गुरुवार, 29 जनवरी 2015

प्रि-नेटल सेक्स डिटरमिनेशन: थैक्यू सुप्रीम कोर्ट

अगर आप वेब मीडिया से जुड़े हैं तो अब आपको प्रि-नेटल सेक्स डिटरमिनेशन से जुड़े विज्ञापन या इससे संबंधि‍त सामग्री  देखने को नहीं मिलेगी। 

कल सुप्रीम कोर्ट ने कन्या भ्रूण हत्या से संबंधि‍त वेब सर्चिंग पर अपना अहम निर्णय देते हुए भारत में प्रचलित  गूगल, याहू , माइक्रोसॉफ्ट, बिंग जैसे वेब सर्च इंजिन्स पर भ्रूण से संबंधि‍त किसी भी तरह की जानकारी देने वाले विज्ञापनों को पाबंद करने का आदेश दिया है ताकि भ्रूण से संबंधि‍त जानकारी की आड़ में प्रि-नेटल सेक्स डिटरमिनेशन संबंधी विज्ञापनों के जरएि इस कुप्रथा को बढ़ावा देने पर रोक लगाई जा सके।
 

अभी तक किसी शब्द को खोजते ही ये सर्च इंजिन उस शब्द से संबंधित वेब सामग्री तो दिखाते ही थे साथ ही इससे संबंधित सामग्री के ठीक ऊपर दो या तीन मुख्य विज्ञापन और सर्च पेज के साइड में फिर उन्हीं विज्ञापनों की लंबी फेहरिस्त हुआ करती है। यदि एक ही तरह के या इससे मिलते जुलते शब्द सर्च किये जाते हैं तो उससे संबंधि‍त डाटा सर्च इंजिन्स में दर्ज़ हो जाता है। ऐसे में जब भी आप सर्च करेंगे तो उससे संबंधित विज्ञापनों पर नजर पड़ना स्वाभाविक है।
 

ज़ाहिर है क‍ि इन विज्ञापनों के कारण प्रि-नेटल सेक्स डिटरमिनेशन यानि जन्म से पहले भ्रूण की स्थ‍िति का पता लगाने संबंधी वेबसाइटों के लिंक्स आसानी से उपलब्ध होते हैं और यही लिंक्स भ्रूण के लिंग का पता लगाने वाली वेबसाइट्स का भी पता देती हैं। यानि सब- कुछ कानून के दायरे में आए बिना आसानी से मिलता रहा है। आईटी एक्ट में भी ऐसा कोई प्राविधान अभी तक नहीं है कि जन्म से पहले भ्रूण की स्थ‍िति जानना वर्जित माना जाता हो और इसी का फायदा सर्च इंजिन्स ने उठाया है।
 

इसके अलावा भ्रूण परीक्षण कानून (पीसी पीएनडीटी एक्ट) की धारा 22 में भी वेब सर्च इंजिन्स या इंटरनेट से जुड़ी किसी भी माध्यम की भागीदारी से संबंधित कोई दिशा- निर्देश नहीं दिये गये हैं। ये शायद इसलिए संभव था क्योंकि यह कानून 1994 में बना था और तब इंटरनेट के आम या इतने वृहद उपयोग के बारे में सोचा भी नहीं गया किंतु आज सर्च इंजिन्स पर सारी सूचनाएं लगभग मुफ्त में ही मिल जाती हैं। 
 

गौरतलब है कि पीसी एंड पीएनडीटी अधिनियम के अंर्तगत एफ-फॉर्म भरा जाता है। इसमें गर्भवती महिला का पूरा नाम, पता, सोनोग्राफी का प्रकार, तारीख, गर्भस्थ शिशु की स्थिति , बीमारी, सोनोग्राफी करने वाली संस्था और डॉक्टर सहित विस्तृत जानकारी कुल 19 कॉलम में भरकर देनी होती है। उस समय बनाए गए इस कानून के अंतर्गत चोरी छिपे भ्रूण लिंग परीक्षण करने वाले डॉक्टरों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के तहत कार्यवाही करने का प्रावि‍धान है।
 

नई चुनौती के रूप में अब इंटरनेट इसमें नया कारक बन के उभरा है।
 

हालांकि सुप्रीम कोर्ट में कल दिए गये  सरकारी हलफनामे के तहत ऐसी साइट्स को बिना यूआरएल व आईपी एड्रेस के ब्लॉक करने में असमर्थता जताई गई क्योंकि जब तक आईपी एड्रेस और संबंधि‍त साइट्स के यूआरएल सरकार को मुहैया नहीं कराए जाते तब तक वह इन्हें प्रतिबंधि‍त नहीं कर सकती। इसका हालिया समाधान जस्टिस दीपक मिश्रा व पी सी पंत ने यही दिया कि जब तक आई टी एक्ट में नये प्राविधान क्लैरीफाई नहीं होते तब तक सर्च इंजिन पर आने वाले विज्ञापनों को हटा लिया जाए या फिर कंपनियां उन पर स्वयं ही अंकुश लगायें।
इस पर समाज के लिए अपनी जिम्मेदारी से बचते हुए गूगल, याहू व अन्य  कंपनियों की ओर से बेहद लापरवाह दलील दी गई कि भ्रूण परीक्षण की पूरी जानकारी देने वाली इन वेबसाइट्स के बारे में देखना होगा कि कानून में ऐसा कोई प्रावि‍धान है कि नहीं। कंपनियों की ओर से एक बात और बेहद म‍हत्वपूर्ण कही गई कि '' विज्ञापन देना अलग बात है और कोई चर्चा या लेख दूसरी बात है ''। इसका सीधा- सीधा मतलब तो यही निकलता है कि वे भारत में अपना बाजार पाने के लिए सामाजिक जिम्मेदारी की परवाह नहीं करेंगी।
 

गौरतलब है कि जन्म से पहले भ्रूण के लिंग का पता लगाने की कुप्रवृत्त‍ि के कारण  इस समय तक न जाने कितनी बच्च्यिों को जन्म से पहले ही मारा जा चुका है। देश के अधि‍कांश प्रदेशों में इस कुप्रवृत्त‍ि ने अपनी जड़ें जमा रखी हैं। अभी तक तो यही समझा जाता था कि कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ व ग्रामीण लोगों में लड़कियों की पैदाइश को बुरा मानते हैं मगर शहरी क्षेत्रों से आने वाले आंकड़ों ने सरकार और गैरसरकारी संगठनों के कान खड़े कर दिए हैं कि यह प्रवृत्त‍ि कमोवेश पूरे देश में व्याप्त हो चुकी है और इसके खात्मे के लिए हर स्तर पर जागरूकता प्रोग्राम चलाए जाने चाहिए,  साथ ही कड़े दंड का प्रावि‍धान भी होना चाहिए ।
 

आमिर खान के शो '' सत्यमेव जयते''  में भी तो शहरी क्षेत्रों से आए लोगों ने इस सच को और शिक्षितों में भी बढ़ रही इसकी क्रूरता को बखूबी बयान किया था,  अब साबू मैथ्यू जॉर्ज की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इंटरनेट के बढ़ते दायरे, इसके सदुपयोग और दुरुपयोग पर फिर से बहस की जरूरत को रेखांकित करता है कि आखिर संचार का जो जाल विशाल से विशालतर होता जा रहा है वह जिस जनता के दम पर अपना बाजार स्थापित कर रहा है उसके हित में वह कितना योगदान दे रहा है।
कन्या भ्रूण हत्या को लेकर वेब मीडिया और सर्च इंजिन्स को भी कठघरे में लाकर साबू मैथ्यू जॉर्ज की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने जो नेक काम किया है, वह निश्चित ही इस कुप्रथा को कम से कम एक नये एंगल से सोचने पर विवश अवश्य करेगा ।
 

दूरदराज के इलाकों वाले अश‍िक्षित समाज में कन्या भ्रूण हत्या को अंजाम देने वालों से ज्यादा शहरी और शिक्षित परिवारों में बेटा और बेटी के बीच फ़र्क किये जाने के मामले पर सुप्रीम कोर्ट का ये नया तमाचा है जो उनके श‍िक्षित होने पर भी सवाल खड़े करता है क्योंकि अब भी इंटरनेट  का सर्वाधिक उपयोग श‍िक्षित समाज ही करता है और सर्च इंजिन्स का यही सबसे बड़ा उपभोक्ता है।
 

बहरहाल, सर्च इंजिन कंपनियों द्वारा इस मुद्दे पर चर्चा की बात छेड़े जाने के बाद यह तो कहा ही जा सकता है कि क्या कोई चर्चा ऐसी भी कराई जानी चाहिए जिसमें कहा जाए कि हमें लड़कियां चाहिए ही नहीं...  या लोगों से कहा जाए कि वो स्वतंत्र हैं आबादी से लड़कियों को पूरी तरह हटाने को... । ज़ाहिर है कि कानून पर चर्चा तो होती रहनी चाहिए और समय व जरूरतों के मुताबिक इन्हें तब्दील भी किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने यही करने का व कहने का प्रयास किया है। हमें समय की इन नई चुनौतियों के लिए तैयार रहना होगा, साथ ही यह भी कि बाजार द्वारा समाज को प्रभावित करने के मामले में, ये चलेगा मगर ये नहीं चलेगा जैसी भ्रामक मानसिकता त्यागनी होगी। ए‍क स्पष्ट सोच के साथ ही इस सामाजिक बुराई का अंत संभव है क्योंकि कोर्ट हमें रास्ता तो दिखा सकते हैं पर घर-घर जाकर सोच पर ताला नहीं जड़ सकते।
 

- अलकनंदा सिंह    
 

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