अभी भी उनमें रोल वाला कुछ राम बाकी था तो कुछ रावण भी… परंतु डायलॉग थोड़े बदले बदले से थे… दोनों अभी तक कॉस्ट्यूम में थे… मंच की खुमारी और वास्तविकता के दरम्यां दोनों अब भी झूल रहे थे |
एक महीने से रामलीला की जो तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं, उसमें निराहार रहकर राम और रावण की भूमिका निबाहने वाले पात्रों ने पूरे नाट्य-रंग में अपनी धार्मिक कला उड़ेल कर रख दी थी, परंतु हर साल की तरह आज भी वे उसी चौराहे पर हैं…खाली हाथ, भूखे पेट और आयोजकों से पारिश्रमिक पाने की आस में, दो दिन बाद आने का आश्वासन लेकर अपने अपने घर जाने को विवश।
‘लीला’ का खोल अभी पूरी तरह से उतरा नहीं था। मैदान वाला रावण तो हजारों रुपये लगाकर फूंक दिया जाएगा मगर मंच से उतरे इन राम और रावण का क्या…बिना पारिश्रमिक के न राम के घर चूल्हा जलेगा न रावण के बच्चे त्यौहार मना पाऐंगे। इन चिंताओं में तैरते उतराते रामलीला मंच के बगल वाली गली में चाय की दुकान पर दोनों अपनी थकान मिटाने पहुंचे।
मंच का परदा गिरने के बाद अब श्रद्धा और घृणा को एकसाथ निबाहकर दोनों कैरेक्टर से बाहर रीयल लाइफ से दो-चार हो रहे थे। अभी भी उनमें रोल वाला कुछ राम बाकी था तो कुछ रावण भी… परंतु डायलॉग थोड़े बदले बदले से थे… दोनों अभी तक कॉस्ट्यूम में थे… मंच की खुमारी और वास्तविकता के दरम्यां दोनों अब भी झूल रहे थे,
आप भी सुनिए राम और रावण की आपबीती के ये अंश…
रावण का वध करने वाले राम बोले – भाई लीला तो ख़त्म। अब क्या?
रावण बोले- यही सोच रहा हूँ, कि अब क्या ?
राम- सच कहूँ, अब थक गया ये लीला खेलते खेलते।
रावण- ये विष्णु जी और शिवजी जो ना करा दें, ये किया कराया तो सब विष्णु जी और शिवजी का है…एक सारस्वत ब्राह्मण को गत्ते-फूंस-पटाखे में दबवाकर बड़े खुश हो रहे होंगे दोनों।
राम- क्या बताऊं भाई, स्क्रिप्ट ही हमें ऐसी दे दी वरना तू ही बता…बता क्या मैं तुझे मारता?
रावण- बात तो स्क्रिप्ट की ही है भाई, वरना देवी सीता को मैं क्या अपने यहाँ लाता। शिव शिव शिव…(हाथ से क्षमारूप में दोनों कानों को छूता हुआ)
राम- तू भी तो जानता है कि मैं ही कहां सीता जी से इतना दूर रहने वाला था। और वो लव कुश…आज भी टीस होती है।
रावण- पता है भाई, मंदोदरी उस दिन कितना लड़ी थी मुझसे। और देख ना मेरा भी तो अपना बेटा, अपना भाई…।
राम- भाई दिक्कत तो ये है कि हमारे जरिये प्रभु जिन लोगों को शिक्षा देना चाह रहे थे, उन्होंने क्या सीखा?
रावण- आज तो दोनों ही गाली खा रहे हैं। देख ना, तू तो हीरो था, फिर भी तुझे कोसने से बाज नहीं आते लोग ?
राम- मुझे लगता है भाई, पर तेरे अच्छे दिन जरूर आ रहे हैं। पिछले कुछ सालों से लोग तेरे ही गुण ज्यादा गाते हैं। एकाध संस्थाएं भी बन गई हैं, चंदा उगाही करने को। वैसे कहते हैं कि रावण बुराई की खान था और कहीं किसी ने तो नेतागिरी के लिए अपना नाम ही रावण रख लिया।
रावण- ना रे, ऐसा कुछ नहीं है। एक आध गलती से सारे गुण कोई छुप जावें का ! बेवकूफ हैं जो ऐसा करते हैं। हर बात बेबात में कोई वाद ढूंढ़ लेते हैं और फिर विवाद करते हैं। बखान तो यूं देवें, जैसे खुद घणे संत ठहरे।
राम- ये तेरी भाषा को क्या हो गया भाई? बनियों की पैसे वाली रामलीलाएं देखकर तू भी वैसे ही बोलन लग गया।
रावण- अच्छा, जि बात है, अपनी भाषा भी तो देख ले भाई। चल छोड़ इसे, क्या तू तू और क्या मैं मैं, इसमें कुछ ना रक्खा।
राम- सच कहूँ मैं उसी दिन मर गया था, जब तू मरा था। रावण नहीं तो राम का क्या काम! पर भाई, ये बता जब मैंने बुराई का अंत कर दिया था तो फिर ये इतनी बुराई कहाँ से आ गयी? और तो और हर साल ही आ जाती है।
रावण- अब कई रावण हैं भाई। लोग होते रावण हैं, बनकर राम दिखाते हैं। कम से कम हममें ये होड़ तो ना थी। भाई गत्ते के पुतले फूंकना आसान है। अपनी भीतर की लंका कोई नहीं जलाना चाहता।
राम- पर विष्णु जी और शिव जी को क्या हो गया? वो क्यों नहीं कुछ करते।
रावण- बेचारे खुद भी हैरान परेशान हैं अब नीचे वालों की लीला देखकर। कोई नई लीला रचेंगे अब। पता है उस दिन दुखी होकर कह रहे थे, क्या नहीं था इस मनुष्य के पास। मुक्ति तक पहुंचने की ताकत केवल इसी के पास थी। सब सुख थे। फिर भी बेड़ा गर्क किया हुआ है अपना। और हमें भी दुखी करता है।
राम- बड़ा गुस्सा आता है भाई, हमारे नाम को बिगाड़ दिया इन धरती वालों ने।
रावण- मुझे तो केवल राम मार सकता था। लेकिन अब देख ना, मंच पर कैसे कैसे लोग तीर चला रहे मुझ पर।
राम- हाँ भाई, हम तो ऊपर और नीचे वालों की अलग अलग लीला में फंसकर रह गए हैं। जब जी चाहे अपने मतलब साध लेते हैं हमसे लोग।
रावण- नई रामायण रचनी पड़ेगी भाई। आज तुझे मेरे जैसा शरीफ रावण ना मिलेगा।
राम- सच्ची बात, बहुत ज्ञानी है तू भाई। मन से तो तू राम है मेरे भाई।
रावण- चल हम तो लीला कर रहे थे, पर इन नीचे वाले रावणों की कौन सी गति होगी?
राम- कुछ ना पता भाई। देखे जा, अब क्या क्या होगा।
रावण- भाई चल, अब जल्दी चलते हैं, ऊपर पूरा कुनबा इंतज़ार कर रहा होगा हमारा।
राम- हाँ भाई चल, ये कपड़े और ताम झाम सहन नहीं होते अब।
रावण- (दस सिर वाला मुकुट उतारकर रखते हुए) पता है उस दिन एक बच्चे ने देख लिया था, मुझे बिना मुकुट के, खींचकर पापा को लाया देखो दो दो राम, दो दो राम।
राम- अच्छा किया तूने तुरंत ये बुराई का मुकुट पहन लिया वरना मंच पर भसड़ फैल जाती।
रावण- चल भाई, चल। इन कपड़ों की तह करके वापस भी रखने हैं। अगली बार भी तो इन्हें ही पहनना है। और सुन इनमें फिनायल की गोली जरूर डाल देना वरना बनिया हमसे इसके पैसे भी वसूल लेगा…अभी तक गनीमत है कि चाय के पैसे नहीं वसूलता…।
एक लंबी अंगड़ाई लेते हुए दोनों उठे, चलने से पहले एक दूसरे के गले में हाथ डाले और शहरयार की ग़ज़ल का मुखड़ा बड़ी तरन्नुम में उठाया…और चल पड़े…
ये क्या जगह है दोस्तो, ये कौन सा दयार है
हद-ए-निगाह तक जहां गुबार ही गुबार है
ये क्या जगह है दोस्तो…
हद-ए-निगाह तक जहां गुबार ही गुबार है
ये क्या जगह है दोस्तो…
- अलकनंदा सिंह
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