शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

अनुत्‍तरित प्रश्‍नों में बिंधी 'जानकी'

सीताष्‍टमी पर विशेष- 


सभी परित्‍यक्‍ता स्‍त्रियों ने उन्‍हें आदर्श माना और वह सर्वथा पहली ऐसी स्‍त्री थीं जो वंचितों की मां बनीं...इसीलिए आज भी बुंदेलखंडी बेड़नियां उनकी कसम खाकर अपना धर्म निभाती रही हैं...आदिवासियों की वो देवी हैं । समाज के तिरस्‍कृत वर्ग में देवी और समाज के पूजित वर्ग में आदर्श स्‍त्री, एक साथ दोनों में सम्‍मान पाने वाली स्‍वयं में कितनी विशाल व्‍यक्‍तित्‍व रही होंगी, इसका अनुमान लगाना अत्‍यंत ही कठिन है।
जी हां, आज सीताष्‍टमी है। जनक की बेटी सीता, राम की पत्‍नी सीता, दशरथ की पुत्रवधू सीता और अग्‍निपरीक्षा देकर अपनी शुद्धता को सिद्ध करती सीता.. और अंत में अपने ही अंतस के संग अकेली रह गईं सीता का आज जन्‍मदिन है। वो सीता जो स्‍त्री-आदर्श की सोच है,आज ही जन्‍मी थी।
धरती की कोख में जन्‍मी और धरती में ही समाने वाली सीता को हम माता जानकी कहकर जहां भगवान श्रीराम की वामांगी के रूप में अपनी श्रद्धा उनके प्रति प्रगट करते हैं और देवी के रूप में आज भी हम उन्‍हें मर्यादाओं पर न्‍यौछावर होने वाली बता कर उनकी आराधना करते हैं। उन्‍हीं सीता के इस पूज्‍य दैवीय रूप के बावजूद हम आजतक अपनी बेटियों का नाम सीता रखने से कतराते रहे हैं।
आदिकवि वाल्‍मिकी द्वारा संस्‍कृत में रचे गए महाकाव्‍य 'रामायण' में रामकथा के माध्‍यम से पहली बार आमजन को सीता के उस रूप के भी दर्शन हुए जो श्रीराम से पहले और उनके बाद भी सीता के नितांत 'निजी व्‍यक्‍तित्‍व' की महानता दर्शाते हैं। संभवत: इसीलिए आमजन के बीच से उठने वाले प्रश्‍नों ने साहित्‍यकारों, कवियों को भी सीता के व्‍यक्‍तित्‍व की ओर आकृष्‍ट किया।
वाल्‍मिकी की 'रामायण' के कुल 24000 श्‍लोकों में राम की गाथा का जितना भी वर्णन है उन सब पर भारी पड़ता है अकेला 'सीता को राम के द्वारा दिया गया वनवास' । इसका सीध अर्थ यही निकलता है कि रामायण जैसे महाकाव्‍य का आधार स्‍तंभ रहे भगवान श्रीराम की पूरी की पूरी कथा सीता के बिना तो आगे बढ़ ही नहीं सकती, इसीलिए वाल्‍मिकी की रामकथा का अंत भी लव-कुश के जन्‍म, उनके पालन पोषण, शिक्षा और धर्म व मर्यादाओं का ज्ञान देने की सीता द्वारा एकल अभिभावक बनकर निभाई गई भूमिका पर जाकर अपनी कथा को समेट लेता है।
वाल्‍मिकी की रामायण से चली इस काव्‍य यात्रा में तुलसीदास की रामचरितमास, सीता समाधि, जानकी जीवन, अरुण रामायण, भूमिजा जैसे काव्‍यसंग्रह लिखे गये वहीं काव्‍य-नाटक अग्‍निलीक और प्रवाद पर्व, खंडखंड अग्‍नि आदि लिखे गये। इन सभी काव्य-नाटकों में सीता के अत्यंत उदात्त रूप को चित्रित करते हुए आधुनिक नारी के संघर्षमयी जीवन को उजागर किया है।
सीता के त्‍याग ने एक और बात साबित की कि किसी भी स्‍त्री के पूरे के पूरे अस्‍तित्‍व को आंकने के लिए उसके चरित्र को संदेहों से पाट देना हर युग में सबसे कमजोर कड़ी रहा है, और इस कसौटी पर स्‍वयं को निरंतर साबित करते रहना उसकी नियति । सीता के माध्‍यम से ही सही, यही चरित्र संबंधी कमजोर कड़ी त्रेता यु्ग में भी मौजूद रही जो वर्चस्‍ववादी मानसिकता को उजागर करती है। यूं भी जिन समाजिक व चारित्रिक आधारों ने दशरथपुत्र राम को पहले मर्यादा पुरुषोत्‍तम राम और फिर 'भगवान श्रीराम' तक के उच्‍चासन पर पहुंचाया जबकि एक राजपुत्र के लिए ये कोई कठिन कार्य भी नहीं था मगर एक भूमिपुत्री के लिए किसी सूर्यवंशी राजघराने की बहू बनना फिर त्‍याग व आदर्शों की स्‍थापना करना निश्‍चित ही चुनौतीपूर्ण रहा होगा और इसीलिए सीता स्‍वयमेव देवी बन गईं।
एक भूमिपुत्री के लिए आदर्श के नये नये सोपानों को गढ़ते हुये चलना , लांछनों को काटते हुये देवी के रूप में स्‍थापित होना 'भगवान' से कहीं ज्‍यादा चुनौतीपूर्ण, कहीं ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण रहा तभी तो 'सीता का वनवास' आज भी आमजन को श्रीराम पर उंगली उठाने से नहीं रोक पाता। स्‍त्रियों के लिए पति-पत्‍नी के आदर्श संबंधों की स्‍थापना वाली इस सदैव संघर्षमयी यात्रा का, सीता एक ऐसा स्‍तंभ बन गईं जिसे त्रेता की रामायण से लेकर आज तक अपनी यात्रा तय करनी पड़ रही है। सच में किसी देवी के स्‍त्री बनने और किसी स्‍त्री के देवी बनने की इस पूरी आदर्श प्रक्रिया में स्‍त्री स्‍वयं कहां खड़ी है, यह सीता के लिए भी अनुत्‍तरित था और आज भी।
बहरहाल, इन्‍हीं अनुत्‍तरित संदर्भों में से निकलकर हमारे लिए आज भी सीता वन्‍दनीय हैं, पूज्‍यनीय हैं क्‍योंकि वे हमारी प्रेरणा हैं, हम आज भी उन्‍हीं के स्‍थापित आदर्शों पर चलकर ये सिद्ध कर पा रहे हैं कि कम से कम भारतीय परिवारों की धुरी स्‍त्रियां ही बनी हुई हैं। कहना गलत न होगा कि यु्ग बदले.. दौर बदले..सूरतें बदलीं मगर स्‍त्रियों के अपने अस्‍तित्‍व को तोलने वाली सीरतें आज भी जहां की तहां खड़ी हैं, ऐसे में सीता हमारी मार्गदर्शक भी बनकर आती हैं।
कुछ प्रश्‍न शेष रहते हैं फिर भी...
कि क्‍या किसी स्‍त्री को धैर्यवान दिखाने के लिये वनवास जरूरी है, कि क्‍या अग्‍निपरीक्षा ही स्‍त्री की शरीरिक शुद्धता की कसौटी है,
क्‍या पति के साथ स्‍वयं को विलीन कर देना ही सतीत्‍व है,
क्‍या मन, वचन, कर्म की शुद्धता पर अग्‍निपरीक्षा अब भी देनी होगी.... आदि प्रश्‍न समाज से उठकर आज की सीताओं को मथ रहे हैं। देखें कि सोचों का ये वनवास कब अपना रूप बदलेगा।
कवि रघुवीर शरण मिश्र की 'भूमिजा' में सीता कहती हैं-
“मुझे अबला न समझो
क्रोध पीकर शांत रहती हूँ
अहिंसा हूँ स्वयं सह कर
किसी से कुछ न कहती हूँ!
भूमि की लाड़ली हूँ मैं
कलंकित मर नहीं सकती
कलंकित मर धरा का मुख
स्याह में भर नहीं सकती।''..

- अलकनंदा सिंह

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