NEET-UG 2024 की परीक्षा के नतीजे निकले और विवाद शुरू हो गया. इस परीक्षा से जुड़ी खबरों ने लाखों लोगों के अंदर यह जानने की जिज्ञासा जरूर पैदा कर दी है कि आखिर नीट की परीक्षा क्या है और किसलिए ली जाती है, कटऑफ का क्या महत्व है.
ये है मामला
NEET-UG परीक्षा क्या है और क्यों की जाती है?
NEET-UG का अर्थ है National Eligibility-cum-Entrance Test जो कि मेडिकल की अंडर ग्रेजुएट की पढ़ाई के लिए लिया जाने वाला एक कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट है. इसे पूरे देश में 13 अलग-अलग भाषाओं में कराया जाता है. इसके लिए आप न सिर्फ हिंदुस्तान में बल्कि दुनिया के कई अलग-अलग देशों से भी टेस्ट दे सकते हैं. इस टेस्ट को पास करने के बाद कैंडिडेट MBBS के साथ ही अंडर ग्रेजुएट BAMS, BUMS, BSMS और BHMS के लिए भी क्वालीफाई कर सकता है.
कब शुरू हुई NEET-UG परीक्षा?
मेडिकल की पढ़ाई के लिए NEET-UG परीक्षा की शुरुआत देशव्यापी स्तर पर 2016 में हुई. शुरुआती तीन साल इस पेपर को आयोजित कराने की जिम्मेदारी CBSE बोर्ड के पास थी लेकिन 2019 में ये जिम्मेदारी देश में अलग-अलग परीक्षा का आयोजन करने वाली संस्था नेशनल टेस्टिंग एजेंसी यानी NTA के पास आ गई. 2016 से पहले इसे राज्य स्तर पर आयोजित किया जाता था और इस एलिजिबिलिटी टेस्ट को CPMT के नाम से जाना जाता था. लेकिन राज्यों की मनमानी और इस टेस्ट में बढ़ती गड़बड़ियों के चलते इसको देशव्यापी स्तर पर कराने की योजना बनाई गई और इसे NEET-UG परीक्षा का नाम दिया गया.
कौन दे सकता है NEET-UG परीक्षा?
इस परीक्षा को देने की निर्धारित शैक्षणिक योग्यता पीसीबी यानी कि फिजिक्स, केमिस्ट्री और बायोलॉजी के साथ 12वीं पास होना है. यानी इन विषयों के साथ जो छात्र 12वीं की परीक्षा किसी भी मान्यता प्राप्त बोर्ड से पास करता है वो इस परीक्षा को देने के लिए योग्य माना जाता है. NEET-UG परीक्षा को जनरल (अनारक्षित), ओबीसी, एससी-एसटी और विकलांग कुल चार कैटेगरी में दिया जा सकता है. चारों कैटेगरी में मिनिमम क्वालिफाइंग मार्क्स अलग-अलग होते हैं. जैसे 2024 की निर्धारित नीट परीक्षा योग्यता के मुताबिक, जनरल कैटेगरी में 50 फीसदी से 12वीं पास करने वाला छात्र भी नीट की परीक्षा दे सकता है. वहीं एससी, एसटी, ओबीसी और सुरक्षित विकलांग कैटेगरी में 40 प्रतिशत और जनरल विकलांग कैटेगरी में 45 प्रतिशत अंक होने चाहिए.
कितनी बार दी जा सकती है NEET-UG परीक्षा?
इस एग्जाम को देने की न्यूनतम उम्र 17 साल है. जो कैंडिडेट 31 दिसंबर तक 17 वर्ष पूरे कर लेते हैं वो इस परीक्षा में भाग ले सकते हैं, हालांकि इस परीक्षा को देने की अधिकतम आयु नहीं है ना ही इस पेपर को देने की कोई लिमिट है. यानी कोई भी कैंडिडेट इस परीक्षा को कितनी भी बार दोहरा सकता है. पहले जनरल कैटेगरी के लिए 25 वर्ष आयु लिमिट थी यानी 25 वर्ष के बाद जनरल कैटेगरी से इस एग्जाम को दोबारा नहीं दिया जा सकता था लेकिन अब जनरल कैटेगरी से भी इस आयु सीमा को हटा लिया गया है. ऐसे ही पहले सीबीएसई द्वारा इस पेपर को सिर्फ 3 बार देने का ही विकल्प था लेकिन CBSE से हटने के बाद इस लिमिट को भी हटा लिया गया था. अब कोई कितनी भी बार इस परीक्षा को दे सकता है.
कट ऑफ क्या है और कैसे निर्धारित किया जाता है?
कट ऑफ वो अंतिम अंक हैं जिसके बाद छात्र को मेडिकल इंस्टीट्यूट्स में एडमिशन नहीं मिल पाता चाहे वो सरकारी मेडिकल कॉलेज हो या प्राइवेट मेडिकल कॉलेज. देश में मेडिकल कॉलेजों और मेडिकल सीट्स के लिमिटेड होने के चलते एक कट ऑफ निर्धारित किया जाता है जिसके बाद छात्र/छात्रा को एडमिशन नहीं दिया जाता. इस साल ज्यादा बच्चों के पेपर देने से जनरल कैटेगरी का कट ऑफ भी बढ़ गया है. इसे जनरल कैटेगरी में मिनिमम स्कोर के तौर पर भी जाना जाता है और आप इसे इस परीक्षा को पास करने के पासिंग मार्क्स भी मान सकते हैं. लेकिन ओबीसी, एसटी-एससी और विकलांग कैटेगरी में इन नंबरों में अंतर होता है. उन कैटेगरी का कट ऑफ जनरल कैटेगरी के मुकाबले कम रहता है.
जहां पिछले साल 720 में से 137 नंबर लाने वाले को भी किसी प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में एडमिशन मिल सकता था. वहीं इस साल ये नंबर 164 तक पहुंच गया. लगातार गिरते कट ऑफ के बाद साल 2024 में काफी उछाल आया है.
इस साल कट ऑफ बढ़ने की क्या वजहें रही?
इस साल कट ऑफ बढ़ने की दो बड़ी वजहें रहीं. करियर काउंसलर गणेश पांडे बताते हैं इसकी पहली वजह इस साल 3 लाख ज्यादा बच्चों का परीक्षा देना रहा. जहां 2023 परीक्षा में कुल 20,38,596 छात्रों ने हिस्सा लिया था वहीं इस साल इनकी संख्या 23,33,297 पहुंच गई, जिनमें से करीबन 13 लाख छात्रों ने NEET-UG परीक्षा को क्वालीफाई किया है. 3 लाख अतिरिक्त छात्र और लिमिटेड सीट होने की वजह से कट ऑफ को बढ़ा दिया गया.
इसकी दूसरी बड़ी वजह कई छात्रों का बार-बार परीक्षा देना भी है. जैसा कि हमने बताया कि इस एग्जाम को देने की कोई आयु सीमा नहीं है, एक छात्र कितनी भी बार इस परीक्षा को दे सकता है. ऐसे में कई छात्र अच्छे सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए इस परीक्षा को साल दर साल देते हैं जिससे कट ऑफ बढ़ता जाता है.
वहीं इस साल एकदम से 67 बच्चों के 720 में से 720 नंबर आने से भी कट ऑफ काफी ज्यादा रहा. जहां हर साल 2 या 3 बच्चे ही पूरे अंक प्राप्त कर पाते थे वहीं इस साल कुल 67 बच्चों के पूरे नंबर आने से भी कट ऑफ बढ़ा है.
औसतन नंबर में भी हुई बढ़ोतरी
मिनिमम मार्क्स में जहां इस साल काफी बढ़ोतरी देखी गई वहीं औसतन नंबरों में भी काफी उछाल देखा गया. औसत अंक वो अंक होते हैं जो सभी उम्मीदवार के कुल नंबरों से कुल उम्मीदवार की संख्या को विभाजित करके आते हैं. औसत अंकों में बढ़ोतरी की वजह इस साल 23 लाख उम्मीदवारों का एग्जाम देना भी रहा. जहां पिछले साल 20 लाख बच्चों के अंकों का औसत 280 के करीब था वही इस साल ये औसत बढ़कर 323 के करीब पहुंच गया है.
कितने नंबर आने पर सरकारी मेडिकल कॉलेज में एडमिशन मिल सकता है?
देश में कुल 706 मेडिकल कॉलेज हैं जिनमें से 386 सरकारी और 320 प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की संख्या है और इन सभी मेडिकल कॉलेजों में लगभग 1,10,000 सीटें हैं. सरकारी कॉलेजों में जहां कुल 56,405 सीटें हैं वहीं प्राइवेट में 52,765 सीटें हैं. इन सीट्स को छात्रों के मैरिट के हिसाब से दिया जाता है. जिन छात्रों के अच्छे नंबर होते हैं उन्हें सरकारी मेडिकल कॉलेजों में प्राथमिकता दी जाती है. सरकारी कॉलेजों में सीटें भरने के बाद छात्र प्राइवेट कॉलेज में दाखिला ले सकते हैं. लेकिन कई छात्र सरकारी के साथ-साथ प्राइवेट कॉलेजों में भी सीट आरक्षित रखते हैं ताकि सरकारी मेडिकल कॉलेज न मिलने की स्थिति में वो मनचाहे प्राइवेट कॉलेज में एडमिशन ले सकें. सभी प्राइवेट कॉलेजों की फीस अलग-अलग है. एक अनुमान के मुताबिक एक प्राइवेट कॉलेज 1 साल के लगभग 15-20 लाख रुपये वसूलता है. ये फीस अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हो सकती है.
600 अंक लाने वाले छात्र आसानी से सरकारी मेडिकल कॉलेज में एडमिशन पा लेते हैं लेकिन इस साल कट ऑफ और रैंकिंग में बढ़ोतरी की वजह से 620-625 नंबर लाने वाले छात्रों को ही सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल पाएगा. बाकी छात्रों के पास प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों का विकल्प है. लेकिन MBBS, BDS और आयुष तीनों में सीट्स पाने के लिए अलग-अलग सीट्स सुरक्षित हैं. जैसे जनरल कैटेगरी का कट ऑफ ज्यादा रहता है वैसे ही MBBS की सीट्स लिमिटेड होती हैं जिसमें एडमिशन के लिए ज्यादा अंक चाहिए होते हैं वैसे ही BDS और आयुष में एडमिशन के लिए MBBS के मुकाबले कम नंबर्स की आवश्यकता होती है.
रैंकिंग कैसे निर्धारित की जाती है?
फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया मेडिकल एसोसिएशन (फाइमा) के अध्यक्ष डॉ. रोहन कृष्णन बताते हैं कि रैंकिंग को निर्धारित करने का समीकरण भी बेहद आसान है. इसमें एक समान नंबर लाने वाले छात्रों को उनके बायोलॉजी, केमिस्ट्री और फिजिक्स के नंबरों के आधार पर रैंकिंग दी जाती है जैसे इस साल NEET-UG 2024 में 67 छात्रों ने 720 नंबर हासिल किए. इन छात्रों को उनके नंबर और आयु के आधार पर 67 रैंक तक दी जाएगी. इसके बाद 719 नंबर लाने वाले एक छात्र को 68 रैंक और 718 नंबर लाने वाले तीसरे छात्र को 69 रैंक दी जाएगी. चूंकि इस साल नंबरों का अंतराल काफी ज्यादा रहा है तो इस साल 600 नंबर लाने वाले छात्र की रैंकिंग भी 80,000 तक पहुंच गई है. आगे इसी रैंकिंग के आधार पर बच्चों को काउंसलिंग के समय कॉलेजों का आवंटन किया जाता है.
काउंसलिंग कैसे की जाती है?
छात्र अपनी रैंकिंग और नंबर के आधार पर घटते क्रम में अपने मनचाहे कॉलेज और सब्जेक्ट का चयन करते हैं. लेकिन उनकी रैंकिंग के आधार पर उनको कॉलेज का आवंटन होता है. इसके बाद छात्र को आवंटित कॉलेज के बारे में सूचित किया जाता है जहां वो एडमिशन का प्रोसेस पूरा कर सकता है. अगर छात्र को उम्मीद होती है कि उसका नंबर सरकारी मेडिकल कॉलेज में नहीं आएगा तो वो मनचाहे प्राइवेट कॉलेज में अप्लाई कर सकता है और एडमिशन ले सकता है.