गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

समर शेष है

आज बड़ी शिद्दत से रामधारी सिंह दिनकर की वो पंक्‍तियां याद आ रही हैं जो उनकी कविता ''समर शेष है '' में उद्धृत की गई हैं-
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

आज जो तमाशा राजनीति में चल रहा है, उसने यह अच्‍छी तरह बता  दिया है कि हमाम के भीतर सबके सीन बेशक अलग-अलग हैं मगर हर सीन पर तालियां पीटने वाले चाटुकार एक जैसे हैं। सांप-बिच्‍छुओं की किस्‍में भले ही भिन्‍न-भिन्‍न हैं मगर उनकी विष वमन करने की फ़ितरत एक समान हैं। देर है तो बस मौका मिलने की। जिनके हाथों में हम अपना वर्तमान और भविष्‍य सौंपते आये हैं, चुनावों की वजह से ही सही, उनकी असलियत तो सामने आ ही रही है।
आज तक हम इनके बयानों को महज पॉलिटिकल स्‍टंट कह कर कन्‍नी काटते रहे हैं और अपने बचाव के लिए सुविधा अनुसार कोई ना कोई बहाना भी ढूढ़ते रहे हैं, लेकिन हमारा यही बरताब आज इन राजनीतिक स्‍थितियों का जिम्‍मेदार है। यदि ऐसा नहीं होता और हम तटस्‍थ भाव से मूकदर्शक ना बने रहते तो ...तो... बीते 66 सालों में इन्‍हें कितनी बार आइना दिखा चुके होते। खुदमुख्‍़तारी हमें थर्ड जेंडर यानि 'तीसरे' की तरह व्‍यवहार करने की अनुमति नहीं देती मगर हम ऐसा ही करते आये हैं । खुदमुख्‍़तारी को कोने में धकेलकर थर्ड जेंडर की तरह तालियां पीटना और तटस्‍थ रहकर रोते रहना... यदा-कदा नेताओं को गरियाते रहना अथवा चुनावों के समय मतदान कर देना भर ही तो कर्तव्‍य नहीं है...इससे आगे भी हमें अपना रुख इन्‍हें बताना चाहिए था कि धर्म और जाति के नाम पर जितना खेल कर सकते थे, वह कर चुके ...अब और नहीं।
अभी तक तो ये लोकतंत्र का वास्‍ता देकर एक दूसरे को गरिया रहे थे , स्‍वार्थ की खातिर जोड़तोड़ करके पार्टियां बदल रहे थे...मगर अब तो हद ही हो गई है उस कुत्‍ता घसीटी की जिसमें इन्‍होंने उन जांबाजों को भी नहीं बख्‍शा जिन्‍होंने जान की बाज़ी लगाकर करगिल को पाकिस्‍तानी घुसपैठियों से आज़ाद कराया था। वे देश के रक्षक थे, वीर थे, वे ना हिंदू थे ना मुसलमान,वे किसी जाति-धर्म के खांचों में बंटकर नौकरी नहीं कर रहे थे। उन्‍हें धर्म विशेष का बताने वाले नेताजी तब कहां थे जब मुज़फ्फ़रनगर के कैंपों में औरतें और बच्‍चे बीमारी और ठंड से मर रहे थे । सुना है कि उन्‍होंने अपने दुश्‍मनों (मीडिया पर्सन्‍स) से रोना रोया है कि उन्‍हें वहां जाने नहीं दिया गया। अरे भई, इन्‍हें कोई ये बताये कि सरकार इनकी, फोर्स इनकी, सुविधाएं इनकी, कैंप में मरने वाले इनके अपने ...फिर इन्‍हें रोका किसने...ये निहायत वाहियात सफाई थी। 
कोई इन्‍हें ये भी बताये कि मतदाता भी कॉमनसेंस रखते हैं...यूं भी काठ की हांडी एक ही बार चढ़ती है। रही बात सेना को हिंदू, मुसलमान में बांटकर देखने की तो नेताजी के दिल में जो दबा था वही जुबां पर आया है। 
बहरहाल, किस्‍से तो ऐसी सोचों के बड़े लंबे हैं...अभी के लिए इतना ही कि इनके भड़काऊ भाषणों और दिमागी दिवालियेपन पर ध्‍यान न दिया जाए। मतदान के चरण शुरू हो चुके हैं, 16 मई को नतीजा सामने होगा...ध्‍यान दें तो इस बार पर कि तटस्‍थता जैसा अपराध अब और ना हो, 66 साल हमने ये सोचकर और चुप रह कर गुजार दिये कि कभी तो हवा बदलेगी...मगर अब और इंतज़ार नहीं, निर्णय करना होगा हमें ताकि स्‍वर्ण सिंघासनों पर कुंडली मारे बैठे...विषैली जुबान वालों का असली रंग हम जान सकें... फनों को कुचलने का इससे बढ़िया मौका और क्‍या होगा ...बिना भेद-भाव के ऐसे सभी तत्‍वों को सबक सिखाएं जो अलग-अलग पार्टियों और अलग-अलग मुखैटों की आड़ में घिनौना खेल खेलते आए हैं।
अंत में दिनकर की ही कविता एक बार फिर...

समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा।
जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।
धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,
कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे,
अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे।
समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।
पथरीली, ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े।
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंज़ीर।

 

-  अलकनंदा सिंह

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें