मंगलवार, 14 अक्टूबर 2025

हमारा इत‍िहास: उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के बुधनी में भी है सूर्य मंदिर, जानना जरूरी है

 










उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के बुधनी स्थित सूर्य मंदिर मूलतः एक भव्य स्थापत्य संरचना थी, जिसमें एक विशाल मंडप और एक बरामदे सहित दो मंजिला गर्भगृह था, जो सभी जटिल नक्काशी और आधार-उभरी हुई आकृतियों से सुसज्जित थे। आज, मंदिर के केवल कंकाल अवशेष ही बचे हैं।


प्रवेश द्वार सूक्ष्म मूर्तिकला से अलंकृत है, जबकि चौखट और चित्रवल्लरी विष्णु के दस अवतारों को प्रमुखता से दर्शाती हैं, जिनमें लक्ष्मी मध्य फलक पर विराजमान हैं। केंद्रीय देवता सूर्य स्थानक मुद्रा (खड़ी मुद्रा) में हैं।


मंदिर त्रिरथ योजना का अनुसरण करता है और ग्रेनाइट से निर्मित है। अनुमान है कि इसका निर्माण 10वीं-11वीं शताब्दी ईस्वी पूर्व का है।


पूर्वमुखी शिव मंदिर, दन्नैक के प्रांगण के पश्चिम में स्थित है। यह वर्तमान भूतल से नीचे स्थित है, इसलिए इसे 'भूमिगत मंदिर' का लोकप्रिय नाम प्राप्त हुआ है। शिलालेखों में इसे प्रसन्न विरुपाक्ष कहा गया है, और शैलीगत विश्लेषण से पता चलता है कि मंदिर का निर्माण 14वीं शताब्दी ईस्वी में हुआ था। 15वीं और 16वीं शताब्दी के दौरान, मंदिर का विस्तार किया गया और कई मंडप जोड़े गए।


मंदिर के स्वरूप में एक संधार गर्भगृह, एक अंतराल और एक सभामंडप है, जिसके उत्तर और दक्षिण में दो उप-मंदिर हैं, साथ ही एक बंद मंडप है जिसके आगे एक अखंड दीपस्तंभ है। मंदिर के शीर्ष पर कदंब-नागर शैली का शिखर है, जो उप-मंदिरों को सुशोभित करने वाले शिखरों के समान है।


महामंडप के उत्तर में एक स्तंभयुक्त हॉल और स्तंभ स्तंभ है, जबकि दक्षिण की ओर एक अन्य मंदिर और स्तंभ स्तंभ है जिसके साथ एक प्रवेश द्वार है। महामंडप के पूर्वी भाग में वेदियाँ और एक अन्य प्रवेश द्वार है।


मुख्य मंदिर के उत्तर-पश्चिम में एक अलग संरचना है जिसमें एक गर्भगृह और एक अंतराल है, और दक्षिण-पश्चिम दिशा में एक छोटा उप-मंदिर है। इस संरचना में पूर्वमुखी एक महाद्वार शामिल है।


दक्षिण में प्रांगण के बाहर एक अलंकृत कल्याणमंडप है, जो 1513 ई. में कृष्णदेवराय द्वारा प्रसन्न विरुपाक्ष को दिए गए शाही अनुदान को दर्ज करने वाले एक उत्कीर्ण शिलापट्ट के लिए उल्लेखनीय है।

रविवार, 12 अक्टूबर 2025

राम मंदिर के ध्वज पर बना पेड़ बैंगनी फूलों वाला कोविदार, जान‍िए इसकी कहानी





 राम मंदिर के शिखर पर फहराए जाने वाले ध्वज का आकार-प्रकार और रंग रूप तय हो गया है। विवाह पंचमी के दिन 25 नवंबर को आयोजित ध्वजारोहण समारोह में पीएम नरेंद्र मोदी 191 फीट ऊंचे राम मंदिर के शिखर पर यह ध्वज फहराएंगे। 
त्रिकोण आकृति में भगवा रंग के 11 फीट चौड़े और 22 फीट लंबे ध्वज को फहराएंगे, जिस पर सूर्यवंशी और त्रेता युग का चिह्न स्थापित किया जाएगा। इसमें वो काव‍िदार वृक्ष भी होगा ज‍िसे लेकर आज बहुत चर्चा हुई ...आप भी जान‍िए इसके बारे में... 

इस ध्वज की डिजाइन को रीवा जिले के हरदुआ गांव के निवासी ललित मिश्रा तैयार करवा किया है.

ललित मिश्रा वर्षों से राम मंदिर का ध्वज तैयार करने में जुटे हुए थे. इसके लिए बाकायदा उनके द्वारा रिसर्च की जा रही थी. इससे पहले भी सप्ताह भर पहले उन्होंने श्रीराम जन्म भूमि तीर्थ ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय को ध्वज की तैयार डिजाइन भेजी थी. जिस ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय और 5 सदस्यीय कमेटी के द्वारा ध्वज पर विचार किया गया था. साथ ही ध्वज में बदलाव के लिए कुछ सुझाव भी दिए गए थे. उन्ही सुझाव के आधार पर अब नई डिजाइन तैयार की गई है. 

ये है कोविदार का वृक्ष, यह भी अयोध्या के राजध्वज में होगा। अयोध्या शोध संस्थान ने ऐसा 2023-24 में ही निर्धारित कर लिया था। यह पूर्ण शोध पर आधारित है। 

भरत जी जब पादुका लेकर नंदीग्राम गए, तो वहां यही ध्वज लगाया था। वाल्मीकि रामायण में भी इसका वर्णन है।


According to - Plant and Animal Diversity in Valmiki Ramayana -- इसका बॉटैन‍िकल नेम Bauhinia purpurea है  native of myanmar है (कोव‍िदार) .. ये कचनार की फैम‍िली का है ....मेडिसिनल इस्तेमाल की वजह से इसे राजवृक्ष भी मान लिया गया. 


अगर पौराणिक मान्यताओं को साइंस से जोड़ें तो कोविदार शायद दुनिया का पहला हाइब्रिड प्लांट होगा. ऋषि कश्यप ने पारिजात के साथ मंदार को मिलाकर इसे तैयार किया था. दोनों ही पेड़ आयुर्वेद में बेहद खास माने जाते हैं. इनके मेल से बना पेड़ भी जाहिर तौर पर उतना ही अलग था. 


पारिजात और मंदार को मिलाकर हाइब्र‍िड तरीके से तैयार किया था क्योंक‍ि दोनों ही पेड़ आयुर्वेद में बेहद खास हैं. कसैले गुण के कारण मेडिसिनल इस्तेमाल की वजह से इसे राजवृक्ष भी मान लिया गया 


ध्वज पर सूर्य के साथ कोविदार वृक्ष बना हुआ होगा. कोविदार अयोध्या का राजवृक्ष था, जिसका जिक्र वाल्मीकि पुराण में भी है. माना जाता है कि ये दुनिया का पहला हाइब्रिड पेड़ है, जिसे ऋषि कश्यप ने बनाया था. 


रामायण कांड में नाम आता है 

पौराणिक मान्यता के अनुसार, महर्षि कश्यप ने कोविदार वृक्ष को बनाया था. वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में इसका बार-बार उल्लेख मिलता है. जैसे राम के वन जाने के बाद भरत उन्हें मनाकर लौटाने के लिए निकलते हैं. वे लाव-लश्कर के साथ जंगल पहुंचे, जहां श्रीराम भारद्वाज मुनि के आश्रम में थे. शोर सुनकर लक्ष्मण को किसी सेना के हमले की आशंका हुई, लेकिन जब उन्होंने ऊंचाई पर जाकर देखा तो रथ पर लगे झंडे पर कोविदार पहचान गए. तब वे समझ गए कि अयोध्या से लोग आए हैं.  


शोध पत्रिकाओं में भी नाम


वैज्ञानिकों के लिए बनी यूरोपियन सोशल नेटवर्किंग साइट 'रिसर्च गेट' में भी इसपर शोध छप चुका है.  'प्लांट एंड एनिमल डायवर्सिटी इन वाल्मीकि रामायण' नाम से प्रकाशित रिसर्च में राम के वन प्रवास के दौरान भी कई पेड़ों का जिक्र मिलता है. इसी में कोविदार का भी उल्लेख है. कोविदार कचनार की प्रजाति का वृक्ष होता है, जो श्रीराम के समय अयोध्या और आसपास के राज्यों में खूब मिलता था. इसकी सुंदरता और मेडिसिनल इस्तेमाल की वजह से इसे राजवृक्ष भी मान लिया गया. 


ऋषि ने कैसे तैयार किया वृक्ष 

अगर पौराणिक मान्यताओं को साइंस से जोड़ें तो कोविदार शायद दुनिया का पहला हाइब्रिड प्लांट होगा. ऋषि कश्यप ने पारिजात के साथ मंदार को मिलाकर इसे तैयार किया था. दोनों ही पेड़ आयुर्वेद में बेहद खास माने जाते हैं. इनके मेल से बना पेड़ भी जाहिर तौर पर उतना ही अलग था. 


रंग-रूप कैसा है 


कोविदार का वैज्ञानिक नाम बॉहिनिया वैरिएगेटा है. ये कचनार की श्रेणी का है. संस्कृत में इसे कांचनार और कोविदर कहा जाता रहा. कोविदार की ऊंचाई 15 से 25 मीटर तक हो सकती है. ये घना और फूलदार होता है. इसके फूल बैंगनी रंग के होते हैं, जो कचनार के फूलों से हल्के गहरे हैं. इसकी पत्तियां काफी अलग दिखती हैं, ये बीच से कटी हुई लगती हैं. इसके फूल, पत्तियों और शाखा से भी हल्की सुगंध आती रहती है, हालांकि ये गुलाब जितनी भड़कीली नहीं होती.  


कहां मिलता है ये पेड़ कोविदार की प्रजाति के पेड़ जैसे कचनार अब भी हिमालय के दक्षिणी हिस्से, पूर्वी और दक्षिणी भारत में मिलते हैं. इंडिया बायोडायवर्सिटी पोर्टल की मानें तो कोविदार अब भी असम के दूर-दराज इलाकों में मिलता है. जनवरी से मार्च के बीच इसमें फूल आते हैं, जबकि मार्च से मई के बीच फल लगते हैं. 


इन बीमारियों में राहत 

आयुर्वेद में इसके सत्व का उपयोग स्किन की बीमारियों और अल्सर में होता है. इसकी छाल का रस पेट की क्रॉनिक बीमारियां भी ठीक करने वाला माना जाता है. जड़ के बारे में कहा जाता है कि सांप के काटे का भी इससे इलाज हो सकता है. ये बातें फार्मा साइंस मॉनिटर के पहले इश्यू में बताई गई हैं. 

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2025

करवाचौथ अर्थात् करक चतुर्थी...जहां छलनी से देखे जाने का नाटक नहीं है

 सन् 1713 में रत्नाकर भट्ट द्वारा रचित ‘जयसिंहकल्पद्रुम’ में #करवाचौथ व्रत का अधिकार केवल स्त्रियों को है। इसमें भगवान् शिव-पार्वती और भगवान् कार्तिकेय की पूजा होती है। चंद्रोदय पर अर्घ्य अर्पित किया जाता है। आजकल छलनी से पति को देखने का नाट्य चल पड़ा है, जो शास्त्रसम्मत नहीं है।



गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

दिगम्बर आपको अपने चरणों में जगह दे पंड‍िज्जी ...नमन पद्मभूषण छन्नूलाल जी

काशी का घाट, शोक में भी उल्लास का गीत और अध्यात्म... शिवत्व में विलीन हो गए पंडित छन्नूलाल मिश्र

 

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के दिग्गज पंडित छन्नूलाल मिश्र का 91 वर्ष की आयु में निधन हो गया. आजमगढ़ में जन्मे पंडित छन्नूलाल ने ठुमरी और पुरब अंग को अपनी भावपूर्ण गायकी से अमर बनाया. वह किराना-बनारस घराने के प्रतिनिधि थे. उन्हें 2020 में पद्म विभूषण से नवाजा गया था. 

वो जानते थे कोयल और मोर किस स्वर में बात करते हैं। उन्हें बात करना आता था चकवा, चकई और चकोर से। 


 वो जब गाते थे, तब जेठ की झुलसाती धूप में फागुन का चटक रंग समा जाता। चैत खिल जाता हमारे रोम-रोम में और पता चलता कि पेड़ पर बोल रही कोयल भी किसी विरहन की दुश्मन हो सकती है। 


 बाबा विश्वनाथ और तुलसीदास को जीवन का केंद्रीय स्वर बनाकर प्रेम का आलाप लेने वाले पंडित जी को वो साधारण श्रोता भी सुन सकता था, जो नहीं जानता दादरा, कहरवा, बड़ा ख्याल और छोटा ख्याल का अंतर। 

लेकिन मेरा ख्याल ये है कि आज बनारस के तानपुरे का वो तार टूट गया, जिसके गूंजने से पूरी दुनिया के मंचो पर बनारस शान से गूंजता था। 

अश्रुपूरित श्रद्धांजलि पंडित जी। आपके बिना तो अब चैत भी रोएगा, फागुन में काशी का मसान भी। रोएगी आज कोयल, सेजिया पर लेटकर विरहन।

आज आखिरी बार काशी आएंगे काशी के अपने सबसे दुलारे सप्तक, पद्मभूषण छन्नूलाल जी। कुछ देर बड़ी गैबी वाले घर की दीवारों को अलविदा कहने। जहां आने और रहने पिछले कई सालों से छटपटाते रहे। और फिर मसाने की होरी गाकर जिस मणिकर्णिका के हवाले शवों की राख से होली को काशी के उत्सव की धुन बनाया, वहां हमेशा के लिए बाबा की हथेली पर सो जाने। क्या कहते हैं उसे, चिरनिद्रा…।

काशी और उसे घाट में तुरपे मसाने की होरी, ठुमरी, दादरा, चैती, कजरी के राग आज हमेशा के लिए याददाश्त का सबसे जहीन टुकड़ा बन गया है।