हमारे यहां कहावत है कि जो होता है अच्छे के लिए होता है... मदनी साहब ने कल क्या खूब कहा... मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ कहना चाहूंगा कि मुसलमानों के लिए भारत से बेहतर कोई देश नहीं है... । और आज उनके नेतृत्व में आतंकवाद के खिलाफ प्रदर्शन किए जा रहे हैं।
हालांकि जमात-ए-उलेमा हिंद के महासचिव मौलाना महमूद मदनी के नेतृत्व में जमात-ए-उलेमा हिंद द्वारा आतंकवाद के खिलाफ किया जा रहा प्रदर्शन, पेरिस की खबरों के बीच कुछ दब सा गया है मगर जो प्रयास किया जा रहा है, यह काबिले तारीफ है।
उलेमा आगे आएं तो क्या मुसलमानों के नाम पर होने वाली राजनीतिक बयानबाजी और असहिष्णुता जैसी बातें अपना कॉकस बना पायेंगी ?
निश्चित ही नहीं...
ये कोई इत्तिफाक नहीं हो सकता कि बिहार चुनाव से ठीक पहले तक असहिष्णुता की बात करने और अपने पुरस्कार लौटाने वाले कर्नाटक में हुई हिंसा पर चुप्पी साधे रहे।
हिंसा तो हुई ना, अंतर बस इतना था कि दादरी में मरने वाला मुसलमान था और कर्नाटक में मारा गया व्यक्ति हिंदू था।
बिहार चुनाव से ठीक पहले तक जिन नामचीन बुद्धिजीवियों ने 'मोदी सरकार' के खिलाफ कथित तौर पर असहिष्णुता का झंडा उठा रखा था... उनके पुरस्कार वापसी अभियान को भी मदनी साहब ने कुछ इस तरह पलीता लगा दिया कि उन बेचारों के अवार्ड भी हाथ से गए और सहिष्णुता भी... क्योंकि मदनी साहब जैसी जानी मानी इस्लामिक हस्ती ने मुसलमानों के लिए भारत को दुनिया का ''अव्वल देश'' बता दिया ... अब बुद्धिजीवियों की उस ''प्लांटेड इनटॉलरेंस'' का क्या होगा। उनके पास तो मदनी साहब के इस बयान की कोई काट भी नहीं है। उनकी इनटॉलरेंस की तो इस एक बयान ने धज्जियां ही उड़ा दीं।
दर्जन भर आयोगों के आने-जाने के बाद न्यायमूर्ति सच्चर कमेटी की आखिरी सिफारिशें मुसलमानों की स्थितियां संभाल पाई हों या न संभाल पाई हों मगर प्लांटेड इनटॉलरेंस के हौव्वे ने ये जरूर बता दिया कि इस देश में अगर मीडिया हाईप चाहिए तो मुसलमानों पर अत्याचार की बात कर दो।
क्या किसी ने इन बयानबाजों को सच्चर कमेटी की सिफारिशों पर बात करते देखा है... या कितने एनजीओ हैं जो मुसलमान के वास्तविक हित, उनकी गरीबी, मुस्लिम महिलाओं की स्थिति, अशिक्षा और जीवनस्तर के बदतर होने की बात करते हों।
कोई नहीं... क्योंकि इस सबकी बात करने से ना तो साहित्यकारों का ''नाम रोशन'' हो पाता और ना ही कलाकारों को सुर्खियां मिल पातीं।
सच्चर रिपोर्ट भारतीय मुस्लिम समाज की आर्थिक, सामाजिक, तथा शैक्षिक परिस्थितियों का आईना है मगर किसी भी बुद्धिजीवी ने उसे लागू ना किये जाने पर आपत्ति नहीं जताई। सच्चर समिति की रिपोर्ट के आने के इतने सालों बाद भी मुसलमानों के हालात में कोई बदलाव नहीं आया है।
बहरहाल, मदनी साहब द्वारा आतंकवाद के खिलाफ विरोध जताने और जंतर- मंतर सहित देश के सभी बड़े शहरों में प्रदर्शन करने से ना केवल उन युवकों पर असर पड़ेगा जो आईएस या किसी कट्टरवाद से प्रेरित हो सकते हैं बल्कि उन लोगों की भी दुकानें फीकी पड़ने की पूरी पूरी संभावना है जो गाहे-बगाहे आतंकवाद के नाम पर भारतीय मुसलमानों को विदेशियों की तरह ट्रीट करते रहे हैं।
हम तो हर बुराई में भी अच्छाई खोजने वाले देश के वाशिंदे हैं, अब देखिए ना .... हमला पेरिस में आईएसआईएस आतंकवादियों ने किया और हमारे उलेमा स्वयं आगे आ गये आतंकवाद के विरोध में।
इतना ही नहीं, उनके इस बड़े कदम ने छद्म असहिष्णुतावादियों का सच भी उजागर कर दिया।
एक ऐसा सच जो किसी "हिन्दू" के लाख प्रयास भी सामने नहीं ला पाते क्योंकि उसकी सहिष्णुता को भी विरोधी चश्मे से देखने का रिवाज बन गया है। तभी तो खुलेआम विभिन्न मीडिया मंचों पर आकर मोदी सरकार को गरियाने के बावजूद असहिष्णुता का ढोल पीटा जाता रहा क्योंकि असहिष्णुता की कांग्रेसी परिभाषा ऐसी ही है।
खैर... असहिष्णुता को लेकर मुस्लिमों की परिभाषा मदनी साहब ने बता ही दी है।
क्या अब कोई कांग्रेसी उन्हें जवाब देने सामने आयेगा?
- अलकनंदा सिंह
हालांकि जमात-ए-उलेमा हिंद के महासचिव मौलाना महमूद मदनी के नेतृत्व में जमात-ए-उलेमा हिंद द्वारा आतंकवाद के खिलाफ किया जा रहा प्रदर्शन, पेरिस की खबरों के बीच कुछ दब सा गया है मगर जो प्रयास किया जा रहा है, यह काबिले तारीफ है।
उलेमा आगे आएं तो क्या मुसलमानों के नाम पर होने वाली राजनीतिक बयानबाजी और असहिष्णुता जैसी बातें अपना कॉकस बना पायेंगी ?
निश्चित ही नहीं...
ये कोई इत्तिफाक नहीं हो सकता कि बिहार चुनाव से ठीक पहले तक असहिष्णुता की बात करने और अपने पुरस्कार लौटाने वाले कर्नाटक में हुई हिंसा पर चुप्पी साधे रहे।
हिंसा तो हुई ना, अंतर बस इतना था कि दादरी में मरने वाला मुसलमान था और कर्नाटक में मारा गया व्यक्ति हिंदू था।
बिहार चुनाव से ठीक पहले तक जिन नामचीन बुद्धिजीवियों ने 'मोदी सरकार' के खिलाफ कथित तौर पर असहिष्णुता का झंडा उठा रखा था... उनके पुरस्कार वापसी अभियान को भी मदनी साहब ने कुछ इस तरह पलीता लगा दिया कि उन बेचारों के अवार्ड भी हाथ से गए और सहिष्णुता भी... क्योंकि मदनी साहब जैसी जानी मानी इस्लामिक हस्ती ने मुसलमानों के लिए भारत को दुनिया का ''अव्वल देश'' बता दिया ... अब बुद्धिजीवियों की उस ''प्लांटेड इनटॉलरेंस'' का क्या होगा। उनके पास तो मदनी साहब के इस बयान की कोई काट भी नहीं है। उनकी इनटॉलरेंस की तो इस एक बयान ने धज्जियां ही उड़ा दीं।
दर्जन भर आयोगों के आने-जाने के बाद न्यायमूर्ति सच्चर कमेटी की आखिरी सिफारिशें मुसलमानों की स्थितियां संभाल पाई हों या न संभाल पाई हों मगर प्लांटेड इनटॉलरेंस के हौव्वे ने ये जरूर बता दिया कि इस देश में अगर मीडिया हाईप चाहिए तो मुसलमानों पर अत्याचार की बात कर दो।
क्या किसी ने इन बयानबाजों को सच्चर कमेटी की सिफारिशों पर बात करते देखा है... या कितने एनजीओ हैं जो मुसलमान के वास्तविक हित, उनकी गरीबी, मुस्लिम महिलाओं की स्थिति, अशिक्षा और जीवनस्तर के बदतर होने की बात करते हों।
कोई नहीं... क्योंकि इस सबकी बात करने से ना तो साहित्यकारों का ''नाम रोशन'' हो पाता और ना ही कलाकारों को सुर्खियां मिल पातीं।
सच्चर रिपोर्ट भारतीय मुस्लिम समाज की आर्थिक, सामाजिक, तथा शैक्षिक परिस्थितियों का आईना है मगर किसी भी बुद्धिजीवी ने उसे लागू ना किये जाने पर आपत्ति नहीं जताई। सच्चर समिति की रिपोर्ट के आने के इतने सालों बाद भी मुसलमानों के हालात में कोई बदलाव नहीं आया है।
बहरहाल, मदनी साहब द्वारा आतंकवाद के खिलाफ विरोध जताने और जंतर- मंतर सहित देश के सभी बड़े शहरों में प्रदर्शन करने से ना केवल उन युवकों पर असर पड़ेगा जो आईएस या किसी कट्टरवाद से प्रेरित हो सकते हैं बल्कि उन लोगों की भी दुकानें फीकी पड़ने की पूरी पूरी संभावना है जो गाहे-बगाहे आतंकवाद के नाम पर भारतीय मुसलमानों को विदेशियों की तरह ट्रीट करते रहे हैं।
हम तो हर बुराई में भी अच्छाई खोजने वाले देश के वाशिंदे हैं, अब देखिए ना .... हमला पेरिस में आईएसआईएस आतंकवादियों ने किया और हमारे उलेमा स्वयं आगे आ गये आतंकवाद के विरोध में।
इतना ही नहीं, उनके इस बड़े कदम ने छद्म असहिष्णुतावादियों का सच भी उजागर कर दिया।
एक ऐसा सच जो किसी "हिन्दू" के लाख प्रयास भी सामने नहीं ला पाते क्योंकि उसकी सहिष्णुता को भी विरोधी चश्मे से देखने का रिवाज बन गया है। तभी तो खुलेआम विभिन्न मीडिया मंचों पर आकर मोदी सरकार को गरियाने के बावजूद असहिष्णुता का ढोल पीटा जाता रहा क्योंकि असहिष्णुता की कांग्रेसी परिभाषा ऐसी ही है।
खैर... असहिष्णुता को लेकर मुस्लिमों की परिभाषा मदनी साहब ने बता ही दी है।
क्या अब कोई कांग्रेसी उन्हें जवाब देने सामने आयेगा?
- अलकनंदा सिंह
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