मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

मोरैलिटी और शॉपेनहॉवर...

एक जर्मन दार्शनिक साहित्‍यकार व चिंतक थे - आर्थर शॉपेनहॉवर । शॉपेनहॉवर का अंग्रेजी में अर्थ होता है- बहुविकल्‍पी । मतलब एक शख्‍स है आर्थर जिसके कई विकल्‍प संभावित हैं । वे अपनी पुस्‍तक 'The World as Will and Representation (German: Die Welt als Wille und Vorstellung)' के लिए जाने गये मगर वे उनके अपने संभावित विकल्‍पों को ढूढ़ने में  हमेशा लगे रहे । उन्‍होंने इस पुस्‍तक  में भी उन्‍होंने हमेशा असंतुष्‍टि को परे रखने के लिए ही संतुष्‍टि की ओर भागते रहने की 'जद्दोजहद' दिखाई है  । सच तो ये है कि हम सभी असंतुष्‍टि में जीते हुये संतुष्‍टि की ओर बड़े ही असंतुष्‍ट तरीकों के साथ दौड़ रहे हैं , बस दौड़ते जा रहे हैं , मंजि़ल की तलाश की ओर । किसी की तलाश 'में' नहीं तलाश 'की ओर'...।
शॉपेन हॉवर अपनी जेब में हमेशा सोने के कुछ सिक्‍के रखा करते थे । शॉपेनहॉवर की तरह हम में से भी कई लोग अपनी अपनी सोचों को अपनी अपनी जेबों में सोने के बेशकीमती सिक्‍के की तरह यानि छोटे छोटे शॉपेनहॉवर्स  (विकल्‍प)  को रखे घूम रहे हैं, एक वजन के साथ ढूढ़ रहे हैं अपने अपने विकल्‍प कि कोई तो मिले हम जैसा...जिसकी सोच हमारे जैसी हो ।शॉपेन हॉवर को यह दिक्‍कत इस लिए भी आई क्‍योंकि वह जिस सोच को तलाश रहे थे ,वह मोरैलिटी की सोच थी।
शॉपेनहॉवर बरसों तक उस एक घड़ी का, उस एक क्षण का इंतज़ार करते रहे कि जब और जिस घड़ी वह अपनी जेब में पड़े सोने का सिक्‍का दान कर सकें । वह घड़ी उनकी ज़िंदगी में कभी नहीं आई। सिक्‍का उसकी जेब में ही पड़ा रहा  और ज़िंदगी की आखिरी सांस तक उसे सिक्‍के का बोझ ढोना  पड़ा । शायद हमारी भी कइयों की यही तक़दीर है कि ...मोरैलिटी को अपने ही आंकलन के अनुसार खोज रहे हैं हम... ।
शॉपेन हॉवर ने सोचा था कि वह उस सोने के सिक्‍के को किसी ऐसे अंग्रेज को दान करेगा जो औरतों , घोड़ों और कुत्‍तों की बात ना करता हो । चूंकि उस समयकाल में भी किसी भी पुरुष के लिए अपने 'दंभ' को प्रदर्शित करने के लिए  औरतें, संपत्‍ति को प्रदर्शित करने के लिए घोड़े और इन दोनों के रक्षण के लिए कुत्‍तों की आवश्‍यकता होती थी, सो उनकी मोरैलिटी इन्‍हीं की चर्चाओं तक सीमित थी उनका यही मापदंड था कि कैसी औरत, कितने घोड़े और कितने कुत्‍ते...। 
और अंत तक शॉपेनहॉवर को  ऐसा एक भी व्‍यक्‍ति नहीं मिल सका जिसे वो अपनी सोच अपने सोने के सिक्‍के दान दे सकते और वह सोने के सिक्‍के के बोझ के साथ मर गये... ।
हम सब जो बात  करते हैं  मोरैलिटी की... तो इसके सीमित अर्थों और सिकुड़े हुये दायरों और सिमटे हुये घेरों की भी बात करना जरूरी हो जाता है कि जो  बहुसंख्‍यकों की सोच में , आदतों में शुमार है, वह स्‍वीकृत माना गया और जो  गिने - चुनों के चिन्‍तन में आया  , वह अस्‍वीकृत कर  दिया गया । समाज के सारे कायदे कानून बहुसंख्‍यक ही बनाते हैं , मगर सोच को ...? सोच तो सबकी अपनी होती है ...वह सोच, जो यह जानने का माद्दा रखती है कि कौन मोरल है और कौन इममोरल...।
आज  मोरैलिटी को बहुसंख्‍यकों की सोच बताने का प्रयास किया जा रहा है यह सोच सिर्फ औरतों व अन्‍य एसेट्स पर आकर रुक जाती है, वो भूखों, गरीबों और असहायों को कुचलने की इच्‍छा रखती है। यह सोच ही कहां है , यह तो जुनून है, इसमें मोरैलिटी कहां है । यह तो हासिल कर लेने का नाम है ।  जिस मोरैलिटी की खोज में शॉपेनहॉवर ताज़िंदगी सोने के सिक्‍के के वज़न के साथ चलते रहे...और वह औरतों-घोड़ों-कुत्‍तों वाली बहुसंख्‍यक सोच में से एक मोरल वाला व्‍यक्‍ति ना खोज पाये तो आज ...आज के संदर्भ में  मोरैलिटी को ढूढ़ना बेहद कठिन तो है ही।
आज भी औरतें बहुसंख्‍यक पुरुषों की नज़र में एसेट हैं, शरीर हैं मगर वे बहुसंख्‍यक सोच के दबाव के कारण अपनी ही कोई सोच नहीं बना पा रही ,  तो अब समय आ गया है कि जब हम सब अपने अपने हिस्‍से की सोचों के सिक्‍के,  मोरैलिटी के उन छोटे छोटे हिस्‍सेदारों के लिए भी बचाकर रख दें जो प्रकृति ने ही बनाये हैं, उनकी मोरैलिटी उन्‍हें तय करने दें , फिर चाहे वो औरतें हों या समाज के आखिरी पायदान पर खड़े मजलूम । तब निश्‍चित ही असंतुष्‍टि से संतुष्‍टि की ओर जाने का जो असंतुष्‍ट रास्‍ता है वह रास्‍ता सुगम और सुगंधित होगा हमारी इच्‍छाओं हमारे मोरल्‍स और हमारे छोटे छोटे शॉपेनहॉवर्स (विकल्‍प) के साथ ।
- अलकनंदा सिंह




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