अस्मिता को एक निश्चित ठौर दिलाने के लिए बाहर निकली महिला आज कई प्रश्नों से एक साथ जूझ रही है । इसके लिए घर से बाहर तक फैले अनेक प्रश्नों के चक्रव्यूह हर रोज भेदने पड़ते हैं और इस लक्ष्यभेदन में औरत का हौसला बढ़ा रहे हैं दिल्ली से लेकर मुंबई तक अदालतों के वो निर्णय जिन्होंने बलात्कारियों को सजा देकर विश्वास कायम रखा ।
पिछले दिनों गैंगरेपिस्ट को जिस तरह से अदालतों ने कड़ी सजा सुनाई है वो सुकून तो देते हैं और आशा का संचार व हौसलाअफजाई भी कराते हैं मगर अभी नाकाफी हैं । दरअसल महिलाओं के लिए असुरक्षा का ये सांप जो पूरे देश में लगातार अपना फन फैलाता जा रहा है, वह हमारे देश की अंतर्राष्ट्रीय बुराई का भी एक कारण बन गया है । तभी तो देश की तमाम तरक्कियों पर कुंडली मारे बैठी हमारे कानून और सुरक्षा व्यवस्था की ये एक कमी विश्वभर की औरतों के कान खड़े कर रही है कि भई...भारत मत जाना...वहां तुम्हारी इज़्जत की ऐसी तैसी करने को शोहदे हर तिराहे -चौराहों पर, मेट्रो से लेकर होटल की लॉबी तक खड़े हैं। और तो और महिलाओं के लिए असुरक्षित, विश्व का चौथा देश बन गया है भारत।
जहां तक बात है बलात्कार जैसे घृणित अपराध की जड़ों तक पहुंचने की तो तमाम अन्य अपराधों की भांति बलात्कार भी कानून, समाज, संस्कृति और पारिवारिक मूल्यों के अवमूल्यन का परिणाम है। सामाजिक व मानसिक स्तर पर देखा गया है कि रेप जैसी घटना को अंजाम देने की प्रवृत्ति घर से ही उपजती है। इसे पनपाने में 'हमें क्या मतलब' या 'ये उनका घरेलू मामला है' जैसे जुमलों का भी हाथ होता है। सामाजिक होने की बजाय एकल मानसिकता से महिलाओं के प्रति आक्रामक नज़रिये में इज़ाफा ही हुआ है। जनसंख्या का विस्फोटक होते जाना, शिक्षा का गिरता स्तर, आधुनिक साधनों का बेतरतीब प्रयोग, कुछ ऐसा बढ़ा है कि जैसे बंदर के हाथ में उस्तरा पकड़ा दिया हो । ज़ाहिर है सोचविहीन संस्कारों ने ऐसी स्थिति बना दी कि अब ना बाप बेटी को देख पा रहा है और ना भाई बहन को। भक्ष्य भी और अभक्ष्य...सब-कुछ हवस की आग में भस्म हो रहा है।
कुल मिलाकर स्थिति इतनी विस्फोटक हो चुकी है कि पहले दिल्ली और कोलकाता व मुंबई जैसे औरतों के लिए सुरक्षित माने जाने वाले शहरों में रेप की घटनायें ताबडतोड़ बढ़ीं, फिर छोटे-छोटे शहर भी इसकी जद में आ गये।
इसी संदर्भ में उदाहरण स्वरूप दिल्ली मेट्रो का एक वीडियो सीन मेरे दिमाग में लगातार कौंध रहा है जो सोशल साइट्स के जरिये कुछ फेमिनिस्ट्स ने वायरल किया। इस वीडियो में एक गर्भवती महिला और दो महिलायें अपनी गोदी में बच्चों को लेकर ट्रेन के दरवाजे से सटे पिलर को पकड़े खड़ी हैं और पास की ही 'महिलाओं के लिए आरक्षित सीट' पर बैठे दो युवा लड़के आराम से कान में ब्लूटूथ लगाये म्यूजिक का आनंद ले रहे हैं ...उक्त फेमिनिस्ट ग्रुप ने बाकायदा लोगों से राय मांगी...लोगों ने राय दी भी ...लाइक करने वालों की संख्या देखकर लगा कि अचानक से हमारा समाज इतना सभ्य कैसे हो गया..इत्तिफाकन लाइक करने वालों में ऐसे लोग भी थे जो पहले कभी औरतों के लिए शर्मनाक कमेंट लिख चुके थे...फेमिनिस्ट्स ने उनकी बखिया उधेड़नी शुरू की...तो समझ में आया कि दोहरी मानसिकता वाली प्रवृत्ति भी ऐसे अपराधों के बढ़ाने में एक कारक है।
बलात्कार पहले भी होते रहे हैं ..आगे भी रुकेंगे या नहीं ..फिलहाल तो ऐसा नहीं कहा जा सकता मगर स्वयं औरत में 'अपने शरीर पर अपना अधिकार' वाली जो चेतना आई है, उससे इतना तो हुआ कि अब बलात्कार पर बात तो की जा रही है...विचारों का प्रवाह बना है...अपराध और अपराधी की जड़ों तक पहुंचने का रास्ता बना है..गलत करने पर उसे कड़े दंड का भय इसमें निश्चितत: अपनी निर्णायक भूमिका निभायेगा। औरत की इज्ज़त का मतलब उसके जिस्म से परिभाषित करने की 'स्थापित मानसिकता' को अब आंख दिखाने का वक्त आ गया है।
- अलकनंदा सिंह
पिछले दिनों गैंगरेपिस्ट को जिस तरह से अदालतों ने कड़ी सजा सुनाई है वो सुकून तो देते हैं और आशा का संचार व हौसलाअफजाई भी कराते हैं मगर अभी नाकाफी हैं । दरअसल महिलाओं के लिए असुरक्षा का ये सांप जो पूरे देश में लगातार अपना फन फैलाता जा रहा है, वह हमारे देश की अंतर्राष्ट्रीय बुराई का भी एक कारण बन गया है । तभी तो देश की तमाम तरक्कियों पर कुंडली मारे बैठी हमारे कानून और सुरक्षा व्यवस्था की ये एक कमी विश्वभर की औरतों के कान खड़े कर रही है कि भई...भारत मत जाना...वहां तुम्हारी इज़्जत की ऐसी तैसी करने को शोहदे हर तिराहे -चौराहों पर, मेट्रो से लेकर होटल की लॉबी तक खड़े हैं। और तो और महिलाओं के लिए असुरक्षित, विश्व का चौथा देश बन गया है भारत।
जहां तक बात है बलात्कार जैसे घृणित अपराध की जड़ों तक पहुंचने की तो तमाम अन्य अपराधों की भांति बलात्कार भी कानून, समाज, संस्कृति और पारिवारिक मूल्यों के अवमूल्यन का परिणाम है। सामाजिक व मानसिक स्तर पर देखा गया है कि रेप जैसी घटना को अंजाम देने की प्रवृत्ति घर से ही उपजती है। इसे पनपाने में 'हमें क्या मतलब' या 'ये उनका घरेलू मामला है' जैसे जुमलों का भी हाथ होता है। सामाजिक होने की बजाय एकल मानसिकता से महिलाओं के प्रति आक्रामक नज़रिये में इज़ाफा ही हुआ है। जनसंख्या का विस्फोटक होते जाना, शिक्षा का गिरता स्तर, आधुनिक साधनों का बेतरतीब प्रयोग, कुछ ऐसा बढ़ा है कि जैसे बंदर के हाथ में उस्तरा पकड़ा दिया हो । ज़ाहिर है सोचविहीन संस्कारों ने ऐसी स्थिति बना दी कि अब ना बाप बेटी को देख पा रहा है और ना भाई बहन को। भक्ष्य भी और अभक्ष्य...सब-कुछ हवस की आग में भस्म हो रहा है।
कुल मिलाकर स्थिति इतनी विस्फोटक हो चुकी है कि पहले दिल्ली और कोलकाता व मुंबई जैसे औरतों के लिए सुरक्षित माने जाने वाले शहरों में रेप की घटनायें ताबडतोड़ बढ़ीं, फिर छोटे-छोटे शहर भी इसकी जद में आ गये।
इसी संदर्भ में उदाहरण स्वरूप दिल्ली मेट्रो का एक वीडियो सीन मेरे दिमाग में लगातार कौंध रहा है जो सोशल साइट्स के जरिये कुछ फेमिनिस्ट्स ने वायरल किया। इस वीडियो में एक गर्भवती महिला और दो महिलायें अपनी गोदी में बच्चों को लेकर ट्रेन के दरवाजे से सटे पिलर को पकड़े खड़ी हैं और पास की ही 'महिलाओं के लिए आरक्षित सीट' पर बैठे दो युवा लड़के आराम से कान में ब्लूटूथ लगाये म्यूजिक का आनंद ले रहे हैं ...उक्त फेमिनिस्ट ग्रुप ने बाकायदा लोगों से राय मांगी...लोगों ने राय दी भी ...लाइक करने वालों की संख्या देखकर लगा कि अचानक से हमारा समाज इतना सभ्य कैसे हो गया..इत्तिफाकन लाइक करने वालों में ऐसे लोग भी थे जो पहले कभी औरतों के लिए शर्मनाक कमेंट लिख चुके थे...फेमिनिस्ट्स ने उनकी बखिया उधेड़नी शुरू की...तो समझ में आया कि दोहरी मानसिकता वाली प्रवृत्ति भी ऐसे अपराधों के बढ़ाने में एक कारक है।
बलात्कार पहले भी होते रहे हैं ..आगे भी रुकेंगे या नहीं ..फिलहाल तो ऐसा नहीं कहा जा सकता मगर स्वयं औरत में 'अपने शरीर पर अपना अधिकार' वाली जो चेतना आई है, उससे इतना तो हुआ कि अब बलात्कार पर बात तो की जा रही है...विचारों का प्रवाह बना है...अपराध और अपराधी की जड़ों तक पहुंचने का रास्ता बना है..गलत करने पर उसे कड़े दंड का भय इसमें निश्चितत: अपनी निर्णायक भूमिका निभायेगा। औरत की इज्ज़त का मतलब उसके जिस्म से परिभाषित करने की 'स्थापित मानसिकता' को अब आंख दिखाने का वक्त आ गया है।
- अलकनंदा सिंह
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