोमवार, 7 अक्टूबर 2024

"ओ मुझे प्यार हुआ अल्ला मीयाँ" फिल्मी गाने पर 'गरबा' करते देखना आहत कर गया


 आज एक वीडियो "ओ मुझे प्यार हुआ अल्ला मीयाँ" फिल्मी गाने पर लोगों को 'गरबा' करते देखा, हृदय आहत हुआ। 'गरबा' क्या है ? यह श्री विपुल नागर ©vipulnagar ने बखूबी बताया।

वैसे गरबा के नाम पर सिर्फ और सिर्फ कमर मटका रहे देश को फ़र्क नहीं पड़ेगा लेकिन जिन्हें गरबा का असली मतलब जानना हो उनके लिए सनद रहे- 

मूल गरबो शब्द पात्रवाचक था। 

इस शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के गर्भदीप से हुई है। एक मत के अनुसार ‘‘दीप- गर्भ: घट:’’ में से दीप शब्द हट गया और गर्भ:घट: का अपभ्रंश गरबो प्रचलित हुआ। दूसरे मत के अनुसार गर्भ शब्द का ही अर्थ घड़ा होता है। (गर्भेषु पिहितं धान्यं)। छेद वाले घड़े को गरबो कहा जाता है। मिट्टी के छोटे घड़े या हाँडी में बहुत से छिद्र (चौरासी या 108 छिद्र होने का भी उल्लेख मिलता है) करके उसमें दीपक रखा जाता है। घड़े में छेद करने की इस क्रिया को ‘‘गरबो कोराववो’’ कहा जाता है। 

84 छिद्र वाला गरबो 84 लाख योनियों का प्रतीक है जबकि 108 छिद्र वाला गरबो (मिट्टी का घड़ा) ब्रह्मांड का प्रतीक है। इस घड़े में 27 छेद होते हैं - 3 पंक्तियों में 9 छेद - ये 27 छेद 27 नक्षत्रों का प्रतीक होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र के 4 चरण होते हैं (27 * 4 = 108)। नवरात्रि के दौरान, मिट्टी का घड़ा बीच में रखकर उसके चारों ओर गोल घुमना ऐसा माना जाता है जैसे हम ब्रह्मांड के चारों ओर घूम रहे हों। यही 'गरबा' खेलने का महत्व है।

यह हाँडी या तो मध्यभूमि में रखी जाती है या किस महिला को बीच में खड़ा करके उसके सिर पर रखी जाती है, जिसके चारों ओर अन्य महिलाएँ गोलाई में घूम कर गरबो गाती हैं। दीप को देवी अथवा शक्ति का प्रतीक मान कर उसकी प्रदक्षिणा की जाती है। 

कालान्तर में इस नृत्य और गीत का नाम भी गरबो पड़ गया। इस प्रकार गरबो का अर्थ वह पद्य हो गया, जो वृत्ताकार घूम-घूम कर गाया जाता है।

पात्रवाचक से क्रियावाचक गीत वाचक या काव्य वाचक बनने से पहले गरबो शब्द अनेक सांस्कृतिक भूमिकाओं से गुजरा है। 

गरबो के प्रथम लेखक वल्लभ मेवाड़ा माने गये हैं। (१६४० ई. से १७५१)। स्थूल या पात्र-वाचक गरबे का वर्णन उन्होंने अपने गरबे मां ए सोना नो गरबो लीधो, के रंग मा रंग ता़डी में किया है। 

सौ. चैतन्य बाला मजूमदार ने अपनी पुस्तक ललित कलाओं अने बीजा साहित्यलेखो में इस प्रक्रिया का बहुत सुन्दर आकलन किया है। उनके अनुसार– नवरात्रि में स्थापित कलश, अखण्ड ज्योति बिखेरता गरबा हुआ; इस गरबे को मध्य में स्थापित कर सुहागिनों ने उसमें स्थापित ज्योति स्वरूप शक्ति का पूजन किया एवं परिक्रमा आरम्भ की; इस प्रकार पूजित गरबो को भक्ति के आवेश की वृद्धि के साथ-साथ माथे पर रख कर घूमने की वृत्ति जागी और सुन्दरियाँ अपने गरबे को सिर पर रख कर गोलाई में घूमने लगीं; भाव की वृद्धि हुई, जिसे प्रगट करने की सहज वृत्ति में उनके कंठ से स्वर फूटे, भाषा की सहायता से ये स्वर पद्य बने, परन्तु इतने से ही हृदय का आवेश पूरा-पूरा व्यक्त नहीं हो सका। 

सर पर गरबा रख कर गीत गाते-गाते घूमते हुए हाथ, पैर, नेत्र, वाणी सभी को एक दिशा मिली। 

सब अंग नृत्य करने लगे। 

गीत, संगीत और नृत्य में एक सामंजस्य स्थापित हुआ और इस प्रकार एक नयी विधा का जन्म हुआ, जो गुजरात का प्रतिनिधि लोकनृत्य बन गया।

और अब तो देश में सब नाच रहे हैं। सिर्फ नाच रहे हैं!

साभार: फेसबुक से 

बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

ब्रज का सांझी उत्सव, आज हुआ समापन, सूखे रंगों की साँझी ने मनमोहा

 वृन्दावन के मंदिरों में आजकल तरह-तरह की सांझी उत्सव सज रही है। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से सांझी उत्सव प्रारंभ होता है जो कि भाद्रपद कृष्ण अमावस्या (श्राद्धपक्ष में 15 दिनों ) तक चलता है। आज इसका समापन हो गया है। 

ये देख‍िए सूखे रंगों की साँझी






'जुगल जोड़ी', 'श्रीकृष्ण रास' और 'श्रीराम का राजतिलक', ये तीनों सूखे रंगों की पारम्परिक साँझी ग्वालियर के युवा कलाकार यमुनेश नागर ने बनाई हैं। प्रत्येक साँझी में ६ से ८ साँचे, एक के बाद एक रख कर, अलग अलग रंग डाले गये हैं।

यमुनेश नागर ग्वालियर आकाशवाणी पर बी हाई ग्रेड का पखावज वादक भी हैं।


ये है सांझी उत्सव मनाने का असली कारण

वैष्णव जन के हर घर के आंगन और तिबारे में बनाने की परंपरा है। राधारानी अपने पिता वृषभान के आंगन में सांझी पितृ पक्ष में प्रतिदिन सजाती थी। उनके भाई एवं परिवार का मंगल हो इसके लिए फूल एकत्रित करते थे और इसी बहाने श्री राधा कृष्ण का मिलन होता था। कन्याएं एवं रसिक भक्त जन आज भी पितृ पक्ष में अपने घरों में गाय के गोबर से सांझी सजाती हैं। इसमें राधा कृष्ण की लीलाओं का चित्रण अनेक संम्प्रदाय के ग्रंथों में मिलता है। ऐसा विश्वास है कि श्री राधा कृष्ण उनकी सांझी को निहारने के लिए अवश्य आते हैं।


शुरू में पुष्प और सूखे रंगों से आंगन को सांझी से सजाया जाता था। अब समय के साथ सांझी सिर्फ सांकेतिक रह गई है। 

सरस माधुरी काव्य में सांझी का कुछ इस तरह उल्लेख किया गया है। 

सलोनी सांझी आज बनाई, 

श्यामा संग रंग सों राधे, रचना रची सुहाई। 

सेवा कुंज सुहावन कीनी, लता पता छवि छाई। 

मरकट मोर चकोर कोकिला, लागत परम सुखराई।

- अलकनंदा स‍िंंह