मंगलयान की सफलता से उत्साहित हमारे देश के वैज्ञानिकों ने जैसे हर वो रिाकॉर्ड तोड़ने की ठान ली है जिसे विदेशी वैज्ञानिक हाई-फाई माहौल में अंजाम देते हैं। करोड़ों से लेकर अरबों रुपये तक खर्च कर दिये जाते हैं, नोबेल पुरस्कार तक से सम्मानित किया जाता है, तब जाकर यह निष्कर्ष निकलता है कि याददाश्त को चुनौती देने वाली बीमारी अल्ज़ाइमर के इलाज के लिए दिमाग के सूचनातंत्र को लेकर कुछ अभिनव संकेत मिले हैं जिन्हें 30 साल की खोज के बाद दिमाग में मौजूद 'जीपीएस ' की खोज बताया जा रहा है । निश्चित ही यह खोज अपने अंजाम को हासिल करने के लिए तमाम कोणों और तमाम उच्चस्तरीय शोधों के रास्ते तय करेगी , मगर इससे हटकर हमारे देशी वैज्ञानिकों ने जो कर दिखाया है , वह अपने आप में अनूठा 'हासिल' है।
पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप प्रोग्राम के तहत उच्च प्रौद्योगिकी वाली सीएसआईआर ( वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद) के वैज्ञानिकों ने सेंट्रल ग्लास एंड सेरेमिक रिसर्च इंस्टीट्यूट कोलकाता व तिरूवनंतपुरम की विनिश कंपनी के संयुक्त सहयोग से 3-डी इमेजिंग टैक्नोलॉजी से लैस एक 'ब्रॉड स्पेक्ट्रम कॉनफोकल माइक्रोस्कोप' को बनाकर लाइफ साइंस के क्षेत्र में एक नहीं कई कई मील के पत्थर स्थापित किये हैं।
पहला - जो प्रयोग साढ़े चार करोड़ में अस्तित्व में आ पाता वह मात्र डेढ़ करोड़ में हमारे वैज्ञानिकों ने सामने ला दिया।
दूसरा- इसे खालिस देशी उपकरणों के माध्यम से बनाया गया।
तीसरा- इसकी 3-डी तकनीक अस्पतालों, डायगनोस्टिक सेंटरों और शोध प्रयोगशालाओं में आसानी से प्रयुक्त हो सकेगी, इसके लिए ट्रेनिंग सेशन्स भी चलाये जायेंगे ताकि अप्रशिक्षण कहीं भी इसके प्रयोग में बाधा ना बने।
चौथा - अभीतक 2 डायमेंशनल इमेज ही ली जा सकती थी, परंतु अब इसकी मदद से 3- डी इमेजिंग की जा सकती है।
जी हां, यह आमजन के लिए जानना जरूरी है कि नैनो तत्वों, कणों, जैव पदार्थों की स्टडी के लिए प्रयोग किया जाने वाला यह 'ब्रॉड स्पेक्ट्रम कॉनफोकल माइक्रोस्कोप' एक नैनोमीटर तक के पदार्थ को देख सकता है। चूंकि एक नैनोमीटर , एक मीटर का एक अरबवां हिस्सा होता है तो अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि शरीर में होने वाली बीमारियों के सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म तक अध्ययन और उसके इलाज के लिए परफेक्शन को पाना कितना आसान हो जाएगा।
अब वैज्ञानिकों को इस ब्रॉड स्पेक्ट्रम कॉनफोकल माइक्रोस्कोप के ज़रिये तत्वों की स्पेक्ट्रोस्कोपिक बिहेवियर को समझने में आसानी होगी। इसका सुपर कांटीनम लाइट वाला नेचर कॉनफोकल माइक्रोस्कोपी के लिए बेहद मुफीद होगा वहीं अपनी तेज व चमकदार तरंगों के माध्यम से फ्लोरेसेंस इमेजिंग तैयार करने की विशेषता भी इसमें होगी।
सीजीसीआरआई के डायरेक्टर कमल दासगुप्ता के अनुसार कॉनफोकल माइक्रोस्कोप जिस सुपर कांटीनम लाइट के सोर्स से इमेजिंग करता है , उसको विश्व में कुछ ही मैन्यूफैक्चरर्स द्वारा प्रयोग में लाया जाता है इसीलिए कॉनफोकल माइक्रोस्कोप बनाने वाले भी कम ही हैं।
यही वजह है कि यह काफी महंगा है।
इसके महंगे होने की वजह लेजर -रे टेक्नीक भी है । इस माइक्रोस्कोप में किसी भी ऑब्जेक्ट पर फोकस करने के लिए लेजर टेक्नॉलॉजी का प्रयोग किया जाता है , क्योंकि इसमें पिनहोल से निकलने वाली लेजर-रे की वजह से ही लाइट सीधी सीधी ऑब्जेक्ट पर पड़ती हैं, वह भी बिना छितरे हुए।
इससे पहले यह माइक्रोस्कोप हमारे देश में मौजूद थे मगर ये बेहद महंगे और देश के बड़े नामी गिरामी और गिने चुने अस्पतालों में ही इनसे इलाज में सहयोग लिया जा रहा था। इसके अलावा ये विदेश से ही खरीदे जा सकते थे, वह भी 2 डायमेंशनल टेक्नीक वाले , परंतु अब 3-डी इमेजिंग सुविधा होने और बेहद कम कीमत होने इसका व्यापक प्रयोग हो सकेगा।
अभी तक जानलेवा बीमारियों का पता लगने में होने वाली 'देरी' भी उनके लाइलाज हो जाने के पीछे एक मुख्य कारण हुआ करती थी परंतु अब इस माइक्रोस्कोप के ज़रिये इससे आसानी से पार पाया जा सकता है। बीमारी की मौजूदगी, उसकी विकरालता और इलाज के लिए जरूरी कंडीशन्स तक सब कुछ का बारीकी से अध्ययन करना इस माइक्रोस्कोप से आसान हो जायेगा।
यूं तो फिलहाल यह तिरूवनंतपुरम की एक कंपनी विनिश टैक्नोलॉजी प्राइवेट लिमिटेड द्वारा व्यवसायिक तौर पर बनाया जायेगा परंतु कंपनी ने इसके इस्तेमाल के लिए बेहतर प्रशिक्षण देने और इसे उचित मूल्य पर अस्पतालों , शोध प्रयोगशालाओं और डायगनोस्टिक सेंटर्स को मुहैया कराने पर प्रतिबद्धता जताई है , परंतु इस उत्साही योजना के लिए असली ज़मीन तो ''इसरो'' के मंगलयान की सफलता से रखी जा चुकी है । कम से कम लागत में सर्वोत्कृष्ट कर दिखाने का जज़्बा तो हमारे वैज्ञानिकों ने अभी शुरू किया है...अभी तो बहुत आगे आगे जाना है । निश्चित ही ये संकेत, देश को विश्व का सिरमौर बनाने के ही तो हैं।
- अलकनंदा सिंह