सोमवार, 7 अक्तूबर 2024

"ओ मुझे प्यार हुआ अल्ला मीयाँ" फिल्मी गाने पर 'गरबा' करते देखना आहत कर गया


 आज एक वीडियो "ओ मुझे प्यार हुआ अल्ला मीयाँ" फिल्मी गाने पर लोगों को 'गरबा' करते देखा, हृदय आहत हुआ। 'गरबा' क्या है ? यह श्री विपुल नागर ©vipulnagar ने बखूबी बताया।

वैसे गरबा के नाम पर सिर्फ और सिर्फ कमर मटका रहे देश को फ़र्क नहीं पड़ेगा लेकिन जिन्हें गरबा का असली मतलब जानना हो उनके लिए सनद रहे- 

मूल गरबो शब्द पात्रवाचक था। 

इस शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के गर्भदीप से हुई है। एक मत के अनुसार ‘‘दीप- गर्भ: घट:’’ में से दीप शब्द हट गया और गर्भ:घट: का अपभ्रंश गरबो प्रचलित हुआ। दूसरे मत के अनुसार गर्भ शब्द का ही अर्थ घड़ा होता है। (गर्भेषु पिहितं धान्यं)। छेद वाले घड़े को गरबो कहा जाता है। मिट्टी के छोटे घड़े या हाँडी में बहुत से छिद्र (चौरासी या 108 छिद्र होने का भी उल्लेख मिलता है) करके उसमें दीपक रखा जाता है। घड़े में छेद करने की इस क्रिया को ‘‘गरबो कोराववो’’ कहा जाता है। 

84 छिद्र वाला गरबो 84 लाख योनियों का प्रतीक है जबकि 108 छिद्र वाला गरबो (मिट्टी का घड़ा) ब्रह्मांड का प्रतीक है। इस घड़े में 27 छेद होते हैं - 3 पंक्तियों में 9 छेद - ये 27 छेद 27 नक्षत्रों का प्रतीक होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र के 4 चरण होते हैं (27 * 4 = 108)। नवरात्रि के दौरान, मिट्टी का घड़ा बीच में रखकर उसके चारों ओर गोल घुमना ऐसा माना जाता है जैसे हम ब्रह्मांड के चारों ओर घूम रहे हों। यही 'गरबा' खेलने का महत्व है।

यह हाँडी या तो मध्यभूमि में रखी जाती है या किस महिला को बीच में खड़ा करके उसके सिर पर रखी जाती है, जिसके चारों ओर अन्य महिलाएँ गोलाई में घूम कर गरबो गाती हैं। दीप को देवी अथवा शक्ति का प्रतीक मान कर उसकी प्रदक्षिणा की जाती है। 

कालान्तर में इस नृत्य और गीत का नाम भी गरबो पड़ गया। इस प्रकार गरबो का अर्थ वह पद्य हो गया, जो वृत्ताकार घूम-घूम कर गाया जाता है।

पात्रवाचक से क्रियावाचक गीत वाचक या काव्य वाचक बनने से पहले गरबो शब्द अनेक सांस्कृतिक भूमिकाओं से गुजरा है। 

गरबो के प्रथम लेखक वल्लभ मेवाड़ा माने गये हैं। (१६४० ई. से १७५१)। स्थूल या पात्र-वाचक गरबे का वर्णन उन्होंने अपने गरबे मां ए सोना नो गरबो लीधो, के रंग मा रंग ता़डी में किया है। 

सौ. चैतन्य बाला मजूमदार ने अपनी पुस्तक ललित कलाओं अने बीजा साहित्यलेखो में इस प्रक्रिया का बहुत सुन्दर आकलन किया है। उनके अनुसार– नवरात्रि में स्थापित कलश, अखण्ड ज्योति बिखेरता गरबा हुआ; इस गरबे को मध्य में स्थापित कर सुहागिनों ने उसमें स्थापित ज्योति स्वरूप शक्ति का पूजन किया एवं परिक्रमा आरम्भ की; इस प्रकार पूजित गरबो को भक्ति के आवेश की वृद्धि के साथ-साथ माथे पर रख कर घूमने की वृत्ति जागी और सुन्दरियाँ अपने गरबे को सिर पर रख कर गोलाई में घूमने लगीं; भाव की वृद्धि हुई, जिसे प्रगट करने की सहज वृत्ति में उनके कंठ से स्वर फूटे, भाषा की सहायता से ये स्वर पद्य बने, परन्तु इतने से ही हृदय का आवेश पूरा-पूरा व्यक्त नहीं हो सका। 

सर पर गरबा रख कर गीत गाते-गाते घूमते हुए हाथ, पैर, नेत्र, वाणी सभी को एक दिशा मिली। 

सब अंग नृत्य करने लगे। 

गीत, संगीत और नृत्य में एक सामंजस्य स्थापित हुआ और इस प्रकार एक नयी विधा का जन्म हुआ, जो गुजरात का प्रतिनिधि लोकनृत्य बन गया।

और अब तो देश में सब नाच रहे हैं। सिर्फ नाच रहे हैं!

साभार: फेसबुक से 

4 टिप्‍पणियां:

  1. वक्त बदलता है तो सब कुछ धूमिल हो जाता है, साँप निकल जाता है लोग लाठी पीटते रहते हैं

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  2. गरबा ही क्या, हर मंदिर एक से एक फूहड़-अश्लील लेकिन हिट फ़िल्मी गानों की धुनों पर बने भजनों से गूंजता है.

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