काशी का घाट, शोक में भी उल्लास का गीत और अध्यात्म... शिवत्व में विलीन हो गए पंडित छन्नूलाल मिश्र
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के दिग्गज पंडित छन्नूलाल मिश्र का 91 वर्ष की आयु में निधन हो गया. आजमगढ़ में जन्मे पंडित छन्नूलाल ने ठुमरी और पुरब अंग को अपनी भावपूर्ण गायकी से अमर बनाया. वह किराना-बनारस घराने के प्रतिनिधि थे. उन्हें 2020 में पद्म विभूषण से नवाजा गया था.
वो जानते थे कोयल और मोर किस स्वर में बात करते हैं। उन्हें बात करना आता था चकवा, चकई और चकोर से।
वो जब गाते थे, तब जेठ की झुलसाती धूप में फागुन का चटक रंग समा जाता। चैत खिल जाता हमारे रोम-रोम में और पता चलता कि पेड़ पर बोल रही कोयल भी किसी विरहन की दुश्मन हो सकती है।
बाबा विश्वनाथ और तुलसीदास को जीवन का केंद्रीय स्वर बनाकर प्रेम का आलाप लेने वाले पंडित जी को वो साधारण श्रोता भी सुन सकता था, जो नहीं जानता दादरा, कहरवा, बड़ा ख्याल और छोटा ख्याल का अंतर।
लेकिन मेरा ख्याल ये है कि आज बनारस के तानपुरे का वो तार टूट गया, जिसके गूंजने से पूरी दुनिया के मंचो पर बनारस शान से गूंजता था।
अश्रुपूरित श्रद्धांजलि पंडित जी। आपके बिना तो अब चैत भी रोएगा, फागुन में काशी का मसान भी। रोएगी आज कोयल, सेजिया पर लेटकर विरहन।
आज आखिरी बार काशी आएंगे काशी के अपने सबसे दुलारे सप्तक, पद्मभूषण छन्नूलाल जी। कुछ देर बड़ी गैबी वाले घर की दीवारों को अलविदा कहने। जहां आने और रहने पिछले कई सालों से छटपटाते रहे। और फिर मसाने की होरी गाकर जिस मणिकर्णिका के हवाले शवों की राख से होली को काशी के उत्सव की धुन बनाया, वहां हमेशा के लिए बाबा की हथेली पर सो जाने। क्या कहते हैं उसे, चिरनिद्रा…।
काशी और उसे घाट में तुरपे मसाने की होरी, ठुमरी, दादरा, चैती, कजरी के राग आज हमेशा के लिए याददाश्त का सबसे जहीन टुकड़ा बन गया है।