एक आम सी मान्यता है कि नंदी बैल थे, तो क्या सच में ऐसा था। सवाल बड़े हैं परंतु जवाब सब के सब अनुमानों में घिरे हुए हैं।
यूं तो माइथॉलॉजिकल उपन्यासकार अमीश त्रिपाठी की "मेलुहा" में नंदी राजा दक्ष के विश्वासपात्र दरबारी थे, उनका आकर विशाल व मोटा व बुद्धि स्थिर थी। हम सभी जानते हैं कि स्थिर बुदधि किसी भी व्यक्ति के प्रभावशाली होने की पहली शर्त होती है। संभवत: इसीलिए शिव के अनंग मित्र के रूप में सामने आए नंदी परंतु इस उपन्यास से हटकर देखें तो नंदी का पौराणिक व्यक्तित्व इससे भी कहीं अधिक बड़ा व महत्वपूर्ण था और वो महत्वपूर्ण कार्य था कामशास्त्र की रचना।
सामान्यत: सनातन व्याख्याओं में नंदी शिव के निवास स्थान कैलाश के द्वारपाल हैं, वे शिव के वाहन भी हैं जिन्हें प्रताकात्मक रूप से "बैल" के रूप में शिवमंदिरों में प्रतिष्ठित किया जाता है। संस्कृत में 'नन्दि' का अर्थ प्रसन्नता या आनन्द है। नंदी को शक्ति-संपन्नता और कर्मठता का प्रतीक माना जाता है इसीलिए वे प्रसिद्ध कामशास्त्र की रचना कर पाए परंतु आमतौर पर अब भी जिस उथ्ज्ञलेपन के साथ "काम" की व्याख्या की जाती है वह इस शास्त्र की अवधारणा से कतई अलग है। ॠषि वात्यायन के कामसूत्र की प्रसिद्धि से सदियों पूर्व ही नंदी ने हमें इस शास्त्र से परिचित करा दिया था।
हिन्दू धर्म के चार सिद्धांत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से काम के कई अर्थ है। काम का अर्थ कार्य, इच्छा और आनंद से है। प्रत्येक हिन्दू को सर्वप्रथम धर्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ब्रह्मचर्य आश्रम इसी से संबंधित है। धर्म और संसार का ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर अर्थ का चिंतन करना चाहिए। सभी तरह के सांसारिक सुख प्राप्त करने के बाद व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होना चाहिए।
भारतीय कामशास्त्र काम अर्थात संभोग और प्रेम करने की कला का शास्त्र है। प्राचीन काल में चार वेदों के साथ ही चार अन्य शास्त्र लिखे गए थे- धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र। चारों शास्त्र ही मनुष्य जीवन का आधार है। चारों से अलग मनुष्य जीवन की कल्पना भी नहीं कही जा सकती। कामशास्त्र पर आधारित ही बहुत बाद में वात्स्यायन ने कामसूत्र लिखा।
शैव परम्परा में नन्दि को नन्दिनाथ सम्प्रदाय का मुख्य गुरु माना जाता है, जिनके ८ शिष्य हैं- सनक, सनातन, सनन्दन, सनत्कुमार, तिरुमूलर, व्याघ्रपाद, पतंजलि, और शिवयोग मुनि। ये आठ शिष्य आठ दिशाओं में शैवधर्म का प्ररसार करने के लिए भेजे गये थे।
कामशास्त्र के अधिक विस्तृत होने के कारण आचार्य श्वेतकेतु ने इसको संक्षिप्त रूप लिखा, लेकिन वह ग्रंथ भी काफी बड़ा था अतः महर्षि ब्राभव्य ने ग्रन्थ का पुनः संक्षिप्तिकरण कर उसे एक सौ पचास अध्यायों में सीमित एवं व्यवस्थित कर दिया। बाद में इसी शास्त्र को महर्षि वात्स्यायन ने क्रमबद्ध रूप से लिखा। कहते हैं कि आचार्य चाणक्य ने ही वात्स्यायन नाम से यह ग्रंथ लिखा था। हालांकि अधिकृत प्रमाण के अभाव में महर्षि वात्स्यायन का काल निर्धारण नहीं हो पाया है। परन्तु अनेक विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के अनुसार महर्षि ने अपने विश्वविख्यात ग्रन्थ कामसूत्र की रचना ईसा की तृतीय शताब्दी के मध्य में की होगी।
बहरहाल भगवान शिव के अनन्य गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय के अलावा के अतिरिक्त नंदी को उनके ज्ञान, कर्तव्यनिष्ठा और समर्पण के लिए गणों में विशेष स्थान प्राप्त है।
नंदी कैसे बने शिव के गण
शिव की घोर तपस्या के बाद शिलाद ऋषि ने नंदी को पुत्र रूप में पाया था। शिलाद ऋषि ने अपने पुत्र नंदी को संपूर्ण वेदों का ज्ञान प्रदान किया। एक दिन शिलाद ऋषि के आश्रम में मित्र और वरुण नाम के दो दिव्य ऋषि पधारे। नंदी ने अपने पिता की आज्ञा से उन ऋषियों की उन्होंने अच्छे से सेवा की। जब ऋषि जाने लगे तो उन्होंने शिलाद ऋषि को तो लंबी उम्र और खुशहाल जीवन का आशीर्वाद दिया लेकिन नंदी को नहीं।
तब शिलाद ऋषि ने उनसे पूछा कि उन्होंने नंदी को आशीर्वाद क्यों नहीं दिया? इस पर ऋषियों ने कहा कि नंदी अल्पायु है। यह सुनकर शिलाद ऋषि चिंतित हो गए। पिता की चिंता को नंदी ने जानकर पूछा क्या बात है पिताजी। तब पिता ने कहा कि तुम्हारी अल्पायु के बारे में ऋषि कह गए हैं इसीलिए मैं चिंतित हूं। यह सुनकर नंदी हंसने लगा और कहने लगा कि आपने मुझे भगवान शिव की कृपा से पाया है तो मेरी उम्र की रक्षा भी वहीं करेंगे आप क्यों नाहक चिंता करते हैं।
इतना कहते ही नंदी भुवन नदी के किनारे शिव की तपस्या करने के लिए चले गए। कठोर तप के बाद शिवजी प्रकट हुए और कहा वरदान मांगों वत्स। तब नंदी के कहा कि मैं उम्रभर आपके सानिध्य में रहना चाहता हूं। नंदी के समर्पण से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने नंदी को पहले अपने गले लगाया और उन्हें बैल का चेहरा देकर उन्हें अपने वाहन, अपना दोस्त, अपने गणों में सर्वोत्तम के रूप में स्वीकार कर लिया।
सुमेरियन, बेबीलोनिया, असीरिया और सिंधु घाटी की खुदाई में भी बैल की मूर्ति पाई गई है। इससे प्राचीनकल से ही बैल को महत्व दिया जाता रहा है। भारत में बैल खेती के लिए हल में जोते जाने वाला एक महत्वपूर्ण पशु रहा है। बैल को महिष भी कहते हैं जिसके चलते भगवान शंकर का नाम महेष भी है।
शिवजी का चरित्र भी बैल समान ही माना गया है
जिस तरह गायों में कामधेनु श्रेष्ठ है उसी तरह बैलों में नंदी श्रेष्ठ है। आमतौर पर खामोश रहने वाले बैल का चरित्र उत्तम और समर्पण भाव वाला बताया गया है। इसके अलावा वह बल और शक्ति का भी प्रतीक है। बैल को मोह-माया और भौतिक इच्छाओं से परे रहने वाला प्राणी भी माना जाता है। यह सीधा-साधा प्राणी जब क्रोधित होता है तो सिंह से भी भिड़ लेता है। यही सभी कारण रहे हैं जिसके कारण भगवान शिव ने बैल को अपना वाहन बनाया। शिवजी का चरित्र भी बैल समान ही माना गया है।
एक बार रावण भगवान शंकर से मिलने कैलाश गया। वहां उसने नंदीजी को देखकर उनके स्वरूप की हंसी उड़ाई और उन्हें वानर के समान मुख वाला कहा। तब नंदीजी ने रावण को श्राप दिया कि वानरों के कारण ही तेरा सर्वनाश होगा।
और अंत में नंदी प्रार्थना –------
ॐ महाकालयम महावीर्यं शिव वाहनं उत्तमम गणनामत्वा प्रथम वन्दे नंदिश्वरम महाबलम्
- अलकनंदा सिंंह
अच्छी जानकारी ! पर अमीश त्रिपाठी जैसे विवादास्पद लेखक की पुस्तकों को प्रामाणिक नहीं माना जाना चाहिए ! बेस्ट सेलर होना अलग बात है ! प्रामाणिकता अलग ! उससे कहीं बेहतर देवदत्त पटनायक हैं !
जवाब देंहटाएंनमस्कार शर्मा जी, धन्यवाद टिप्प्णी देने के लिए, परंतु मैंने अमीष का ज़िक्र महज नंदी के धैर्य को लेकर उदाहरण बतौर किया है। शेष रही बात प्रामाणिकता की तो मेरे हिसाब से पुराणों को ही प्रामाणिक माना जा सकता है न अमीष त्रिपाठी को और ना ही देवदत्त पटनायक को क्योंकि दोनों ही अपने अपने हिसाब से मार्केटिंग करते हुए लिख रहे हैं, इनका ईश्वरीय तत्व से कोई वास्ता नहीं है।
जवाब देंहटाएंगहन जानकारी। यह सब ज्ञात नहीं था।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद प्रवीण जी, बहुमूल्य टिप्पणी के लिए आपका आभार
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29-07-2021को चर्चा – 4,140 में दिया गया है।
जवाब देंहटाएंआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
बेहद रोचक और ज्ञानवर्धक लेख।
जवाब देंहटाएंप्रिय अलकनंदा जी नंदी के संबंध में शोध किये गये तथ्य प्रस्तुत करने के लिए आभार आपका।
धन्यवाद श्वेता जी, लेख का अभिप्राय पूर्ण हुआ
हटाएंगहन जानकारी समेटे विस्तृत पोस्ट।
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ नया जानने को मिला
साभार अलकनंदा जी।
सस्नेह।
धन्यवाद कुसुम जी , आपकी टिप्पणी बहुमूल्य है
हटाएंनयी जानकारी देने के लिए धन्यवाद आपका।
जवाब देंहटाएंअद्भुत अलकनन्दा जी! बहुत ही सुन्दर, विवेचनात्मक इस लेख के लिए अन्तःस्तल से बधाई आपको!
जवाब देंहटाएंइस उत्तम जानकारी हेतु हार्दिक आभार अलकनंदा जी 🙏
जवाब देंहटाएंजिस कुक्कुट भाई को बाहर निकाला जाता वह भयातिरेक से मल-मूत्र विसर्जित कर देता। और हम सभी मृत्युकाल आये बिना ही मृत्युभय से साक्षात्कार कर लेते। वह एक ऐसा काल होता कि भाग जाने का अवसर प्राप्त होने पर भी भयजन्य पक्षाघात की सी इस स्थिति में गतिशून्य हो हम कदाचित काल को ही समर्पित होते। अब यहाँ कोई स्पर्धा, कोई भाव या कोई इच्छा शेष होने का प्रश्न ही नहीं था, एवं हमारा प्रत्येक साथी यथाशीघ्र ही काल को समर्पित हो जाना चाहता था। क्योंकि काल के इस विकराल पंजे का निरंतर सामना करने से इसका ग्रास बन जाना ही श्रेष्ठतम था। समस्त प्राणियों का पोषण करने वाली प्रकृति तो सभी के लिए एक सामान है फिर इतना बड़ा अंतर क्यों.....? यदि आपकी रुचि का हो तो कृपया लिंक पर पूरा पढ़े एवं अग्रेषित करें 🙏
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