आज मदर्स डे है, और जैसा कि पत्रकारिता व लेखन जगत में ऐसे ”दिवसों ” पर लिखा जाना एक रवायत है तो कायदे से इस रवायत को आज मुझे भी निभाना चाहिए परंतु ऐसा कर नहीं पा रही मैं। आज मैं मांओं को ईश्वर का दर्ज़ा देने में स्वयं को असमर्थ पा रही हूं, इसकी स्पष्ट वजह हैं—लॉकडाउन में शराब की दुकानों के बाहर की बदली तस्वीरें।
Just See the Video Women and Girls in Liquor Que After LockDown
इन तस्वीरों को देखने के बाद अब ये अहसास ना जाने कितनों को हो रहा होगा कि जो जैसा दिखता है या दिखाया जाता है दरअसल वो वैसा होता नहीं। आज मदर्स डे पर उन महिलाओं की तस्वीरें मैं अपने जेहन से नहीं निकाल पा रही जो शराब की दुकानों के सामने कतारें दर कतारें लगाए खड़ी रहीं। कभी मकान को घर बनाने वाली ” ये नारी ” इतनी बदल जाएगी कि उसे उसकी ”तलब” इन लाइनों में लगने से भी नहीं रोक पाएगी, कम से कम इतना तो नहीं सोचा था।
अभी तक एक स्थापित सच ये था कि या तो उच्च वर्ग की या अत्यंत निम्न वर्गीय महिलायें ही शराब का सेवन करती हैं परंतु लॉकडाउन के बाद इस भ्रम की धज्जियां उड़ा दीं गईं लाइन में लगी मध्यमवर्गीय लड़कियों द्वारा। वो मध्यमवर्ग जिसके कांधों पर चलकर भारतीय समाज अपने संस्कारों को अब तक जीवित रख पाया, अब उसी वर्ग की ”ये नारियां” भी शराब की दुकानों पर लाइन में लगी… बोतलों को अपने अंक में समेटे… समाज में हो चुके बड़े बदलाव की पूरी कहानी स्वयं कहे दे रही हैं। ये बदलाव बड़ा है परंतु क्या हमें इस पर खुश होना चाहिए…क्या ये सकारात्मक है… मदर्स डे पर अब हमें इसकी समीक्षा करनी होगी कि शराब की दुकानें खुलने के बाद के ये नजारे मेट्रो सिटीज से लेकर छोटे शहरों तक आम रहे तो आखिर क्यों…।
इन सारे नजारों ने हमें हमारे मूल्यों, संस्कारों के साथ मौजूदा नौजवानों की सोच को पढ़ने का एक अवसर दिया है। इन्होंने हमें बताया है कि पुराने मूल्यों को रिवाइव करना ही होगा ताकि समाज उच्छृंखल न होने पाए और उसके मूल्य भी बचे रहें। महिलाओं की इन लंबी लाइनों ने बताया है समाज को एक चुनौतीपूर्ण रिवाइवल की जरूरत है और जब समाज बदलेगा तो जाहिर है कि कानूनों को भी बदला जाना चाहिए।
अभी तक कानून हर महिला को निर्दोष मानकर काम करता है वहीं समाज भी ”लेडीज फर्स्ट” पर अपने कायदे बनाता है। ये सोच पूरी तरह बदलनी होगी। अब मामला बराबरी का होना चाहिए। माना कि ये तस्वीरें बदलते समय का पूरा सच नहीं परंतु झांकी तो हैं ही, अब ये हमारे ऊपर है कि हम अपने बच्चों को किस तरह की ”लाइन” में देखना चाहते हैं, यह कुल मिलाकर हमारी परवरिश पर निर्भर करता है। आज मदर्स डे पर बस इतना ही। सोचिएगा अवश्य!!!
- अलकनंदा सिंंह
- अलकनंदा सिंंह
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जवाब देंहटाएंअच्छा। ये तो नई बात पता चली मुझे। मुखौटों से और सरल हो गया पहचान छिपाना। यह कोरोना का नया समाजशास्त्र है क्या!
जवाब देंहटाएंकृपया आप समय मिले तो इसे पढ़ें:-
https://waachaal.blogspot.com/2020/04/blog-post_19.html?m=1
अभी तो इस समाजशास्त्र के और भी रूप आने बाकी हैं... उनपर जल्द ही लिखूंगी
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (04 मई 2020) को 'ममता की मूरत माता' (चर्चा अंक-3698) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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रवीन्द्र सिंह यादव
धन्यवाद रवींद्र जी, चर्चामंच में इस पोस्ट को शामिल करने के लिए आभार
हटाएंमातृ दिवस पर सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शास्त्री जी
हटाएंबेहद अफ़सोसजनक
जवाब देंहटाएंजी धन्यवाद अनीता जी, इस लॉकडाउन ने बहुत कुछ दिखाया
हटाएंबहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सतीश जी
हटाएं" वो मध्यमवर्ग जिसके कांधों पर चलकर भारतीय समाज अपने संस्कारों को अब तक जीवित रख पाया, अब उसी वर्ग की ”ये नारियां” भी शराब की दुकानों पर लाइन में लगी… बोतलों को अपने अंक में समेटे… समाज में हो चुके बड़े बदलाव की पूरी कहानी स्वयं कहे दे रही हैं।" ये सच बहुत डरावना हैं। आपने सही कहा - " समाज को एक चुनौतीपूर्ण रिवाइवल की जरूरत है और जब समाज बदलेगा तो जाहिर है कि कानूनों को भी बदला जाना चाहिए।" आज औरत हो कर भी हम औरतों के हरकत से शर्मशार हैं। कभी कभी तो हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि -" क्या हम भारतवासी हैं ?"
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर विचारणीय लेख ,सादर नमन
धन्यवाद कामिनी जी, मैं सोच रही हूं कि इसे एक सीरीज बना दिया जाए ताकि बहुत सारे
हटाएं'' दबेढकों '' को सामने लाया जा सके कि हमेशा देखा हुआ ही सच नहीं होता, सच वो भी होता है जो हम बोलते हुए डरते हैं... और हां ब्लॉग को फॉलो करने के लिए आभार
बहुत सुन्दर
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