रविवार, 5 दिसंबर 2021

कारसेवकों के नरसंहार का सच और मेनस्‍ट्रीम मीडिया की करतूत


 आज 6 द‍िसंबर है, राम मंद‍िर न‍िर्माण के ल‍िए “नींव के पत्‍थर” बन गोल‍ियों का श‍िकार हुए उन कारसेवकों को याद करने का द‍िन भी है आज। बाबरी ढांचे को ढहाने की बरसी और राम मंद‍िर न‍िर्माण का मार्ग प्रशस्‍त करने वाली त‍िथ‍ि के रूप में इत‍िहास में दर्ज हो गई 6 द‍िसंबर और इत‍िहास दर्ज हो गया वह जज्‍बा भी ज‍िसके चलते मंद‍िर न‍िर्माण हेतु तमाम कारसेवकों ने अपनी आहुत‍ि दे दी।

देश का मेनस्‍ट्रीम मीड‍िया इसे सदैव एक आपराध‍िक घटना के रूप में देखता रहा, वह अपनी र‍िपोर्ट्स में न‍ि‍ष्‍पक्षता ला ही नहीं पाया। बतौर मीड‍ियापर्सन हमारे ल‍िए ये बेहद दुखदायी और शर्मनाक रहा क‍ि मेनस्‍ट्रीम मीडिया द्वारा इसे पूरी तरह छ‍िपाया जाता रहा। इस मामले में मीडिया की कोशिश यही रही है कि आम लोगों के सामने कारसेवकों के साथ हुआ अत्याचार सामने न आ पाए।

इतिहास को क‍ितना भी ज़मींदोज़ कर द‍िया जाये लेक‍िन वह ममीज की भांत‍ि एक ना एक अपने ऊपर पड़ी धूल को गुबार बनाकर उड़ा ही देता है। राम जन्मभूमि आन्दोलन के बारे में भी ठीक ऐसा ही होना चाहिए था। पढ़ने वाला हर व्यक्ति यह उम्मीद करता होगा कि उसे पूरी घटना सिलसिलेवार तरीके से बताई जाएगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

पत्रकार‍िता में घटना की न‍िष्‍पक्षता के ल‍िए आवश्‍यक है क‍ि अधूरी जानकारी ना दी जाए क्‍योंक‍ि यह क‍िसी आपराधि‍क घटना को अंजाम देने से कम नहीं। मीड‍िया का ये स‍िंडीकेट अपने पाठकों के प्रत‍ि बेइमान रहा इसील‍िए लगभग आधी जानकारी ही दबा दी गई।

राम मंद‍िर न‍िर्माण के ल‍िए “नींव के पत्‍थर” बने कारसेवकों के ज‍िस नरसंहार की घटना का उल्‍लेख मैं कर रही हूं, वह सन् 1990 की है जब मुलायम सिंह की सरकार थी, और बाबरी मस्‍ज‍िद के गुंबद पर झंडा फहराने वाले कारसेवकों को बेहद भयावह, निर्दयी तरीके से गोल‍ियों से छलनी कर द‍िया गया और इसे मुलायम स‍िंह द्वारा सही भी ठहराया गया। परंतु बिज़नेस स्टैण्डर्ड, द हिन्दू, द प्रिंट, एनडीटीवी, फर्स्ट पोस्ट, बीबीसी द्वारा राम मंदिर पर आधार‍ित लेखों में हर घटना का सिलसिलेवार वर्णन है परंतु कारसेवकों का ‘नरसंहार’ स‍िरे से गायब है।

ये देख‍िए नीचे स्‍क्रीशॉट हैं उन र‍िपोर्ट्स के—-

 

मीडिया ने 2 नवंबर 1990 के दिन हिंदुओं पर हुए भयावह अत्याचार को छुपाने का जो कार्य क‍िया और पत्रकार‍िता को बदनाम क‍िया, वह अब तक जारी हैं। तमाम मीडिया संस्थानों ने श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन के बारे में ख़बरें प्रकाशित की हैं लेकिन इस विवाद के दौरान तत्कालीन उत्तर प्रदेश की मुलायम स‍िंह सरकार द्वारा हिंदुओं पर किए गए अत्याचार का कोई ज़िक्र ही नहीं है।

तो बात मेनस्‍ट्रीम मीड‍िया की वह मुग़ल शासन से लेकर अभी तक तमाम घटनाओं का उल्लेख सिलसिलेवार तरीके से करते हैं लेकिन साल 1990 के दौरान अयोध्या में कारसेवकों पर चलाई गई गोली की घटना का कोई ज़िक्र ही नहीं करते हैं। बिज़नेस स्टैंडर्ड ने अपनी रिपोर्ट में सितंबर 1990 में लाल कृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी का ज़िक्र किया है। इसके बाद सीधे 2 दिसंबर 1992 के दिन हुई विवादित ढाँचे की घटना का ज़िक्र किया है।

घटनाक्रम के अनुसार 1990 में अयोध्या में कारसेवक इकट्ठा हुए थे, तभी समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने मौके पर ओपन फ़ायर का आदेश दे दिया। कारसेवा समिति के अध्यक्ष जगदगुरु शंकराचार्य वासुदेवानंद सरस्वती बताते हैं कि 30 अक्टूबर 1990 को लाखों की तादाद में कारसेवक अयोध्या पहुंचे चुके थे। उन्हें सरकार से इस तरह की सख्ती का अनुमान नहीं था। हालांकि तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के विवादित स्थल पर ‘पंरिदा भी पर नहीं मार सकेगा’ के बयान के बाद लोगों को अनुमान हो गया था कि हालात ठीक नहीं हैं लेकिन तब तक अयोध्या में इतनी भीड़ जमा हो चुकी थी कि उन्हें काबू में नहीं किया जा सकता था। निश्चित समय पर कारसेवा शुरू हो गई और 2 नवंबर को कारसेवकों ने विवादित स्थल पर ध्वज लगा दिया और उसके बाद पुलिस फायरिंग में कई लोग मारे गए, कारसेवा रद्द कर दी गई।

सरकार ने मरने वालों की असल संख्या छिपाने के लिए हिंदुओं की लाशों का अंतिम संस्कार करने की जगह उन्हें दफ़न करवा दिया था। साल 2016 में मुलायम सिंह ने खुद इस बात को स्वीकार किया था कि उन्हें कारसेवकों पर गोली चलवाने का पछतावा है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें मुस्लिम समुदाय के लोगों की भावनाओं का ध्यान रखना था। इस नरसंहार के दौरान ही बाबरी मस्जिद पर पहली बार भगवा ध्वज फहराने वाले कोलकाता के कोठारी बंधु रामकुमार कोठारी और शरद कोठारी ने अपनी जान गंवाई थी।  सरकार के मुताबिक़ वहाँ पर 16 लोगों की मौत हुई थी जबकि असल में संख्या 40 से भी अध‍िक थी।

यह सब ऐसे ही चलता रहता यद‍ि राम मंद‍िर न‍िर्माण के ल‍िए राजनैत‍िक, धार्म‍िक प्रत‍िबद्धता कम हो जाती, हालांक‍ि प्रयास तो बहुत हुए परंतु अब राम मंद‍िर का न‍िर्माण अब मूर्तरूप में हमारे सामने है।

  • अलकनंदा स‍िंंह 

शनिवार, 30 अक्टूबर 2021

‘इंटरनेट का भविष्य’ बताए जा रहे Facebook का ‘मेटावर्स’ आखिर है क्या?


 सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म फ़ेसबुक ने अपनी ब्रैंडिंग में बड़ा बदलाव करते हुए अपना कॉर्पोरेट नाम बदल कर ‘मेटा’ कर लिया है.

कंपनी ने कहा है कि वो जो काम करती है, नया नाम उसे बेहतर तरीके से बताता है.
साथ ही कंपनी सोशल मीडिया के इतर वर्चुअल रियलिटी जैसे क्षेत्रों में अपने काम का दायरा बढ़ाने जा रही है.
फ़ेसबुक ने हाल में घोषणा की थी कि ‘मेटावर्स’ का विकास करने के लिए वो यूरोप में 10,000 लोगों को बहाल करेगी.
मेटावर्स एक कॉन्सेप्ट है, जिसे कई लोग ‘इंटरनेट का भविष्य’ भी बता रहे हैं. लेकिन ये वास्तव में है क्या?
मेटावर्स आख़िर है क्या?
बाहरी लोगों को लग सकता है कि मेटावर्स, वर्चुअल रियलिटी (वीआर) का ही सुधरा हुआ रूप है. हालांकि कई लोग इसे इंटरनेट का भविष्य तक मानते हैं.
वास्तव में कई लोगों को लगता है कि वीआर के लिहाज से मेटावर्स वही तकनीक साबित हो सकती है, जैसा अस्सी के दशक वाले भद्दे फोन की तुलना में आधुनिक स्मार्टफोन साबित हुआ है.
मेटावर्स में सभी प्रकार के डिजिटल वातावरण को जोड़ने वाले ‘वर्चुअल वर्ल्ड’ में दाख़िल होने के लिए कंप्यूटर की जगह केवल हेडसेट का उपयोग किया जा सकता है.
आज वीआर का ज्यादातर उपयोग गेमिंग में होता है.
पर इस वर्चुअल वर्ल्ड का उपयोग व्यावहारिक तौर पर किसी भी काम के लिए हो सकता है. जैसे- काम, खेल, संगीत कार्यक्रम, सिनेमा या बाहर घूमने के लिए.
अधिकांश लोग सोचते हैं कि मेटावर्स का मतलब ये होगा कि हमारे पास स्वयं का प्रति​निधित्व करने वाला एक 3डी अवतार होगा.
पर मेटावर्स अभी तक सिर्फ़ एक विचार है. इसलिए इसकी कोई एक सहमत परिभाषा नहीं है.
अचानक यह बड़ी चीज क्यों बन गई?
डिजिटल वर्ल्ड और ऑगमेंटेड रियलिटी यानी एआर (सच्ची दुनिया को दिखाने वाली उन्नत डिजिटल तकनीक) को लेकर हर कुछ सालों में काफी प्रचार होता है, लेकिन कुछ समय बाद यह ख़त्म हो जाता है.
हालांकि, धनी निवेशकों और बड़ी टेक कंपनियों के बीच मेटावर्स को लेकर बहुत उत्साह है.
और कोई भी यह सोचकर पीछे नहीं रहना चाहता कि कहीं यह इंटरनेट का भविष्य न बन जाए.
वीआर गेमिंग और कनेक्टिविटी में पर्याप्त तरक्की हो जाने से अब ये महसूस हो रहा है कि प्रौद्योगिकी पहली बार वहां पहुंची है, जहां इसके होने की ख़्वाहिश थी.
इसमें फ़ेसबुक क्यों शामिल है?
फ़ेसबुक ने मेटावर्स को अपनी बड़ी प्राथमिकताओं में से एक बना लिया है.
कुछ जानकारों के अनुसार फ़ेसबुक ने अपने ‘ओकुलस हेडसेट्स’ के जरिए वर्चुअल रियलिटी के क्षेत्र में भारी निवेश किया है. इससे यह उसकी प्रतिद्वंद्वी कंपनियों की तुलना में सस्ता हो गया है. हालांकि सस्ता होने से उसे नुक़सान भी है.
फ़ेसबुक सोशल हैंगआउट और वर्कप्लेस के लिए वर्चुअल रियलिटी के कई ऐप भी बना रहा है. इसमें वास्तविक दुनिया के साथ जुड़ने वाले ऐप भी शामिल हैं.
प्रतिद्वंद्वियों को खरीदने के फ़ेसबुक के इतिहास के बावजूद कंपनी का दावा है कि मेटावर्स को “कोई एक कंपनी रातोरात नहीं बना सकती” है. इसलिए उसने मिलकर काम करने का भी वादा किया है.
इसने हाल में, ग़ैर-लाभकारी समूहों को “जिम्मेदारी के साथ मेटावर्स बनाने” में सहयोग देने के लिए 5 करोड़ डॉलर का निवेश किया है. लेकिन फ़ेसबुक का मानना है कि मेटावर्स के दुरुस्त विचार को आकार लेने में 10 से 15 साल लग जाएंगे.
मेटावर्स में और किसकी दिलचस्पी है?
फोर्टनाइट गेम बनाने वाली कंपनी ‘एपिक गेम्स’ के प्रमुख टिम स्वीनी लंबे समय से मेटावर्स के बारे में अपनी उम्मीदों पर बात करते रहे हैं.
इस कंपनी ने अपने गेम के जरिए दशकों पहले के इंटरैक्टिव वर्ल्ड को साझा किया है. वे मेटावर्स नहीं हैं, पर दोनों के विचारों में कुछ समानताएं हैं.
पिछले कुछ सालों में फोर्टनाइट ने अपने उत्पादों का विस्तार किया है. इसने अपने डिजिटल वर्ल्ड के भीतर संगीत कार्यक्रमों, ब्रैंड इवेंट्स आदि का आयोजन किया है.
इससे कई लोग काफी प्रभावित हुए और टिम स्वीनी के मेटावर्स का विज़न सुर्ख़ियों में आ गया.
गेम बनाने वाली दूसरी कंपनियां भी मेटावर्स के विचार के करीब आ रहे हैं.
उदाहरण के लिए रोबलॉक्स. यह बड़े इकोसिस्टम से जुड़े हजारों व्यक्तिगत गेम के लिए एक प्लेटफॉर्म है.
इस बीच 3डी का विकास करने वाले प्लेटफॉर्म ‘यूनिटी’ अपने ‘डिजिटल ट्विन्स’ (सच्ची दुनिया की डिजिटल कॉपी) में निवेश कर रहा है.
वहीं, ग्राफिक्स बनाने वाली कंपनी ‘एनवीडिया’ अपने ‘ओमनीवर्स’ का विकास कर रही है.
कंपनी के अनुसार यह 3 डी ‘वर्चुअल वर्ल्ड’ को जोड़ने वाला एक प्लेटफॉर्म है.
तो क्या मेटावर्स केवल गेम से संबंधित है?
नहीं, ऐसा नहीं है. मेटावर्स को लेकर भले कई विचार हों, लेकिन अधिकांश का मानना है कि इसका विचार मूल रूप से समाज और इंसान को जोड़ने को लेकर है.
उदाहरण के लिए फ़ेसबुक अपने ‘वर्कप्लेस’ नामक वर्चुअल रियलिटी मीटिंग ऐप और ‘होराइजन्स’ नामक सोशल स्पेस को लेकर प्रयोग कर रहा है.
ये दोनों उसके वर्चुअल अवतार का उपयोग करते हैं. वर्चुअल रियलिटी के एक और ऐप ‘वीआरचैट’ को पूरी तरह से ऑनलाइन हैंगआउट और चैटिंग के लिए बनाया गया है.
अपने आसपास की दुनिया से जुड़ने और लोगों से मिलने के अलावा इसका कोई और लक्ष्य या उद्देश्य नहीं है. वहीं अभी कई और ऐप आने वाले हैं.
टिम स्वीनी ने हाल में वाशिंगटन पोस्ट से कहा, “वो एक ऐसी दुनिया की कल्पना कर रहे हैं, जहां कार बनाने वाली कोई कंपनी अपने नए मॉडल का प्रचार करे. और जैसे ही कार के इस वर्चुअल वर्ल्ड में रखा जाए, आप उसे चारों ओर चलाकर परखने में सक्षम हों.”
वहीं जब आप ऑनलाइन खरीदारी करें, तो पहले आप कपड़ों के डिजिटल रूप को आजमाएं. और जब वो आपको जंचे तभी आप उसे खरीदने की सोचें.
क्या मेटावर्स की तकनीक आ गई है?
पिछले कुछ सालों में, वर्चुअल रियलिटी ने एक लंबा रास्ता तय किया है.
अब इस टेक्नोलॉजी में बेहतरीन गुणवत्ता के हेडसेट आ गए हैं. इससे हमारी आंखें वर्चुअल वर्ल्ड की चीजों को 3 डी में देख सकती हैं.
अब यह काफी लोकप्रिय हो गया है. 2020 के क्रिसमस के समय बाज़ार में उतरा ‘ओकुलस क्वेस्ट 2 वीआर’ गेमिंग हेडसेट काफी लोकप्रिय रहा.
नॉन-फंजिबल टोकन यानी एनएफटी से डिजिटल उत्पादों के मालिकों को भरोसे के साथ ट्रैक करने का एक रास्ता मिला है.
इसके तेजी से लो​कप्रिय होने से वर्चुअल इकोनॉमी के काम करने के तरीके का पता अब चल सकता है.
डिजिटल दुनिया के और उन्नत होने के लिए बढ़िया, लगातार और अधिक मोबाइल कनेक्टिविटी की जरूरत होगी.
उम्मीद है कि 5जी के आने के बाद ये ख़्वाहिश भी पूरी हो जाएगी.
हालांकि मेटावर्स का विकास अभी शुरुआती दौर में है.
लेकिन मेटावर्स का विकास यदि संभव हुआ, तो इसके लिए अगले दशक या उससे आगे भी टेक कंपनियों के बीच गजब की होड़ देखने को मिल सकती है.

साभार-BBC

गुरुवार, 30 सितंबर 2021

ड्रग: नस्‍लों को तबाह करने में जुटा है पाकिस्तान-तालिबान नेक्सस

 क‍िसी भी देश की उन्‍नत‍ि व उससे जुड़ी आकांक्षाएं पीढ़ी दर पीढ़ी व‍िरासत में चलती जाती हैं मगर जब देश की जड़ों में मठ्ठा डालने का काम कोई पीढ़‍ी स्‍वयं ही करने लगे तो भला क‍िसी दुश्‍मन के आक्रमण की क्‍या ज़रूरत। इसी तरह हमारी पीढ़‍ियों को बरबाद करने में जुटा है ड्रग माफि‍या और इससे जुड़ा पाकिस्तान-तालिबान नेक्सस। अभी तक इसका न‍िशाना पंजाब और कश्‍मीर होता था परंतु हाल ही में कच्छ, गुजरात के मुंद्रा पोर्ट पर जो 3,000 किलो हाई क्वालिटी की ड्रग हेरोइन ज़ब्‍त की गई उसका केंद्र भारत का दक्ष‍िण भाग था, ऐसा पहली बार हुआ है।

दरअसल, आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा में एम. सुधाकर और उनकी पत्नी जी. दुर्गा पूर्णा वैशाली के नाम पंजीकृत आशी ट्रेडिंग कंपनी के नाम आए व्‍यवसाय‍िक पार्सल में जो हेरोइन पकड़ी गई उसे दस्तावेजों में सेमी-प्रॉसेस्ड टैल्क पत्थर बताया गया था। डीआरआई (Directorate of Revenue Intelligence) ने दोनों को चेन्नई से गिरफ्तार कर 10 दिनों के लिए हिरासत में ले पूछताछ शुरू कर दी है और इसमें कंधार के हसन हुसैन लिमिटेड का नाम सामने आ रहा है, जिसने निर्यात किया था। इसके बाद से सक्र‍िय हुई एजेंस‍ियों ने देश में अहमदाबाद, मुंद्रा, चेन्नै, विजयवाड़ा और दिल्ली में छापे मारे। मुंबई, लखनऊ और नोएडा इकाई के साथ ऑपरेशन को अंजाम देते हुए दिल्ली व एनसीआर इलाके से कई अफगान नागरिकों व एक उज्बेकिस्तान की महिला की गिरफ्तारी की है।

डीआरआई ने आरोपियों के पास से 10.2 किग्रा कोकीन, 11 किग्रा हेरोइन और 38 किलो अन्य मादक पदार्थ बरामद किए गए हैं। डीआरआई का दावा है कि यह गिरफ्तारियां मुंद्रा पोर्ट से बरामद की गई 19000 करोड़ रुपए की हेरोइन के सिलसिले में की गई हैं। सोमवार की देर रात शिमला से दो और अफ गान नागरिकों को गिरफ्तार किया गया जो काफी समय से भारत में रह रहे थे।

यह सब इशारा है क‍ि ड्रग स‍िंडीकेट के जर‍िए मनी लांड्र‍िंग और देशघाती तत्‍वों की जो जुगलबंदी बन रही है, वह अब सुरक्षा एजेंस‍ियां की नजर में आ गई है।

खेप दर खेप 

यूं तो भारत के सीमावर्ती राज्‍य क‍िसी ना क‍िसी तरह ड्रग्‍स तस्‍करी के जाल में पहले से ही जकड़े हुए हैं, ज‍िसमें क‍ि नॉर्थ-ईस्‍ट, पंजाब, कश्‍मीर तो पहले से ही था, अब गुजरात का कच्‍छ क्षेत्र भी शाम‍िल हो गया है। पंजाब में आज भी 860,000 केस ड्रग्स सेवन के होते हैं ज‍िनमें से 53 फ़ीसदी को हेरोइन की लती हैं तो कश्‍मीर में नौजवानों को इसका लती बनाकर आतंकवाद में धकेला जा रहा है। एजेंस‍ियां इस पर लगातार काम भी कर रही हैं, बावजूद इसके ड्रग स‍िंडीकेट का दायरा लगातार बढ़ रहा है। अकेले स‍ितम्‍बर का ही आंकड़ा है क‍ि पंजाब की दो जेलों में ड्रग रैकेट, कर्नाटक में 2.5 करोड़ की ड्रग व आंध्र में ड्रग्‍स ले जा रहा ट्रक ज़ब्‍त, महाराष्‍ट्र में 25 करोड़ और असम में 7 करोड़ की ड्रग पकड़ने के बाद अब गुजरात की ये खेप ज‍िसकी कीमत करीब 21,000 करोड़ रुपये आंकी गई।

बहरहाल, व‍िश्‍व के सबसे बड़े अफ़ीम उत्पादक देश अफ़ग़ानिस्तान की अस्‍थ‍िरता ने पूरे व‍िश्‍व के ल‍िए “हेरोइन” के माध्‍यम से संकटपूर्ण स्‍थ‍ित‍ि बना दी है। आतंकी फंडिंग जहां देश की सुरक्षा के ल‍िए खतरा है तो वहीं हेरोइन की लत से पर‍िवार बरबाद हो रहे हैं। इस व‍िकट स्‍थ‍ित‍ि का सामना हम सरकारों व इस कार्य में जुटी सुरक्षा व जांच एजेंस‍ियों का साथ देकर व अपनों को इससे बचाए रखकर ही कर सकते हैं क्‍योंक‍ि जागरुक नागर‍िक का यही कर्तव्‍य है, इसे न‍िभाना होगा। शेष तो हमारे देश के प्रहरी जाग्रत हैं ही।

-अलकनंदा स‍िंंह

शनिवार, 18 सितंबर 2021

पाप तो इनके सामने आने ही लगे हैं, देखना यह है कि जड़ें कितनी गहरी हैं


हमने अपनी प्राइमरी कक्षाओं में लकड़हारा और भेड़‍िए की कहानी पढ़ी थी ज‍िसमें नानी का भेष रखकर भेड़‍िया मुन्‍नी को खाने की तैयारी करके बैठा था मगर मुन्‍नी की चतुराई और लकड़हारे की सहायता से भेड़‍िये को सबक स‍िखा द‍िया गया।

ठीक इसी तर्ज़ पर हमारे देश की सुरक्षा व समृद्ध‍ि पर घात कर रहे ब्‍यूरोक्रेट और कथ‍ित सामाज‍िक कार्यकर्ता हर्ष मंदर सरीखे भेड़‍ियों की अब पोल खुल रही है मगर कठघरे में अकेले हर्ष मंदर ही नहीं, उनकी पूरी लॉबी आती जा रही है क्‍योंक‍ि इसमें शाम‍िल 25 से ज्यादा “बुद्ध‍िजीव‍ियों” ने मंदर को “शांति और सौहार्द्र” के लिए काम करने वाला बताकर सरकार (ईडी) के ख‍िलाफ एक संयुक्‍त बयान जारी क‍िया है। इस आलोचना पत्र पर हस्‍ताक्षर करने वालों के नाम पढ़कर आप स्‍वयं अंदाजा लगा लेंगे क‍ि ये हो हल्‍ला भी क‍िसल‍िए है और क्‍यों है। इन हस्‍ताक्षरकर्ताओं में योजना आयोग की पूर्व सदस्य डॉक्टर सईदा हमीद, अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद, वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह, कविता कृष्णन, सिटीजन फ़ॉर जस्टिस एंड पीस की सचिव तीस्ता सीतलवाड़ और गैर सरकारी संगठन अनहद की संस्थापक शबनम हाशमी शामिल हैं। जेएनयू, अवार्ड वापसी, भीमा कोरेगांव, 370 की वापसी, सीएए-एनआरसी, हाथरस रेप केस से लेकर द‍िल्‍ली दंगों तक अलग-अलग तरह से ये हमारे सामने आते गए परंतु इस देशघाती जमात की मनीट्रेल और इसका “स‍िरा” अब पकड़ में आया है। देर सबेर ही सही, अब इन कथ‍ित “सामाज‍िक कार्यकताओं” की पूरी लॉबी को समेटना का काम भी शुरू हो चुका है।

यहां से हुई शुरुआत-
मौजूदा मामले में एनजीओ की व‍िदेशी फंड‍िंग पर #FCRABill2020 के आने के तुरंत बाद पूर्व आईएएस हर्ष मंदर के एनजीओ OxfamIndia के सीईओ और CEStudies के कोषाध्‍यक्ष अम‍िताभ बेहर ने गुस्‍से में ट्वीट कर केंद्रीय गृह मंत्री अम‍ित शाह को मानस‍िक द‍िवाल‍िया तक बता द‍िया क्‍योंक‍ि #FCRA Bill पास होते ही उनके OxfamIndiaCEStudies के ह‍ित प्रभाव‍ित हो रहे थे।

गौरतलब है क‍ि OxfamIndia की डोनर ल‍िस्‍ट में #HongKong के संदिग्ध स्रोत, यूके की बार्कलेज, #OakFoundation ने हर्ष मंदर के उक्‍त दोनों एनजीओ को भारी फंड‍िंग की, इसमें मंदर के साथ साथ मानवाध‍िकारों के नाम पर कोर्ट में नक्‍सल‍ियों के केस लड़ने वाली  HRLN के कॉल‍िन गॉन्‍साल्‍वेज की @HRLNIndia संस्‍था भी शाम‍िल है जो गुजरात दंगों के समय से नक्‍सल अभ‍ियानों से जुड़ी हुई है और अब शरणार्थी प्रक्रिया में भारी धोखाधड़ी कर रोह‍िंग्‍याओं को भारत का स्‍थाई नागर‍िक बनाने के हर हथकंडे पर काम कर रही है। इसमें सरकार को @UNHCRAsia के 2 स्टाफ सदस्यों की भी संद‍िग्‍ध भूम‍िका म‍िली है, ज‍िसपर नजर रखी जा रही है।

ब्र‍िटि‍श कंपनी बार्कलेज ने अप्रैल से जून 2020 के दौरान ऑक्सफैम को लगभग 3.25 करोड़ रुपये हस्तांतरित किए जो कि‍ #DelhiRiots में गिरफ्तार दंगाइयों को कानूनी मदद की शर्त पर ही द‍िये गए इसल‍िए गृह मंत्रालय ने इसे भी पूछताछ के दायरे में ले ल‍िया है।

इसके साथ ही दक्षिण दिल्ली में हर्ष मंदर के एनजीओ CEStudies के तहत चलाए जा रहे ‘उम्मीद अमन घर’ और ‘खुशी रेनबो होम’ चिल्ड्रन होम्स की संद‍िग्‍ध गत‍िव‍िध‍ि पर राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) ने संज्ञान ल‍िया और भारतीय दंड संहिता की धारा 188 (लोक सेवक द्वारा विधिवत आदेश की अवज्ञा), किशोर न्याय अधिनियम की धारा 75 और 83 (2) के तहत एक मामला दर्ज करवाया तथा चिल्ड्रन होम्स में पैसों की गड़बड़ी पर इकोनॉमिक ऑफेन्स विंग (EOW) की तरफ से दर्ज FIR की गई। तब जाकर दिल्ली पुलिस की  FIR के आधार पर ईडी द्वारा ये छापा मारा गया।

एनसीपीसीआर ने सुबूतों के साथ बताया क‍ि कैसे‍ लड़कियों के लिए “खुशी रेनबो होम” और लड़कों के लिए बने “उम्मीद अमन घर” को पिछले साल अक्टूबर में न केवल संदिग्ध विदेशी फंडिंग आई बल्‍क‍ि इनमें रहने वाले क‍िशोर क‍िशोर‍ियों को सीएए में प्रदर्शन के ल‍िए भी ले जाया गया। इतना ही नहीं, रोह‍िंग्‍या कैंपों में मदद भी यहीं से जा रही थी।

दोनों चिल्ड्रन होम्स  दिल्ली राज्य सरकार द्वारा वित्त पोषित होने के अलावा, अन्य धर्मार्थ संस्थाओं से भी काफी धन प्राप्त हुआ है, जिसमें एसोसिएशन फॉर अर्बन एंड रूरल नीडी (ARUN-India) और Can Assist Society शामिल हैं। बता दें क‍ि ARUN-India को Islamic Relief Worldwide (IRW) पैसे देता है जबक‍ि Can Assist Society  कनाडाई उच्‍चायुक्‍त के एड्रेस पर रज‍िस्‍टर्ड है जा क‍ि "द‍िल से" कैंपेन के तहत दोनों चिल्ड्रन होम्स को पैसे देते हैं।


इस्‍लाम‍िक कट्टरवाद  के आरोप में जॉर्डन की IRW को जॉर्डन, यूएई, बांग्‍लादेश और इजराइल में मुस्‍ल‍िम ब्रदरहुड जैसे आतंकी संगठनों के साथ काम करने के कारण प्रत‍िबंध‍ित कि‍या जा चुका है और अब ये हर्ष मंदर जैसे लोगों की संस्‍थाओं के माध्‍यम से भारत में भी इस्‍लाम‍िक कट्टरवाद फैलाने के ल‍िए पैसा भेज रही हैं। जानकारों के अनुसार तो ARUN-India और Can Assist ने ही सीएए व‍िरोधी प्रदर्शनकार‍ियों को पैसा द‍िया व प्रदर्शन स्‍थलों पर सारे इंतज़ामात क‍िए।

दरअसल, हर्षमंदर के एनजीओ अब भी जांच के दायरे में ना आते यद‍ि एनजीओ के सीईओ अम‍िताभ बेहर #FCRABill2020 पास होते ही गृहमंत्री पर इस कदर न ब‍िफरते, इसके अलावा सीएए के व‍िरोध प्रदर्शनों में बच्‍चों के शाम‍िल होने पर NCPCR एक्‍ट‍िव ना होती। इन दो इशारों ने हर्ष मंदर और इनके फंडरेजर एजेंस‍ियों व सहयोग‍ियों को अब कहीं से भी राहत म‍िलना मुश्‍क‍िल ही लगता है, फि‍र चाहे कथ‍ित बुद्धि‍जीवी क‍ितना ही हस्‍ताक्षर अभ‍ियान क्‍यों ना चलायें। पाप तो इनके सामने आने ही लगे हैं देखना यह है कि‍ इस काजल की कोठरी में और कौन कौन क‍ितने भीतर त‍क धंसा हुआ है।

- अलकनंदा स‍िंह

http://legendnews.in/harsh-mander-sins-have-started-coming-in-front-of-them-it-remains-to-be-seen-how-deep-the-roots-are/

#FCRABill2020, #CEStudies, #OxfamIndia #Harshmander #HRLNIndia #UNHCRAsia #NCPCR #ARUNIndia #CanAssistSociety #CAA #IRW #SumitraSinghChaturvedi 

मंगलवार, 24 अगस्त 2021

स्‍कॉलर नहीं बना रहे, देश के संग भि‍तरघात की ट्रेन‍िंग दे रहे हैं ये


 


अकसर हम धीमी प्रगत‍ि को “कछुआ चाल” कह कर उसे न‍िकृष्‍टता का जामा पहना देते हैं, परंतु यह भूल जाते हैं क‍ि अंत में व‍िजय धीमी गत‍ि यान‍ि “सतत प्रयास” की ही होती है। हमारे देश पर ग‍िद्ध दृष्‍ट‍ि जमाए दुश्‍मन (परोक्ष व अपरोक्ष) देशों की ओर से जो कोश‍िशें होती रही हैं उस पर कार्यवाही भले ही कछुआ चाल से चलती द‍िख रही हो परंतु हो रही है, और सटीक हो रही है। इस कार्यवाही ने आस्‍तीन के सांपों को सरेआम कर द‍िया है।

कल वामपंथी यलगार पर‍िषद मामले में एनआईए ने जो अपनी ड्राफ्ट र‍िपोर्ट व‍िशेष अदालत में सौंपी हैं उसमें पर‍िषद के ज‍िन इरादों का उल्‍लेख है, उन्‍हें झुठलाया नहीं जा सकता क्‍योंक‍ि देश में जहां-जहां और जब-जब दंगों की स्‍थ‍ित‍ि बनी, वहां हर जगह वामपंथ‍ियों की मौजूदगी रही। देश को भीतर से खोखला करने के इरादों की भयावहता द‍ेख‍िए कि‍ पर‍िषद ने जहां एक ओर जेएनयू और टाटा इंस्‍टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के छात्रों का सहारा लेकर भीमा कोरेगांव, सीएए-एलआरसी और कथ‍ित क‍िसान आंदोलन तक को फाइनेंश‍ियली व मैनपॉवर के संग स्‍पॉन्‍सर क‍िया वहीं झारखंड की पत्‍थरगड़ी, नक्‍सली उग्रवाद और तम‍िलनाडु के स्‍टरलाइट कॉपर प्‍लांट के व‍िरुद्ध प्रदर्शन तक के ल‍िए वामपंथ‍ियों ने चीन द्वारा भारी भरकम फंड‍िंग के बल पर देश में अशांत‍ि, अराजकता और आर्थ‍िक चोट पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।

स्‍टरलाइट कॉपर प्‍लांट बंद कराने में वामपंथी संगठनों की मुख्‍य भूम‍िका रही। ज‍िन कर्मचार‍ियों को मजदूर संगठनों का नेता बनाकर पर्यावरणव‍िद् बताया गया और फरवरी 2018 में चीन समर्थित कार्यकर्ताओं के विरोध के कारण वेदांत स्‍टरलाइट के ख‍िलाफ प्रदर्शन को कोर्ट तक ले जाया गया, क्‍या वो कोई इत्‍त‍िफाक था, नहीं बल्‍क‍ि स्टरलाइट प्लांट जो क‍ि भारत के कुल तांबे का लगभग 40 प्रतिशत उत्पादन करता था को बंद कर दिया गया।

प्लांट के बंद हुए तीन साल से ज्यादा हो चुके हैं। वेदांत स्‍टरलाइट के उच्‍च गुणवत्‍ता वाले तांबे से चीन को भारी नुकसान हो रहा था, उसने भारत में बैठे अपने इन भाड़े के टट्टुओं को लगाकर पूरा प्‍लांट बंद करवा द‍िया क्‍योंकि‍ भारत के इस तांबे के कारण चीन के तांबे की मार्केटवैल्‍यू खत्‍म हो गई थी, अब इस प्‍लांट के बंद होने से चीन और पाक‍िस्‍तान दोनों फायदे में हैं क्‍योंक‍ि बलूच‍िस्‍तान में न‍िकाला जा रहा न‍िम्‍न कोट‍ि का तांबा अपरोक्ष रूप से पाक‍िस्‍तान को परोक्ष रूप से चीन को लाभ दे रहा है। चीन के इशारे पर काम कर रहे वामपंथ‍ियों के बारे में ज्‍यादा सुबूत ढूढ़ने की जरूरत नहीं, सोशल मीड‍िया पर इनके व‍िचार ही यह बताने के ल‍िए काफी हैं क‍ि वो क्‍या सोचते हैं और देश को कहां ले जाना चाहते हैं।

इसके अलावा अभी हम गलवान के वीरों को श्रद्धांजल‍ि दे ही रहे थे क‍ि चीन की स्‍थापना के 100 वर्ष पूरे होने पर भारतीय वामपंथ‍ी नेताओं का उस कार्यक्रम में शाम‍िल होना क्‍या देश व‍िरोध के कोई और सुबूत भी चाहता है।

10,000 पन्‍नों की वि‍स्‍तृत चार्जशीट के बाद एनआईए की ड्राफ्ट र‍िपोर्ट के बाद व‍िशेष अदालत क्‍या फैसला सुनाती है और क‍िसको दोषी अथवा न‍िर्दोष बताती है, यह जानना तो अभी दूर है परंतु इतना अवश्‍य है कि‍ देश के भीतर बैठे दुश्‍मन देशों के ये पैरोकार हमारे बच्‍चों को अपना हथ‍ियार बना रहे हैं, हम सोच रहे हैं कि‍ बच्‍चा जेएनयू में पढ़ रहा है या ट‍िस से सोशल साइंस का व‍िद्वान बनने गया है परंतु वहां तो देशघात की ट्रेन‍िंग दी जा रही है। सरकार और उसकी इंवेस्‍टीगेट‍िव एजेंसी एनआईए जो कुछ देशह‍ित में संभव होगा करेगी ही परंतु हमें भी सचेत रहना होगा क‍ि हम अपने बच्‍चों को “स्‍कॉलर” बनाने की ज‍िम्‍मेदारी आख‍िर क‍िसके हाथों में सौंप रहे हैं। देशह‍ित में सीमापार के दुश्‍मनों से ज्‍यादा इन भीतरघात‍ियों के मंसूबे से आगाह रहने की जरूरत है।

- अलकनंदा स‍िंंह

बुधवार, 18 अगस्त 2021

ये उम्‍मीदों का वजन है… जो व‍िस्‍फोट तक जा पहुंचा है


 कोरोना के चलते टोक्‍यो ओलंप‍िक इस बार कई मायनों में खास रहा, बायोबबल, आरटीपीसीअर र‍िपोर्ट और क्‍वारंटीन जैसी स्‍थ‍ित‍ियों से जूझते ख‍िलाड़ी, एक और बड़ी समस्‍या से जूझते म‍िले और वो था ड‍िप्रेशन। हालांक‍ि इस पर चर्चा कभी व‍िस्‍तार नहीं पकड़ पाई परंतु टोक्‍यो ओलंप‍िक में अवसाद यान‍ि ड‍िप्रेशन के दो उदाहरण सामने आए। एक तो भारतीय कमलप्रीत कौर और दूसरी अमेर‍िकी ज‍िमनास्‍ट सिमोन बाइल्स। हालांक‍ि कमलप्रीत ने ड‍िप्रेशन के बावजूद 65 मीटर से ज्यादा दूर तक चक्का फेंक कर र‍िकॉर्ड बनाया मगर स‍िमोन ने तो ओलंपिक के फ़ाइनल इवेंट से ही खुद को अलग कर ल‍िया और सरेआम यह स्‍वीकार भी क‍िया क‍ि वे अपेक्षाओं के बोझ को और नहीं ढो सकतीं ।

ड‍िप्रेशन से ही जुड़ी फार्मास्युटिकल मार्केट रिसर्च संगठन AIOCD – AWACS  की एक र‍िपोर्ट आई है जो च‍िंता बढ़ाती है क‍ि भारत में एंटी-डिप्रेशन दवाइयों की ब‍िक्री ने तो इस बार र‍िकॉर्ड तोड़ा ही इन दवाइयों के खरीददारों में युवा उपभोक्‍ताओं की संख्‍या ने भी सारे र‍िकॉर्ड ध्‍वस्‍त कर द‍िए। अप्रैल 2019 में 189.3 करोड़ रुपए की एंटीडिप्रेसेंट की बिक्री, जुलाई 2020 में बढ़कर 196.9 करोड़ रुपए से अधिक थी, अक्टूबर 2020 में यह आंकड़ा 210.7 करोड़ रुपए का था, अप्रैल 2021 में 217.9 करोड़ रुपए के रिकॉर्ड के साथ शीर्ष पर पहुंच गया है।

आख‍िर इन आंकड़ों का क्‍या अर्थ है, न्यूरो-कॉग्नेटिव इंहेंसर केतौर पर इस्‍तेमाल की जाने वाली एंटीड्रिप्रेसेंट्स दवा की बिक्री और खपत में 20 प्रतिशत की वृद्धि क्‍यों हुई। इस बार हमें भले ही कोरोना और लॉकडाउन आड़ म‍िल जाए परंतु पहले भी इनकी ब‍िक्री कोई कम तो ना थी। जब एंटी डिप्रेसेंट दवाएं सबसे पहले 1950 में बनी तो पाया गया कि इनका असर तो तुरंत दिखाई देता है, लेकिन साइडइफेक्ट धीरे-धीरे नजर आते हैं, एंटी डिप्रेसेंट्स दिमाग की संरचना बदल रही हैं, न्यूरोट्रांसमीटर में बदलाव आ रहा है। न्यूरोट्रांसमीटर जो न्यूरॉन्स (दिमाग की कोशिका) के बीच रासायनिक संदेशवाहक बनकर संपर्क बनाते हैं और संदेश भेजते हैं, उन्हें अगले न्यूरॉन में लगे रेसेप्टर ग्रहण कर तो लेते हैं परंतु कुछ रेसेप्टर खास न्यूरोट्रांसमीटर के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो सकते हैं या फिर असंवेदनशील भी। एंटी डिप्रेसेंट्स, मूड बदलने वाले न्यूरोट्रांसमीटर्स का स्तर धीरे-धीरे बढ़ाते हैं। असर होने पर समय के साथ मरीज डिप्रेशन से बाहर आने लगता है।

ओलंप‍िक हो या आम युवा, ड‍िप्रेशन का इतना अध‍िक आंकड़ा और उसे ट्रीट करने के ल‍िए दवाओं का सहारा, यह सोचने के ल‍िए काफ़ी है क‍ि आख‍िर हम जा क‍िधर रहे हैं।

मेरा स्‍पष्‍ट मत है क‍ि आज “अपेक्षाओं के भार” से लदी इस पीढ़ी का पहला मनोरोग है- फ्रीडम और प्राइवेसी और दूसरा है क‍िसी अन्‍य की आकांक्षाओं को सामने रख स्‍वयं को स‍िद्ध करने का दबाव। बस , यही वो “रेत पर बनी नींव” है जो अकेलापन, स्‍वार्थी दोस्त, घर-परिवार से आत्मीयता न होना सहन नहीं कर पाती और छटपटाहट में इसका दलदल इन्‍हें इनके ही भीतर की ओर धकेलता जाता है, नतीजा होता है ड‍िप्रेशन यान‍ि क‍ि जीवन की सच्‍चाइयों से पलायन। और इस आग में घी का काम करती है संवादहीनता।

दरअसल जब आप संवाद रखते हैं, थोड़ा झुकना, सुनना-सहना सीखते हैं तो आप में संयम, क्षमता, बल आता है। हममें से हर एक अपने भीतर चुपचाप “सुख के नीर” की खोज में कुआँ खोदता एक मजदूर हैं ज‍िसके भीतर की ज़मीन कभी कभी लाख कोशिशों के बाद भी पानी नहीं उलीचती। कुआँ खोदने वाले को एक रोज़ यही प्यास “ड‍िप्रेशन” बनकर निगल जाती है।
तो ये ड‍िप्रेशन कोई रोग नहीं बस, स्‍वयं से स्‍वयं के ऊपर लादा हुआ वो बोझ है ज‍िसे एंटीड‍िप्रेशेंट नहीं बल्‍क‍ि स्‍वयं की इच्‍छाशक्‍त‍ि से ही कम कर करके हटाया जा सकता है जैसे क‍ि स‍िमोन बाइल्स ने क‍िया तभी तो उनके प्रत‍ियोग‍िता से हटने का सभी ने स्‍वागत कि‍या।

क‍िसी युवा कव‍ि ने क्‍या खूब कहा है क‍ि —-

इस नगर में,
लोग या तो पागलों की तरह
उत्तेजित होते हैं
या दुबक कर गुमसुम हो जाते हैं।
जब वे गुमसुम होते हैं
तब अकेले होते हैं
लेकिन जब उत्तेजित होते हैं
तब और भी अकेले हो जाते हैं।

- अलकनंदा स‍िंंह

शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

ये है “काला नमक” नामक ‘चावल’ की व‍िकास गाथा


कहते हैं जो देश अपनी प्राचीन जीवन शैल‍ियों को पर‍िष्‍कृत करते रहते हैं, वे पीढ़‍ियों को उत्‍तरोत्‍तर व‍िकास का उत्‍तरदाय‍ित्‍व सौंपते चलते हैं ताक‍ि व‍िकास की कोई गाथा अधूरी ना रह जाए और ऐसी ही है हमारी अर्थात् “भारत भूम‍ि” की व‍िकास गाथा।

तो आज ऐसी ही एक व‍िकास गाथा है “काला नमक चावल” ज‍िसकी वो बात साझा कर रही हूं ज‍िसने न‍िर्यात में अब तक के सभी र‍िकॉर्ड तोड़कर महत्‍वपूर्ण उपलब्‍ध‍ि हास‍िल की है। भारतीय संपदा की इस गौरवमयी उपलब्‍ध‍ि को ज‍िस ज‍िजीव‍िषा के साथ हास‍िल क‍िया गया है, वह और भी बड़ी बात है।

जी हां, कभी वैदिक काल में हमारे यहां चावल की चार लाख किस्में पैदा हुआ करती थीं, वैदिक अनुष्ठानों में भी चावल का उल्लेख गेहूँ आदि की तुलना में अधिक किया गया था। वैद‍िक कालीन इत‍िहास के प्रस‍िद्ध लेखक “ए एल बाशम” ने अपनी पुस्‍तक “अद्भुत भारत” में यजुर्वेद कालीन “शतपथ ब्राह्मण” को संदर्भ‍ित करते हुए ल‍िखा है क‍ि ब्रीह‍ि (चावल) का प्रचुर मात्रा में उत्‍पादन होता था, यहां तक कि‍ हस्‍त‍िनापुर के आठवीं सदी पूर्व के मि‍ले अवशेष भी बताते हैं क‍ि चावल का उत्‍पादन भारत भूम‍ि पर अध‍िकाध‍िक होता था।

प‍िछले कुछ दशकों में गलत नीत‍ियों के कारण भारत एक प्‍यासा देश बनता गया और चावल की उत्‍कृष्‍ट फसल के नाम पर स‍िर्फ बासमती ही लोगों की जुबान पर चढ़ सका। बहरहाल, आज की इस खबर ने काला नमक चावल को ही नहीं… भारत की उन 45,107 प्रजात‍ियों को भी नया जीवन दे द‍िया है जो अपने प्रदेश या अपने क्षेत्र तक ही सीम‍ित थीं। खाद्य उत्‍पादों की न‍िर्यात एजेंसी एपीडा के अनुसार न‍िर्यात ने इनकी वैश्‍व‍िक संभावनाओं को पंख लगा द‍िए हैं।

उत्‍तर प्रदेश के पूर्वांचल में पैदा होने वाला काला नमक चावल के ब्रांड “बुद्धा राइस” की तो पश्‍च‍िमी एश‍ियाई देशों के साथ-साथ सिंगापुर, दुबई और जर्मनी में बेहद ड‍िमांड है इसील‍िए पूर्वांचल के 11 जिलों को इसका जीआई टैग मिला है। इसे सिद्धार्थ नगर, गोरखपुर, महराजगंज, बस्ती और संतकरीबर नगर का एक जिला एक उत्पाद (ODOP) भी घोषित कर दिया गया है। यह इन जिलों की नई पहचान है। अब सिर्फ यहीं के किसानों को इसके उत्पादन और बिजनेस का अधिकार होगा।

जियोग्राफिकल इंडीकेशन (जीआईटैग) का इस्तेमाल ऐसे उत्पादों के लिए किया जाता है, जिनका एक विशिष्ट भौगोलिक मूल क्षेत्र होता है। इन उत्पादों की विशिष्ट विशेषता एवं प्रतिष्ठा भी इसी मूल क्षेत्र के कारण ही होती है। जीआई लेने के अलावा इस चावल का प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैराइटी एंड फॉमर्स राइट एक्ट (PPVFRA) के तहत भी रजिस्ट्रेशन करवाया गया है ताकि काला नमक चावल के नाम का दूसरा कोई इस्तेमाल न कर सके।

कृषि क्षेत्र के जानकारों का कहना है कि जैसे हरियाणा, पंजाब में बासमती चावल (Basmati Rice) किसानों की बड़ी ताकत बनकर उभरा है, उसी तरह काला नमक पूर्वांचल की तस्वीर बदलने का काम करेगा। प्राचीन प्रजात‍ि का यह चावल दाम, खासियत और स्वाद तीनों मामले में बासमती को मात देता है।

काला नमक चावल के पक्ष में कई बातें ऐसी जाती हैं जैसे कि‍ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कर्मभूमि है यूपी का पूर्वांचल, वो स्‍वयं भी “काला नमक” चावल के मुरीद हैं। बुद्धा सर्कि‍ट बनने से स‍िद्धार्थनगर यूं भी ऐतिहासिक रूप में गौतम बुद्ध से जुड़ा हुआ है और इसे बौद्ध धर्म के अनुयायि‍यों के देश कंबोडिया, थाइलैंड, म्यांमार, भूटान, श्रीलंका, जापान, ताइवान और सिंगापुर जैसे देशों में प्रमोट करने का काफी फायदा मिल रहा है। इसकी वजह ये है क‍ि कैंसर, अल्जाइमर व डायब‍िटीज के ल‍िए यह रामवाण भोजन है क्‍योंक‍ि इसमें शुगर बहुत कम, जिंक व पोटैशियम की अच्छी मात्रा होने के साथ प्रोटीन, फाइबर, विटामिन बी एवं आयरन व एंटीऑक्सीडेंट भी अधिक होते हैं, जो अन्य किसी चावल में नहीं पाए जाते, इसमें मौजूद फाइबर शरीर को मोटापा व कमजोरी से बचाता है।

गौतम बुद्ध से ऐतिहासिक जुड़ाव
काला नमक धान के बारे में कहा जाता है कि सिद्धार्थनगर के बजहा गांव में यह गौतम बुद्ध (Gautam Buddha) के जमाने से पैदा हो रहा है। इसका जिक्र चीनी यात्री फाह्यान के यात्रा वृतांत में भी मिलता है। इस धान से निकला चावल सुगंध, स्वाद और सेहत से भरपूर है। सिद्धार्थनगर जिला मुख्यालय से लगभग 15 किलोमीटर दूर वर्डपुर ब्लॉक इसके उत्पादन का गढ़ है। ब्रिटिश काल में बर्डपुर, नौगढ़ व शोहरतगढ़ ब्लॉक में इसकी सबसे अधिक खेती होती थी। अंग्रेज जमींदार विलियम बर्ड ने बर्डपुर को बसाया था।

पर्यावरण के ल‍िए भी बासमती की बजाय काला नमक चावल उगाना महत्‍वपूर्ण
काला नमक चावल की किस्म काला नमक 3131 व काला नमक केएन 3 अधिक पैदावार देने वाली किस्म है। ये किस्म काला नमक चावल की इंप्रूव वैरायटी है और उससे ज्यादा खुशबूदार व मुलायम है। इस किस्म में अन्य चावल की किस्मों के अपेक्षा कम पानी लगता है। आम तौर पर एक किलो चावल के लिए करीब 3 से 4 हजार लीटर पानी का इस्तेमाल होता है जबकि इस किस्म में 1 किलो चावल के उत्पादन के लिए करीब 1500 से 2500 लीटर पानी ही लगता है। इसके अलावा प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी अधिक है। अगर 1 हेक्टेयर में बासमती की उपज 21 क्‍विंटल के आसपास होती है तो इसकी उपज 35 से 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।

सबसे पहले एक्सपोर्ट का श्रेय
यूनाइटेड नेशन के खाद्य और कृषि संगठन (FAO) में चीफ टेक्निकल एडवाइजर रह चुके कृषि वैज्ञानिक प्रो. रामचेत चौधरी ने काला नमक चावल को विश्व स्तर पर पहचान दिलवाई, आजादी के बाद पहली बार “2019-20” में 200 क्‍विंटल सिंगापुर गया। वहां के लोगों को पसंद आया, फिर यहां 300 क्‍विंटल भेजा गया। दुबई में 20 क्‍विंटल और जर्मनी में एक क्‍विंटल का एक्सपोर्ट किया गया है, जहां इसका दाम 300 रुपये किलो मिला। इसके बाद तो यह इसी अथवा इससे भी अध‍िक कीमत पर बेचा जा रहा है। हालांक‍ि अभी तो यह शुरुआत है क्‍योंक‍ि बासमती एक्सपोर्ट डेवलपमेंट फाउंडेशन की तरह काला नमक एक्सपोर्ट डेवलपमेंट फाउंडेशन बनाने की जरूरत है ताकि उसकी गुणवत्ता की भी जांच पड़ताल हो सके। एक्सपोर्ट के लिए लगातार इसका प्रमोशन हो क्‍योंकि अभी तक देश के बाहर सिर्फ बासमती की ही ब्रांडिंग है।

- अलकनंदा स‍िंंह