आज मातृदिवस पर कुछ लिखना था तो सोचा वही क्यों ना लिखूं जो कई सालों से मन को बींधता आया है। बाजार और सोशल मीडिया जैसे प्लेटफॉर्म लीक पर चलते हुए बखूबी सारे ''दिवस'' मनाते हैं मगर वे उन प्रश्नों के उत्तर तो कतई नहीं दे पाते जो हमारे लिए बेहद अहम हैं...हमारे लिए यानि बच्चों के साथ-साथ हम मांओं के लिए भी...
यूं तो मैं इस विषय पर तभी से लिखने की सोच रही थी जब से उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पद संभाला और अपनी पार्टी के संकल्प पत्र का एक वायदा पूरा करते हुए एंटी-रोमियो स्क्वायड का गठन किया। एंटी-रोमियो स्क्वायड ने एक ओर जहां स्कूल-कॉलेज और तिराहों-चौराहों के आसपास मंडराने वाले शोहदों को पकड़-पकड़ कर उन्हें उनके घर वालों के सुपुर्द किया गया तो दूसरी ओर कई केस भी दायर किए। हमेशा की तरह विपक्ष के कुछ नेताओं ने इन शोहदों पर दया दिखाई तो कुछ ने इसे स्वतंत्रता में बाधा डालने वाला कदम बताया मगर किसी ने ये नहीं सोचा कि आखिर ये स्थिति आई क्यों? जो काम घर वालों को करना चाहिए था, उसे शासन को क्यों करना पड़ा। हम भले ही इसके लिए कानून व्यवस्था को दोषी मानते रहें मगर सच यह है कि सरकारों से ज्यादा दोष परिवारों का रहा है।
हम चूके हैं, हमारे संस्कार और हमारा पारिवारिक ढांचा चूका है, साथ ही इन सबसे ज्यादा हमारी मांएं चूकी हैं।
बच्चे के भाग्य का निर्माता ईश्वर है तो सांसारिक विधिविधान सिखाने को ''मां'' हैं, मां ही सिखाती है कि किससे कैसे व्यवहार किया जाए। इसीलिए मां को ईश्वर के बच्चे के नौतिक-अनैतिक कार्य की जिम्मेदारी मां की होती है। जब लायक बच्चे का श्रेय सब मां को देते हैं तो उसकी नालायकी का जिम्मा भी उसे अपने ही सिर लेना होगा।
हमारे ब्रज में कहावत भी है ना कि ''चोर नाय चोर की मैया ऐ मारौ''। मांएं अपनी परवरिश व जिम्मेदारी का बोझ सोशल मीडिया या अन्य इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों पर नहीं डाल सकतीं क्योंकि बच्चे तो साधनहीन परिवारों के भी बिगड़ते हैं। तो चूक कहां है, जीवन की निर्मात्री से चूक तो हुई है और अभी भी होती जा रही है। कानून व्यवस्था, पारिवारिक विसंगतियों जैसे बहानों से कब तक मांएं अपने आपको कंफर्ट जोन में रखती रहेंगी।
कुछ दिन पहले निर्भया गैंगरेप का फैसला आया, चारों अपराधियों को फांसी की सजा सुनाई गई। एक दर्दनाक हादसे की मुकम्मल तस्वीर, और इसके दोनों पहलू हमारे सामने। सजा दिलाने वाले और पाने वाले अपने-अपने तरीके से फैसले की व्याख्या कर रहे थे। तस्वीर के एक पहलू में निर्भया की मां कह रही थी कि कोर्ट ने इंसाफ किया और मीडिया ने उस इंसाफ की लड़ाई में उसका भरपूर साथ भी दिया। वहीं फांसी की सजा पाए चारों बलात्कारियों की मांएं कह रही थीं कि हमारे साथ अन्याय हुआ है। दोनों ओर मांएं अपनी अपनी संतानों के लिए दुखी व संतप्त होती रहीं मगर अपराध करने वालों ने ये एक बार भी सोचा कि वो जो कर रहे हैं यदि उनकी अपनी मां उस जगह हो तो...? नहीं, उन्होंने नहीं सोचा तभी तो ऐसे जघन्य अपराध को अंजाम दिया जिसने देश से लेकर विदेश तक हाहाकार मचा दिया।
उनका कृत्य देखकर ही कानून को अपना काम करना पड़ा, यदि मांओं ने अपना काम किया होता और इन अभागों की परवरिश सही तरीके से की होती तो ऐसी नौबत आने का सवाल ही कहां था। इसी प्रकार जब किन्हीं शोहदों को एंटी-रोमिओ स्क्वायड पकड़ती है उंगलियां उनके घर वालों और खासकर मां की ओर भी उठती हैं। इसलिए मानना तो पड़ेगा कि चूक कहीं न कहीं जीवन की निर्मात्री से भी होती है।
हर साल 14 मई को मातृ दिवस मनाने वाले हम, अपनी मांओं के प्रति कृतज्ञता प्रगट करते हैं, करनी भी चाहिए मगर इस कृतज्ञ भाव में वे कर्तव्य नहीं भुलाए जाने चाहिए जो समाज को ''और अच्छा व निष्कंटक'' बना सकें। जिनसे हमारे बच्चे निर्भय होकर सड़कों व गली-चौराहों पर घूम सकें।
मैं भी मां हूं और अपनी मां के कर्तव्यों के कारण, उनकी मेहनत के कारण आज मैं अपने शब्दों को अपने विचारों का माध्यम बना पा रही हूं, जब अपना बचपन अपनी शिक्षा का दौर याद करती हूं तो कई बार ऐसा लगता है कि ये कृतज्ञता शब्द बहुत नाकाफी है मेरी मां के लिए। मगर हमें सिर्फ अपनी-अपनी मां के प्रति कृतज्ञ होने के साथ ही अपने प्रति भी कोई संकल्प लेना होगा ताकि भविष्य में किसी निर्भया को इतनी भयंकर मौत ना मरना पड़े और ना किसी के बेटे फांसी पर झूलें। इसके लिए बहानों को दफन करना होगा। आधुनिकता, संस्कार, शिक्षा और मातृप्रेम में सामंजस्य बैठाना होगा।
चलिए मातृ दिवस पर आप भी पढ़िए निदा फाज़ली की एक बेहद खूबसूरत रचना क्योंकि मां का स्वरूप आज भले ही बदल रहा हो मगर हमारे जीवन में उनकी मौजूदगी ऐसी ही है जैसी कि निदा साहब ने बताई है-
बेसन की सोंधी रोटी
बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका बासन
चिमटा फुँकनी जैसी माँ
बान की खूर्रीं खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी
थकी दुपहरी जैसी माँ
चिड़ियों की चहकार में गूँजे
राधा-मोहन अली-अली
मुर्गे की आवाज़ से खुलती
घर की कुंडी जैसी माँ
बीवी बेटी बहन पड़ोसन
थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिनभर एक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा माथा
आँखें जाने कहाँ गईं
फटे पुराने इक अलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ
- अलकनंदा सिंह
यूं तो मैं इस विषय पर तभी से लिखने की सोच रही थी जब से उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पद संभाला और अपनी पार्टी के संकल्प पत्र का एक वायदा पूरा करते हुए एंटी-रोमियो स्क्वायड का गठन किया। एंटी-रोमियो स्क्वायड ने एक ओर जहां स्कूल-कॉलेज और तिराहों-चौराहों के आसपास मंडराने वाले शोहदों को पकड़-पकड़ कर उन्हें उनके घर वालों के सुपुर्द किया गया तो दूसरी ओर कई केस भी दायर किए। हमेशा की तरह विपक्ष के कुछ नेताओं ने इन शोहदों पर दया दिखाई तो कुछ ने इसे स्वतंत्रता में बाधा डालने वाला कदम बताया मगर किसी ने ये नहीं सोचा कि आखिर ये स्थिति आई क्यों? जो काम घर वालों को करना चाहिए था, उसे शासन को क्यों करना पड़ा। हम भले ही इसके लिए कानून व्यवस्था को दोषी मानते रहें मगर सच यह है कि सरकारों से ज्यादा दोष परिवारों का रहा है।
हम चूके हैं, हमारे संस्कार और हमारा पारिवारिक ढांचा चूका है, साथ ही इन सबसे ज्यादा हमारी मांएं चूकी हैं।
बच्चे के भाग्य का निर्माता ईश्वर है तो सांसारिक विधिविधान सिखाने को ''मां'' हैं, मां ही सिखाती है कि किससे कैसे व्यवहार किया जाए। इसीलिए मां को ईश्वर के बच्चे के नौतिक-अनैतिक कार्य की जिम्मेदारी मां की होती है। जब लायक बच्चे का श्रेय सब मां को देते हैं तो उसकी नालायकी का जिम्मा भी उसे अपने ही सिर लेना होगा।
हमारे ब्रज में कहावत भी है ना कि ''चोर नाय चोर की मैया ऐ मारौ''। मांएं अपनी परवरिश व जिम्मेदारी का बोझ सोशल मीडिया या अन्य इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों पर नहीं डाल सकतीं क्योंकि बच्चे तो साधनहीन परिवारों के भी बिगड़ते हैं। तो चूक कहां है, जीवन की निर्मात्री से चूक तो हुई है और अभी भी होती जा रही है। कानून व्यवस्था, पारिवारिक विसंगतियों जैसे बहानों से कब तक मांएं अपने आपको कंफर्ट जोन में रखती रहेंगी।
कुछ दिन पहले निर्भया गैंगरेप का फैसला आया, चारों अपराधियों को फांसी की सजा सुनाई गई। एक दर्दनाक हादसे की मुकम्मल तस्वीर, और इसके दोनों पहलू हमारे सामने। सजा दिलाने वाले और पाने वाले अपने-अपने तरीके से फैसले की व्याख्या कर रहे थे। तस्वीर के एक पहलू में निर्भया की मां कह रही थी कि कोर्ट ने इंसाफ किया और मीडिया ने उस इंसाफ की लड़ाई में उसका भरपूर साथ भी दिया। वहीं फांसी की सजा पाए चारों बलात्कारियों की मांएं कह रही थीं कि हमारे साथ अन्याय हुआ है। दोनों ओर मांएं अपनी अपनी संतानों के लिए दुखी व संतप्त होती रहीं मगर अपराध करने वालों ने ये एक बार भी सोचा कि वो जो कर रहे हैं यदि उनकी अपनी मां उस जगह हो तो...? नहीं, उन्होंने नहीं सोचा तभी तो ऐसे जघन्य अपराध को अंजाम दिया जिसने देश से लेकर विदेश तक हाहाकार मचा दिया।
उनका कृत्य देखकर ही कानून को अपना काम करना पड़ा, यदि मांओं ने अपना काम किया होता और इन अभागों की परवरिश सही तरीके से की होती तो ऐसी नौबत आने का सवाल ही कहां था। इसी प्रकार जब किन्हीं शोहदों को एंटी-रोमिओ स्क्वायड पकड़ती है उंगलियां उनके घर वालों और खासकर मां की ओर भी उठती हैं। इसलिए मानना तो पड़ेगा कि चूक कहीं न कहीं जीवन की निर्मात्री से भी होती है।
हर साल 14 मई को मातृ दिवस मनाने वाले हम, अपनी मांओं के प्रति कृतज्ञता प्रगट करते हैं, करनी भी चाहिए मगर इस कृतज्ञ भाव में वे कर्तव्य नहीं भुलाए जाने चाहिए जो समाज को ''और अच्छा व निष्कंटक'' बना सकें। जिनसे हमारे बच्चे निर्भय होकर सड़कों व गली-चौराहों पर घूम सकें।
मैं भी मां हूं और अपनी मां के कर्तव्यों के कारण, उनकी मेहनत के कारण आज मैं अपने शब्दों को अपने विचारों का माध्यम बना पा रही हूं, जब अपना बचपन अपनी शिक्षा का दौर याद करती हूं तो कई बार ऐसा लगता है कि ये कृतज्ञता शब्द बहुत नाकाफी है मेरी मां के लिए। मगर हमें सिर्फ अपनी-अपनी मां के प्रति कृतज्ञ होने के साथ ही अपने प्रति भी कोई संकल्प लेना होगा ताकि भविष्य में किसी निर्भया को इतनी भयंकर मौत ना मरना पड़े और ना किसी के बेटे फांसी पर झूलें। इसके लिए बहानों को दफन करना होगा। आधुनिकता, संस्कार, शिक्षा और मातृप्रेम में सामंजस्य बैठाना होगा।
चलिए मातृ दिवस पर आप भी पढ़िए निदा फाज़ली की एक बेहद खूबसूरत रचना क्योंकि मां का स्वरूप आज भले ही बदल रहा हो मगर हमारे जीवन में उनकी मौजूदगी ऐसी ही है जैसी कि निदा साहब ने बताई है-
बेसन की सोंधी रोटी
बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका बासन
चिमटा फुँकनी जैसी माँ
बान की खूर्रीं खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी
थकी दुपहरी जैसी माँ
चिड़ियों की चहकार में गूँजे
राधा-मोहन अली-अली
मुर्गे की आवाज़ से खुलती
घर की कुंडी जैसी माँ
बीवी बेटी बहन पड़ोसन
थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिनभर एक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा माथा
आँखें जाने कहाँ गईं
फटे पुराने इक अलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ
- अलकनंदा सिंह
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