राजनैतिक रूप से लगातार उद्भव-पराभव वाले हमारे देश में कुछ निर्धारित हॉट टॉपिक्स हैं चर्चाओं के लिए। देश के सभी प्रदेशों में ''महिलाओं की स्थिति'' पर लगातार चर्चा इन हॉटटॉपिक्स में से एक है। यूं तो फेमिनिस्ट इनकी सतत तलाश में जुटे रहते हैं मगर उनका उद्देश्य हो-हल्ला-चर्चाएं-डिस्कोर्स-कॉफी मीटिंग्स से आगे जा ही नहीं पाता इसीलिए आज भी ऐसी खबरें सुनने को मिल जातीं हैं जो हमारे प्रगति आख्यान के लिए धब्बा ही कही जाऐंगी। ये फेमिनिस्ट ग्रामीण भारत की ओर देखना भी नहीं चाहते और सुधार जहां से होना चाहिए, वही पीछे रह जाता है।
ग्रामीण भारत की कई कुप्रथाएं-बेड़ियां ऐसी हैं जो महिलाओं को इंसान ही नहीं मानना चाहतीं। इनमें से एक के बारे में शायद आपने भी सुना होगा कि मध्यप्रदेश के चंबल इलाके में कराहल अंचल के गांव आमेठ की महिलाएं ''पुरुषों के सामने चप्पल उतार कर नंगे पैर चलती हैं।''
हालांकि किसानी के तौर पर यह इलाका वहां के लोगों की कर्मठता बयान करता है। वह बताता है कि किस तरह यहां आदिवासी व भिलाला जाति के किसानों ने आमेठ, पिपराना, झरन्या, बाड़ी, चिलवानी सहित आस-पास के इलाकों में कंकड़-पत्थर से पटी पड़त पड़ी भूमि को उपजाऊ बनाया है, मगर कर्मठता की इस बानगी को पेश करने वालों ने अपनी महिलाओं की दशा को अनदेखा कर दिया।
पता चला है कि गांव की कुल आबादी 1200 में से महिलाओं की संख्या लगभग 500 है, परिवार के लिए पानी की व्यवस्था अब भी महिलाएं ही संभालती हैं। आपको सूर्योदय से पूर्व ही गांव की महिलाएं पानी के बर्तनों के साथ डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित झरने की तरफ़ जाती दिख जाऐंगी। डेढ़ किमी जाने-आने का मतलब है कि दिन के कुल मिलाकर करीब 7-8 घंटे परिवार के लिए पानी के इंतजाम करने में बिता देना।ये महिलाऐं त्रस्त हैं कि उन्हें पुरुषों के सामने आते ही चप्पल उतारनी पड़ती हैं और यह कुप्रथा उनके आत्मसम्मान को भी चकनाचूर कर रही है।
ज़रा सोचिए कि जो महिला सिर और कमर पर पानी का बर्तन लादकर आ रही हो, वह किसी पुरुष को सामने देखते ही अपनी चप्पल उतारने लग जाए तो कैसा महसूस होगा। काफी मशक्कत के बाद लाए गए पानी के गिरने की चिंता छोड़कर जब वह झुककर पैरों से चप्पल निकालेगी तो निश्चित ही उसके मन में पुरुषों के प्रति सम्मान तो नहीं रह जाएगा।
परिवार के सुख के लिए 'सम्मान पाने की इच्छा' को पीछे धकेलती ये महिलाएं बताती हैं कि "सिर पर पानी या घास का बोझ लिए जब हम गांव में घुसते हैं तो चबूतरे पर बैठे बुज़ुर्गों के सामने से निकलने के लिए हमें अपनी चप्पलें उतारनी पड़ती हैं, एक हाथ से चप्पल उतारने और दूसरे हाथ से सामान पकड़ने के कारण कई बार वह ख़ुद को संभाल नहीं पातीं। अब ऐसा रिवाज सालों से चला आ रहा है तो हम इसे कैसे बदलें, अगर हम बदलें भी तो सास-ससुर या देवर, पति कहते हैं कि कैसी बहुएँ आई हैं, बिना लक्षन, बिना दिमाग़ के, बड़ों की इज़्ज़त नहीं करतीं, चप्पल पहन कर उड़ने चली हैं।"
इन बेड़ियों को तोड़ने की बजाय अधिकांश अधेड़ उम्र के पुरुष इस रिवाज को अपने 'पुरखों की परंपरा' बताते हैं और इस बात पर ज़ोर देते हैं कि 'स्त्रियों को पुरुषों की इज़्ज़त की ख़ातिर उनके सामने चप्पल पहन कर नहीं चलना चाहिए। सभी स्त्रियां राज़ी-खुशी से परंपरा निभाती हैं, हम उन पर कोई ज़बरदस्ती नहीं करते। आज भी हमारे घर की स्त्रियां हमें देखकर दूर से ही चप्पल उतार लेती हैं, कभी रास्ते में मिल जाती हैं तो चप्पल उतार दूर खड़ी हो जाती हैं।
हकीकतन स्त्रियों को गुलामों के बतौर पेश आने वाला यह रिवाज हर मौसम में एकसा रहता है। इस गांव सहित आसपास के कई गांवों में ये रिवाज पहले सिर्फ 'निचली' जाति की महिलाओं के लिए ही था लेकिन जब 'निचली' जाति की महिलाओं में कानाफूसी होने लगी तो फिर ये 'ऊपरी' जातियों के महिलाओं के लिए भी ज़रूरी कर दिया गया। और अब हाल ये कि इन गांवों में ज्यादार समय सभी महिलाएं नंगेपांव ही दिखती हैं।
बहरहाल, इन गांवों की नई पीढ़ी की सोच एक उम्मीद जगाती है। तभी तो शहर में नौकरी कर रहे युवा अब प्रश्न करने लगे हैं-
जैसे कि "मंदिरों के आगे से जब कोई औरत चप्पल पहन के निकल जाए तो सारा गांव कहने लगता है कि फलाने की बहू अपमान कर गई लेकिन गांव के मर्द तो चप्पल-जूते पहनकर ही मंदिर के चौपाल पर जुआ खेलते रहते हैं, तब क्या भगवान का अपमान नहीं होता."
कुछ लोग मुझे यह भी कहते मिले कि महिलाओं के प्रति ऐसे रिवाजों के खिलाफ स्वयं महिलाओं को ही आगे आना होगा, मगर यह सब इतना आसान नहीं होता जब घर के ही पुरुष महिलाओं पर इन बंदिशों के हक में हों।
इस कुत्सित मानसिकता को दूर करने में शिक्षा, जागरूकता, नई पीढ़ी में सोच के स्तर पर आ रहा बदलाव सहायक हो सकता है किंतु उसमें समय लगेगा।
रही बात फेमिनिस्ट्स द्वारा इस तरह की कुरीतियों पर चर्चाओं की तो वे कॉफी-हाउसों से बाहर नहीं आने वाले, इसलिए किसी भी सकारात्मक बदलाव की अपेक्षा नई सोच पर टिकी है और अब जब इस कुरीति पर बात निकली है तो दूर तलक जानी भी चाहिए।
इस क्षेत्र के किसानों को ऐसी कुरीति के विरुद्ध भी उसी शिद्दत से खड़ा होना होगा जिस शिद्दत से वह कंकड़-पत्थर वाली ज़मीन को उपजाऊ बनाने के लिए उठ खड़े हुए थे ताकि वह एकसाथ प्रगति और मेहनतकशी की मिसाल बन सकें। पांवों में चप्पलों का न होना एक बात है और पुरुषों द्वारा अपनी छाती चौड़ी करने को महिलाओं से चप्पलें उतरवा देना दूसरी बात बल्कि यूं कहें कि यह तो फेमिनिज्म से आगे की बात है तो गलत ना होगा।
और अब चलते चलते ये दो लाइनें इसी जद्दोजहद पर पढ़िए-
तूने अखबार में उड़ानों का इश्तिहार देकर,
तराशे गए मेरे बाजुओं का सच बेपर्दा कर दिया।
-अलकनंदा सिंह
ग्रामीण भारत की कई कुप्रथाएं-बेड़ियां ऐसी हैं जो महिलाओं को इंसान ही नहीं मानना चाहतीं। इनमें से एक के बारे में शायद आपने भी सुना होगा कि मध्यप्रदेश के चंबल इलाके में कराहल अंचल के गांव आमेठ की महिलाएं ''पुरुषों के सामने चप्पल उतार कर नंगे पैर चलती हैं।''
हालांकि किसानी के तौर पर यह इलाका वहां के लोगों की कर्मठता बयान करता है। वह बताता है कि किस तरह यहां आदिवासी व भिलाला जाति के किसानों ने आमेठ, पिपराना, झरन्या, बाड़ी, चिलवानी सहित आस-पास के इलाकों में कंकड़-पत्थर से पटी पड़त पड़ी भूमि को उपजाऊ बनाया है, मगर कर्मठता की इस बानगी को पेश करने वालों ने अपनी महिलाओं की दशा को अनदेखा कर दिया।
पता चला है कि गांव की कुल आबादी 1200 में से महिलाओं की संख्या लगभग 500 है, परिवार के लिए पानी की व्यवस्था अब भी महिलाएं ही संभालती हैं। आपको सूर्योदय से पूर्व ही गांव की महिलाएं पानी के बर्तनों के साथ डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित झरने की तरफ़ जाती दिख जाऐंगी। डेढ़ किमी जाने-आने का मतलब है कि दिन के कुल मिलाकर करीब 7-8 घंटे परिवार के लिए पानी के इंतजाम करने में बिता देना।ये महिलाऐं त्रस्त हैं कि उन्हें पुरुषों के सामने आते ही चप्पल उतारनी पड़ती हैं और यह कुप्रथा उनके आत्मसम्मान को भी चकनाचूर कर रही है।
ज़रा सोचिए कि जो महिला सिर और कमर पर पानी का बर्तन लादकर आ रही हो, वह किसी पुरुष को सामने देखते ही अपनी चप्पल उतारने लग जाए तो कैसा महसूस होगा। काफी मशक्कत के बाद लाए गए पानी के गिरने की चिंता छोड़कर जब वह झुककर पैरों से चप्पल निकालेगी तो निश्चित ही उसके मन में पुरुषों के प्रति सम्मान तो नहीं रह जाएगा।
परिवार के सुख के लिए 'सम्मान पाने की इच्छा' को पीछे धकेलती ये महिलाएं बताती हैं कि "सिर पर पानी या घास का बोझ लिए जब हम गांव में घुसते हैं तो चबूतरे पर बैठे बुज़ुर्गों के सामने से निकलने के लिए हमें अपनी चप्पलें उतारनी पड़ती हैं, एक हाथ से चप्पल उतारने और दूसरे हाथ से सामान पकड़ने के कारण कई बार वह ख़ुद को संभाल नहीं पातीं। अब ऐसा रिवाज सालों से चला आ रहा है तो हम इसे कैसे बदलें, अगर हम बदलें भी तो सास-ससुर या देवर, पति कहते हैं कि कैसी बहुएँ आई हैं, बिना लक्षन, बिना दिमाग़ के, बड़ों की इज़्ज़त नहीं करतीं, चप्पल पहन कर उड़ने चली हैं।"
इन बेड़ियों को तोड़ने की बजाय अधिकांश अधेड़ उम्र के पुरुष इस रिवाज को अपने 'पुरखों की परंपरा' बताते हैं और इस बात पर ज़ोर देते हैं कि 'स्त्रियों को पुरुषों की इज़्ज़त की ख़ातिर उनके सामने चप्पल पहन कर नहीं चलना चाहिए। सभी स्त्रियां राज़ी-खुशी से परंपरा निभाती हैं, हम उन पर कोई ज़बरदस्ती नहीं करते। आज भी हमारे घर की स्त्रियां हमें देखकर दूर से ही चप्पल उतार लेती हैं, कभी रास्ते में मिल जाती हैं तो चप्पल उतार दूर खड़ी हो जाती हैं।
हकीकतन स्त्रियों को गुलामों के बतौर पेश आने वाला यह रिवाज हर मौसम में एकसा रहता है। इस गांव सहित आसपास के कई गांवों में ये रिवाज पहले सिर्फ 'निचली' जाति की महिलाओं के लिए ही था लेकिन जब 'निचली' जाति की महिलाओं में कानाफूसी होने लगी तो फिर ये 'ऊपरी' जातियों के महिलाओं के लिए भी ज़रूरी कर दिया गया। और अब हाल ये कि इन गांवों में ज्यादार समय सभी महिलाएं नंगेपांव ही दिखती हैं।
बहरहाल, इन गांवों की नई पीढ़ी की सोच एक उम्मीद जगाती है। तभी तो शहर में नौकरी कर रहे युवा अब प्रश्न करने लगे हैं-
जैसे कि "मंदिरों के आगे से जब कोई औरत चप्पल पहन के निकल जाए तो सारा गांव कहने लगता है कि फलाने की बहू अपमान कर गई लेकिन गांव के मर्द तो चप्पल-जूते पहनकर ही मंदिर के चौपाल पर जुआ खेलते रहते हैं, तब क्या भगवान का अपमान नहीं होता."
कुछ लोग मुझे यह भी कहते मिले कि महिलाओं के प्रति ऐसे रिवाजों के खिलाफ स्वयं महिलाओं को ही आगे आना होगा, मगर यह सब इतना आसान नहीं होता जब घर के ही पुरुष महिलाओं पर इन बंदिशों के हक में हों।
इस कुत्सित मानसिकता को दूर करने में शिक्षा, जागरूकता, नई पीढ़ी में सोच के स्तर पर आ रहा बदलाव सहायक हो सकता है किंतु उसमें समय लगेगा।
रही बात फेमिनिस्ट्स द्वारा इस तरह की कुरीतियों पर चर्चाओं की तो वे कॉफी-हाउसों से बाहर नहीं आने वाले, इसलिए किसी भी सकारात्मक बदलाव की अपेक्षा नई सोच पर टिकी है और अब जब इस कुरीति पर बात निकली है तो दूर तलक जानी भी चाहिए।
इस क्षेत्र के किसानों को ऐसी कुरीति के विरुद्ध भी उसी शिद्दत से खड़ा होना होगा जिस शिद्दत से वह कंकड़-पत्थर वाली ज़मीन को उपजाऊ बनाने के लिए उठ खड़े हुए थे ताकि वह एकसाथ प्रगति और मेहनतकशी की मिसाल बन सकें। पांवों में चप्पलों का न होना एक बात है और पुरुषों द्वारा अपनी छाती चौड़ी करने को महिलाओं से चप्पलें उतरवा देना दूसरी बात बल्कि यूं कहें कि यह तो फेमिनिज्म से आगे की बात है तो गलत ना होगा।
और अब चलते चलते ये दो लाइनें इसी जद्दोजहद पर पढ़िए-
तूने अखबार में उड़ानों का इश्तिहार देकर,
तराशे गए मेरे बाजुओं का सच बेपर्दा कर दिया।
-अलकनंदा सिंह
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