हम सनातनधर्मी सदैव दो धाराओं में बहते हैं और समयानुसार इनका उपयोग-सदुपयोग-दुरूपयोग भी कर लेते हैं। अब देखिए ना गुरूपूर्णिमा के उत्सव को लेकर भी तो यही हो रहा है।
मथुरा में गुरू पूर्णिमा पर गोवर्धन में होने वाला मुड़िया मेला शुरू हो चुका है। शासन द्वारा मेले का घोषित समय 23 जुलाई से लेकर 27 जुलाई तक है। कहा जा रहा है कि इस बार श्रद्धालुओं की संख्या एक करोड़ भी हो सकती है परंतु हम ब्रजवासी जानते हैं कि शासन की तय तिथियां और व्यवस्थाएं श्रद्धा के इस ज्वार के आगे कोई मायने नहीं रखतीं। हालांकि ब्रज के ग्रामीण इलाकों में खास बदलाव नहीं आता परंतु शहरवासियों के लिए अघोषित कर्फ्यू की स्थिति होती है और साथ ही होती है श्रद्धालुओं के लिए स्वागत की भावना भी। एक ओर सड़कों के किनारे चलने वाले परिक्रमार्थी अटूट मानवश्रृंखला बनाकर इस पर्व का आनंद लेते हैं तो दूसरी ओर ब्रजवासी उस श्रृंखला में घुसकर अपने गंतव्य के लिए रास्ता तलाशते रहते हैं।
27 जुलाई अर्थात् शुक्रवार को गुरू पूर्णिमा है, इसी दिन चंद्रग्रहण भी है, सूतक लगने और गुरू पूजन के लिए सभी मंदिरों, मठों, आश्रमों ने अपने-अपने अनुयायियों को सूचनाएं दे दी हैं कि कब तक गुरू पूजन और गुरुओं का ''दर्शनलाभ'' लिया जा सकता है़।
ब्रज में गुरु पूर्णिमा का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता और आदिगुरु महर्षि वेदव्यास की तपस्थली मथुरा के कृष्णगंगा घाट पर है। अपने-अपने गुरुओं में इन्हीं आदि गुरू का अंश मानकर श्रद्धालु 'ब्रज में गुरूपूर्णिमा' को अधिक महत्व देते हैं। गुरू पूर्णिमा पर ही गोवर्द्धन में मुड़िया पूनों मेले का महत्व इसलिए है क्योंकि आषाढ़ मास की इसी पूर्णिमा पर सनातन गोस्वामी का तिरोभाव हुआ था जिनके अनुयायी अपना सिर मुंडवाकर गुरू के प्रति भक्ति जताते हैं, इसलिए इसे मुड़िया पूनों कहा जाता है।
गुरु-वरण की महिमा शास्त्रों में इतनी बतायी गयी है कि बिना गुरु वाले व्यक्ति को “निगुरा” नामक निंदक उपाधि देकर अपमानित किया गया है परंतु अब तमाम प्रवचनों-श्रद्धाओं-मान्यताओं की परंपराओं से ज़रा हटकर देखें तो गुरू के प्रति श्रद्धा जताने का ये पर्व अब खालिस व्यापारिक रूप में हमारे सामने है। इस बार चूंकि चंद्रग्रहण भी है तो गुरू स्वयं अपने शिष्यों (कर्मचारियों और मैनेजरों) के माध्यम से ये घोषणा करवा रहे हैं कि अमुक तिथि और अमुक समय पर अमुक विधि से गुरू का ''आशीर्वाद'' ले लें अन्यथा ''लाभ'' नहीं होगा, इस चेतावनी और धमकी के बाद अब ये लाभ कैसे और किसे होगा, इस पर फिर कभी लिखूंगी।
शासन की तमाम व्यवस्थाओं पर भारी पड़ती गुरूभक्तों की भीड़ बताती है कि श्रद्धा भी अब कितनी दिखावटी हो गई है। देवता भले ही सो गए हों परंतु मंदिरों में उन्हें जगाने प्रक्रिया जारी है। जिन गुरुओं पर अपने शिष्यों के भीतर उनके ''स्व-तत्व'' को जगाने की जिम्मेदारी है, वे अब परिवर्तित होकर स्वयं को ईश्वर बनाने और घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। गुरूदक्षिणा के पैकेज जारी कर दिये गए हैं। जो अच्छी दक्षिणा देगा, वह आश्रम का एसी रूम लेने का अधिकारी है और जिनकी सामर्थ्य कम है, उसे खुले में, टेंट में, आश्रम के बरामदे में डेरा डाल कर ''गुरू के आशीर्वाद से'' काम चलाना होगा। गुरुओं के ठिकानों पर बाकायदा फूल-फल-मिठाई-कंठी-टेंट आदि के ठेके उठा दिये गए हैं।
जहां तक बात गुरुओं की है तो धर्म के इस व्यापार में गुरू पूर्णिमा एक ऐसा मौका है जिसके माध्यम से धर्मगुरू पूरे साल का ''भंडारण'' कर लेंगे परंतु क्या धर्म के इस उथले रूप के लिए सिर्फ गुरू ही जिम्मेदार हैं, नहीं...बिल्कुल नहीं। अपने भीतर झांकने को, अपना गुरू स्वयं बनने को प्रेरित करने वाली शिक्षाओं का क्या कोई अर्थ नहीं। अशिक्षितों को बहलाया जाना तो फिर भी समझ आता है परंतु उनका क्या जो धन, बुद्धि और विवेक वाले हैं।
वास्तविक गुरू कौन है, गुरूदक्षिणा का अर्थ क्या है, ईश्वर को पाने का माध्यम गुरू कौन है, धर्म-अधर्म का ज्ञान देने वाला गुरू क्या स्वयं इससे निरपेक्ष है...आदि ऐसे कितने ही प्रश्न हैं जिनका उत्तर हमें इस गुरूपूर्णिमा पर जानने का प्रयास तो करना ही चाहिए। शेष रही बात हम ब्रजवासियों की, तो हर श्रद्धालु का स्वागत करना हमारा कर्तव्य है और धर्म के बिगड़ते रूप के सत्य से अवगत कराना भी, सो हम करते रहेंगे। जड़ता छोड़कर गुरू दत्तात्रेय ने 22 गुरू यूं ही नहीं बनाये थे, उन्होंने बाकायदा उनकी खूबियां देखी थीं। ब्रज तो यूं भी कटुसत्य कहने वाले कान्हा की नगरी है जिन्होंने सड़ीगली परंपराओं को बांसुरी के सहारे ही जागरूकता फैलाई थी।
महाभारत के अध्याय ११.७ में बताया गया है कि अमरता और स्वर्ग का रास्ता सही ढंग से तीन गुणों का जीवन जीना है: स्व- संयम (दमः), उदारता (त्याग) और सतर्कता (अप्रामदाह) अर्थात् स्वयं को स्वयं से परिचित कराना ही गुरूत्व को प्राप्त करने की संपूर्ण विधि है, तो स्वयं अपने गुरू बनो।
-अलकनंदा सिंह
मथुरा में गुरू पूर्णिमा पर गोवर्धन में होने वाला मुड़िया मेला शुरू हो चुका है। शासन द्वारा मेले का घोषित समय 23 जुलाई से लेकर 27 जुलाई तक है। कहा जा रहा है कि इस बार श्रद्धालुओं की संख्या एक करोड़ भी हो सकती है परंतु हम ब्रजवासी जानते हैं कि शासन की तय तिथियां और व्यवस्थाएं श्रद्धा के इस ज्वार के आगे कोई मायने नहीं रखतीं। हालांकि ब्रज के ग्रामीण इलाकों में खास बदलाव नहीं आता परंतु शहरवासियों के लिए अघोषित कर्फ्यू की स्थिति होती है और साथ ही होती है श्रद्धालुओं के लिए स्वागत की भावना भी। एक ओर सड़कों के किनारे चलने वाले परिक्रमार्थी अटूट मानवश्रृंखला बनाकर इस पर्व का आनंद लेते हैं तो दूसरी ओर ब्रजवासी उस श्रृंखला में घुसकर अपने गंतव्य के लिए रास्ता तलाशते रहते हैं।
27 जुलाई अर्थात् शुक्रवार को गुरू पूर्णिमा है, इसी दिन चंद्रग्रहण भी है, सूतक लगने और गुरू पूजन के लिए सभी मंदिरों, मठों, आश्रमों ने अपने-अपने अनुयायियों को सूचनाएं दे दी हैं कि कब तक गुरू पूजन और गुरुओं का ''दर्शनलाभ'' लिया जा सकता है़।
ब्रज में गुरु पूर्णिमा का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता और आदिगुरु महर्षि वेदव्यास की तपस्थली मथुरा के कृष्णगंगा घाट पर है। अपने-अपने गुरुओं में इन्हीं आदि गुरू का अंश मानकर श्रद्धालु 'ब्रज में गुरूपूर्णिमा' को अधिक महत्व देते हैं। गुरू पूर्णिमा पर ही गोवर्द्धन में मुड़िया पूनों मेले का महत्व इसलिए है क्योंकि आषाढ़ मास की इसी पूर्णिमा पर सनातन गोस्वामी का तिरोभाव हुआ था जिनके अनुयायी अपना सिर मुंडवाकर गुरू के प्रति भक्ति जताते हैं, इसलिए इसे मुड़िया पूनों कहा जाता है।
गुरु-वरण की महिमा शास्त्रों में इतनी बतायी गयी है कि बिना गुरु वाले व्यक्ति को “निगुरा” नामक निंदक उपाधि देकर अपमानित किया गया है परंतु अब तमाम प्रवचनों-श्रद्धाओं-मान्यताओं की परंपराओं से ज़रा हटकर देखें तो गुरू के प्रति श्रद्धा जताने का ये पर्व अब खालिस व्यापारिक रूप में हमारे सामने है। इस बार चूंकि चंद्रग्रहण भी है तो गुरू स्वयं अपने शिष्यों (कर्मचारियों और मैनेजरों) के माध्यम से ये घोषणा करवा रहे हैं कि अमुक तिथि और अमुक समय पर अमुक विधि से गुरू का ''आशीर्वाद'' ले लें अन्यथा ''लाभ'' नहीं होगा, इस चेतावनी और धमकी के बाद अब ये लाभ कैसे और किसे होगा, इस पर फिर कभी लिखूंगी।
शासन की तमाम व्यवस्थाओं पर भारी पड़ती गुरूभक्तों की भीड़ बताती है कि श्रद्धा भी अब कितनी दिखावटी हो गई है। देवता भले ही सो गए हों परंतु मंदिरों में उन्हें जगाने प्रक्रिया जारी है। जिन गुरुओं पर अपने शिष्यों के भीतर उनके ''स्व-तत्व'' को जगाने की जिम्मेदारी है, वे अब परिवर्तित होकर स्वयं को ईश्वर बनाने और घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। गुरूदक्षिणा के पैकेज जारी कर दिये गए हैं। जो अच्छी दक्षिणा देगा, वह आश्रम का एसी रूम लेने का अधिकारी है और जिनकी सामर्थ्य कम है, उसे खुले में, टेंट में, आश्रम के बरामदे में डेरा डाल कर ''गुरू के आशीर्वाद से'' काम चलाना होगा। गुरुओं के ठिकानों पर बाकायदा फूल-फल-मिठाई-कंठी-टेंट आदि के ठेके उठा दिये गए हैं।
जहां तक बात गुरुओं की है तो धर्म के इस व्यापार में गुरू पूर्णिमा एक ऐसा मौका है जिसके माध्यम से धर्मगुरू पूरे साल का ''भंडारण'' कर लेंगे परंतु क्या धर्म के इस उथले रूप के लिए सिर्फ गुरू ही जिम्मेदार हैं, नहीं...बिल्कुल नहीं। अपने भीतर झांकने को, अपना गुरू स्वयं बनने को प्रेरित करने वाली शिक्षाओं का क्या कोई अर्थ नहीं। अशिक्षितों को बहलाया जाना तो फिर भी समझ आता है परंतु उनका क्या जो धन, बुद्धि और विवेक वाले हैं।
वास्तविक गुरू कौन है, गुरूदक्षिणा का अर्थ क्या है, ईश्वर को पाने का माध्यम गुरू कौन है, धर्म-अधर्म का ज्ञान देने वाला गुरू क्या स्वयं इससे निरपेक्ष है...आदि ऐसे कितने ही प्रश्न हैं जिनका उत्तर हमें इस गुरूपूर्णिमा पर जानने का प्रयास तो करना ही चाहिए। शेष रही बात हम ब्रजवासियों की, तो हर श्रद्धालु का स्वागत करना हमारा कर्तव्य है और धर्म के बिगड़ते रूप के सत्य से अवगत कराना भी, सो हम करते रहेंगे। जड़ता छोड़कर गुरू दत्तात्रेय ने 22 गुरू यूं ही नहीं बनाये थे, उन्होंने बाकायदा उनकी खूबियां देखी थीं। ब्रज तो यूं भी कटुसत्य कहने वाले कान्हा की नगरी है जिन्होंने सड़ीगली परंपराओं को बांसुरी के सहारे ही जागरूकता फैलाई थी।
महाभारत के अध्याय ११.७ में बताया गया है कि अमरता और स्वर्ग का रास्ता सही ढंग से तीन गुणों का जीवन जीना है: स्व- संयम (दमः), उदारता (त्याग) और सतर्कता (अप्रामदाह) अर्थात् स्वयं को स्वयं से परिचित कराना ही गुरूत्व को प्राप्त करने की संपूर्ण विधि है, तो स्वयं अपने गुरू बनो।
-अलकनंदा सिंह
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