सुप्रीम कोर्ट अकसर गंभीर मामलों पर ”स्वत: संज्ञान” लेता रहता है मगर आपने कभी सुना है कि उसने न्यायव्यवस्था के भीतर पनप चुके दलदल की बावत स्वत: संज्ञान लिया हो।
मुकद्दमों के अंबार, तारीख पर तारीख, विचाराधीन कैदियों की दुर्दशा, अपीलों के चक्रव्यूह से जूझते आम आदमी की व्यथा पर उसने कभी स्वत: संज्ञान लिया हो। ऐसा कोई उदाहरण सामने नहीं आता। कभी सुप्रीम कोर्ट ने ये आदेश क्यों नहीं दिया कि इस ”निश्चित समय” में ” इतने मुकद्दमे” हर हाल में निपटा ही दिये जाएं और नहीं निपटाने पर कोर्ट के सम्माननीय न्यायाधिकारियों को ”ठोस कारण बजाने के लिए तैयार” रहना होगा…या सुप्रीम कोर्ट ने कभी इस बावत स्वत: संज्ञान लिया कि क्यों उसके आदेश ज़मीन पर नहीं उतर पाते, क्यों वे सिर्फ बड़े लोगों और सरकारों द्वारा ”आड़” लेने के काम आते हैं।
अपनी इस ”स्वत:संज्ञानी” प्रवृत्ति की ओर सुप्रीम कोर्ट ने कभी नहीं सोचा, वरना जिस मॉब लिंचिंग के लिए वह सरकारों से कानून बनाने को कह रहा है, वह और कुछ नहीं स्वयं न्यायव्यवस्था के भीतर पैदा हो चुकी सड़ांध ही है जिसने कानून के राज पर से विश्वास हटा दिया है और लोग भीड़तंत्र के ज़रिए अपना फैसला स्वयं करने लगे हैं।
भीड़ में इकठ्ठे हुए लोग अब अपना आक्रोश दबा नहीं पा रहे बल्कि निकाल रहे हैं, कानूनों के अंबार में उन्हें न्याय की आशा अपने लिए कहीं दिखाई ही नहीं देती। जेलों में बढ़ती भीड़ न्याय व्यवस्था को अपने भीतर झांकने की चेतावनी देती रही है मगर इसे अनसुना ही किया जाता रहा। काश! इस अराजक स्थिति की ओर कभी सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया होता तो लोगों में आशा बंधती कि निश्चित समय में उन्हें न्याय मिल जाएगा और अपराधी को सजा।
कल जब सुप्रीमकोर्ट मॉब लिंचिंग पर अपने कथित ”कड़े-रुख” से सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहा था, ठीक उसी समय बिहार के बेगूसराय में भीड़ ने चार हथियारबंद अपराधियों को उनके किये की सजा दे भी दी। ना तारीख… ना गवाह और फैसला ऑन द स्पॉट। यहां भीड़ ने उन चार में से दो को तो पीट-पीट कर ही मार डाला, तीसरे को पुलिस बचाकर ले गई और चौथा फरार हो गया। ये चारों बदमाश दो मोटरसाइकिलों पर हथियार लहराते हुए एक छात्रा को खोजते-खोजते न सिर्फ स्कूल तक जा पहुंचे बल्कि टीचर की कनपटी पर कट्टा रखकर धमकाने लगे। यह माज़रा देख बच्चों ने शोर मचाया तो पास ही खेतों में काम कर रही मजदूर-किसान महिलायें आईं और बदमाशों को घेर लिया। फिर पुरुषों द्वारा बदमाशों की पिटाई कर उन्हें उनके अंजाम तक पहुंचा दिया गया।
अब करते रहिये मॉब लिंचिंग पर बहस दर बहस, तलाशते रहिए भीड़ में से उन 8-10 लोगों को और ढूंढ़ते रहिए गवाह। अगर कानून बनाना ही है तो मॉब लिंचिंग से पहले स्वयं न्यायव्यवस्था के ”अलंबरदारों” को अपने लिए बनाना होगा ताकि आमजन में यह विश्वास जाग सके कि कोर्ट आधी रात को सिर्फ ”पहुंच वालों” के लिए ही नहीं खुलतीं बल्कि उन आमजनों के मामले निपटाने को भी गंभीरता से निपटाती हैं जो सालोंसाल कोर्ट-वकील-गवाह-तारीख-फैसला और फिर से अपील-तारीख-फैसला में ज़िंदगी जाया कर देते हैं। कई बार तो पीढ़ियां हो जाती हैं मगर न्याय नहीं मिलता, विचाराधीन रहते हुए ही जेलों में ही मर-खप जाते हैं।
यहां भीड़ के इस वहशियाने तरीके को जायज नहीं ठहरा जा सकता मगर आखिर ये अराजक स्थिति आई कैसे कि कानून पर विश्वास की बजाय लोग स्वयं फैसला करने लगे हैं। उन्हें कोर्ट के चक्रव्यूह से ज्यादा आसान लग रहा है भीड़ बनकर मामले को ‘निपटाना’। दरअसल जबतक हम समस्या की जड़ तक नहीं पहुंचेंगे तब तक इसके लिए कितने भी कानून बना लिए जायें, कुछ भी हासिल नहीं होने वाला क्योंकि कानून बना दिये जाने के बाद भी न्याय के लिए आना तो कोर्ट की शरण में ही पड़ेगा ना।
कोर्ट तक पहुंचने की लंबी प्रक्रिया और उसमें भी अगर सुबूत ना मिलें (या तलाशे ना जायें) तो अपराधी के हित में फैसला आने जैसी स्थितियां ही भीड़ को कानून अपने हाथ में लेने का कारक बनीं हैं।
हकीकत तो ये है कि सुप्रीम कोर्ट की आत्ममुग्धता उसे न्याय व्यवस्था की इस सड़ांध को देखने ही नहीं दे रही। ये आत्ममुग्धता ही है कि सरकारों के खिलाफ आदेश पर आदेश देने में तो सुप्रीम कोर्ट रातदिन एक किये है मगर चरमराई न्याय व्यवस्था उसे दिखाई नहीं देती, और अब यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश आदेश सरकारी फाइलों में तो रहते हैं, ज़मीन पर दिखाई नहीं देते।
-अलकनंदा सिंह
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