शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

सलाम सोलंकी जी, आप हो इस देश के हीरो


 "आसाराम को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने वाले वकील पी .सी. सोलंकी के इस आत्मकथन को पढ़कर मेरे रोयें खड़े हो गए, समझ आया कि ये देश किसके सहारे चल रहा है। 

सलाम सोलंकी जी, आप हो इस देश के हीरो! 

(और जो हीरो नहीं है उनके नाम जानने हों तो उन नामी गिरामी वकीलों की लिस्ट पढ़ लेना जिन्होंने आसाराम की पैरवी की) 

15 मिनट में जज ने अपना फैसला सुना दिया था. वो 15 मिनट मेरी जिंदगी के सबसे भारी 15 मिनट थे. एक-एक पल जैसे पहाड़ की तरह बीत रहा था. पूरे समय मेरी आंखों के सामने पीड़िता और उसके पिता का चेहरा घूमता रहा.जज जब फैसला सुनाकर उठे तो लोग मुझे बधाइयां देने लगे. मेरा गला रुंध गया था. मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी. मैं वकील हूं, मुकदमे लड़ना, कोर्ट में पेश होना मेरा पेशा है. लेकिन जिंदगी में आखिर कितने ऐसे मौके आते हैं, जब आपको लगे कि आपके होने का कोई अर्थ है. उस क्षण मुझे लगा था कि मेरे होने का कुछ अर्थ है. मेरा जीवन सार्थक हो गया.मेरा जन्‍म राजस्‍थान के एक साधारण परिवार में हुआ था. घर में तीन बहनें थीं और आर्थिक तंगी. पिता रेलवे में मैकेनिक थे.मैंने भी बचपन से सिलाई का काम किया है. मां एक दिन में 30-40 शर्ट सिलती थीं. पिता बेहद साधारण थे और मां अनपढ़. लेकिन दोनों की एक ही जिद थी कि बच्‍चों को पढ़ाना है और सिर्फ लड़के को नहीं, लड़कियों को भी. मेरी तीनों बहनों ने आज से 30 साल पहले पोस्‍ट ग्रेजुएशन किया और नौकरी की. मेरी एक बहन नर्स और एक टीचर है.जब मैंने इस पेशे में आने का फैसला किया तो मेरे गुरु ने कहा था कि वकालत बहुत जिम्‍मेदारी का काम है. इस पेशे की छवि समाज में बहुत अच्‍छी नहीं, लेकिन अपनी छवि हम खुद बनाते हैं और अपनी राह खुद चुनते हैं. हमेशा ऐसे काम करना कि सिर उठाकर चल सको और किसी से डरना न पड़े.

जब मैंने आसाराम के खिलाफ पीडि़ता की तरफ से यह मुकदमा लड़ने का फैसला किया तो बहुत धमकियां मिलीं. पैसों का लालच दिया गया. तमाम कोशिशें हुईं कि किसी भी तरह मैं ये मुकदमा छोड़ दूं. लेकिन हर बार मुझे वह दिन याद आता, जब पीड़िता के पिता पहली बार मुझसे मिलने कोर्ट आए थे. साथ में वो लड़की थी. बेहद शांत, सौम्‍य और बुद्धिमान. उसकी आंखें गंभीर थीं और चेहरे पर बहुत दर्द. पिता बेहद निरीह थे, लेकिन इस दृढ़ निश्‍चय से भरे हुए कि उन्‍हें यह लड़ाई लड़नी ही है.मैं यह लड़ाई इसलिए लड़ पाया क्‍योंकि पीड़िता और उसका परिवार एक क्षण के लिए अपने फैसले से डिगा नहीं. लड़की ने बहुत बहादुरी से कोर्ट में खड़े होकर बयान दिया. 94 पन्‍नों में उसका बयान दर्ज है. तकलीफ बहुत थी, लेकिन वो पर्वत की तरह अटल रही. लड़की की मां 19 दिनों तक कोर्ट में खड़ी रही और 80 पन्‍नों में उनका बयान दर्ज हुआ. पिता रोते रहे और बोलते रहे. 56 पन्‍नों में उनका बयान दर्ज हुआ.जब एक बेहद साधारण सा परिवार इतने ताकतवर आदमी के खिलाफ इस तरह अटल खड़ा था तो मैं कैसे हार मान सकता था. 2014 में जिस दिन वकालतनामे पर साइन किया, उस दिन के बाद से यह मुकदमा ही मेरी जिंदगी हो गया.

 साढ़े चार साल ट्रायल चला. इन साढ़े चार सालों में मैं रोज कोर्ट गया. 8 बार सुप्रीम कोर्ट में पेशी हुई. 1000 बार से ज्‍यादा ट्रायल कोर्ट में पेश हुआ.जितना मामूली पीड़िता का परिवार था, उतना ही मामूली वकील था मैं. इस तरफ मैं था और दूसरी तरफ थे देश की राजधानी में बैठे कद्दावर वकील. सबसे पहले आसाराम को जमानत दिलवाने के लिए आए राम जेठमलानी. जमानत याचिका रद्द हो गई. फिर आए केटीएस तुलसी, लेकिन आसाराम को कोई राहत नहीं मिली. फिर आए सुब्रमण्‍यम स्‍वामी. न्‍यायालय में 40 मिनट तक इंतजार किया, लेकिन फैसला हमारे पक्ष में आया. फिर आए राजू रामचंद्रन लेकिन जमानत याचिका फिर खारिज हो गई. सिद्धार्थ लूथरा ने अभियुक्‍त की तरफ से कोर्ट में पैरवी की. इस केस में आसाराम की तरफ से देश का तकरीबन हर बड़ा वकील पेश हुआ. पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने आसाराम की पैरवी की. सुप्रीम कोर्ट के जज यूयू ललित आए. सलमान खुर्शीद, सोली सोराबजी, विकास सिंह, एसके जैन, सबने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. तीन बार सुप्रीम कोर्ट से आसाराम की जमानत याचिका खारिज हुई. कुल छह बार अभियुक्‍त ने जमानत की कोशिश की और हर बार फैसला हमारे पक्ष में आया.

लोग कहते हैं, तुम्‍हें डर नहीं लगता. मैं कहता हूं, मेरी 80 साल की मां और 85 साल के पिता को भी डर नहीं लगता. जब आप सच के साथ होते हैं तो मन, शरीर सब एक रहस्‍यमय ऊर्जा से भर जाता है. सत्‍य में बड़ा बल है. आत्‍मा की शक्ति से बड़ी कोई शक्ति नहीं. उनके पास धन, वैभव, सियासत का बल था, मैं अपनी आत्‍मा के बल पर खड़ा रहा. मेरा परिवार मेरे साथ था. मेरी मां पढ़ी-लिखी नहीं हैं. वे बस इतना समझती हैं कि एक आदमी ने गलत किया. बच्‍ची को न्‍याय मिले. मुझे सच की लड़ाई लड़ता देख मेरे पिता की बूढ़ी आंखों में गर्व की चमक दिखाई देती है. वे मुझसे भी ज्‍यादा निडर हैं. 85 साल की उम्र में भी बिलकुल स्‍वस्‍थ. तीन मंजिला मकान की अकेले सफाई करते हैं. पत्‍नी खुश है कि मैं एक लड़की के हक के लिए लड़ा.

(यह लेख पी.सी. सोलंकी के साथ बातचीत पर आधारित है.)


25 हजार करोड़ की संपत्ति के मालिक आसाराम जितना खरीद सकते थे खरीद रहे थे। 

उन दिनों सारा हिंदुत्व इसे अंतरराष्ट्रीय साजिश के तहत सनातन संस्कृति पर हमला बता रहा था। पीड़िता और पीड़िता के पिता के पहले मददगार बने, एसीपी लांबा और दूसरे वकील पीसी सोलंकी।

आसाराम के गुर्गो बनाम भक्तों द्वारा अनेक गवाहों पर जानलेवा हमले करते हुए उन्हें मौत के घाट उतार देने के बावजूद पीसी सोलंकी हिमालय की तरह अटल रहे।

इन्हें हृदय से नमन

साभार: 

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मंगलवार, 4 फ़रवरी 2025

आज नर्मदा जयंती पर... चिरकुंवारी नर्मदा की अधूरी प्रेम-कथा पढ़‍िये... श्याम सुन्दर भट्ट की कलम से


 कहते हैं नर्मदा ने अपने प्रेमी शोणभद्र से धोखा खाने के बाद आजीवन कुंवारी रहने का फैसला किया लेकिन क्या सचमुच वह गुस्से की आग में चिरकुवांरी बनी रही या फिर प्रेमी शोणभद्र को दंडित करने का यही बेहतर उपाय लगा कि आत्मनिर्वासन की पीड़ा को पीते हुए स्वयं पर ही आघात किया जाए। नर्मदा की प्रेम-कथा लोकगीतों और लोककथाओं में अलग-अलग मिलती है लेकिन हर कथा का अंत कमोबेश वही कि शोणभद्र के नर्मदा की दासी जुहिला के साथ संबंधों के चलते नर्मदा ने अपना मुंह मोड़ लिया और उलटी दिशा में चल पड़ीं।                     

सत्य और कथ्य का मिलन देखिए कि नर्मदा नदी विपरीत दिशा में ही बहती दिखाई देती है। 

 यथार्थ में नर्मदा, सोन, और महानदी तीनों त्रिकूट पर्वत के तीन शिखरों से जन्म लेती हैं। इनके उद्गम स्थल की आपसी दूरी बहुत कम है परंतु महानदी पूर्व में बहते हुए बंगाल की खाड़ी में गिरती है । सोन  जिसे सोनभद्र कहते हैं वह उत्तर में बहती है और गंगा में मिल जाती है । और नर्मदा इन सबसे अलग पश्चिम में बहती है ।और अरब सागर में मिलती है ।

नर्मदा की सहायक नदियां भी छोटी-छोटी हैं और यह विंध्याचल और सतपुड़ा के बीच में अपनी घाटी बनाती हुई बहती है ।

इस भौगोलिक तथ्यों को ही विभिन्न कथाओं में प्रतीकों के माध्यम से बताया गया  हैं

नर्मदा और सोन एक स्थान पर तो बहुत निकट है और शायद  यह उसे देखकर ही या कहा जाता है कि नर्मदा सोन से मिलने आ रही थी ।और जुहेला को  उसके साथ देख कर पलट गई ।

जोहेला एक छोटी नदी है जो उसी स्थान पर सोन से मिलती है जहां नर्मदा बहुत निकट है।।

कथा 1 : नर्मदा और शोण भद्र की शादी होने वाली थी। विवाह मंडप में बैठने से ठीक एन वक्त पर नर्मदा को पता चला कि शोण भद्र की दिलचस्पी उसकी दासी जुहिला(यह आदिवासी नदी मंडला के पास बहती है) में अधिक है। प्रतिष्ठत कुल की नर्मदा यह अपमान सहन ना कर सकी और मंडप छोड़कर उलटी दिशा में चली गई। शोण भद्र को अपनी गलती का एहसास हुआ तो वह भी नर्मदा के पीछे भागा यह गुहार लगाते हुए' लौट आओ नर्मदा'... लेकिन नर्मदा को नहीं लौटना था सो वह नहीं लौटी। 

अब आप कथा का भौगोलिक सत्य देखिए कि सचमुच नर्मदा भारतीय प्रायद्वीप की दो प्रमुख नदियों गंगा और गोदावरी से विपरीत दिशा में बहती है यानी पूर्व से पश्चिम की ओर। कहते हैं आज भी नर्मदा एक बिंदू विशेष से शोण भद्र से अलग होती दिखाई पड़ती है। कथा की फलश्रुति यह भी है कि नर्मदा को इसीलिए चिरकुंवारी नदी कहा गया है और ग्रहों के किसी विशेष मेल पर स्वयं गंगा नदी भी यहां स्नान करने आती है। इस नदी को गंगा से भी पवित्र माना गया है। 

मत्स्यपुराण में नर्मदा की महिमा इस तरह वर्णित है -‘कनखल क्षेत्र में गंगा पवित्र है और कुरुक्षेत्र में सरस्वती। परन्तु गांव हो चाहे वन, नर्मदा सर्वत्र पवित्र है। यमुना का जल एक सप्ताह में, सरस्वती का तीन दिन में, गंगाजल उसी दिन और नर्मदा का जल उसी क्षण पवित्र कर देता है।’ एक अन्य प्राचीन ग्रन्थ में सप्त सरिताओं का गुणगान इस तरह है।


गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती। नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेSस्मिन सन्निधिं कुरु।। 


कथा 2 : इस कथा में नर्मदा को रेवा नदी और शोणभद्र को सोनभद्र के नाम से जाना गया है। नद यानी नदी का पुरुष रूप। (ब्रह्मपुत्र भी नदी नहीं 'नद' ही कहा जाता है।) बहरहाल यह कथा बताती है कि राजकुमारी नर्मदा राजा मेखल की पुत्री थी। राजा मेखल ने अपनी अत्यंत रूपसी पुत्री के लिए यह तय किया कि जो राजकुमार गुलबकावली के दुर्लभ पुष्प उनकी पुत्री के लिए लाएगा वे अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ संपन्न करेंगे। राजकुमार सोनभद्र गुलबकावली के फूल ले आए अत: उनसे राजकुमारी नर्मदा का विवाह तय हुआ। 

नर्मदा अब तक सोनभद्र के दर्शन ना कर सकी थी लेकिन उसके रूप, यौवन और पराक्रम की कथाएं सुनकर मन ही मन वह भी उसे चाहने लगी। विवाह होने में कुछ दिन शेष थे लेकिन नर्मदा से रहा ना गया उसने अपनी दासी जुहिला के हाथों प्रेम संदेश भेजने की सोची। जुहिला को सुझी ठिठोली। उसने राजकुमारी से उसके वस्त्राभूषण मांगे और चल पड़ी राजकुमार से मिलने। सोनभद्र के पास पहुंची तो राजकुमार सोनभद्र उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठा। जुहिला की ‍नियत में भी खोट आ गया। राजकुमार के प्रणय-निवेदन को वह ठुकरा ना सकी। इधर नर्मदा का सब्र का बांध टूटने लगा। दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो वह स्वयं चल पड़ी सोनभद्र से मिलने।

वहां पहुंचने पर सोनभद्र और जुहिला को साथ देखकर वह अपमान की भीषण आग में जल उठीं। तुरंत वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए। सोनभद्र अपनी गलती पर पछताता रहा लेकिन स्वाभिमान और विद्रोह की प्रतीक बनी नर्मदा पलट कर नहीं आई। 

अब इस कथा का भौगोलिक सत्य देखिए कि जैसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जुहिला (इस नदी को दुषित नदी माना जाता है, पवित्र नदियों में इसे शामिल नहीं किया जाता) का सोनभद्र नद से वाम-पार्श्व में दशरथ घाट पर संगम होता है और कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी और अकेली उल्टी दिशा में बहती दिखाई देती है। रानी और दासी के राजवस्त्र बदलने की कथा इलाहाबाद के पूर्वी भाग में आज भी प्रचलित है। 

कथा 3 : कई हजारों वर्ष पहले की बात है। नर्मदा जी नदी बनकर जन्मीं। सोनभद्र नद बनकर जन्मा। दोनों के घर पास थे। दोनों अमरकंट की पहाड़ियों में घुटनों के बल चलते। चिढ़ते-चिढ़ाते। हंसते-रुठते। दोनों का बचपन खत्म हुआ। दोनों किशोर हुए। लगाव और बढ़ने लगा। गुफाओं, पहाड़‍ियों में ऋषि-मुनि व संतों ने डेरे डाले। चारों ओर यज्ञ-पूजन होने लगा। पूरे पर्वत में हवन की पवित्र समिधाओं से वातावरण सुगंधित होने लगा। इसी पावन माहौल में दोनों जवान हुए। उन दोनों ने कसमें खाई। जीवन भर एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ने की। एक-दूसरे को धोखा नहीं देने की।

एक दिन अचानक रास्ते में सोनभद्र ने सामने नर्मदा की सखी जुहिला नदी आ धमकी। सोलह श्रृंगार किए हुए, वन का सौन्दर्य लिए वह भी नवयुवती थी। उसने अपनी अदाओं से सोनभद्र को भी मोह लिया। सोनभद्र अपनी बाल सखी नर्मदा को भूल गया। जुहिला को भी अपनी सखी के प्यार पर डोरे डालते लाज ना आई। नर्मदा ने बहुत कोशिश की सोनभद्र को समझाने की। लेकिन सोनभद्र तो जैसे जुहिला के लिए बावरा हो गया था। 

नर्मदा ने किसी ऐसे ही असहनीय क्षण में निर्णय लिया कि ऐसे धोखेबाज के साथ से अच्छा है इसे छोड़कर चल देना। कहते हैं तभी से नर्मदा ने अपनी दिशा बदल ली। सोनभद्र और जुहिला ने नर्मदा को जाते देखा। सोनभद्र को दुख हुआ। बचपन की सखी उसे छोड़कर जा रही थी। उसने पुकारा- 'न...र...म...दा...रूक जाओ, लौट आओ नर्मदा। 

लेकिन नर्मदा जी ने हमेशा कुंवारी रहने का प्रण कर लिया। युवावस्था में ही सन्यासिनी बन गई। रास्ते में घनघोर पहाड़ियां आईं। हरे-भरे जंगल आए। पर वह रास्ता बनाती चली गईं। कल-कल छल-छल का शोर करती बढ़ती गईं। मंडला के आदिमजनों के इलाके में पहुंचीं। कहते हैं आज भी नर्मदा की परिक्रमा में कहीं-कहीं नर्मदा का करूण विलाप सुनाई पड़ता है। 

नर्मदा ने बंगाल सागर की यात्रा छोड़ी और अरब सागर की ओर दौड़ीं। भौगोलिक तथ्य देखिए कि हमारे देश की सभी बड़ी नदियां बंगाल सागर में मिलती हैं लेकिन गुस्से के कारण नर्मदा अरब सागर में समा गई।

नर्मदा की कथा जनमानस में कई रूपों में प्रचलित है लेकिन चिरकुवांरी नर्मदा का सात्विक सौन्दर्य, चारित्रिक तेज और भावनात्मक उफान नर्मदा परिक्रमा के दौरान हर संवेदनशील मन महसूस करता है। कहने को वह नदी रूप में है लेकिन चाहे-अनचाहे भक्त-गण उनका मानवीयकरण कर ही लेते है। 

पौराणिक कथा और यथार्थ के भौगोलिक सत्य का सुंदर सम्मिलन उनकी इस भावना को बल प्रदान करता है और वे कह उठते हैं नमामि देवी नर्मदे.... !

साभार: श्याम सुन्दर भट्ट

बुधवार, 22 जनवरी 2025

यूपी में बनेगा देश का पहला हिंदी साहित्य म्यूजियम, संरक्षित होगी साहित्यकारों की विरासत


 वाराणसी। धर्मनगरी काशी में देश का पहला हिंदी संग्रहालय बनने जा रहा है, जहां पर हिंदी से जुड़े हुए बड़े साहित्यकारों की यादों, उनके दस्तावेजों को संरक्षित रखने का काम किया जाएगा. बता दें कि वाराणसी को धर्म, आध्यात्म के साथ साहित्य और विद्या का भी शहर कहा जाता है. यहां के कई बड़े साहित्यकारों ने हिंदी को एक नया मुकाम दिया है. इसी क्रम में पहली बार यहां पर हिंदी साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए हिंदी भाषा का म्यूजियम बनाया जाएगा, जिसकी शासन से मंजूरी भी मिल गई है. 

म्यूजियम बनारस के पुलिस लाइन स्थित हिंदी भाषा के कार्यालय के समीप बनाया जाएगा जिसकी कुल कीमत 31 करोड़ रुपए होगी. जल्द ही इसे तैयार करने का काम शुरू हो जाएगा. इस बारे में राज्य हिंदी संस्थान की निदेशक चंदन बताती हैं कि, यह हिंदी संग्रहालय एक भाषा को समर्पित देश का पहला म्यूजियम होगा, जिसमें हिंदी की प्रसिद्ध साहित्यकार उनकी पुस्तक तस्वीर दुर्लभ पांडुलिपियों दस्तावेजों को संरक्षित रखा जाएगा.

ये होंगी सुविधाएं  
म्यूजियम में एक एमपी थियेटर और ऑडिटोरियम भी होगा. जिसमें साहित्यकारों के जीवन से जुड़ी रचनाओं को समझाया जाएगा और अलग-अलग कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे. इस म्यूजियम में हिंदी साहित्य से जुड़े दिग्गजों को लेकर गैलरी होगी, जिसमें उनकी प्रतिमाएं और पेंटिंग लगाई जाएगी. और उनसे जुड़ी महत्वपूर्ण किताबें को रखा जाएगा. उन्होंने बताया कि, इसके बन जाने का सबसे बड़ा फायदा आम जनमानस के साथ हिंदी साहित्य प्रेमियों को मिलेगा, उन्हें पुराने साहित्यकारों की पुस्तक व जानकारी के लिए यहां वहां दौड़ना नहीं पड़ेगा.

10 करोड़ का बजट पास
संस्थान निदेशक चंदन बताती हैं कि हिंदी साहित्य भाषा म्यूजियम के लिए सरकार से पहले ही स्वीकृति मिल गई थी. डिजाइन को भी स्वीकृत कर लिया गया है. इसको लेकर के बीते 24 सितंबर को शासन के साथ बैठक भी हुई थी, जिसमें इंटीरियर डिजाइनिंग की प्रक्रिया चल रही है. इसकी रिपोर्ट सबमिट करने के साथ 10 करोड़ का बजट जारी हो जाएगा और काम की शुरुआत हो जाएगी. बनारस एक ऐसा शहर है जहां से भारतेंदु हरिश्चंद्र, मुंशी प्रेमचंद जैसे दिग्गज साहित्यकार हुए और उन्होंने बनारस की यह पहचान बनाई, इस म्यूजियम के बन जाने से उनकी पहचान और विरासत सुरक्षित होगी जो कहीं ना कहीं देख रेख के आभाव में गुमनाम होती नजर आ रही है.
- Legend News

बुधवार, 11 दिसंबर 2024

अतुल सुभाष की आत्महत्या का मामला: पति से बदला लेने के लिए हो रहा क्रूरता कानून का गलत इस्तेमाल


 अतुल सुभाष, जो एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर थे, ने हाल ही में आत्महत्या कर ली। उनकी खुदकुशी के पीछे उनकी पत्नी द्वारा लगाए गए दहेज उत्पीड़न के आरोपों को बताया जा रहा है। बेंगलुरु की एक प्राइवेट कंपनी में काम करने वाले 34 साल के इंजीनियर अतुल सुभाष पर कई मुकदमे चल रहे थे. इनमें भरण पोषण, दहेज उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और तलाक के मामले शामिल थे. आत्महत्या से पहले अतुल सुभाष ने एक घंटे से ज्यादा समय का वीडियो संदेश जारी किया था और 23 पेज का सुसाइड नोट भी लिखा. यही नहीं अतुल सुभाष ने न्याय व्यवस्था पर भी सवाल उठाए हैं. उन्होंने पत्नी निकिता सिंघानिया, सास, साले और उनके मामले की सुनवाई कर रही जज पर भी गंभीर आरोप लगाए हैं. अतुल सुभाष की आत्महत्या के साथ ही एक सवाल यह खड़ा हो गया है कि क्या हमारे देश में पुरुषों के लिए इस तरह के मामलों में कोई कानून नहीं है.

इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने दहेज उत्पीड़न (धारा 498ए) के बढ़ते दुरुपयोग को लेकर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। अदालत ने कहा कि वैवाहिक विवादों में कानून का गलत इस्तेमाल रोकने के लिए सावधानी बरतनी चाहिए। 

सुप्रीम कोर्ट की ही वकील और तमाम पति-पत्नी के मामलों को देख चुके आजाद खोखर ने बताया कि लोअर ज्यूडिशरी एक तरफा काम करती है. कई बार वह सिर्फ महिलाओं के हक में ही बात करती है. चाहे उन्हें तमाम बार यह दिशा निर्देश क्यों ना मिले हों कि वो पति-पत्नी के मामलों में दोनों की सुने और सही सुनवाई करे. इसके बाद जिला स्तर तक सिर्फ एकतरफा फैसला होता है. लोअर ज्यूडिशरी पुरुषों की बातों को एक तरफ से नजरअंदाज कर देते हैं. यही वजह है कि अतुल सुभाष जैसे आत्महत्या के मामले होते रहते हैं. लोअर ज्यूडिशरी की सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट या किसी भी न्यायालय द्वारा मॉनिटरिंग होनी चाहिए, क्योंकि उस स्तर पर कहीं ना कहीं एक तरफा ही काम होता है और महिलाओं के हक में ही सारी सुनवाई होती है.

हालांक‍ि अदालत ने इस मामले को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा कि बिना ठोस सबूत के आरोप लगाना निर्दोष लोगों को मानसिक और सामाजिक रूप से प्रभावित करता है।

न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना और एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि दहेज उत्पीड़न जैसे मामलों में बिना ठोस सबूत के पति और उनके परिवार के खिलाफ आरोपों को प्राथमिक स्तर पर ही रोक देना चाहिए। वैवाहिक विवादों में परिवार के सदस्यों को फंसाने की प्रवृत्ति पर अदालत ने चिंता व्यक्त की। पीठ ने स्पष्ट किया कि अस्पष्ट और सामान्य आरोपों को आपराधिक मुकदमे का आधार नहीं बनाया जा सकता।

भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498ए को दहेज उत्पीड़न और क्रूरता रोकने के उद्देश्य से लागू किया गया था। इसका उद्देश्य महिलाओं को त्वरित न्याय प्रदान करना और ससुराल में होने वाले अत्याचार को खत्म करना है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाल के वर्षों में इस प्रावधान का दुरुपयोग बढ़ रहा है।

अदालत ने यह भी कहा कि वैवाहिक विवादों में आईपीसी की धारा 498ए का इस्तेमाल व्यक्तिगत प्रतिशोध लेने और पति एवं उनके परिवार को परेशान करने के लिए किया जा रहा है। अदालत ने इस प्रवृत्ति को रोकने की जरूरत पर जोर दिया।

वैवाहिक विवादों में सावधानी की आवश्यकता

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कानून का इस्तेमाल किसी निर्दोष व्यक्ति को परेशान करने के लिए न हो। साथ ही, न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि कोई भी महिला जो वास्तव में उत्पीड़न का शिकार है, उसे अपनी बात रखने का पूरा अधिकार है।

1. धारा 498ए क्या है?

धारा 498ए भारतीय दंड संहिता का प्रावधान है, जो दहेज उत्पीड़न और वैवाहिक क्रूरता से महिलाओं की सुरक्षा के लिए लागू किया गया है।

2. दहेज उत्पीड़न मामलों में सबसे बड़ी समस्या क्या है?

इन मामलों में अक्सर बिना सबूत के पति और उनके परिजनों के खिलाफ शिकायतें दर्ज कराई जाती हैं, जिससे निर्दोष लोग परेशान होते हैं।

3. अदालतें दहेज उत्पीड़न मामलों में क्या कदम उठा रही हैं?

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ऐसे मामलों में ठोस सबूत और विशिष्ट आरोपों के बिना कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए।


सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी वैवाहिक विवादों में कानून का संतुलित उपयोग सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। अदालत ने दहेज उत्पीड़न कानून के दुरुपयोग को रोकने और निर्दोष व्यक्तियों की सुरक्षा पर जोर दिया है।


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पति भी कर सकता है मेंटेनेंस की मांग

आजाद खोखर ने बताया कि हिंदू मैरिज एक्ट में पति-पत्नी किसी के लिए कोई भेदभाव नहीं है. दोनों के लिए सामान्य न्याय है, लेकिन कई बार पुरुष सही वकील या सही सिस्टम को नहीं समझ पाते हैं जिस वजह से वो परेशान हो जाते हैं. पुरुष और महिला दोनों के मेंटेनेंस की व्यवस्था हिंदू मैरिज एक्ट में है. सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस है कि अगर पत्नी कमा रही है तो भी वह मेंटेनेंस मांग सकती है. इसी तरह पति भी मेंटेनेंस मांग सकता है. मुंबई हाई कोर्ट ने 2015 में पत्नी द्वारा पति को 3,000 रुपये महीने अंतरिम भरण पोषण के तौर पर देने के निचली अदालत के आदेश को सही ठहराया था. हाई कोर्ट ने कहा था कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा-25 के तहत पति पत्नी दोनों को एक दूसरे से भरण पोषण मांगने का अधिकार है.


क्या है घरेलू हिंसा का कानून?

अगर पति को लग रहा है कि पत्नी ने झूठा केस किया है या झूठे मामलों में फंसा रही है, उसके पूरे परिवार को घसीट लिया गया है तो पति सबूत के साथ थाने में जाकर पत्नी के खिलाफ और उसके परिवार के खिलाफ प्रताड़ना का केस कर सकता है. हालांकि पत्नी के पास घरेलू हिंसा का कानून है, पति के लिए वैसा कोई कानून आज तक बना ही नही है. घरेलू हिंसा से सुरक्षा का कानून सिर्फ पत्नी के लिए है, पति के लिए नहीं. हालांकि इसे मानसिक प्रताड़ना की श्रेणी में लिया जाएगा. जिसके आधार पर पति अपनी पत्नी से तलाक की अर्जी कोर्ट में लगा सकता है, सेक्शन 498a के तहत.

- अलकनंदा स‍िंंह 

मंगलवार, 12 नवंबर 2024

दर्दनाक कहानी: अपनी मां के मरने का व्यापार करता एक बेटा...


 आज twitter यान‍ि X पर एक आंखेंदेखा वाकया पढ़ा ज‍िसे भुक्तभोगी लंकेश ( X पर एकाउंट का नाम)  ने साझा क‍िया...आप भी पढ़ें क‍ि गांव गमाण में आज र‍िश्ते क‍िस तरह बदल चुके हैं...  


छठ प्रसाद पहुंचाने दीदी के ससुराल गए।आवभगत, दण्ड - प्रणाम के बाद, दीदी के ससुर बोले की,चलिए बगल में एक वृद्धा मरणासन्न की अवस्था "भुइयाँ सेज" में पड़ी हैं, हालत देख-सुन के आते हैं। तकरीबन तीन-चार लोग हम चल पड़े। वहाँ पहुंच मैंने देखा, एक चमचमाता चेहरा,धवल बाल,बड़ी बिंदी,भखरा सिंदूर से भरा माँग,नथनी, बाली, मंगलसूत्र पहने, हल्का चादर ओढ़े एक वृद्धा चारपाई पर आँख बंद किये लेटी हुई हैं। सांस की गति तेज और गर्दन की घरघराहट साफ सुनाई दे रहा था ।कोई अनजान इनको देख, समझेगा कि कोई दादी जी आराम से सो रही है। अम्मा की सबसे छोटी बेटी जो कल हीं अपने ससुराल से खबर मिलते हीं भाग के आई थी, तलवे को गोद में ले "घरा" कर रहीं थी। अम्मा की दो बड़ी बेटियां भी आ गयीं थी, जो बाहर खड़ी आपस में दुखम सुखम साँझा कर रहीं थीं। थोड़ा पीछे चलते हैं।

अम्मा के तीन बेटे और तीन बेटियां हैं। बात 2009 की है, जब अम्मा के बड़े बेटे (आशीष) जो कि मर्चेंट नेवी में अच्छे पद पर कार्यरत थे, नशे में जहाज से समंदर में गिरकर नुकसान हो गए थे। आशीष नॉमिनी अपनी पत्नी (प्रिया) को बनाये थे तो नेवी से मिलने वाला सारा पैसा प्रिया को मिला। प्रिया बच्चों को लेकर मायके आ गयी और शहर में किराये का फ्लैट लेकर रहने लगी। मिले रकम से एक फूटी कौड़ी भी,प्रिया ने आशीष के माँ बाप को नहीं दी। घर से लगभग नाता तोड़ हीं लिया। समय बीतता गया,आशीष के पिताजी (राम शरण जी) बहू के इस रवैये से दुःखी और विचलित तो हुए मगर, मन को दिलासा दिलाये कि चलो, दोनों नाती शहर में दो अक्षर अच्छा हीं सीख लेंगे। आदमी कितना भी दुःखी क्यों न हो, मन के किसी कोने में कोई एक किरण आशा की जलाकर अपने दुःख को कम जरूर कर लेता है। और आशा दिल के भार को ऐसे कम करता है जैसे भींगी रुई के भार को धूप। समय के साथ, आशीष की तीनों बहनों और एक भाई की शादी हो गयीं। बहनें अपने अपने घर चली गयीं। आशीष के दोनों भाई, मुकेश और दिनेश घर पर हीं रहते हैं। राम शरण जी, अपने दोनों बेटों के साथ मिलकर बगल में हीं एक नया मकान बनवा लिए हैं, जिसका गृहप्रवेश इसी महीने के 26 तारीख को तय है। छोटे बेटे की शादी भी तय है जो कि, जनवरी 2025 के अंतिम हफ्ते में होना है।दोनों की तैयारी बड़े जोर शोर से चल रहा था। नाच वाले, बाजा वाले, टेंट, मिठाई, साज सज्जा वाले सभी को कुछ पैसा देकर तय कर लिया गया था कि, अचानक हीं अम्मा को पैरालाईसिस ने घेर लिया। राम शरण सिरहाने बैठे एकटक चेहरे को ऐसे निहारे जा रहे थे जैसे आँखे खोल अम्मा उनसे पानी के अब पूछेंगी की तब पूछेंगी। पति पत्नी जीवन में कितना भी नोंक झोंक करे, रुठे मनाये, डांटे फटकारे मगर, चौथेपन के पड़ाव में एक दुसरे से ऐसे अचानक हीं हमेशा हमेशा के लिए दूर जाने के लिए आँखे बंद कर ले तो दोनों के लिए ये दर्द असह्य हो जाता है। अम्मा के शरीर में कोई हरक़त नहीं हो पा रहा था, केवल सांस चल रहा था। डॉक्टर बोल दिए थे, कोमा में हैं, देखिये कितना दिन जिंदा रह पाती हैं। बेटियां बैठ के अम्मा के चादर,बाल,साड़ी को ठीक करने लगी,कोई मुंह पोंछने लगी,कोई हाथ सहलाने लगी। अब जबकि दो दिन बीत गए मुझे अपने घर आये।फोन करके पता किया तो,पता चला कि,अम्मा अभी भी उसी हालात में हैं।मैंने बोला, चलो अच्छा हीं है। पर इसके बाद दिनेश (अम्मा का छोटा बेटा) ने जो मुझसे कहा, उसे सुनकर मैं सहम हीं नहीं गया, बल्कि, मानव होने पर भी मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। "दिनेश - वो तो ठीक है कि जितना दिन जी जाए अम्मा। पर.. मैं - पर क्या?? वहीं, गृह प्रवेश का भी दिन रखा गया है, मेरी शादी का भी दिन रखा गया है. तो?? अरे आप समझ नहीं रहें हैं, अगर अम्मा आज की रात नहीं मरती हैं तो आगे सब कुछ बर्बाद हो जायेगा। आज 12 है, चौदह दिन बाद गृहप्रवेश है, वो होगा नहीं,, अगले गृह प्रवेश की तिथि वसंत पंचमी को है. मेरी शादी की तारीख वसंत पंचमी से पहले तय है। पुराने घर में शादी होगी नहीं. बेटी वाले मान नहीं रहे। आप हीं बताइये, कइसे होगा सब? अब आज गुजर जाती तो भी सब समय से हो हवा जाता। (मैं चुप!) दिनेश बोलता रहा - और वैसे भी अम्मा आगे और जी के का हीं कर लेंगी। ठीक तो होंगी नहीं,, जितना भोग भोगान लिखा है, भोग रहीं हैं। अब हमलोगों को भी जितना पेराना है, पेराएंगे। पैसा रुपिया सब साटा बाजा का बयाना दिए बर्बाद हो रहा है। अब मेरे कान, मस्तिष्क ठन्डे पड़ गए थे, दिनेश बोलता रहा, मगर मैं आगे और सुन पाने की स्थिति में नहीं था। धक्क से रह गया मेरा मन। कौन हैं हम मानव? किस हद तक गिर रहें हैं हमलोग? जिस बेटे के पेट में आने मात्र की सूचना माँ को ममता में विह्वल कर देता है, उसके द्वारा पेट में लात मारना माँ को आनन्द भर देने वाला होता है उस माँ के लिए ऐसा सोच! हे प्रभु

प्रस्तुत‍ि : अलकनंदा स‍िंंह

सोमवार, 21 अक्टूबर 2024

इसे द‍िवाली नहीं दीवाली बोल‍िए...

 
आज कल अख़बारों में ‘दीवाली’ को ‘दिवाली’ ल‍िखा जाता है जबक‍ि सही शब्द है–दीवाली। 

असल में ‘दीवाली’ का दिवालिया निकले दस-बारह बरस से ज़्यादा नहीं हुए हैं और हमारे ज़िम्मेदार अख़बारों ने ही यह काम किया है, क्योंकि पुस्तक सहित कई और दूसरे लेखन में ‘दीवाली’ का सही रूप अभी तक लिखा जाता रहा है।   

यों बोलचाल में देशज प्रयोग ‘दिवाली’ हम सुन सकते हैं, पर पढ़े-लिखे लोग लिखने-बोलने में सही रूप का प्रयोग करेंगे तो अन्ततः यही हिन्दी के हित में होगा। दुर्भाग्य यह है कि हम अपनी ही भाषा के शब्द के लिए वर्तनी निर्धारण अँग्रेज़ी में लिखे जा रहे DIWALI के आधार पर करने लगते हैं और आई (I) देखकर ‘दीवाली’ के ‘द’ पर छोटी ‘इ’ की मात्रा तय कर देते हैं।

मूल शब्द है, दीप। बताने की ज़रूरत नहीं है कि दीप का मतलब दीया। ‘दीप’ में जुड़ा ‘आलि/आली’ (कतार, शृङ्खला) तो बना ‘दीपालि/दीपाली’। ‘आवलि’ या ‘आवली’ जोड़िए तो ‘दीपावलि’ या ‘दीपावली’। ‘दीप’ में ‘माला’ जुड़ा तो ‘दीपमाला’। ‘मालिका’ जोड़िए तो ‘दीपमालिका’। अर्थ वही है। हिन्दी के स्वभाव के हिसाब से ‘दीपाली’ और ‘दीपावली’ का सहज परिवर्तन ‘दीवाली’ है। 

महादेवी वर्मा की कृति ‘दीपशिखा’ की यह पंंक्त‍ि पढ़िए—इस मरण के पर्व को मैं आज दीवाली बना लूँ। 

सोहनलाल द्विवेदी को पढ़िए—राजा के घर, कँगले के घर/हैं वही दीप सुन्दर सुन्दर/दीवाली की श्री है पग-पग/जगमग जगमग जगमग जगमग! वैसे कविताओं में ‘दीवाली’ और ‘दिवाली’ दोनों मिलेंगे, क्योंकि लय के हिसाब से मात्राओं की कमर थोड़ी लचकाने की ज़रूरत पड़ सकती है।

‘दीवाली’ चाहें तो ‘दीवा’ से भी बना सकते हैं, इसलिए कि ‘दीवा’ की कुण्डली भी संस्कृत के पास मौजूद है। ‘दीवा’ का अर्थ है ‘दीप’ या ‘दीया’, जबकि ‘दिवा’ का अर्थ है दिन। इसी ‘दिवा’ से ‘दिवाकर’ बना है, जिसका अर्थ है सूर्य। संस्कृत का दीप ही ‘दीया’ और ‘दीवा’ तक पहुँचा। ‘दीया’ हमारे अवध में आज भी ‘दीया’ ही है। ‘दीया’ से ‘दियना’, ‘दियरा’, ‘दिवना’ और छोटे दीये के लिए ‘दियरी’ तो बन गया, पर ‘दिया’ नहीं बना, क्योंकि लोगों को पता है कि हम ‘दिया’ को क्रिया के रूप में इतना इस्तेमाल करते हैं कि भ्रम की सम्भावना ज़्यादा बढ़ जाएगी। छूट सिर्फ़ कविताओं के लिए है या कुछ शब्द-संयोगों के लिए। जैसे कि ‘दीया’ में ‘सलाई’ जोड़कर शब्द बना ‘दीयासलाई’ (दीपशलाका) और फिर ‘दियासलाई’।

संस्कृत के शब्द प्राकृत में बिगड़कर आए हैं, पर वहाँ भी ‘दीवाली’ ही मिलेगा, ‘दिवाली’ नहीं। कुछ लोगों का तर्क है कि यह एक नाम है, इसलिए दिवाली लिखना सही है। अब बात यह कि नाम है तो नाम ही रहना चाहिए न! नाम को तो और भी दृढ़ता के साथ बिगड़ने से बचाना चाहिए। आख़िर किसने कह दिया कि नाम ‘दीवाली’ नहीं ‘दिवाली’ है? 

सही बात यही है कि ‘दिवाली’ अमानक प्रयोग है, पर जब चलाया ही जाएगा तो ‘महाजनो येन गतः स पन्थाः’ की तरह आम लोग भी इसे ही मानक मान लेंगे। 

अच्छा है कि हम शब्दों के सही रूप को यथाशक्य अपनाएँ और अपनी भाषा को अराजक होने से बचाएँ। हमारे अख़बार चाहें तो एक साफ़-सुथरी भाषा आने वाली पीढ़ियों को सौंप सकते हैं।

बुधवार, 16 अक्टूबर 2024

ये पोस्ट उनके ल‍िए जो #RatanTata का अंधसमर्थन कर ब‍िछे जा रहे हैं


 रतन टाटा के हाथ में जब टाटा समूह का नेतृत्व आया तो उन्होंने आर्ट के नाम पर 'न्यूड‍िटी'  को प्रमोट करने वाले  #PAG यानी "प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप" को खुले हाथ से संरक्षण द‍िया और भारतीय संस्कृत‍ि को आर्ट के जर‍िए प्रदर्श‍ित करने वाले  #बंगाल_स्कूल_ऑफ_आर्ट को खत्म कर दिया । 

इसी प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के पेंटर थे, हेब्बार, शुजा, रजा और मकबूल फिदा हुसैन। यह सत्य टाटा स्टील चेयरमैन रूसी मोदी ने बताया था, ज‍िन्हें बाद में नाइत्तफिाकी के चलते रतन टाटा ने टाटा स्टील से न‍िकाल बाहर क‍िया था। 

ये देख‍िए उन प्रोग्रेस‍िव कलाकारों की कुछ कलाकृत‍ियां जो अरबप‍ितयों के ड्रॉइंग रूम्स की शोभा बनीं। 



F. N. Souza, Self Portrait,1949, Oil on board.
 












.N Souza, Mithuna 

 
Akbar Padamsee. Lovers, 1952. Oil on board. H. 62 x W. 32 in. (157.5 x 81.3 cm). Collection Amrita Jhaveri.







F.N. Souza. Temple Dancer, 1957



नई पीढ़ी को यह सच भी जानना जरूरी है 

इसी प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के पेंटर्स द्वारा अध‍िकतम न्यूड पेंट‍िंग्स बनाई गईं और ज‍िनकी कीमत लाखों से शुरू होकर करोड़ों तक में गई। उस समय आर्थ‍िक अपराध के ल‍िए मनीलॉड्र‍िंग जैसा शब्द आमजन के जुबान पर नहीं था और सांस्कृत‍िक सोच भी वामपंथ की कैद में थी इस ल‍िए इन सभी च‍ित्रकारों को कला के नाम पर भगवान की तरह पूजा जाने लगा। हम भारतीय सभ्यता को न्यूड‍िटी के हाथों कुचलता देखते रहे एकदम शून्य भाव से। हम नहीं समझ सके क‍ि ये प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट दरअसल कला का पराभव है। 

अपनी सफाई में इन्होंने हमेशा खजुराहो को सामने कर द‍िया परंतु ये नहीं बताया क‍ि वे काम क्रीड़ा के आसन थे जो योग की श्रेणी में आते हैं।


बहरहाल क‍िसी भी शख्स‍ियत के दो चेहरे होते हैं, रतन टाटा के भी थे, हमें उन दोनों चेहरों को देखकर अपना आंकलन स्वयं करना चाह‍िए क‍ि हम कहां तक इसे देश, संस्कार, और भारतीय सभ्यता के ह‍ित में देखते हैं।   

K.H. Ara, Untitled (Large Nude), 1965. Oil on canvas. H. 68 7/8 x W. 27 1/2 in. (175 x 70cm). Collection of Jamshyd and Pheroza Godrej. Courtesy of the lender. - अलकनंदा स‍िंंह


सोमवार, 7 अक्टूबर 2024

"ओ मुझे प्यार हुआ अल्ला मीयाँ" फिल्मी गाने पर 'गरबा' करते देखना आहत कर गया


 आज एक वीडियो "ओ मुझे प्यार हुआ अल्ला मीयाँ" फिल्मी गाने पर लोगों को 'गरबा' करते देखा, हृदय आहत हुआ। 'गरबा' क्या है ? यह श्री विपुल नागर ©vipulnagar ने बखूबी बताया।

वैसे गरबा के नाम पर सिर्फ और सिर्फ कमर मटका रहे देश को फ़र्क नहीं पड़ेगा लेकिन जिन्हें गरबा का असली मतलब जानना हो उनके लिए सनद रहे- 

मूल गरबो शब्द पात्रवाचक था। 

इस शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के गर्भदीप से हुई है। एक मत के अनुसार ‘‘दीप- गर्भ: घट:’’ में से दीप शब्द हट गया और गर्भ:घट: का अपभ्रंश गरबो प्रचलित हुआ। दूसरे मत के अनुसार गर्भ शब्द का ही अर्थ घड़ा होता है। (गर्भेषु पिहितं धान्यं)। छेद वाले घड़े को गरबो कहा जाता है। मिट्टी के छोटे घड़े या हाँडी में बहुत से छिद्र (चौरासी या 108 छिद्र होने का भी उल्लेख मिलता है) करके उसमें दीपक रखा जाता है। घड़े में छेद करने की इस क्रिया को ‘‘गरबो कोराववो’’ कहा जाता है। 

84 छिद्र वाला गरबो 84 लाख योनियों का प्रतीक है जबकि 108 छिद्र वाला गरबो (मिट्टी का घड़ा) ब्रह्मांड का प्रतीक है। इस घड़े में 27 छेद होते हैं - 3 पंक्तियों में 9 छेद - ये 27 छेद 27 नक्षत्रों का प्रतीक होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र के 4 चरण होते हैं (27 * 4 = 108)। नवरात्रि के दौरान, मिट्टी का घड़ा बीच में रखकर उसके चारों ओर गोल घुमना ऐसा माना जाता है जैसे हम ब्रह्मांड के चारों ओर घूम रहे हों। यही 'गरबा' खेलने का महत्व है।

यह हाँडी या तो मध्यभूमि में रखी जाती है या किस महिला को बीच में खड़ा करके उसके सिर पर रखी जाती है, जिसके चारों ओर अन्य महिलाएँ गोलाई में घूम कर गरबो गाती हैं। दीप को देवी अथवा शक्ति का प्रतीक मान कर उसकी प्रदक्षिणा की जाती है। 

कालान्तर में इस नृत्य और गीत का नाम भी गरबो पड़ गया। इस प्रकार गरबो का अर्थ वह पद्य हो गया, जो वृत्ताकार घूम-घूम कर गाया जाता है।

पात्रवाचक से क्रियावाचक गीत वाचक या काव्य वाचक बनने से पहले गरबो शब्द अनेक सांस्कृतिक भूमिकाओं से गुजरा है। 

गरबो के प्रथम लेखक वल्लभ मेवाड़ा माने गये हैं। (१६४० ई. से १७५१)। स्थूल या पात्र-वाचक गरबे का वर्णन उन्होंने अपने गरबे मां ए सोना नो गरबो लीधो, के रंग मा रंग ता़डी में किया है। 

सौ. चैतन्य बाला मजूमदार ने अपनी पुस्तक ललित कलाओं अने बीजा साहित्यलेखो में इस प्रक्रिया का बहुत सुन्दर आकलन किया है। उनके अनुसार– नवरात्रि में स्थापित कलश, अखण्ड ज्योति बिखेरता गरबा हुआ; इस गरबे को मध्य में स्थापित कर सुहागिनों ने उसमें स्थापित ज्योति स्वरूप शक्ति का पूजन किया एवं परिक्रमा आरम्भ की; इस प्रकार पूजित गरबो को भक्ति के आवेश की वृद्धि के साथ-साथ माथे पर रख कर घूमने की वृत्ति जागी और सुन्दरियाँ अपने गरबे को सिर पर रख कर गोलाई में घूमने लगीं; भाव की वृद्धि हुई, जिसे प्रगट करने की सहज वृत्ति में उनके कंठ से स्वर फूटे, भाषा की सहायता से ये स्वर पद्य बने, परन्तु इतने से ही हृदय का आवेश पूरा-पूरा व्यक्त नहीं हो सका। 

सर पर गरबा रख कर गीत गाते-गाते घूमते हुए हाथ, पैर, नेत्र, वाणी सभी को एक दिशा मिली। 

सब अंग नृत्य करने लगे। 

गीत, संगीत और नृत्य में एक सामंजस्य स्थापित हुआ और इस प्रकार एक नयी विधा का जन्म हुआ, जो गुजरात का प्रतिनिधि लोकनृत्य बन गया।

और अब तो देश में सब नाच रहे हैं। सिर्फ नाच रहे हैं!

साभार: फेसबुक से 

बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

ब्रज का सांझी उत्सव, आज हुआ समापन, सूखे रंगों की साँझी ने मनमोहा

 वृन्दावन के मंदिरों में आजकल तरह-तरह की सांझी उत्सव सज रही है। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से सांझी उत्सव प्रारंभ होता है जो कि भाद्रपद कृष्ण अमावस्या (श्राद्धपक्ष में 15 दिनों ) तक चलता है। आज इसका समापन हो गया है। 

ये देख‍िए सूखे रंगों की साँझी






'जुगल जोड़ी', 'श्रीकृष्ण रास' और 'श्रीराम का राजतिलक', ये तीनों सूखे रंगों की पारम्परिक साँझी ग्वालियर के युवा कलाकार यमुनेश नागर ने बनाई हैं। प्रत्येक साँझी में ६ से ८ साँचे, एक के बाद एक रख कर, अलग अलग रंग डाले गये हैं।

यमुनेश नागर ग्वालियर आकाशवाणी पर बी हाई ग्रेड का पखावज वादक भी हैं।


ये है सांझी उत्सव मनाने का असली कारण

वैष्णव जन के हर घर के आंगन और तिबारे में बनाने की परंपरा है। राधारानी अपने पिता वृषभान के आंगन में सांझी पितृ पक्ष में प्रतिदिन सजाती थी। उनके भाई एवं परिवार का मंगल हो इसके लिए फूल एकत्रित करते थे और इसी बहाने श्री राधा कृष्ण का मिलन होता था। कन्याएं एवं रसिक भक्त जन आज भी पितृ पक्ष में अपने घरों में गाय के गोबर से सांझी सजाती हैं। इसमें राधा कृष्ण की लीलाओं का चित्रण अनेक संम्प्रदाय के ग्रंथों में मिलता है। ऐसा विश्वास है कि श्री राधा कृष्ण उनकी सांझी को निहारने के लिए अवश्य आते हैं।


शुरू में पुष्प और सूखे रंगों से आंगन को सांझी से सजाया जाता था। अब समय के साथ सांझी सिर्फ सांकेतिक रह गई है। 

सरस माधुरी काव्य में सांझी का कुछ इस तरह उल्लेख किया गया है। 

सलोनी सांझी आज बनाई, 

श्यामा संग रंग सों राधे, रचना रची सुहाई। 

सेवा कुंज सुहावन कीनी, लता पता छवि छाई। 

मरकट मोर चकोर कोकिला, लागत परम सुखराई।

- अलकनंदा स‍िंंह 

शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

सत्य तो यह है, हम अनपढ़ ही हैं वरना अपने हाथों से क्यों म‍िटाते अपनी पहचान



 मिट्टी..दर्री है या चिकनी? बर्तन कैसे बनेंगे? चके पर कितना उठेंगे? आग पर फटेंगे या नहीं? किससे घड़ा और किस मिट्टी का बर्तन भोजन पकाने के काम आएगा? ऐसे बहुत से प्रश्नों को जानने में मुझे #कुम्हार के पास चार वर्ष लगे। और कहते हैं, हम पढ़े-लिखे हैं? 

सत्य तो यह है, हम अनपढ़ हैं।

और इससे भी अध‍िक च‍िंताजनक बात ये है क‍ि कथ‍ित आधुनि‍कतावश हम ना तो कुम्हार को उच‍ित स्थान दे पाये और ना ही उसकी अद्भुत कला को। र‍िजर्वेशन और सरकारी नौकरी के लालच ने इन कलाकारों का अस्त‍ित्व व औच‍ित्य दोनों के साथ साथ सनातन को भी भारी नुकसान पहुंचाया है।   

उस व्यक्ति की कुशलता सोचिए जो ६ वर्ष की आयु से यही काम करते करते ६० वर्ष का हो गया और जो हजारों वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी अपना काम कर रहा हो उसकी कार्य कुशलता  तो अकल्पनीय ही है। ३ वर्ष का ग्रेजुएट और २ वर्ष मास्टर्स उसका मुकाबला क्या करेगी, 

वर्ण आधारित हजारों वर्षों की कुशलता आधुनिक बनने के चक्कर में हमने नष्ट कर डाली।

जातियों को मिटाना मतलब सदियों तक घिस घिस कर पीढ़ियों द्वारा अर्जित किए ज्ञान को नाली में बहा देना, अपनी अर्थव्यवस्था गैरों को सौंप देना।

इतनी सी बात हिन्दुत्व की बागडोर थामे ना तो नेतृत्व समझता और ना ही हम जो बंटने पर हार हाल में आमादा हैं जैसे क‍ि - 

कुम्हार, सुथार, विश्वकर्मा, नाई, लुहार, चर्मकार, पंड‍ित, बन‍िया और ठाकुर...फेहर‍िस्त बड़ी लंबी है  ....कहां तक ल‍िखूं ...आज मन इस बंटाव को देखकर दुखी है क‍ि हम कहां थे और कहां आ गए...नौकरी की भीख मांगते मांगते ।

इसी बात पर हसीब सोज़ का एक शेर देख‍िए----

उस को ख़ुद-दारी का क्या पाठ पढ़ाया जाए
भीख को जिस ने पुरुस-कार समझ रक्खा है।

- अलकनंदा स‍िंंह 


गुरुवार, 19 सितंबर 2024

मथुरा की गल‍ियों में बसा करते थे कवि और साहित्यकार, पढ़‍िए डॉ. नटवर नागर की ल‍िखी ये पाती


 मथुरा नगर पूरा ही, अनेक कवियों का नगर रहा है परन्तु वर्तमान के पत्रकारों को मथुरा में कवि और साहित्यकार, दिखाई ही नहीं देते। मथुरा आरम्भ से अब तक हिन्दी के आधारभूत साहित्यकारों का गढ़ रहा है। आज हिन्दी दिवस है हिन्दी के उन आधार स्तम्भों का स्मरण करना तो बनता ही है। 

रीतिकाल का कुछ समय ऐसा रहा है जब 'तिलक द्वार' से लेकर कंसखार तक का क्षेत्र विशेष रूप से मथुरा में महाकवियों की बस्ती रहा है। इस क्षेत्र में 'बिहारीपुरा' मोहल्ला लगभग इस क्षेत्र के मध्य में है, यह मोहल्ला मथुरा का एक प्राचीन मौहल्ला है। बिहारीपुरा और उसके चारों ओर के मोहल्लों में अनेक प्राचीन श्रेष्ठ कवियों के आवास रहे हैं।

मैं इसी 'बिहारीपुरा' में रहता हूँ, मेरे मकान की बाईं ओर की दीवार से सटे हुआ मकान में कभी प्रतिष्ठित  भाषा- वैज्ञानिक एवं साहित्यकार डाॅ. कैलाशचन्द्र भाटिया रहते थे जो बाद में देहरादून और अन्त में अलीगढ़ में जा कर रहे, यह उनका पैतृक आवास था। एक बार किसी साहित्यिक आयोजन में मेरी डाॅ. भाटिया जी से भेंट हुई तब उन्होंने ही मुझे यह बताया कि वे बिहारीपुरा मुहल्ले में, हमारे पड़ौसी रहे हैं। उन्होंने मुझे यह भी बताया कि रीति कालीन कवि बिहारीलाल अपने अन्तिम समय में जयपुर से मथुरा आकर इसी बिहारीपुरा में रहे थे। बाद में कविवर बिहारीलाल के नाम पर ही मोहल्ले का नाम बिहारीपुरा हुआ। बिहारी कवि के विषय में मुझे यह तो ज्ञात था कि वे माथुर चौबे थे, उनकी ससुराल मथुरा में थी और वे अपने अंतिम समय में मथुरा में आकर बस गये थे पर वे मथुरा में बिहारीपुरा में आकर बसे थे, यह बात मुझे सर्वप्रथम डॉ. कैलाशचन्द्र भाटिया से ही ज्ञात हुई थी।

बिहारीपुरा से पूर्व की ओर 'मारू गली' है, मारू गली में 'उद्धव शतक' के रचनाकार जगन्नाथदास 'रत्नाकर' के काव्य गुरु, उद्भट कवि आचार्य नवनीत जी चतुर्वेदी का आवास है। ये रीति काल के अन्त में हुए हैं। इनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर इनके पौत्र डाॅ. मानिकलाल चतुर्वेदी जो केन्द्रीय हिन्दी संस्थान से सेवानिवृत्त हुए थे, उन्होंने शोधकार्य किया था। जगन्नाथदास 'रत्नाकर' के अतिरिक्त महाकवि आचार्य गोविंद चतुर्वेदी, अमृतध्वनि छंद सम्राट कविवर रामलला आदि अनेक श्रेष्ठ कवि इनके शिष्य हुए हैं।

बिहारीपुरा के दक्षिण में मोहल्ला 'चूनाकंकड़ है, इस मोहल्ले में महाकवि ग्वाल का आवास था। वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ. भगवानसहाय पचौरी ने ग्वाल कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर शोधकार्य किया है। इनका कार्यकाल भी रीति काल के अन्त में ही रहा है। चूनाकंकड़ पर आज भी ग्वाल कवि का शिव मंदिर है। चूनाकंकड़ से थोड़ा आगे, तिलक द्वार के समीप ही बल्ला गली में कविवर बल्लभसखा का आवास है। बल्लभसखा की होली बहुत प्रसिद्ध रही है। इनके नाम पर ही इनकी गली का नाम बल्ला गली रखा गया प्रतीत होता है।

बिहारीपुरा के पश्चिम में छत्ताबाजार को पार करके 'ताज पुरा' है। यहाँ मुग़ल बेगम ताज का आवास था। ताज बेग़म ब्रजभाषा की कृष्ण भक्त कवयित्री हुई हैं। इन्होंने वल्लभाचार्य जी के द्वितीय पुत्र गो. विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली थी। इन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति से युक्त बहुतसे पद और छंद लिखे हैं। इनकी यह पंक्ति "हों तौ मुग़लानी हिंदुआनी बन रहों गी मैं" बहुत प्रसिद्ध हुई है। कहा जाता है, श्रीनाथजी के समक्ष होली की धमार गाते गाते ताज बेगम ने अपनी देह छोड़ी थी। महावन में कविवर रसखान की समाधि के निकट ही, एक स्थान पर इनकी भी समाधि बनी हुई है।

बिहारीपुरा के उत्तर में रामजीद्वारा है, जहाँ महाकवि गो. तुलसीदास को श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीराम के दर्शन हुए थे। रामजीद्वारा के आगे अष्टछाप के कृष्ण भक्त कवि छीतस्वमी का आवास था, इनके वंशज आज भी वहाँ रहते हैं। इन कवियों के अतिरिक्त भी समय-समय पर इस क्षेत्र में अनेक कवि हुए हैं जिन्होंने भारती के भण्डार को भरा है। 

ब्रज विकास परिषद और मथुरा-वृंदावन नगर निगम को इस क्षेत्र का विकास एक साहित्यिक परिक्षेत्र के रूप में करना चाहिए। मारू गली और चूनाकंकड़ मोहल्लों के नाम क्रमश: कविवर नवनीत जी और कविवर ग्वाल के नाम पर रखे जाने चाहिए, यह माँग मैं बहुत समय से करता रहा हूँ। यथा स्थान सम्बन्धित कवियों के संक्षिप्त जीवन वृत्त शिलालेख के रूप में लगने चाहिए जिससे आगे आने वाली पीढ़ियों को उनके विषय में जानकारी मिलती रहे।


डॉ. नटवर नागर, मथुरा (उ. प्र.)

लेखक, पत्रकार एवं शिक्षाविद्

मंगलवार, 3 सितंबर 2024

क्या आप जानते हैं, शाम को फूलों पर बैठी हुई मधुमक्खियाँ बूढ़ी मधुमक्खियाँ होती हैं

 

क्या आप जानते हैं, शाम को फूलों पर बैठी हुई मधुमक्खियाँ बूढ़ी मधुमक्खियाँ होती हैं। 🐝🐝

बूढ़ी और बीमार मधुमक्खियाँ दिन के अंत में छत्ते में वापस नहीं आती हैं। वे रात को फूलों पर बिताती हैं, और अगर उन्हें फिर से सूर्योदय देखने का मौका मिलता है, तो वे पराग या अमृत को कॉलोनी में लाकर अपनी गतिविधि फिर से शुरू कर देती हैं। वे यह महसूस करते हुए ऐसा करती हैं कि अंत निकट है। कोई भी मधुमक्खी छत्ते में मरने का इंतज़ार नहीं करती ताकि दूसरों पर बोझ न पड़े। तो, अगली बार जब आप रात के करीब आते हुए किसी बूढ़ी छोटी मधुमक्खी को फूल पर बैठे हुए देखें... . . .मधुमक्खी को उसकी जीवन भर की सेवा के लिए धन्यवाद दें🐝❣️🐝


मधुमक्खियों से जुड़ी कुछ और बातें: 
 
मधुमक्खियां आमतौर पर अंडाकार आकार की होती हैं और इनका रंग सुनहरा-पीला और भूरे रंग की पट्टियों वाला होता है. 
 
मधुमक्खियां संघ बनाकर रहती हैं और हर संघ में एक रानी, कई सौ नर, और बाकी श्रमिक होते हैं. 
 
मधुमक्खियां नृत्य के ज़रिए अपने परिवार के सदस्यों को पहचानती हैं. 
 
मधुमक्खियां लीची, कॉफ़ी, और कोको जैसे फूलों के परागण में अहम भूमिका निभाती हैं. 
 
मधुमक्खियां चीनी की चाशनी खाना पसंद करती हैं. 
 
मधुमक्खियां अक्टूबर से दिसंबर के बीच अंडे देती हैं. 
 
मधुमक्खियां ज़्यादातर तभी हमला करती हैं जब उन्हें खतरा महसूस होता है. 
 
मधुमक्खियां विषैला डंक मारती हैं.

रविवार, 1 सितंबर 2024

ना उम्र की सीमा हो.... तुर्की की दादी-नानियों का थिएटर ग्रुप जो पर्यावरण बचाने को आगे आया


 तुर्की के छोटे से कस्बे अरलंस्कॉय की 62 साल की दादी मां इन दिनों पूरे देश में चर्चा हैं। इसकी वजह है- उनके द्वारा शुरू किया गया थियेटर ग्रुप। इस ग्रुप में सभी महिलाएं हैं। ग्रुप क्लाइमेट चेंज को लेकर जागरुकता लाने के लिए अलग-अलग जगह पर नाटक का मंचन करता है। इन दिनों ये महिलाएं अपने नए नाटक 'मदर, द स्काय इज पीयर्स्ड की रिहर्सल में व्यस्त हैं। इस महिला थियेटर ग्रुप की प्रमुख उम्मिये कोकाक चाहती हैं कि दुनियाभर में लोग इस समस्या को समझें और गंभीरता से लें। 

कोकाक के काम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहचाना जाता है। 2013 में तुर्की की महिलाओं पर फिल्म के लिए न्यूयॉर्क फेस्टिवल में अवॉर्ड भी मिला था। कोकाक फुटबॉलर क्रिस्टिआनो रोनाल्डो के साथ एड कर चुकी हैं। 

नाटकों का मकसद धारणा बदलना है



कोकाक के मुताबिक, ‘‘क्लाइमेट चेंज सिर्फ उनके कस्बे की नहीं बल्कि पूरी दुनिया की समस्या है। मैं इस समस्या को लेकर जितनी जोर से आवाज उठा सकती हूं, उठाऊंगी। ये दुनिया हमारी भी है। इसे बेहतर देखभाल की जरुरत है। दरअसल, कोकाक इससे पहले भी नाटक लिखती रही हैं। उनके नाटकों का उद्देश्य धारणाओं को बदलना रहता है। इससे पहले उन्होंने गरीबी, अल्जाइमर रोग, घरेलू हिंसा जैसे मुद्दों पर नाटक लिखे हैं। तुर्की के टीवी ड्रामा पर इनकी खासी चर्चा हुई है।’’

महिलाओं की बात सुनी जानी चाहिए



कोकाक का अरलंस्कॉय आना शादी के बाद हुआ। वहां पर उन्होंने देखा कि महिलाएं घर और खेतों में बराबरी से काम करती हैं। उन्हें लगा कि यह ठीक नहीं हैं, इन महिलाओं की बात सुनी जानी चाहिए। वो काफी समय से इस पर काम कर थी। थियेटर ग्रुप इसी का नतीजा है। गांव में कोई हॉल या सेट तो था नहीं, इसलिए कोकाक ने घर के गार्डन में ही रिहर्सल शुरू करवा दीं। धीरे-धीरे इस ग्रुप की चर्चा पूरे तुर्की में फैल गई। अब लोग इन दादी-नानियों को स्थानीय स्तर पर नाटक मंचन के लिए बुलाने लगे हैं। सोशल मीडिया पर उनके वीडियो खूब शेयर हो रहे हैं।

- अलकनंंदा स‍ि‍ंह