हाई बजट, ग्रेट स्ट्रैटजी, भव्य सेट और टॉप के कलाकारों के साथ अपनी फिल्म को 'महान' बताने के 'आदी' रहे संजय लीला भंसाली ने संभवत: रानी पद्मिनी के जौहर को हल्के में ले लिया। यूं आदतन उन्होंने बाजीराव-मस्तानी में भी वीरता को दरकिनार कर पेशवा बाजीराव को भी शराबी और महबूबा मस्तानी के प्रेम में डूबा आशिकमिजाज़ शासक ही दिखाया था मगर इस बार उनकी ये कथित ''अभिव्यक्ति की आज़ादी'' उन्हीं पर भारी पड़ती जा रही है।
कुछ सेंसर बोर्ड, कुछ सरकार और कुछ जनता के भयवश अभी गनीमत इतनी है कि ''अभिव्यक्ति की आज़ादी'' के नाम पर पूरा फिल्म जगत बस चौराहों पर नंगा होकर नहीं नाच सकता अन्यथा इसी आज़ादी के चलते फिल्मकारों ने क्या-क्या नहीं दिखाया।
बात अगर फिल्म के ऐतिहासिक पक्ष की करें तो मध्यकालीन इतिहास में राजपूत अपनी आन-बान-शान के लिए आपस में ही लड़ते रहे और आक्रांता इसका लाभ उठाते रहे परंतु अब स्थिति वैसी नहीं है इसीलिए फिल्म में घूमर करती वीरांगना रानी पद्मिनी को दिखाए जाने के खिलाफ राजघरानों-राजकुमारियों सहित महिला राजपूत संगठन एकजुट हो रहे हैं। कुल मिलाकर पूरे मामले का राजनीतिकरण हो चुका है और इसके सहारे जहां करणी सेना जैसे ''धमकी'' देने वाले संगठन अपना चेहरा चमका रहे हैं वहीं भंसाली भी इस अराजक स्थिति को क्रिएट करने के जिम्मेदार हैं क्योंकि वो अपना भरोसा खो चुके हैं। चूंकि मामला इतिहास का था तो कायदे से संजय लीला भंसाली को चित्तौड़गढ़ राजघराने की अनुमति लेनी ही चाहिए थी और इसके चरित्र के साथ प्रयोगों से भी बचना चाहिए था क्योंकि यह ऐसी गाथा है जो बदली नहीं जा सकती।
फिल्म क्षेत्र तो वैसे भी देश-संस्कृति की गरिमा से कोसों दूर रहता आया है। ऐसे में महारानी पद्मिनी के जौहर को पूजने वाले राजपूतों का विरोध कैसे गलत मान लिया जाए क्योंकि प्रोमोज कुछ और ही बयां कर रहे हैं। कला के नाम पर इतिहास से खिलवाड़ कौन सी ज़िंदा कौम बर्दाश्त करेगी भला। फिल्म के विरोध का राजपूतों का अभिव्यक्ति का तरीका हो सकता है कि किसी वर्ग को नापसंद हो लेकिन उनकी भावनाओं को समझना चाहिए क्योंकि भंसाली की गिनती तो ''बुद्धिजीवियों में की जाती'' है। उन्हें और उन जैसे प्रयोगधर्मी फिल्मकारों को ये समझना चाहिए कि ना तो अस्मिता मनोरंजन की वस्तु होती है और ना ही इतिहास को भुलाया जा सकता है। फिर ऐसे में अफवाहें भी अपना काम करती ही हैं।
अभी जबकि सेंसर बोर्ड में भी फिल्म पास नहीं हो सकी है तब राजपूत संगठनों द्वारा ''हिंसात्मक धमकी'' को भी जहां उचित नहीं ठहराया जा सकता वहीं फिल्म पद्मावती को हुबहू दिखाये जाने के लिए फिल्म इंडस्ट्री के कुछ पैरोकारों द्वारा दबाव डालना भी ठीक नहीं कहा जा सकता।
बहरहाल, जिस महाकाव्य ''पद्मावत'' के बहाने भंसाली खुद को बवाल से दूर करने की कोशिश में हैं तो उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि इसके रचयिता जायसी ने भी मर्यादा की सीमाएं बनाकर रखीं थीं। अभिव्यक्ति की आज़ादी तो तब भी रही ही होगी। फिर उन्होंने रानी पद्मिनी के चरित्र से छेड़छाड़ क्यों नहीं की, और क्यों उनके लिए अलाउद्दीन खिलजी एक मुसलमान की बजाय एक व्यभिचारी आक्रांता ही रहा, जिसकी कुत्सित दृष्टि रानी पर थी?
मलिक मोहम्मद जायसी इतिहास की एक वीरांगना स्त्री के आत्मसम्मान की रक्षा हेतु 'कर्म' और 'प्रेम' को उच्च स्तर तक ले जाकर पद्मावत रच सके। किसी बहस में ना पड़ते हुए जायसी ने इतिहास और कल्पना, लौकिक और अलौकिक का सम्मिश्रण किया मगर 900 या 906 हिजरी में जन्मे मलिक मुहम्मद जायसी ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि जिस महाकाव्य को वे रच रहे हैं, वो इस तरह वैमनस्य का कारण बन जाएगा।
''अभिव्यक्ति की आज़ादी'' का एक सच यह भी है कि हमारा समाज आज तक बेडरूम के किस्सों को चौराहों पर दिखाना पसंद नहीं करता, फिर ये तो शौर्य की प्रतीक एक रानी की बात है। अत्याधुनिक होने के बावजूद सभ्यता-शालीनता-मर्यादा आज भी वांछित है। इसी मर्यादा के कारण जायसी की अवधी भाषा में कृति ''पद्मावत'' सूफी परम्परा का प्रसिद्ध ''महाकाव्य'' बन गई और भंसाली...की फिल्म...एक मज़ाक।
-अलकनंदा सिंह
कुछ सेंसर बोर्ड, कुछ सरकार और कुछ जनता के भयवश अभी गनीमत इतनी है कि ''अभिव्यक्ति की आज़ादी'' के नाम पर पूरा फिल्म जगत बस चौराहों पर नंगा होकर नहीं नाच सकता अन्यथा इसी आज़ादी के चलते फिल्मकारों ने क्या-क्या नहीं दिखाया।
बात अगर फिल्म के ऐतिहासिक पक्ष की करें तो मध्यकालीन इतिहास में राजपूत अपनी आन-बान-शान के लिए आपस में ही लड़ते रहे और आक्रांता इसका लाभ उठाते रहे परंतु अब स्थिति वैसी नहीं है इसीलिए फिल्म में घूमर करती वीरांगना रानी पद्मिनी को दिखाए जाने के खिलाफ राजघरानों-राजकुमारियों सहित महिला राजपूत संगठन एकजुट हो रहे हैं। कुल मिलाकर पूरे मामले का राजनीतिकरण हो चुका है और इसके सहारे जहां करणी सेना जैसे ''धमकी'' देने वाले संगठन अपना चेहरा चमका रहे हैं वहीं भंसाली भी इस अराजक स्थिति को क्रिएट करने के जिम्मेदार हैं क्योंकि वो अपना भरोसा खो चुके हैं। चूंकि मामला इतिहास का था तो कायदे से संजय लीला भंसाली को चित्तौड़गढ़ राजघराने की अनुमति लेनी ही चाहिए थी और इसके चरित्र के साथ प्रयोगों से भी बचना चाहिए था क्योंकि यह ऐसी गाथा है जो बदली नहीं जा सकती।
फिल्म क्षेत्र तो वैसे भी देश-संस्कृति की गरिमा से कोसों दूर रहता आया है। ऐसे में महारानी पद्मिनी के जौहर को पूजने वाले राजपूतों का विरोध कैसे गलत मान लिया जाए क्योंकि प्रोमोज कुछ और ही बयां कर रहे हैं। कला के नाम पर इतिहास से खिलवाड़ कौन सी ज़िंदा कौम बर्दाश्त करेगी भला। फिल्म के विरोध का राजपूतों का अभिव्यक्ति का तरीका हो सकता है कि किसी वर्ग को नापसंद हो लेकिन उनकी भावनाओं को समझना चाहिए क्योंकि भंसाली की गिनती तो ''बुद्धिजीवियों में की जाती'' है। उन्हें और उन जैसे प्रयोगधर्मी फिल्मकारों को ये समझना चाहिए कि ना तो अस्मिता मनोरंजन की वस्तु होती है और ना ही इतिहास को भुलाया जा सकता है। फिर ऐसे में अफवाहें भी अपना काम करती ही हैं।
अभी जबकि सेंसर बोर्ड में भी फिल्म पास नहीं हो सकी है तब राजपूत संगठनों द्वारा ''हिंसात्मक धमकी'' को भी जहां उचित नहीं ठहराया जा सकता वहीं फिल्म पद्मावती को हुबहू दिखाये जाने के लिए फिल्म इंडस्ट्री के कुछ पैरोकारों द्वारा दबाव डालना भी ठीक नहीं कहा जा सकता।
बहरहाल, जिस महाकाव्य ''पद्मावत'' के बहाने भंसाली खुद को बवाल से दूर करने की कोशिश में हैं तो उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि इसके रचयिता जायसी ने भी मर्यादा की सीमाएं बनाकर रखीं थीं। अभिव्यक्ति की आज़ादी तो तब भी रही ही होगी। फिर उन्होंने रानी पद्मिनी के चरित्र से छेड़छाड़ क्यों नहीं की, और क्यों उनके लिए अलाउद्दीन खिलजी एक मुसलमान की बजाय एक व्यभिचारी आक्रांता ही रहा, जिसकी कुत्सित दृष्टि रानी पर थी?
मलिक मोहम्मद जायसी इतिहास की एक वीरांगना स्त्री के आत्मसम्मान की रक्षा हेतु 'कर्म' और 'प्रेम' को उच्च स्तर तक ले जाकर पद्मावत रच सके। किसी बहस में ना पड़ते हुए जायसी ने इतिहास और कल्पना, लौकिक और अलौकिक का सम्मिश्रण किया मगर 900 या 906 हिजरी में जन्मे मलिक मुहम्मद जायसी ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि जिस महाकाव्य को वे रच रहे हैं, वो इस तरह वैमनस्य का कारण बन जाएगा।
''अभिव्यक्ति की आज़ादी'' का एक सच यह भी है कि हमारा समाज आज तक बेडरूम के किस्सों को चौराहों पर दिखाना पसंद नहीं करता, फिर ये तो शौर्य की प्रतीक एक रानी की बात है। अत्याधुनिक होने के बावजूद सभ्यता-शालीनता-मर्यादा आज भी वांछित है। इसी मर्यादा के कारण जायसी की अवधी भाषा में कृति ''पद्मावत'' सूफी परम्परा का प्रसिद्ध ''महाकाव्य'' बन गई और भंसाली...की फिल्म...एक मज़ाक।
-अलकनंदा सिंह
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