शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

सत्य तो यह है, हम अनपढ़ ही हैं वरना अपने हाथों से क्यों म‍िटाते अपनी पहचान



 मिट्टी..दर्री है या चिकनी? बर्तन कैसे बनेंगे? चके पर कितना उठेंगे? आग पर फटेंगे या नहीं? किससे घड़ा और किस मिट्टी का बर्तन भोजन पकाने के काम आएगा? ऐसे बहुत से प्रश्नों को जानने में मुझे #कुम्हार के पास चार वर्ष लगे। और कहते हैं, हम पढ़े-लिखे हैं? 

सत्य तो यह है, हम अनपढ़ हैं।

और इससे भी अध‍िक च‍िंताजनक बात ये है क‍ि कथ‍ित आधुनि‍कतावश हम ना तो कुम्हार को उच‍ित स्थान दे पाये और ना ही उसकी अद्भुत कला को। र‍िजर्वेशन और सरकारी नौकरी के लालच ने इन कलाकारों का अस्त‍ित्व व औच‍ित्य दोनों के साथ साथ सनातन को भी भारी नुकसान पहुंचाया है।   

उस व्यक्ति की कुशलता सोचिए जो ६ वर्ष की आयु से यही काम करते करते ६० वर्ष का हो गया और जो हजारों वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी अपना काम कर रहा हो उसकी कार्य कुशलता  तो अकल्पनीय ही है। ३ वर्ष का ग्रेजुएट और २ वर्ष मास्टर्स उसका मुकाबला क्या करेगी, 

वर्ण आधारित हजारों वर्षों की कुशलता आधुनिक बनने के चक्कर में हमने नष्ट कर डाली।

जातियों को मिटाना मतलब सदियों तक घिस घिस कर पीढ़ियों द्वारा अर्जित किए ज्ञान को नाली में बहा देना, अपनी अर्थव्यवस्था गैरों को सौंप देना।

इतनी सी बात हिन्दुत्व की बागडोर थामे ना तो नेतृत्व समझता और ना ही हम जो बंटने पर हार हाल में आमादा हैं जैसे क‍ि - 

कुम्हार, सुथार, विश्वकर्मा, नाई, लुहार, चर्मकार, पंड‍ित, बन‍िया और ठाकुर...फेहर‍िस्त बड़ी लंबी है  ....कहां तक ल‍िखूं ...आज मन इस बंटाव को देखकर दुखी है क‍ि हम कहां थे और कहां आ गए...नौकरी की भीख मांगते मांगते ।

इसी बात पर हसीब सोज़ का एक शेर देख‍िए----

उस को ख़ुद-दारी का क्या पाठ पढ़ाया जाए
भीख को जिस ने पुरुस-कार समझ रक्खा है।

- अलकनंदा स‍िंंह 


गुरुवार, 19 सितंबर 2024

मथुरा की गल‍ियों में बसा करते थे कवि और साहित्यकार, पढ़‍िए डॉ. नटवर नागर की ल‍िखी ये पाती


 मथुरा नगर पूरा ही, अनेक कवियों का नगर रहा है परन्तु वर्तमान के पत्रकारों को मथुरा में कवि और साहित्यकार, दिखाई ही नहीं देते। मथुरा आरम्भ से अब तक हिन्दी के आधारभूत साहित्यकारों का गढ़ रहा है। आज हिन्दी दिवस है हिन्दी के उन आधार स्तम्भों का स्मरण करना तो बनता ही है। 

रीतिकाल का कुछ समय ऐसा रहा है जब 'तिलक द्वार' से लेकर कंसखार तक का क्षेत्र विशेष रूप से मथुरा में महाकवियों की बस्ती रहा है। इस क्षेत्र में 'बिहारीपुरा' मोहल्ला लगभग इस क्षेत्र के मध्य में है, यह मोहल्ला मथुरा का एक प्राचीन मौहल्ला है। बिहारीपुरा और उसके चारों ओर के मोहल्लों में अनेक प्राचीन श्रेष्ठ कवियों के आवास रहे हैं।

मैं इसी 'बिहारीपुरा' में रहता हूँ, मेरे मकान की बाईं ओर की दीवार से सटे हुआ मकान में कभी प्रतिष्ठित  भाषा- वैज्ञानिक एवं साहित्यकार डाॅ. कैलाशचन्द्र भाटिया रहते थे जो बाद में देहरादून और अन्त में अलीगढ़ में जा कर रहे, यह उनका पैतृक आवास था। एक बार किसी साहित्यिक आयोजन में मेरी डाॅ. भाटिया जी से भेंट हुई तब उन्होंने ही मुझे यह बताया कि वे बिहारीपुरा मुहल्ले में, हमारे पड़ौसी रहे हैं। उन्होंने मुझे यह भी बताया कि रीति कालीन कवि बिहारीलाल अपने अन्तिम समय में जयपुर से मथुरा आकर इसी बिहारीपुरा में रहे थे। बाद में कविवर बिहारीलाल के नाम पर ही मोहल्ले का नाम बिहारीपुरा हुआ। बिहारी कवि के विषय में मुझे यह तो ज्ञात था कि वे माथुर चौबे थे, उनकी ससुराल मथुरा में थी और वे अपने अंतिम समय में मथुरा में आकर बस गये थे पर वे मथुरा में बिहारीपुरा में आकर बसे थे, यह बात मुझे सर्वप्रथम डॉ. कैलाशचन्द्र भाटिया से ही ज्ञात हुई थी।

बिहारीपुरा से पूर्व की ओर 'मारू गली' है, मारू गली में 'उद्धव शतक' के रचनाकार जगन्नाथदास 'रत्नाकर' के काव्य गुरु, उद्भट कवि आचार्य नवनीत जी चतुर्वेदी का आवास है। ये रीति काल के अन्त में हुए हैं। इनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर इनके पौत्र डाॅ. मानिकलाल चतुर्वेदी जो केन्द्रीय हिन्दी संस्थान से सेवानिवृत्त हुए थे, उन्होंने शोधकार्य किया था। जगन्नाथदास 'रत्नाकर' के अतिरिक्त महाकवि आचार्य गोविंद चतुर्वेदी, अमृतध्वनि छंद सम्राट कविवर रामलला आदि अनेक श्रेष्ठ कवि इनके शिष्य हुए हैं।

बिहारीपुरा के दक्षिण में मोहल्ला 'चूनाकंकड़ है, इस मोहल्ले में महाकवि ग्वाल का आवास था। वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ. भगवानसहाय पचौरी ने ग्वाल कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर शोधकार्य किया है। इनका कार्यकाल भी रीति काल के अन्त में ही रहा है। चूनाकंकड़ पर आज भी ग्वाल कवि का शिव मंदिर है। चूनाकंकड़ से थोड़ा आगे, तिलक द्वार के समीप ही बल्ला गली में कविवर बल्लभसखा का आवास है। बल्लभसखा की होली बहुत प्रसिद्ध रही है। इनके नाम पर ही इनकी गली का नाम बल्ला गली रखा गया प्रतीत होता है।

बिहारीपुरा के पश्चिम में छत्ताबाजार को पार करके 'ताज पुरा' है। यहाँ मुग़ल बेगम ताज का आवास था। ताज बेग़म ब्रजभाषा की कृष्ण भक्त कवयित्री हुई हैं। इन्होंने वल्लभाचार्य जी के द्वितीय पुत्र गो. विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली थी। इन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति से युक्त बहुतसे पद और छंद लिखे हैं। इनकी यह पंक्ति "हों तौ मुग़लानी हिंदुआनी बन रहों गी मैं" बहुत प्रसिद्ध हुई है। कहा जाता है, श्रीनाथजी के समक्ष होली की धमार गाते गाते ताज बेगम ने अपनी देह छोड़ी थी। महावन में कविवर रसखान की समाधि के निकट ही, एक स्थान पर इनकी भी समाधि बनी हुई है।

बिहारीपुरा के उत्तर में रामजीद्वारा है, जहाँ महाकवि गो. तुलसीदास को श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीराम के दर्शन हुए थे। रामजीद्वारा के आगे अष्टछाप के कृष्ण भक्त कवि छीतस्वमी का आवास था, इनके वंशज आज भी वहाँ रहते हैं। इन कवियों के अतिरिक्त भी समय-समय पर इस क्षेत्र में अनेक कवि हुए हैं जिन्होंने भारती के भण्डार को भरा है। 

ब्रज विकास परिषद और मथुरा-वृंदावन नगर निगम को इस क्षेत्र का विकास एक साहित्यिक परिक्षेत्र के रूप में करना चाहिए। मारू गली और चूनाकंकड़ मोहल्लों के नाम क्रमश: कविवर नवनीत जी और कविवर ग्वाल के नाम पर रखे जाने चाहिए, यह माँग मैं बहुत समय से करता रहा हूँ। यथा स्थान सम्बन्धित कवियों के संक्षिप्त जीवन वृत्त शिलालेख के रूप में लगने चाहिए जिससे आगे आने वाली पीढ़ियों को उनके विषय में जानकारी मिलती रहे।


डॉ. नटवर नागर, मथुरा (उ. प्र.)

लेखक, पत्रकार एवं शिक्षाविद्

मंगलवार, 3 सितंबर 2024

क्या आप जानते हैं, शाम को फूलों पर बैठी हुई मधुमक्खियाँ बूढ़ी मधुमक्खियाँ होती हैं

 

क्या आप जानते हैं, शाम को फूलों पर बैठी हुई मधुमक्खियाँ बूढ़ी मधुमक्खियाँ होती हैं। 🐝🐝

बूढ़ी और बीमार मधुमक्खियाँ दिन के अंत में छत्ते में वापस नहीं आती हैं। वे रात को फूलों पर बिताती हैं, और अगर उन्हें फिर से सूर्योदय देखने का मौका मिलता है, तो वे पराग या अमृत को कॉलोनी में लाकर अपनी गतिविधि फिर से शुरू कर देती हैं। वे यह महसूस करते हुए ऐसा करती हैं कि अंत निकट है। कोई भी मधुमक्खी छत्ते में मरने का इंतज़ार नहीं करती ताकि दूसरों पर बोझ न पड़े। तो, अगली बार जब आप रात के करीब आते हुए किसी बूढ़ी छोटी मधुमक्खी को फूल पर बैठे हुए देखें... . . .मधुमक्खी को उसकी जीवन भर की सेवा के लिए धन्यवाद दें🐝❣️🐝


मधुमक्खियों से जुड़ी कुछ और बातें: 
 
मधुमक्खियां आमतौर पर अंडाकार आकार की होती हैं और इनका रंग सुनहरा-पीला और भूरे रंग की पट्टियों वाला होता है. 
 
मधुमक्खियां संघ बनाकर रहती हैं और हर संघ में एक रानी, कई सौ नर, और बाकी श्रमिक होते हैं. 
 
मधुमक्खियां नृत्य के ज़रिए अपने परिवार के सदस्यों को पहचानती हैं. 
 
मधुमक्खियां लीची, कॉफ़ी, और कोको जैसे फूलों के परागण में अहम भूमिका निभाती हैं. 
 
मधुमक्खियां चीनी की चाशनी खाना पसंद करती हैं. 
 
मधुमक्खियां अक्टूबर से दिसंबर के बीच अंडे देती हैं. 
 
मधुमक्खियां ज़्यादातर तभी हमला करती हैं जब उन्हें खतरा महसूस होता है. 
 
मधुमक्खियां विषैला डंक मारती हैं.

रविवार, 1 सितंबर 2024

ना उम्र की सीमा हो.... तुर्की की दादी-नानियों का थिएटर ग्रुप जो पर्यावरण बचाने को आगे आया


 तुर्की के छोटे से कस्बे अरलंस्कॉय की 62 साल की दादी मां इन दिनों पूरे देश में चर्चा हैं। इसकी वजह है- उनके द्वारा शुरू किया गया थियेटर ग्रुप। इस ग्रुप में सभी महिलाएं हैं। ग्रुप क्लाइमेट चेंज को लेकर जागरुकता लाने के लिए अलग-अलग जगह पर नाटक का मंचन करता है। इन दिनों ये महिलाएं अपने नए नाटक 'मदर, द स्काय इज पीयर्स्ड की रिहर्सल में व्यस्त हैं। इस महिला थियेटर ग्रुप की प्रमुख उम्मिये कोकाक चाहती हैं कि दुनियाभर में लोग इस समस्या को समझें और गंभीरता से लें। 

कोकाक के काम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहचाना जाता है। 2013 में तुर्की की महिलाओं पर फिल्म के लिए न्यूयॉर्क फेस्टिवल में अवॉर्ड भी मिला था। कोकाक फुटबॉलर क्रिस्टिआनो रोनाल्डो के साथ एड कर चुकी हैं। 

नाटकों का मकसद धारणा बदलना है



कोकाक के मुताबिक, ‘‘क्लाइमेट चेंज सिर्फ उनके कस्बे की नहीं बल्कि पूरी दुनिया की समस्या है। मैं इस समस्या को लेकर जितनी जोर से आवाज उठा सकती हूं, उठाऊंगी। ये दुनिया हमारी भी है। इसे बेहतर देखभाल की जरुरत है। दरअसल, कोकाक इससे पहले भी नाटक लिखती रही हैं। उनके नाटकों का उद्देश्य धारणाओं को बदलना रहता है। इससे पहले उन्होंने गरीबी, अल्जाइमर रोग, घरेलू हिंसा जैसे मुद्दों पर नाटक लिखे हैं। तुर्की के टीवी ड्रामा पर इनकी खासी चर्चा हुई है।’’

महिलाओं की बात सुनी जानी चाहिए



कोकाक का अरलंस्कॉय आना शादी के बाद हुआ। वहां पर उन्होंने देखा कि महिलाएं घर और खेतों में बराबरी से काम करती हैं। उन्हें लगा कि यह ठीक नहीं हैं, इन महिलाओं की बात सुनी जानी चाहिए। वो काफी समय से इस पर काम कर थी। थियेटर ग्रुप इसी का नतीजा है। गांव में कोई हॉल या सेट तो था नहीं, इसलिए कोकाक ने घर के गार्डन में ही रिहर्सल शुरू करवा दीं। धीरे-धीरे इस ग्रुप की चर्चा पूरे तुर्की में फैल गई। अब लोग इन दादी-नानियों को स्थानीय स्तर पर नाटक मंचन के लिए बुलाने लगे हैं। सोशल मीडिया पर उनके वीडियो खूब शेयर हो रहे हैं।

- अलकनंंदा स‍ि‍ंह